ichchha - 12 in Hindi Fiction Stories by Ruchi Dixit books and stories PDF | इच्छा - 12

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इच्छा - 12

अखिर बेचैनी का मंजर थोड़ा बदला, धीमी रफ़्तार से आती हुई ट्रेन को देखकर | इच्छा ट्रेन के रूकने से पहले ही अपने दोनो बच्चो को लेकर ट्रैक पर पहुँच जाती है | ट्रेन के रूकते ही भीड़ को सम्भालते हुए पहले बच्चो को अन्दर करती है, तत्पश्चात भीड़ मे खुद को सम्भालती हुई , स्वयं भी ट्रेन मे प्रवेश कर जाती है | भीड़ की धक्का- मुक्की उन्हे स्लीपर क्लास बोगी मे पहुँचा देती है, जहाँ सौभाग्यवश इच्छा को बच्चों सहित खड़ा देख लोअर सीट पर बैठे एक व्यक्ति ने अपने पास बैठा लिया | तत्पश्चात इच्छा को खड़े देख बोला ,
"मैम आप भी बैठ जाईये ! दो स्टेशन बाद मै उतर जाऊँगा |उस व्यक्ति के ऐसा कहने पर इच्छा भी बच्चो के बगल मे बैठ जाती है | तभी सामने एक दम्पति जो अपने दो बच्चो के साथ मे लगभग इच्छा के बच्चो की उम्र के बराबर ही होंगे,
सामने वाली तीन सीटो पर जो लोअर से लेकर अपर तक समान अवस्था मे थी | ऊपर की दोनो सीट पर बच्चे और नीचे पति -पत्नि बैठे पॉपकॉर्न का आनन्द ले रहे थे | उन्हे देख कर ऐसा लग रहा था , कि इच्छा का बैठना उन्हे अच्छा नही लगा | शायद इसका कारण उस सीट पर उन्होने पहले से ही नजर गड़ा रख्खी थी | इच्छा के वहाँ बैठने से उनकी उम्मीदो पर मानो पानी फिर गया हो जैसे | उस सीट पर बैठा व्यक्ति जो दो स्टेशन के बाद उतरने वाला था, थोड़ी देर के लिए अपनी सीट से उठकर वाशरूम की तरफ जाता है, इसी दौरान दम्पति कभी इच्छा की तरफ देखते तो कभी आपस मे ही खुसर - फुसर करने लगते | काफी देर तक लगभग यही क्रम चलता रहा कि अचानक उसकी स्त्री इच्छा से बोल पड़ी "बहन जी यह सीट हमारी है | जब हमे सोना होगा तब आपको यह सीट छोड़नी पड़ेगी | " इच्छा ने स्वीकृति जताते हुए हाँ मे अपना सिर हिला दिया | जल्द ही दो स्टेशन के बाद तीसरे स्टेशन पर उस सीट पर बैठा व्यक्ति ट्रेन से उतर जाता है | लगभग दो घण्टे बाद टी सी टिकट चेक करने आता है | उस समय इच्छा को पता चलता है , कि जिस सीट पर वह बैठी थी ,वह उन दम्पति की थी ही नही , उनके इस बर्ताव से इच्छा को अपनी एक पिछली घटना याद आ गई , बात उस समय की थी, जब वह पहली बार अपने पिता जी के साथ एक ऐसी ही ट्रेन से घर जा रही थी , उस समय भी स्लीपर क्लास ही थी , फर्क यह था कि, सीट कन्फर्म थी | उसी समय एक परिवार जिनकी पच्चीस दिन पहले की टिकट वेटिंग लिस्ट मे ही चल रही थी | दम्पति के साथ लगभग इच्छा के बराबर ही एक बेटी थी उनकी | उसी बोगी मे दाखिल होकर
