Falak tak chal.. sath mere - 3 in Hindi Love Stories by Nidhi Agrawal books and stories PDF | फ़लक तक चल... साथ मेरे ! - 3

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फ़लक तक चल... साथ मेरे ! - 3

फ़लक तक चल... साथ मेरे !

3.


अचानक आए अवांछित अनजान मेहमानों ने घर की ऑक्सीजन में कुछ और कमी ला एक विकट संकट उत्पन्न कर दिया था।

“तीन साल से बेटी जैसा रखे हैं हम लोग...तब आप लोग कहां थे?”, सुलक्षणा मामी ने अपने उसी शांत स्वर में कहा।

“आए हाय, तो क्या एहसान किया जी आपने, क्या हम नहीं समझते... क्यों रखा? मुफ्त की नौकरानी मिल गई आपको तो, उसका बचपन तो छीन ही लिया अब शादी न करके क्या उसकी जवानी भी बर्बाद करोगी जी!”

आने वाली महिला सुलक्षणा मामी के विपरीत अपने स्वर को ऊंचा रख अपनी बात सही साबित करने के सिद्धांत में विश्वास रखती थी ।

“शादी को कहां मना कर रहे हैं...लेकिन हमारी भी तो राय लेती आप। कोई सलाह मशवरा नहीं। सीधे तय कर दिया”, मामी ने स्थिति संभालनी चाही।

“लो... और सुन लो! अब ससुराल वाले मायके वालों से पूछकर फैसले करें और मायका भी जाने कौन से जन्म का ! वनिता की सगी नानी तो उसकी मां की शादी से भी पहले स्वर्ग सिधार चुकी थी। सुशीला बहन जी का कोई भाई था नहीं। उनके कौन से चचेरे भाई या ममेरे भाई हो आप...हम तो यह भी नही जानते! आप सामान बांधें। लड़की भेजें...नहीं तो हमें और भी तरीके आते हैं...”, लगता था कि वह ठान कर आई थी कि वनिता को साथ लेकर ही जाएगी।

“शादी के लिए उसकी उम्र भी नहीं अभी”, पूरे वार्तालाप में पहली बार राकेश मामा जी का स्वर सुनाई दिया ।

“आपकी गृहस्थी तो पूरी संभाले है”, महिला के साथ आये पुरुष ने नजरें टेढ़ी करके कहा।

बाहर दरवाजे पर खड़ी स्कार्पियो में बैठे कुछ गुंडेनुमा आदमी बार-बार अंदर झांक रहे थे। शायद इशारा चाहते थे अपने मालिक का।

“जैसा आप उचित समझें”, मामा ने हाथ जोड़ दिए।


“सुलक्षणा... भेज दो”, वह निर्णय सुनाते हुए उठ खड़े हुए।

सुलक्षणा मामी खून का घूंट पी अंदर आ गई। वनिता की तो जैसे बुद्धि ने काम ही करना बंद कर दिया था। वह कांपते हाथों से आलू छील रही थी। सुलक्षणा मामी ने हाथ से छीन लिया चाकू। और चाकू ने आलू के छिलके की परत की जगह वनिता के हाथ की खाल की एक परत उतार दी।


“कहती है... हमने बचपन छीन लिया। बचपन भले ही छीना हो, इज्जत तो बची रही! और तू भी सुन ले... इन लोगों के साथ दामन काला कर यहां वापस लौटने की तो कभी भूल कर भी नहीं सोचना”, उन्होंने रुक कर सांस ली पर अभी आवेश शांत नही हुआ था। वह आगे बोली,

“तब तो अर्थी को कंधा देने को भी आठ आदमी मायके के ही खड़े हुए। आज ससुराल वालों का सब हक हो गया। दफा हो जा यहां से…”, सुलक्षणा मामी ने धीमी आवाज में एक-एक शब्द को चबा दांत पीसते हुए कहा।

अपना जंग लगा छोटा सा सन्दूक ले जब वनिता बाहर निकली तो लगा जैसे चलने को पैरों में जान ही नहीं हो। 'किसी ऐसे स्थान पर जहां सुबह से रात तक सिर्फ उपेक्षा मिली हो उसे छोड़ना भी क्या प्राण छोड़ने जैसा होता है?', उसने सोचा। आभास का दूर-दूर तक कहीं कुछ अता-पता नहीं था।

एक अत्यधिक थका देने वाले लंबे सफर के बाद वह जिस घर में पहुंची वह मामी के घर से निश्चित ही कुछ बड़ा था। रास्ते भर हर गांव से गुजरने पर उसे लगता कि यह मेरा ही गांव तो नहीं! मन करता कि गाड़ी से कूद इन पगडंडियों पर दौड़ जाए तो यह पगडंडियां सीधे घर के आंगन में खुलेंगी लेकिन साथ चलती स्कार्पियो में छह फीट से भी लंबे और बड़ी मूंछों वाले अजीबोगरीब शक्ल के लोगों के चलते वह इस चौदह घंटे के सफर में एक बार के लिए भी अपनी जगह से हिली तक नहीं थी ।

