mrugtrushna - 3 in Hindi Love Stories by Saroj Verma books and stories PDF | मृगतृष्णा--भाग(३)

Featured Books
Categories
Share

मृगतृष्णा--भाग(३)

शाकंभरी, विभूति के जाने के उपरांत तनिक गम्भीर हो चली थी, उसने सोचा यदि विभूति को उसने क्षमा कर दिया होता तो.....
परंतु उसका अपराध क्षमायोग्य नहीं था, किसी भी स्त्री को उसकी अनुमति के बिना स्पर्श करना...... उसके उपरांत प्रेम की दुहाई देना,वासना पर प्रेम का आवरण डाल देना ये कदापि भी अनुचित नहीं है।।
मैंने उसके साथ उचित व्यवहार किया, कोई और भी होता तो ऐसा ही करता, परंतु मेरा मन विभूति के चले जाने से खिन्न क्यो है, मेरा हृदय इतना विचलित हैं, मस्तिष्क में भी कई प्रश्न उठ रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे विभूति से प्रेम हो गया है।
कदापि नहीं!! मैं और विभूति से प्रेम !! मैं तो उससे अत्यधिक घृणा करती हूं,वो जब तक मेरी दृष्टि के समीप था तो मैंने उससे वार्तालाप करना भी उचित नहीं समझा परंतु उसके जाने के बाद मस्तिष्क और हृदय मेंरी बात क्यो नहीं सुन रहे,मन विह्वल सा यत्र-तत्र क्यो भटक रहा है, रह-रहकर मन में तरंगें क्यो उठ रही है?अनान्यास ही किस दिशा में जा रहा है मेरा मन? मेरे मुख की कांति और आभा कौन अपने साथ ले गया?इस काया में वो पहले जैसे उमंगे क्यो नही उठ रही?पहले वाली स्फूर्ति कहां गई?शरीर इतना बोझिल सा क्यो जान पड़ता है।।
हे प्रभु!! मेरे विचलित हृदय और मस्तिष्क को शांति प्रदान करे,इस प्रेमरूपी बंधन से मुक्त करें, शाकंभरी ने प्रार्थना की।।
एक रोज जयंतीपुर के राजा अग्रसेन ने अरण्य वन में प्रवेश किया,वे अरण्य ऋषि के समक्ष पहुंचे और अपने विचार प्रकट करने चाहें।।
अरण्य ऋषि बोले, कहिए राजन!! कैसे पधारे?
अग्रसेन बोले गुरु जी, समयावधि पूर्ण हो चुकी है,इस कारण आना पड़ा।।
गुरु जी,बोले, हां अब समय आ गया है।।
तभी गुरू मां अग्र सेन के समीप आकर बोली,राजन इतनी शीघ्र !!
