Gujarat ke rann ki sukhi zamin me jal ke lie aantarnad in Hindi Film Reviews by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | गुजरात के रन की सूखी ज़मीन में जल के लिए आर्तनाद

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गुजरात के रन की सूखी ज़मीन में जल के लिए आर्तनाद

फ़िल्म समीक्षा

`` गुजरात के रन की सूखी ज़मीन में `जल `के लिए आर्तनाद``

[ ऑस्कर पुरस्कार के लिये नामांकित ]

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

`जल `फ़िल्म आरम्भ ही होती है रन की फटी हुई धरती पर चलते कैमरे से व पानी मिल जाने की आस की छटपटाहट से .हीरो बक्का धूल से लतपथ कुँआ खोद रहा है नीचे बहुत नीचे गड्ढे में .उसकी गर्भवती पत्नी केसर प्यास से धूल में लेटी तड़प रही है ,बक्का ! पानी दे ----- बक्का !पानी दे ---- बक्का !मेरे बच्चे को बचा ले`` ----बक्का अपनी पत्‍‌नी के उदर में पलती अपनी संतान को लेकर चिंतित है ,तनाव में दिग्भ्रमित हो रहा है ---उसे लगता है वह चला जा रहा है और सामने नदी का पानी उमड़ रहा है ----------शुरू हो जाता है फ़िल्म का बैकग्राउंड -----------बक्का .यानि कच्छ का `जल का देवता `यानि इस सूखे मरुस्थल में पानी खोजने वाला गांव वालों के साथ पूजा पाठ कर रहा है ,उसी की तरह पुरुष सफेद कड़ियों [फ्रॉक जैसी कमीज व चूड़ीदार पायजामा व पगड़ी पहने हैं,जो कि गुजरात के रबारियो, मवेशी चराने वालों की खास पहचान है ].औरते गहरे कत्थई रंग की चनिया चोली [लन्ह्गा ब्लाउज़ ] पहने हैं,.

पेड़ों पर कलावा व रंग बिरंगे फुंदने बाँध दिए गए हैं ,छोटा नगाड़ा बज रहा है सिंदूर उड़ाता. बक्का जिधर सिर झुकाता है ,उधर लोग सिर झुकाते हैं .ज़मीन पर सिर रखकर पानी की आवाज़ सुनने की कोशिश करता है ,वे भी ऎसा करते हैं. बीच में गरबा भी किया जाता है .वह् तीन हाथ की दो लोहे की छड़ हाथों में लिए चेहरे पर प्रतिष्ठा का गर्व लिये ,क्योंकि गांव का जीवन यानि उसकी पानी की खोज पर ही टिका हुआ है ., आस पास पानी होने के संकेत दे रहा है . मुझे याद आ रही है श्री अनुपम मिश्र जी की पुस्तक ``आज भी खरे हैं तालाब `,उसके वाक्य``---------वरुण देवता का स्मरण है .तालाब कही भी ख़ुद रहा हो ,देश के एक कोने से दूसरे कोने तक की नदियों को पुकारा जा रहा है .श्लोकों की लहरें थमती है ,``

यानि हर प्रदेश में जल खोजना एक सात्विक पूजा है .जल यानि जीवन लेकिन गुजरात के रन में रहने वालों का जीवन कैसा होता है जहाँ बिना हरे भरे पौधों की दूर् दूर् तक एड़ी सी फटी धरती अपनी आकुल जिव्हा लिए मीलों तक फैली है . उस पर फ़िल्म में बार बार बजता शुभा मुदगल की आवाज़ में तड़पता गीत ,``जल दे ----जल दे ---जल दे.``लगता है धरती की फटी ही दरारों में से हाथ उठाये ये अकुलाती पुकार आ रही है. यहाँ से वहां तक बिखरी एक कराह है ,``रण का ताप जान लेता है ,पानी नही देता .``

कुछ इत्तेफाक ऎसा हुआ कि सन् 2013 के आरंभ में हमे नियति गुजरात के छोटे रन में खींच ले गई .उसके कुछ ही महीने बाद `जल `में पानी के लिये तड़पता कच्छ का रन दिखाई दिया ,जो अमिताभ बच्चन के ` कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा ` से अलग है .इस तड़प ने इस कदर तड़पा दिया कि मैंने अपनी मित्र से कहा ,``यदि मेरा बस चले तो मै इस फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार दे दूँ .ऐसी फ़िल्म राष्ट्रीय धरोहर होती हैं .``

