solahavan sal - 4 in Hindi Children Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | सोलहवाँ साल (4)

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सोलहवाँ साल (4)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग चार

मैं ग्यारह वर्ष की हो गई। लम्बा कद, अच्छा स्वास्थ्य होने से सयानी लगने लगी। कक्षा छह की छात्रा थी। मम्मी मुझे रातदिन समझाती रहती- चाहे बच्चा हो या बूढ़ा, हर पुरूष से एक दूरी बना के रखना चाहिये। न आप किसीको छुओ न कोई आपको छू पाये। जब भी कहीं बैठो संभल के बैठो, ऐसा न हो कि लापरवाही से टेड़े मेड़े बैठ जाओ और आप के कपड़े हवा में उड़ने लगें।

इन दिनों दमयन्ती मौसी का आना जाना हमारे घर में अधिक हो गया था ।

मैं प्रायः देखती कि पापा किसी न किसी बहाने दमयन्ती मौसी को अपने पास बुला लेते हैं और दोनों हंसते हुऐ बातें करते रहते है। यह मुझे अच्छा नहीं लगता।

दोपहरी का समय था। मम्मी और अपने कमरे में सोई थीं। पापा अपने कमरे में कुछ किताबें पलट रहे थे। मैं संजू भैया को खिला रही थी। जिससे वह मम्मी को सोने दे। दमयन्ती का हमारे घर चक्कर लगा। उसने इधर उधर झाँका और सूना घर समझकर पापा के कमरे में पहुँच गई। क्षणभर बाद ही वह सहमी सी उस कमरे से बाहर निकली। मुझे सामने देखकर चौकते हुए बोली- ‘‘री, तू यहाँ क्या रही है ?

मैंने उसे उत्तर दिया-‘‘संजू भैया को खिला रही हूँ जिससे मम्मी को सोने दे।’’

उसने सिर झुकाते हुये कहा- ‘‘ठीक है उन्हें सोने दे, मैं तो चली।’’

यह कहते हुए वह घर से बाहर निकल गई। मैं महसूस कर रही थी, कहीं कुछ गलत हो रहा है जो ठीक नहीं हो रहा है। अभी तक मैं यह नहीं जानती थी कि मेरे अन्दर कोई नारी छिपी बैठी है। अब मन पुरुष और नारी में भेद जानने का प्रयास करने लगा था । मेरा मन मम्मी और दमयन्ती का सूक्ष्म निरीक्षण करने लगा। उनके कार्य कलापों पर नजर रहने लगी। औरत अपने नजदीकी पुरुषों के सामने अपने किसी पर्दे का प्रयास ही नहीं करतीं। बात सीधी-सीधी कहूँ- ‘‘ब्लाऊज बदलने के उद्देश्य से मेरी मम्मी पापा के कमरे में जाती तो ठीक सामने धड़ल्ले से अपना ब्लाऊज उतारती और बिना पर्दा किए दूसरा पहनने लगतीं। लेकिन दूसरी कोई भी महिला हो वह नहान घर में जाकर कपड़े बदलती।

एक दिन दमयन्ती मेरे पास अकेली थीं। वह अपनी भावनाओं को प्रकट करते हुये बोलीं-‘‘केशव मुझसे बहुत प्यार करता है। केदार और सुरेश मेरे पीछे चक्कर काट रहे हैं तीनों ही मुझ पर अपना सर्वस्व अर्पण करने को तैयार हैं।’’

उसकी ऐसी बातें सुनकर मुझे व्यंग्य सूझा, बोली-‘‘तू तो द्रोपदी बन जा। उनके पाँच पति थे। तू इन सब की पत्नि बनकर नया इतिहास रच।’’

‘‘यार सुगंधा तू तो मजाक करने लगी। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है किसको कैसे समझाऊँ ?’’

