"मम्मी, देख लीजिए, मौसी का कमरा ठीक कर दिया है। कुछ और चाहिए, तो बताइएगा।"
बहू की आवाज़ फिर सुमित्रा जी को ग्वालियर वापस ले आई। सोफे के हत्थों पर हाथ टेक के खड़ी होतीं सुमित्रा जी के पैरों में भी अब तक़लीफ़ रहने लगी है।
"उम्र है तो अर्थराइटिस है, अर्थराइटिस है तो डॉक्टर हैं, डॉक्टर हैं तो दवाइयां हैं, दवाइयां हैं, तो मर्ज़ हैं...."
पैर आगे बढ़ाते , दर्द महसूस करते अक्सर सुमित्रा जी यही लाइन मुंह ही मुंह में बुदबुदाती हैं। कमरा एकदम चकाचक कर दिया गया था। सब इंतज़ाम था लेकिन कुंती का पैर कहाँ टिकता है बहुत दिन? कल आएगी, कहो दो दिन बाद ही वापस जाने के लिए फड़फड़ाने लगे।
इधर कुंती से मिले कई बरस हो गए थे। सुमित्रा जी अपने परिवार में ही बेतरह व्यस्त हो गईं थीं। तीनों बच्चों की शादियां हो गईं, बच्चे भी बाल बच्चेदार हो गए, लेकिन सुमित्रा जी की व्यस्तता ख़त्म न हुई। कभी रूपा आने वाली वाली है, कभी दीपा तो कभी बहू को मायके जाना होता है। बस इसी सब में पूरा साल निकल जाता है। फिर कुंती भी गाँव में कहां टिकती है, तो अब गाँव जाने का भी कोई मतलब नहीं रह गया था। तिवारी जी साल में एकाध बार हो आते थे। किशोर और जानकी दोनों की पोस्टिंग गांव में ही थी, तो खेतीबाड़ी का काम किशोर ही देखता था। देखता क्या, बटाई पर दे दिए थे खेत। अनाज आता तो उसे स्टोर में भरवाने, छोटू के पास भिजवाने का ज़िम्मा उसी का था। तिवारी जी खुद ही गाड़ी ले के गांव जाते और अनाज ले आते थे।
कुंती कभी किशोर के पास रहती तो कभी छोटू के पास। कभी किशोर के बेटे के पास चली जाती, जो कानपुर में नौकरी कर रहा था। कभी कभी बिना बताए मथुरा चली जाती। एक बार तो बिना बताए अमरनाथ यात्रा कर आई। पैसे की कमी थी नहीं, कोई रोके, ये किसी में दम न थी। लेकिन उसके बिना बताए निकल जाने से सब परेशान थे। अमरनाथ यात्रा पर तो कानपुर प्रवास के दौरान, वहीं एक पड़ोसी जो अमरनाथ यात्रा की तैयारी कर रहे थे, उनसे अपनी भी तैयारी करवा ली और निकल गयी। पीछे से किशोर का बेटा-बहू पागल हो गए कुंती को खोज खोज के। मोबाइल का ज़माना था नहीं वो। फिर जब पंद्रह दिन बाद उसके पड़ोसी लौटे, तब जा के उसे पता चला कि दादी कहाँ निकल ली थीं। अब तो ख़ैर, सबके पास मोबाइल है, तो दिक़्क़त नहीं होती। लेकिन कुंती की भली चलाई....ये एकदम ज़रूरी नहीं कि कुंती फोन उठा ही ले। जिससे बात नहीं करनी या यदि उसे लगे कि फलाना व्यक्ति उसे खोज रहा इसलिए फोन कर रहा, तब तो बिल्कुल ही फोन नहीं उठता कुंती का।
कुन्ती की बस सुबह छह बजे आ जाती है ग्वालियर. बस से ही आती है कुन्ती, क्योंकि ट्रेन के लिये भी उसे झांसी तक बस से ही आना पड़ेगा, तो गांव से होकर, ग्वालियर जाने वाली बस निकलती है. कुन्ती उसी में सवार हो जाती है. वैसे सफ़र इतना लम्बा भी नहीं, लेकिन इतना छोटा भी नहीं. गांव से झांसी, एक घंटा, फिर झांसी से ग्वालियर तीन घंटे. कभी-कभी ढाई घंटे में भी पहुंच जाती है बस. एक बार ट्रेन में सीट को ले के झगड़ा हो गया था कुन्ती का, तब से उसे बस ही ज़्यादा रास आती है. ये बस वैसे भी उसके गांव की तरफ़ से आती है तो ड्राइवर कन्डेक्टर सब जानते हैं उसे. पूरे सम्मानसहित बिठा के लाते हैं, चाय-पानी को पूछते हुए.