जी हाँ ,मै कुछ थोड़ा ग़लत कह गई थी .इस फ़िल्म को सन् 2014 में राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिला लेकिन ये फ़िल्म `एक्सोडस `जैसी भव्य व महंगी फ़िल्म के समकक्ष बेस्ट फ़िल्म व ओरिजनल स्कोर यानि कि ऑस्कर अवॉर्ड दो केटेगरीज़ के लिये नामांकित की गई .इतना ही नहीं इसकी कहानी को ऑस्कर के अभिलेखागार में भी संरक्षित कर लिया गया है.तो मै ग़लत कह गई थी ऐसी फिल्में राष्ट्रीय नहीं विश्व की धरोहर होती है जिससे हम जान सकें जिस भूखंड पर हम रहते हैं ,लापरवाही से पानी का उपयोग करते हैं ,उसी भूखंड पर कुछ ऎसे स्थान भी है जहाँ पानी ना मिल पाने से जान भी चली जाती है. इस विषय का मह्त्व सारे विश्व के लिए है .पृथ्वी की बदती हुई आबादी के कारण पृथ्वी के गर्भ में स्थित पानी भी बहुत कम होने लगा है . कुछ वर्ष पूर्व हुए एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे के अनुसार --श्रीलंका में 19 प्रतिशत ,यूगांडा में 16 प्रतिशत ,मोज़ेम्बिक में 19 प्रतिशत ,नेपाल में तो 11 प्रतिशत ,अफगानिस्तान में 10 प्रतिशत पानी रह गया है . कनाडा तो झीलों का देश कहा जाता है .यहाँ ओंटेरियो में रहने वाले जल विशेषज्ञ स्वर्गीय डॉ .जैक वेलेंटाइन ने अपनी सारी उम्र इसी पेयजल एवं जीवमंडल संरक्षण के लिए लगा दी थी .किसी ज़माने के `अंकुर `व मंथन `जैसे एक समानंतर सिनेमा की याद दिलाती ये कहानी राकेश मिश्रा की है स्क्रीन प्ले इनके साथ निदेशक गिरीश मलिक ने लिखा है .

वर्षो पूर्व की `दो बूँद पानी `व ये फ़िल्म ना देखी हो तो उस दूभर जीवन की कल्पना करना बेहद मुश्किल है. बक्का जैसे जल का देवता अपनी विशिष्ट शक्ति से ज़मीन में जल होने की सम्भावना बताते हैं [ये इन्हे भगवान प्रद्दत शक्ति होती है ],तब वहा कुँआ खोदा जाता है.इन विशिष्ट लोगो के लिये और प्रदेशों में `गजधर `एक बहुप्रचिलित नाम है .सारे देश में इनके और भी नाम तलाशने हो तो अनुपम जी की पुस्तक है ही .

एक विदेशी महिला किम एक प्रोजेक्ट के तहत एक जीप में कच्छ के रन में माइग्रेटरी बर्ड्‌स ,फ्लेमिंगो यानि सुरखाब पक्षी पर शोध करने आती है .रंग बिरंगे कपड़े पहने व सस्ता गौगल लगाए ,अधकचरी अंग्रेज़ी बोलता एजेंट रामखिलाड़ी के साथ . वह् बहुत खुश है कि अब ये जगह फ्लेमिंगो सिटी कहलायेगी अब गांव वालों ने ब्ल्यू फ़िल्म में ही गोरी मैम देखी है [ गौरतलब है जहां पानी नही मिल पाता वहा ऐसी फ़िल्म पहुँच जाती हैं]इसलिए उनके लिए इस मैम को देखना एक क्रेज़ है ,एक वृद्ध भी लार टपका रहा है . रामखिलाड़ी मैम को बताता है,``जब कभी समुद्र का पानी रन में आ जाता है वहा तालाब बन जाता है लेकिन वो पीने लायक नही होता .उसी में रहने फ्लेमिंगो आ जाती हैं . बारिश का पानी आता है तो ज़मीन में समा जाता है यानि रामखिलाड़ी के शब्दों में,`` देयर इज़ वाटर ------- बट नो वाटर. ``

रन में लगाया टेंट दिखाकर कहता है ,``मैडम ये रहा आपका एरिया --यहां समुद्री पानी भी है, केमल्स हैं ,ब‌र्ड्स है.यू आर द क्वीन ऑफ़ दिस एरिया . ``