मैंने उसे समझाया, ‘‘समझाना क्या है?सभी प्यार करने बालों को लेकर भाग जा ।’’

वह समझी ही नही कि हम उसकी हंसी उड़ा रहे हैं और ष्खुश होती हुई वहां से चली गयी।

आज उसकी बातों पर विचार करती हूँ-युवावस्था में आदमी के रक्त का प्रवाह इस तरह के सोच को जन्म देता है। हर आदमी किसी न किसी बहारेइन्द्र के द्वारा गौतम पत्नी अहिल्या को धोखे से छला। विश्वामित्र जैसे महान तपस्वी मेनका के प्यार में खो गए। पुरातन युग की तरह आज भी वैसा ही देखने को मिल रहा है, सुना है बड़े- बड़े नामधारी संत महात्मा पथच्युत हो रहे हैं।

दमयन्ती और पापा के आचरण देखती हूँ तो लगता है पापा को डाँट दूँ। दमयन्ती को धक्के देकर घर से बाहर निकाल दूँ। मम्मी को सारी बातें बतला दूँ। यों मम्मी से कहने का मन बनाती............. और मम्मी के पास जा पहुँचती। उस समय मेरा दिल बुरी तरह धडकने लगता। कैसे कहूँ, कैसे न कहूँ ? इस द्वन्द्व में लम्बे समय से संजोया साहस विलीन हो जाता । .......... और मैं मन में पाली व्यथा लिए वापस लौट आती ।

मन में शंका का दरवाजा खुला तो खुलता ही चला गया। दिन रात शंका की सच्चाई जानने में समय व्यतीत होने लगा। कान घर के हर कोने से खुसर- पुसर की आवाजें सुनने के लिए व्यग्र रहते। रात बिस्तर पर जाती तो यही सब सोचते हुए सेा जाती।

इस सोचने में कभी अपने आपको धिक्कारती-‘‘कोई पुत्री अपने पिता पर मेरी तरह शंका न करती होगी लेकिन क्या करूँ ? जो कुछ अनुभव कर रही हूँ उसे किस नदी में प्रवाहित कर दूँ ।’’

इन दिनों मुझे लगने लगा-‘शंका का कारण मेरा अपना स्वभाव है। सारा दोष मेरे मन का हैं। मन ही सभी स्थायी भावों की जड़ है। अब जिधर भी दृष्टि जाती है। हर कहीं नई नई शंकाऐं उठ खड़ीं होती हैं। मम्मी भी दोषी दिखाई दे रही हैं-‘‘कहीं मम्मी ही देखते हुए भी अनदेखा तो नहीं कर रही है । मैं देखती हूँ उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं है। दमयन्ती मौसी से वे अपनी सगी छोटी बहन की तरह व्यवहार करती हैं। हो सकता हैं सब दिखावा हो ।’’

इस तरह सोचते हुये मैं अपने आप को घुन की तरह घुनती रही।

मैं विचारों में खोई सीढ़ियों से उतर कर चौक में खिड़की के पास से निकली खुसर-पुसर की आवाज कानों में पड़ी, दिल धड़कने लगा-पापा और दमयन्ती एक कमरे में, मेरा खड़की में से झाँकने का साहस नहीं हुआ। मैंने मम्मी को खोजने इधर-उधर नजर घुमाई। वे घर में नहीं थीं। मेरी आहट पाकर दमयन्ती कमरे से बाहर निकलते हुए बोली- ‘‘सुगंधा तुम्हारे पापा तो पागल है। बही- खातों के बैग को ऊपर टाँड़ पर चढ़ाने की क्या आवश्यकता थी ? उनके कहने से मैं उसे नीचे न उतारवाती तो कहते, दमयन्ती कहा नहीं मानती।’’

यह कहते हुए वह मेरे पास से निकलकर चली गई थी ।

मैं ऊपर पहुँने के लिए धम्म- धम्म करते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। ऊपर टीनशेड में पहुँच गई। अब खटिया पर पसर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं सूझ रहा था।

इस घटना के पश्चात मेरा मन दमयन्ती से पूरी तरह टूट गया। अब वह मेरे सामने आती, मेरे चेहरे पर उसके लिए घृणा के भाव उभर आते। मैंने उससे बोलना बन्द कर दिया। अब वह घर आती मैं इघर उघर हो जाती। वह मेरी इस भावना को समझ गई और मेरे से बात करने की तुकतान में रहने लगी।