एक ऐसे स्थान की तलाश करने लगे , जहाँ खचाखच भरी उस ट्रेन के डिब्बे मे फ्लोर पर चद्दर बिछाकर बैठा जा सके| ट्रेन मे भीड़ इस कदर थी कि , सीट तो सीट फ्लोर पर भी सबने कब्जा कर रख्खा था | सभी समय की मजबूरियों मे बँधे थे | सब एक जैसी ही समस्या से जूझ रहे थे , मई का तीसरा सप्ताह चल रहा था | बच्चों की छुट्टियों के साथ सबको अपने घर अथवा गाँव जाना था | इनमे अधिकतर वे लोग थे, जो शहर केवल रोजगार की तलाश मे आये थे| और सुविधाओ के चलते बीवी बच्चों सहित किराये का मकान लेकर रहने लगे | अपने शहर ,अपने लोगो से मिलना और समय का आभाव ,यही समस्या लगभग हर किसी के साथ थी | इच्छा की बगल वाली सीट पर जो दम्पति बैठे थे, वह इलाज करवाकर अपने घर वापस जा रहे थे | हालात ऐसे थे कि बाथरूम जाने के लिए भी लोगो के ऊपर से गुजरना पड़ता| इच्छा और उसके पिता जी दोनो की ही लोअर बर्थ ही थी | सौभाग्यवश उनके बीच का फ्लोर(दो सीटें के बीच का फर्श वाला हिस्सा) जिसमे एक व्यक्ति के किसी तरह लेटने भर कि जगह थी , अभी खाली ही था , कि वह परिवार वहीं रूक गया, और इच्छा के पिताजी से अनुरोधात्मक शब्दों मे कहने लगा "भाई साहब ! मै यहाँ बीच मे चद्दर बिछाकर बैठ सकता हूँ |" इच्छा के पिता ने "हाँ, हाँ क्यो नही "कहते हुए चद्दर बिछाने मे उनकी मदद करने लगे | पति पत्नी दोनो नीचे बैठ गये, इच्छा के पिताजी ने उनकी बेटी को इच्छा कि तरफ इशारा करते हुए कहा " बिटिया आप दीदी के पास बैठ जाइये |" बाते करते , समय इस प्रकार गुजर रहा था, कि ऐसा लग ही नही रहा था कि वे अन्जान थे | बातो ही बातों मे रात काफी बीत चुकी थी, सबको ही थकान का अनुभव होने लगा था , वे पति पत्नी तो बीच -बीच मे बारी -बारी से लेटकर अपनी थकान दूर कर लेते | अब उन्होने अपनी बेटी को भी कई बार नीचे लेट जाने को कहा जो इच्छा के साथ लगातार समान स्थिति मे बैठी थी , किन्तु हर बार वह मना कर देती, इच्छा के पिता इसका कारण मानो समझ गये हो, अपनी सीट छोड़ते हुए बिटिया आप इस पर लेट जाओ मै नीचे बैठ जाता हूँ | "नही! नही! अंकल आप लेटे रहिये मै ठीक हूँ | " उस लड़की ने कहा | इच्छा के पिता सीट से उठते हुए "हमारा आराम हो गया ", आप भी हमारी बिटिया की तरह हो, बिटिया बैठी हो तो बाप आराम कर सकता है क्या ? यह कहते हुये थोड़ी सी जगह , या यूँ कहें कि जबरदस्ती बनाई हुई जगह पर ,एक तौलिया बिछाकर नीचे बैठ जाते है| तभी अचानक इच्छा का ध्यान टी सी के शब्दों से टूट जाता है , मैडम! यह सीट रिज़र्व है आपको यह छोड़नी पड़ेगी | इच्छा के बहुत अनुरोध करने पर भी वह इच्छा को सीट छोड़ने के लिए बाध्य करता है | बच्चो के सो जाने की वजह से इच्छा बार -बार टी सी से उसे सीट से न हटाने का अनुरोध करती है| बहुत आग्रह के बाद भी वह नही मानता और यह कहते हुए आगे बढ़ जाता है कि, मैडम ! मै पाँच मिनट मे आ रहा हूँ ,