किम इसी तालाब में तैरने जाती है तो वह् पानी में फ्लेमिंगो के नन्हे बच्चो ढेरों शव देखकर घबरा जाती है व रामखिलाड़ी को बताती है इन बच्चों के शव को निकालने के लिये उसे पाँच मज़दूर चाहिये बक्का सहित उसके गान्वा के पाँच आदमी काम पर लग जाते हैं. एक रात रन देखने के चक्कर में वह् जीप में निकल जाती है .यह द्रश्य डराते है कि वह् कही भी जाए और कही भी नही पहुँच पाती सब तरफ उजाड़ रन फैला हुआ है .कहा भी ये जाता है कि अजनबी लोग महीनो रन में भटकते रह जाते हैं ,तब भी राह् नही मिलती .उधर सुबह उठकर मज़दूर हैरान हैं कि मैम कहाँ चली गई .वे उसे धूद्नने चल देते हैं .वह् प्यास से बेहाल है तभी उसे एक गांव का कुँआ दिखाई देता है उसकी बाल्टी से वह् खूब पानी पीती है ,कुछ अपने ऊपर डालती है लेकिन हैरान है ---एक धूल का बवंडर उड़ा चला आ रहा है जिसमे दिखाई दे रही हैं परछाईयाँ -----यही वो फोटोग्राफी की कला का चरम द्रश्य है कि रीड की हड्डी में भी कंपन हो जाए ----धूल के बवंडर में दिखाई दे रहे हैं दो तीन ऊँट सवार व आठ दस कत्थई धोती में ,हाथ में हँसिया ताने , दौड़ती किम की तरफ आती औरते -----जी हाँ ,रन में पानी के लिए कत्ल हो जाना आम बात है .

सबसे आगे गांव के मुखिया की लड़की केसर है जो किम पर हंसिये से वार करती है लेकिन बक्का जो किम को धूद्ता वहां आ गया है ये वार अपनी छाती पर झेल लेता है .आपस में कहा सुनी तो होनी ही है . यही दुश्मन गांव की केसर है जिसे बक्का प्यार करता है . केसर के गान्वा का एक दबंग युवक पुनिया इस पर आँख गदाये रहता है . बक्का को चाहती है उसी के गांव की कजरी.

ये फ़िल्म इतनी सुंदर प्रामाणिक नही बनती यदि रन की भयावयता को समेटती फोटोग्राफर सुनीता राडिया की कलात्मक फोटोग्राफी नही होती ..या आसमानी रंग के तालाब मे झुंड के झुंड उतरते अलग तरह के लाल रंग के फ्लेमिंगो का नयनाभिराम द्रश्य ना होता ------जैसे सूने निपट उजाड़ रन में आस्मानी रंग की साड़ी में किसी ने गुलाल उदेल दिया हो ,रंग भर दिया हो.

फ्लेमिंगो प्रोजेक्ट डाइरेक्टर रिचर्ड भी पहुँचकर शोध कर बताते हैं कि तालाब के पानी में नमक की इतनी मात्रा बड़ गई है कि वह काई में जम गया है जिसे खाने के बाद बच्चे मर रहे हैं. ये लोग सरकार की अनुमति से यहा फ्लेमिंगो पक्षी को बचाने के लिए कुये खोदने कीअनुमति ले लेते हैं

ऎसे रन में जहाँ मनुश्य पानी को तरसता है ,गान्वा में एक विद्रूप मजाक फैल जाता है . कुये खोद कर सरकार आदमी को नही पक्षियों को बचाने की कोशीश करेगी . एक गांव वाला अपने साथी से पूछता भी है ,``सच मे पानी मिलेगा ?``

वह् उत्तर देता है ,``तेरी लुगाई के घाघरा में से पानी निकलेगा .``

ये स्थानीय मजाक का नमूना है . दर्शक इस फ़िल्म में रन में बनाए आयताकार छोटे तालाब नमक बनाने के लिये देख सकते हैं जिन्हें `अगर `कहा जाता है ,[नमक बनाने वालों को `अगरिया` , एक द्रश्य में इसमे बक्का व पूनिया लड़ते लड़ते गिर जाते हैं .

विशालकाय ड्रिलिंग सरकारी मशीन से जगह जगह पानी धूदा जाता है लेकिन वह् कही नही मिलता . हार कर रिचर्ड साहब को गांव वालों के सुझाव पर बक्का की मदद लेनी पड़ती है . सरकारी मुलाज़िम मज़ाक भी उड़ाता है ,``जो काम लाखो की सरकारी मशीन ना कर पाई वो एक देहाती करेगा ?