सुमित्रा जी पांच बजे ही उठ गयी थीं. रोज़ ही जाग जाती हैं, पांच बजे, लेकिन उठती छह बजे हैं. फ़ालतू में पांच बजे क्या उठना? जीवन भर तो चार बजे उठी ही हैं, स्कूल जाने के लिये. लेकिन अब बच्चे पीछे पड़े रहते हैं कि जल्दी न उठा करो. कौन सा ड्यूटी पर जाना है तुम्हें? हां, छह बजे भी जब उठो, तो पानी पी के प्राणायाम ज़रूर करो थोश़्ई देर, क्योंकि कोई और एक्सरसाइज़ तो हो नहीं रही. बहुत नियमित नहीं हैं सुमित्रा जी, कभी कभार कर लेती हैं, लेकिन तिवारी जी नियम के पक्के हैं. साढ़े पांच बजे उठते हैं, और ठीक छह बजे प्राणायाम के लिये बैठ जाते हैं. साढ़े छह बजे तक उनका प्राणायाम चलता है. तब तक अज्जू और बहू भी अपनी वॉक से लौट आते हैं. सुमित्रा जी सबकी चाय बना लेती हैं, फिर सब बाहर लॉन में बैठ के चाय पीते हैं, पेपर पढ़ते हैं. अज्जू और बहू से बस इतनी ही देर बात हो पाती है तिवारी जी और सुमित्रा जी की. इसके बाद दोनों ही अपने नहाने-धोने और ऑफ़िस जाने की तैयारी करते हैं. मालती आ जाती है आठ बजे. वो पहले सबका नाश्ता बनाती है फिर अज्जू और बहू का टिफ़िन पैक कर के देती है. दस बजे ये दोनों नश्ता करके चले जाते हैं. लगभग यही समय चन्ना की स्कूल बस का भी है तो तिवारी जी उसे स्टॉप तक ले के जाते हैं, बस में चढ़ा के लौट आते हैं. पास ही है बस का स्टॉपेज़. फिर सारा दिन सुमित्रा जी और तिवारी जी. मालती खाना बना के, इन दोनों को परोस के तब जाती है. झाड़ू-पोंछा और बर्तन वाली सहायिकाएं भी दस बजे के बाद ही आती हैं. उनसे पूरा काम करवाने की ज़िम्मेदारी भी मालती की ही है. कहीं कोई गड़बड़ काम करे, तो मालती ही टोकती है. सुमित्रा जी को टोकना पसन्द ही नहीं. कोई काम पसन्द नहीं आयेगा, तो खुद कर लेंगीं, लेकिन दूसरों की तरह काम वालियों के पीछे नहीं पड़ती सुमित्रा जी. सारे काम वाले बारह बजे तक चले जाते हैं. तिवारी जी, रोज़ एकाध घंटा बगिया सुधारने में, पानी देने में खर्च करते हैं. बाक़ी समय पेपर पढ़ने या कोई और पुस्तक पढ़ने में लगाते हैं. दोपहर दो से चार बजे तक वे सोते हैं. सुमित्रा जी इस बीच सबको फोन करने का काम निबटातीं हैं. चार बजे तिवारी जी अपनी चाय खुद ही बना के पीते हैं. साढ़े चार बजे चन्ना आ जाता है. फिर थोड़ी देर उसके साथ खेल-कूद चलता है. सात बजे तक अज्जू और बहू लौट पाते हैं. दोनों ही बैंककर्मी हैं.