आप तब तक सीट खाली कर दीजियेगा| यह कहते हुए वह आगे बढ़ जाता है | वह क्या करे उसे कुछ सुझाई नही दे रहा था , कि तभी पास मे ही एक व्यक्ति जो बहुत देर से सबकुछ देख रहा था , इच्छा के पास आकर धीरे से कहता है , मैडम !इसको कुछ खर्चा पानी देकर एक पर्ची बनवा लीजिये , तब कोई आपको परेशान नही करेगा | आज तक इच्छा ने कभी न घूस दिया था और न ही किसी को घूस देते हुए ही देखा , किन्तु आज उसे मजबूरी वश यह अनुभव भी लेना था | अतः उसने सकुचाते हुए उसी व्यक्ति से पूछा "भैय्या इसके लिए उसे कितने पैसे देने होंगे |" " मैडम ! जितने की टिकट ली होंगी उसके आधे से कम दीजियेगा | वह खुद ही बता देगा कितना चाहिए उसे | पर उतना मत दीजियेगा ,जितना वह माँगे|" वह व्यक्ति इस व्यवस्था का बहुत ही अनुभवी लग रहा था | जो समाज के विकास मे दीमक सी लग कर उसे खोखला करने मे लगी है , यह कोई नही बात नही थी |अक्सर इसके किस्से आस -पास सुनती आई थी | किन्तु प्रत्यक्ष रूप से आज इच्छा का सामना हो रहा था |
लगभग बीस मिनट के बाद टी सी पुनः आता है |" मैडम आप अभी तक गये नही ! " इच्छा जो कि पहले से ही तैयार थी ,
टी सी के सामने पैसे बढ़ाते हुए, "भैय्या इस पर कोई तो बैठेगा आप मेरी ही पर्ची काट दीजिये |" अरे मैडम! यह क्या कह रहीं है आप यह सीट पहले से ही रिज़र्व है ,मै आपको कैसे दे सकता हूँ | " बात न बनते देख इच्छा उसी व्यक्ति की तरफ प्रश्नसूचक भाव से देखती है ,जिसने उसे यह सलाह दी था | वह भी उन्ही लोगो को देखे जा रहा था | इच्छा को दूर से ही कुछ इशारे मे ही जवाब देता है , हालॉकि इच्छा उसके जवाब को समझ नही पाती | अतः कुछ देर शान्त रहने के पश्चात वह पुनः बोलती है , भैय्या आप पैसे लेकर पर्ची काट दीजिये यदि सीट का मालिक आया तो मै बिना किसी बहस के यह सीट छोड़ दूँगी "| टी सी कुछ क्षण शान्त रहकर बोला "ठीक है मैडम |" उस व्यक्ति के बताये अनुसार जल्द ही वह दूसरे स्टेप पर आ गया, अर्थात इच्छा से और पैसो की माँग करते हुए कहता है मैडम ! ये जो आप दे रहीं है इसमे क्या होगा ? सात सौ रूपये लगेंगे | इच्छा चार सौ रूपये निकाल टी सी के आगे बढ़ाती हुई, " भैय्या मै बस इतने ही दे सकती हूँ ,और जो दे रही हूँ वह कम नही है | यह मै उस सीट के लिए दे रही हूँ जिसका कोई भरोसा नही , हो सकता है मुझे पाँच मिनट के बाद ही इसे छोड़ना पड़े है |" टी सी ने पहले पैसे पर फिर इच्छा और उसके बच्चो पर नजर डालते हुए, बिना गिने ही जेब मे डाल, पर्ची काट इच्छा को थमाते हुए चला गया|