बक्का अपनी प्राकृतिक शक्ति से जहां कहता है वहां कुँआ खोदा जाता है तो वहां पानी निकल आता है इस तरह से तीन कुन्ये खोद लिए जाते हैं , बक्का को अस्थायी सरकारी नौकरी मिल जाती है ,इसके गांव वाले व सरपंच खुशामद करते हैं कि अपने गांव में भी कुँआ खोद कर दो तो वह् अकड़क र तीन शर्तें रखता है ,``एक तो उसके दोस्तों को दावत दो,घर बनाकर दो व तीसरे दुश्मन गांव की छोकरी केसर से ब्याह करवा दो .``

सब उसकी तीसरी शर्त शर्त सुनकर हैरान है लेकिन जल तो जल है उसके लिए कुछ् भी किया जा सकता है .दुश्मन गांव के मुखिया के पास ये बात पहुँचा दी जाती है .इस फ़िल्म का विलेन पुनिया जिसकी नजर केसर पर है इस शादी का विरोध करता है लेकिन मुखिया ये सोचकर कि बक्का सरकारी मुलाजिम हो गया है , जब कभी उनके गांव का कुँआ सूख गया तो बक्का नया कुँआ खोदने के काम आएगा,ये शादी करने को तैयार हो जाते हैं .

शादी के बाद गान्वा में बक्का कुँआ खोदने की कोशिश करता है तो कही भी पानी नही निकलता . पंचायत में पंच कहते है - इस गांव में सरकारी मशीन लाई जाए जिससे कुँआ खोदा जा सके .तब बक्का बताता है कि वह मशीन लाखों रुपये का डीज़ल खाती है .केसर कहती है ,``ये दागीने [गहने ]किस काम के जब जीने को पानी ना मिले .``

कैसर की बात व गुजरात की स्त्रियों के मन में बसी ये पानी के लिए उच्च स्थान व इज़्ज़त की बात -उत्कट आस यहाँ के जन जन में एक लोकप्रिय लोकगीत में ढल गई है,``पानी ज्ञाता रे ----बहे तालाब नाले .``

उसके एक आवाज़ पर गांव की औरते अपने सारे सोने चांदी के गहने उतारकर बक्का को दे देती हैं .ये रिचर्ड से बात करता है .वो इसे यह कहकर बहला देते हैं कि सरकारी मशीन को काम लेने के लिये उन्होने एप्लीकेशन भेज दी है .कुछ दिनों के इंतज़ार के बाद भी कोई हल नही निकल रहा .रिचर्द व सरकारी मुलाज़िम कुछ दिनों के लिये शहर जाते है .बक्का रामखिलाड़ी को पटाता है कि यदि वह् उन्हें ये मशीन गांव ले जाने देगा तो उसे गांव के सारे गहने मिल जायेंगे .मासूमियत में उसे अपने दोस्त राखाल के साथ वह् सूने रन में वह स्थान दिखा देता है जहाँ ये गहने गड़े हैं . इस बीच किम के मन में बक्का के लिए कोमल तंतु अंकुरित हो चुके हैं ,उससे बचने के लिये वह गांव छोड़ उदास मन लिए चली जाती है .

रामखिलाड़ी अपने को प्रोजेक्ट बॉस समझने के घमंड में व लालच में मशीन दे देता है और कोई कुँआ खोदने से पहले वह् टूट जाती है .उधर रिचर्ड लौट आए हैं , रामखिलाड़ी चतुराई से मशीन उनकी सामने वापिस लाकर बहाना बना देता है कि उसने चोरो से ये मशीन बचा ली है .बक्का व राखाल को डाट लगाकर छोड़ दिया जाता है .

अब शुरू होते हैं बक्का के दुर्दिन .रामखिलाड़ी केसर के गांव के पुनिया के साथ मिलकर राखाल की हत्या कर देता है व गड़े हुए गहने निकाल देता है .इल्ज़ाम बक्का पर आता है .बहुत सफाई देने पर सरपंच मान लेते है कि राखाल की हत्या बक्का ने नही की होगी किन्तु गहने तो चोरी हुए ही हैं इसलिए उसे गांव छोड़ना पड़ेगा .उसे ताना दिया जाता है कि ,``अपना कुँआ खोद और पानी पी लेकिन तेरी घरवाली पेट से है इसलिए एक लौटा पानी रोज़ गांव से ले जा सकता है .``