यहां सालों बाद पहली बार किसी ने उसे खाना परोसा। वनिता को लगा शायद यही समय है जब उसकी किस्मत पर लगे ताले खुलने वाले हैं। अगले कुछ दिन नए-नए चेहरे आ कर उसका चेहरा देखते। अचानक प्रकट हुई इन नई बुआ जी ने सहृदयता दिखाते हुए कुछ नए कपड़े भी दिला दिए थे। वनिता भी शीशे के आगे से निकलते हुए खुद को निहारने का लोभ संवरण नहीं कर पाती थी। अपने आस-पास हो रही बातों से वनिता को एहसास हुआ कि शायद घर में हो रही हलचल उसके विवाह को लेकर ही है। विवाह शब्द ही ऐसा है कि इस उम्र में किसी भी लड़की की धड़कन बढ़ा दे किन्तु यह विवाह इस लिहाज से अनोखा था कि इसमें होने वाले साथी के बारे में कोई जानकारी ही न थी! उस पर यह नया माहौल सुलक्षणा मामी के घर से काफी अधिक कर्कश और वाचाल था लेकिन एक रहस्य सा हवा में तैरता रहता जिसके बारे में वह कभी किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पाती। एक दिन मुखरता कोलाहल में बदल गई और एक लाल रंग की साड़ी पहना कर, उसका चेहरा तरह-तरह की बिंदियों से सजा, उसे एक अजनबी आदमी के पास बिठा दिया गया। पंडित जी द्वारा जब उसे अपना हाथ इस अजनबी के हाथों में रखने के लिए कहा गया तो जाने क्यों उसे वह स्पर्श जाना पहचाना लगा।


‘आभास !!’, सोच कर उसे सुकून मिला।

इससे पहले कि भोर की मूर्छा टूटती और रवि के प्रकाश में रात के काले सायों के वास्तविक चेहरे दिखाई देते, तारों की मद्धम छांव में वनिता और भी अधिक अनजान लोगों के साथ एक नए गंतव्य के लिए रवाना हो चुकी थी।

पिछले एक हफ्ते में जितना अधिक सुलक्षणा मामी का मेरठ का घर दूर छूटा जा रहा था, जाने क्यों उतनी ही अधिक उत्कंठा उसे वहां वापस जाने की हो रही थी। यहां के लोगों की वेशभूषा, बोलचाल में एक अलग ही गंवईपन और अभद्रता थी। वनिता संकोच से गड़ी जाती। घर में पदार्पण के साथ ही वनिता समझ गई थी कि यहां लोगों का जीवन सहज स्वाभाविक है, वह कोई मुखौटा नहीं लगाते ...जितने स्वार्थी, धूर्त और निर्दयी हैं, पूरी निर्लज्जता के साथ उसे दिखाते हैं।

मुंह दिखाई की रस्म में हर बार घूंघट उठने पर रहस्यों से भी पर्दा उठता गया। तीसरे नंबर की जेठानी ने घूंघट उठाते हुए कहा -"तो पचास हजार रुपये नकद दे कर यह आफ़ताब आया है! मेरी लज्जो क्या बुरी थी इससे", कहकर उसने उपेक्षा से मुंह बनाया।

“हां, अपने एक पैर पर ऊपर नीचे भाग कर गृहस्थी जरूर संभाल लेती तुम्हारी लज्जो”, बड़ी जेठानी ने बिना कोई समय गंवाए कहा तो सभी स्त्रियां आंचल में मुंह दबा ही-ही कर हंस पड़ी ।

“तो दुहेजू को दो टांगों वाली लड़की कौन देगा! यूं ही घर की जमा पूंजी लुटा कर खरीदनी पड़ी न!”,वह तुनकती हुई चली गई।

'उसका मूल्य पचास हज़ार रूपये है?', यह जानकर वनिता का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वह तो आज तक खुद को एक अवांछित बोझ ही समझ रही थी। क्या सच ही वह किसी के लिए इतना मायने रखती है कि मूल्य चुका कर वह उसका वरण करे। ज्यों भूखे को चांद भी रोटी दिखता है वर्षों से सम्मान के दो बोलों को तरसती वनिता को यह ख्याल मात्र ही भावविभोर कर रहा था।

“नई दुल्हनिया है तो चांद की ही तरह ! पहली बिन बच्चा जने मर गई, यह जरूर मनोज को वारिस देगी”,बड़बोली नाइन ने कुछ अधिक नेग मिलने की उम्मीद में तारीफों की लाइन लगा दी।

दिन भर यंत्रवत पूजा की रीतियां निपटाते वनिता का दिल अपने उस नए स्वामी से मिलने को प्रतीक्षारत रहा जिसने उसे कुछ मूल्यवान समझा था।

‘आखिर ऐसा क्या है मुझ में’, उसने पूछा भी स्वयं से !

‘मेरी नजरों से देखो’, जवाब आया।

‘सब दे कर भी तुम्हें पाना होता तब भी तुम्हें ही चुनता’, वह आगे बोला।

‘सच?’, वनिता ने आंखों में झांका।

“अभी भी कोई शक है क्या?”, पास खड़ी ननद ने ठिठोली की।


वनिता ने घूंघट से झांका तो आसपास औरतों का हुजूम था। इंतजार की घड़ियां देर रात खत्म हुई... दरवाजा खुला और एक छाया उसकी ओर बढ़ी,


‘आभास !’, उसने दबे स्वर में पुकारा।

रात का गहन अंधकार वनिता के समूचे वजूद को अपनी गिरफ्त में जकड़ता गया । सुबह सूर्य की किरणों ने धरती पर बिखरी ओस की चादर में कुछ सुनहरे रंग भरे। पंछियों के कलरव ने रात की नीरवता भंग की और वनिता ने अपने शरीर पर पड़ें नीले धब्बों को सहलाते हुए सोचा कि अवश्य ही अंतहीन सृष्टि के कुछ हिस्से सूरज की किरणों से अछूते, सदा ही अंधकार में रहने को उस जैसे ही शापित होते होंगे।