उसके जाने के बाद अब इच्छा को सीट जाने का भय सताने लगा | हॉलाकि इसके बाद टिकट चेकिंग के लिए कोई न आया , पूरी रात सोते हुए बच्चों को करवट दिलाने उनकी नींद मे किसी प्रकार का विघ्न न पड़े इसी प्रयास मे बीत गया| लगभग रात साढ़े तीन बजे गाड़ी प्रयागराज स्टेशन पर आकर रूकती है , जहाँ स्टेशन पर इच्छा के पिताजी पहले से ही मौजूद उसी गाड़ी का इन्जार कर रहे होते हैं | इच्छा के पास लागेज के नाम पर एकछोटा सा साइड बैग जिसमे एक टिफिन छोटी डायरी और एक पेन रखकर रोज आफिस ले जाया करती थी , जिसने उसे ट्रेन से उतरने मे सहजता दी , स्टेशन से बाहर निकल वहाँ पहले से ही मौजूद ऑटोरिक्शे पर बैठ घर के लिए निकल पड़ते हैं | सड़क पर सन्नाटा पसरा था | जगह -जगह स्ट्रीटलाइटो के बीच गुजरते रिक्शे पर ,आज प्रयागराज की गलियों और सड़को से कहीं अधिक सन्नाटा इच्छा के मन मे था | जैसे वह एक भयावह गुफा से निकलकर एक सूनसान जंगल के रास्ते पर गुजर रहा हो,
किन्तु मंजिल का पता नही | पैरो की गति भी उद्देश्यो से प्रेरित नही थी , अर्थात उद्देश्य की प्रेरणा साँसो के पार जा सकने मे सक्षम नही हुई थी अभी , नतीजतन निराशा और आभाव के काँटे बार -बार उसके पैरो को , आहत किये जा रहे थे | सन्नाटो के बीच कुत्तो के भौकने की आवाज रात्रि पर अपना अधिकार जमा रही थी | यह वही शहर है जिसमे इच्छा का बचपन बीता यहाँ की मिट्टी यहाँ के लोग , हर चार कदम पर मंदिर , सीधे साधारण लोग , खास तरह की इनकी बोलिया, और बात करने का निराला अंदाज, विवाह के बाद इन सबसे दूर जाने के बाद इच्छा को हमेशा ही आकर्षित करता रहा | कभी - कभी तो वह सोचती भी कि , काश ! मेरा घर यहीं होता | पर यह नही जानती थी ,कि किस्मत हमेशा के लिए इस शहर मे ले आयेगी , किन्तु उसी घोसले मे जिसने उसके विकसित पंखो को आश्रय देने से मना दिया था | आज उसी घोंसले मे लौटकर आना तिरस्कृत सा लग रहा था| किन्तु प्राणो का मोह उस तिरस्कार को कम कर रहा था|
बावजूद इसके अब भी मन के एक कोने मे कुछ बीज दबा रखे थे , इस विचार से की वापसी पर उसे बोने है | जिसमे अंकुर फूटेंगे, जो पौधो मे परिवर्तित हो वृक्षो से ,जीवन रूपी उद्यान को हरा भरा कर देंगे | इसी कल्पना की आसक्ति ने अभी भी रिश्ते के कच्चे धागे के एक सूत को सहेज कर रख्खा था | इस भरोसे पर कि शायद उसमे अब भी कुछ गुंजाइस बची हो मुझे खीचने की | फिर जीवन परिपक्वता भी तो अब प्रौढ़ता को स्पर्श करने वाली है |यह उस मिट्टी के पके घड़े के समान हो चुका है, जो औरो को तो शीतलता दे सकता है किन्तु स्वयं का आकर परिवर्तित नही कर सकता | मजबूरियाँ बदलाव की तरफ ले जाती हैं , और बदलाव अशान्ति , खासकर तब जब वह महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित न होकर , मजबूरियो से बाधित हो | इच्छा के मन का एक कोना अभी भी उस चार दीवारी मे कैद था | जहाँ से अभी-अभी वह खुद को छुड़ाकर लाई है| क्रमश:..