एक दिन मैं ऊपर की मंजिल में अकेली थी। दमयन्ती मेरे पास आकर बोली-‘‘सुगंधा तू मेरे से नाराज है। तू जैसा सोच रही है वैसी कोई बात नहीं है, फिर तेरे पापा थोड़ी हँसी मजाक में कुछ कह देते हैं तो मैं उनकी बात हँस कर टाल देती हूँ।’’

उसे जो कहना था, वह एक साँस में कह कर अपने घर चली गई।

जब मन में उलझन पल जाती है। मन बोझिल रहने लगता है। मन को हल्का करने के लिए किसी मित्र की तलाश शुरू हो जाती है। यों नये मित्र की खोज शुरू हो गई।

किशोर अवस्था में विश्वसनीय मित्रों की पहचान कठिन होती है।

मम्मी के उपदेश याद आने लगे-‘‘सहेली सोच समझकर बनाना चाहिये। जिसे तुम मित्र समझ रही हो कहीं वह जहरीली नागिन तो नहीं है। ’’इसके साथ वे यह भी जोड़ देतीं, ‘‘धीरज धरम मित्र अरू नारी आपतकाल परखिये चारी।’’

इन्हीं विचारों में खोई थी कि मेरी दृष्टि अंजना पर चली गई। वह मुझ से उम्र में बड़ी थी। उसके घर के लोग उसे अंजू कह कर बुलाते हैं।

उस की कुछ बातों ने मुझे अंजना के नजदीक ला दिया।

मेरा अंजना के साथ बैठना- उठना शुरू हो गया। शुरू में मन की बातें उससे कहने में संकोच लगा। धीरे धीरे हम दोनों खुलने लगीं। खुलने की पहल अंजना ने ही शुरू कर दी। इससे मुझे लगा, उसे भी मेरी तरह सहेली की तलाश होगी।बातें

प्रारम्भ में मुझे उसमें गुण ही गुण नजर आये। उसके हँस-हँस कर बातें करने में फूल झड़ते हैं। जब वह चलती है हिरनी की तरह उछलती सी चलती है। मैं उसकी चाल पर फिदा हो गई। मैं भी उसकी तरह चलने का अभ्यास करने लगी थी।

एक दिन मैंने दमयन्ती से अंजना की प्रशंसा की तो वह बोलीं- ”वह आवारा तुझे अच्छी लड़की लगी। आश्चर्य! तुझे पता है वह कहीं इसके कहीं उसके घर में घुसी रहती है। पढ़ने- लिखने में उसका मन लगा नहीं। वह मिडिल पास भी नहीं कर पायी।”

उनकी ये बातें सुनकर मुझे लगा दमयन्ती अन्जू से जलती हैं, मुझे सोचते हुए देखकर वह बोली-‘‘तू अभी कुछ नहीं जानती। किसी दिन वह तुझे ऐसा गच्चा देगी कि तू तिलमिला कर रह जायेगी।

एक दिन मैंने अन्जू से पूछा-‘‘री, तेरे बारे में बड़ी खराब-खराब बातें सुनने को मिल रही हैं।’’

अन्जू ने सफाई दी-‘‘देख सुगंधा भगवान किसी को गरीबी न दे। लोग ऐसी बातें हम गरीबों के बारे में नहीं कहेंगे तो क्या तेरे बारे में कहेंगे तेरे बारे में कोई कुछ कह कर तो देखले, तेरे पापा उसकी खाल खीच लेंगे ।................अच्छा सुगंधा सच-सच बता ऐसी बातें मेरे बारे में कौन कहता है ?’’

मैं मन ही मन पश्चाताप करने लगी - इससे यह बात क्यों पूछ ली ? अब इसे सफाई दो, चूंकि उत्तर देना ही था इसलिए बोली- ‘‘कोई नहीं। वह तो मैंने तेरा मन लेने के लिए यह बात मन से बना कर कह दी।’’

‘‘झूठ बिल्कुल झूठ। मेरे बारे में ऐसी बातें दमयन्ती ही कह सकती है। ’’

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