अग्र सेन बोले, हां माता,अब समय आ गया है, उसकी मां बाल्यकाल में ही उसे छोड़कर चली गई, मुझे लगा कि दूसरा विवाह करना मेरे लिए उचित नहीं है,एक बालिका को बहुत अच्छे संस्कार और बहुत कलाओ में निपुण होना चाहिए,तो आपके आश्रम से अधिक उपयुक्त और कोई भी स्थान मुझे नहीं सूझा,आप लोगों के सानिध्य में उसका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा बहुत ही अच्छे ढंग से हुई है,मैं तो हमेशा अपने राज्य-पाट में बिधा रहा, मैं इतने अच्छे ढंग से ना उसे नैतिक शिक्षा दे पाता और ना ही उसे व्यवहार कुशल बना पाता, इसके लिए मैं आप सब का बहुत बहुत आभारी हूं।।
अब वो सोलह वर्ष की हो चुकी है,अब राज्य को राजकुमारी की आवश्यकता है, माता कृपया उसे पुकारे, मैंने भी अपनी पुत्री को इतने वर्षों से नहीं देखा,मैं भी उसे देखने के लिए लालायित हूं।।
गुरु माता बोली, उसे लेकर में क्षण भर में उपस्थित होती हूं।।
गुरूमाता कुछ क्षण पश्चात् राजन की पुत्री को लेकर उपस्थित हुईं और बोली इन्हें प्रणाम करो शाकंभरी!!ये तुम्हारे पिता महाराज है,
शाकंभरी आश्चर्यचकित होकर बोली, पिता महाराज!! परंतु इससे पहले कभी भी आपने इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की और आज अचानक कैसे मेरे पिता प्रकट हो गये।।
गुरु माता बोली, शाकंभरी !! राजन चाहते थे कि तुम यहां राजकुमारी बनकर नहीं,साधारण बालिका बनकर रहो,वो चाहते थे कि तुम्हारे भीतर साधारण बालिकाओं जैसी सरलता और सौम्यता दिखें, राजकुमारी रूप में तुम यहां रहती तो थोड़ा घमंड आना स्वाभाविक था, पुत्री !!मुझे गर्व है कि हमारे दिए हुए ज्ञान से , तुम यहां से संस्कारी और चरित्रवान बन कर जा रही हो।।
हमेशा प्रसन्न रहो, मेरी पुत्री!!
और महाराजा अग्रसेन अपनी पुत्री शाकंभरी को लेकर अपने राज्य जयंतीपुर लौट गए।।
शाकंभरी राज्यमहल में अत्यधिक प्रसन्न नहीं थी, उसकी स्मृतियों में सदैव अरण्य वन ही रहता,वो वहां मृगी की तरह कहीं भी दौड़ती और मयूर की तरह किसी भी स्थान पर विचरण कर सकती थी परन्तु यहां राज्यमहल में मन की शांति नहीं थी, तरह-तरह के रेशमी वस्त्र और आभूषण थे परंतु वो तो वहां पुष्पों के आभूषणों से भी प्रसन्न रहती थी, यहां उसे अरण्य वन जैसी संतुष्टि नहीं मिल पा रही थी, महाराज अग्रसेन भी अपने पुत्री के मन की बात समझ रहे थे,वे भी तरह-तरह के प्रयत्न कर रहे थे कि उनकी पुत्री प्रसन्नचित हो कर रहे।।
राजा अग्रसेन को एक रोज गुप्तचरों से पता चला कि पड़ोसी राज्य के राजा हमारे राज्य पर आक्रमण करना चाहते हैं, वहां के राजा बल और धन से बहुत ही शक्तिशाली है उनकी सेना भी हमसे चौगुनी है, राजा इस विषय पर सोच-विचार में लगे हुए थे उन्होंने अपने दरबार के सदस्यों के साथ इस विषय पर वार्तालाप करने का विचार किया कि कोई समाधान निकल आए।।
जब तक विचार किया गया,तब तक पड़ोसी राज्य के राजा ने रात्रि प्रहर आक्रमण कर दिया, महाराज अग्रसेन उनके समक्ष लड़ते रहे, पड़ोसी राज्य के राजा ने आश्वासन दिया कि हम आपको कोई हानि नहीं पहुचायेगे, कृपया आप समर्पण कर दीजिए, परन्तु राजा अग्रसेन ने यह स्वीकार नहीं किया।