कल्पना कीजिये रन की गर्मी में एक सिर्फ़ एक लौटा पानी ?वह् भी दो लोग केलिये ----वह् भी गर्भवती स्त्री के लिए काफी होगा ? एक दिन केसर पानी से तड़प रही है ,बक्का अपने गांव चुपचाप पानी लेने जाता है ,चोरी करते पकड़ा जाता है.उधर केसर रन में प्यास से तड़पती पानी धूद रही है .बक्का को प्यार करने वाली कजरी केसर के लिए पानी लेकर छिपाकर चल देती है .रन में बेहाल केसर को पूनिया मिल जाता है जो बड़ी पानी की बोतल से पानी पी रहा है .सूखी जिव्हा लिए केसर उससे पानी मांगती है.वह् बदमाश पानी के बदले एक गर्भवती स्त्री से अपनी घिनौनी फरमाइश रख देता है .केसर को खोजती कजरी वहाँ आ चुकी है .अब वह् जो अपने बक्का केलिये उत्कट प्यार के लिए बलिदान देती है ---किसकी आँखें नम नही हो जायेंगी .जहाँ जीवन जीना एक समस्या है वहां भी पैसे व औरत के लिये बर्बर शेर अपना आखेट करना नही छोड़ते .उधर गांव वाले बक्का को एक रस्से से बाँधकर ऊँट पर बैठकर रन की धूल में घसीटते केसर के पास ला रहे है .धूल में लिथड़ा हुआ बक्का का जिस्म किस यातना से गुजर रहा है ,उन्ची नीची ज़मीन के कारण जो यातना भुगत रहा है वह् देखना भी एक यातना है .

कुछ दिन बाद केसर कजरी से बक्का के माथे पर कुँआ खोदने से पहले तिलक करने को कहती है ,``कजरी !तेरे गांव का बक्का तेरा ही था ,मै तो बीच में आ गई थी .अब तू इसका तिलक कर तो पानी निकलेगा . ``

फ़िल्म वही पहुंच गई है जहाँ से आरम्भ हुई थी यानि कि कुँआ खोदता बक्का व ज़मीन की धूल में अंटी, प्यास से तड़पती केसर ,``बक्का !मेरे बच्चे को बचा ले --.----`.बक्का पसीने में डूबा गहरे गढ्‌ढे में फावड़े से मिट्‍टी खोद रहा है .अचानक गढ्‌ढे में पानी का फुव्वारा छूत पड़ता है .बक्का ऊपर चदता आता है. उधर प्रकृति भी मुस्कराते हुए बारिश कर देती है .बक्का कुन्ये के पानी को व बारिश को देखकर उसमें भीगता खुशी से बौराया जा रहा है लेकिन ---------.

दुःख मे डूबे बक्का को छ;महीने बाद किसी ने कभी नही देखा .कजरी को बक्का के घर में रहते हुए सरकारी बक्का के लिए मानपत्र व भारी भरकम चेक मिल गया तो क्या ?

तभी द वर्ल्द कंजर्वेशन यूनिअन के निदेशक जनरल डेविड मैक्दवेल ने कहा था ,``इतिहास गवाह है कि बड़ी से बड़ी सभ्यताये पानी की कमी से ऎसे नष्ट हो गई कि जैसे वे कभी थी ही नही .``

.बक्का की लहराती हुई चाल, ढाल को देखकर तो मै बहुत समय तक यही समझती रही कि ये किरदार किसी कच्छ के अभिनेता ने निबाहा है .पूरब एच .कोहली ने बक्का के रुप में रन के सजीले युवा का रोल बखूबी निबाहा है .कीर्ति कोलहारी केसर व तनिष्ठा चटर्जी कजरी के रुप में अपने कॉस्टयूम व अदाकारी से इस फ़िल्म को विश्वसनीयता दी है .पूनिया के रुप मे मुकुल देव तो जाना पहचाना नाम हैं .मॉडल सेडा ज़ूल्स ,जो आधी जर्मन हैं व आधी रशियन हैं भी गंभीर किम के रुप में प्रामाणिक लगती है .सोनू निगम व विक्रम घोष वातावरण के अनुकूल संगीत दे पाये हैं .सेल्युलाइड पर लिखी जीवन के कटु यथार्थ से गुजराती इस फ़िल्म को देख् आश्चर्य होता है कि निदेशक गिरीश मालिक ने कैसे कच्छ के रन के जीवंत पात्रों को फ़िल्म कलाकारों में उतार दिया है .इस बेहद कठिन विषय पर रन की संस्कति पर शोध करने के लिये गिरीश मलिक जी की टीम की बधाई तो बनती है .

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नीलम कुलश्रेष्ठ

सी 6-151,ऑर्किड हारमनी

एपल वुड्स टाउनशिप

एस. पी .रिंग रोड

अहमदाबाद -380058

मो.-09925534694