तभी यकायक पड़ोसी राज्य के सेनापति ने राजा को क्षलपूर्वक पीछे से उनकी गर्दन पर वार किया और राजा उसी समय धराशाई हो गए,इस पर पड़ोसी देश के राजा अपने सेनापति पर अत्यधिक क्रोधित हुए और उन्होंने सेनापति को उसी समय सेनापति के पद से निस्कासित कर दिया।
राजा के ऐसे व्यवहार से सेनापति बहुत ही क्रोधित हुआ,उस समय तो चला गया परन्तु उसके मन में प्रतिशोध की भावना आ गई।।
राजा को सेनापति के ऐसे बर्ताव से बहुत कष्ट हुआ, उन्हें युद्ध में जीत तो चाहिए थी परन्तु इस प्रकार नहीं।।
अब उन्होंने पता किया कि राजा अग्रसेन के परिवार में कितने सदस्य शेष है, पता चला कि राजकुमारी मात्र है,अब राजा ने निर्णय लिया कि वे स्वयं राजकुमारी के समक्ष जाकर सारी घटना कह सुनायेगे और उनसे निवेदन करेंगे कि उन्हें ये राज्यमहल त्यागने की आवश्यकता नहीं है,वे जब तक चाहें इस महल में रह सकती है, मैं स्वयं उनका विवाह कराने का उत्तरदायित्व लेता हूं।।
उधर राजकुमारी को इस घटनाक्रम के बारे में सब अवगत हो गया था, शाकंभरी बहुत ही क्रोधित अवस्था में थीं।।
राजा ने राजकुमारी से मिलने की अनुमति मांगी और वे राजकुमारी के समक्ष जाकर बोलें____
"राजकुमारी जी, मैं सिंघल राज्य का राजा अपारशक्ति हूं, मैं आपके पिताश्री से युद्ध करने तो आया था परंतु इससे पहले मैंने उनसे मित्रता का प्रस्ताव भी रखा था किन्तु वे नहीं माने और उन्होंने ने युद्ध का निर्णय लिया, परंतु क्षमा करें राजकुमारी मेरे सेनापति ने युद्ध मैदान में आपके पिताश्री की क्षल से हत्या कर दी, इसके लिए मुझे खेद है मैं आपका क्षमाप्रार्थी हूं।।
शाकंभरी क्रोधित होकर बोली!!इसका क्या प्रमाण है कि मेरे पिताश्री की हत्या आपने नहीं की , कितनी सत्यता है इस बात में, कैसे मानू कि आपने जो कहा वो ही सत्य है और ये मेरे पिताश्री का महल है मैं इसे छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी।।
परंतु राजकुमारी जी आपकी सुरक्षा का प्रश्न है,आपका क्रोध एकदम उचित है लेकिन अब ये राज्य मेरा है,मैं जब तक आपको किसी सुरक्षित हाथों में ना सौंप दूं , आपका विवाह ना करा दूं,इस राज्य का उत्तराधिकारी ना दे दूं , मैं तब तक नहीं लौट सकता,आपको जो कहना है कह लीजिए परंतु अपना ये उत्तरदायित्व मैं निभाकर रहूंगा और तब तक इसी राज्य में रहूंगा,जिस दिन आपका विवाह करा दूंगा उसी समय आपका राज्य और राज्यमहल छोड़कर चला जाऊंगा।।
अब अपारशक्ति उसी महल में वास करने लगा,वो प्रतिदिन राजकुमारी के विषय में जानकारी लेता रहता,वो राजकुमारी को संदेश भेजता रहता कि उसे किसी वस्तु की आवश्यकता तो नहीं परन्तु शाकंभरी का क्रोध शांत नहीं हुआ था, उसके हृदय में अपारशक्ति के लिए घृणा और क्रोध समाया हुआ था।।
एक रोज बल्लभगढ़ के राजा अमर्त्यसेन अपनी पुत्री राजलक्ष्मी के साथ शाकंभरी के राज्यमहल में पधारे और बहुत ही क्रोधित होकर बोले,ये क्या?राजन आपका विवाह तो मेरी पुत्री राजलक्ष्मी के संग होना तय हुआ था और आप यहां वास कर रहे हैं, ये सूचना मिलते ही मैंने शीघ्र ही राजलक्ष्मी को अरण्य वन से बुलवा भेजा और आपके समीप आ पहुंचा आखिर आपका निर्णय क्या है।
तब अपारशक्ति ने अमर्त्य सेन को सारी घटना कह सुनाई।।

क्रमशः____
सरोज वर्मा___