Tere Shahar Ke Mere Log - 7 in Hindi Biography by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | तेरे शहर के मेरे लोग - 7

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तेरे शहर के मेरे लोग - 7





वीरेंद्र के अपना कला संस्थान खोल लेने के बाद मैंने अपने संस्थान का भी विधिवत पंजीकरण करवा लिया। संस्था के पंजीकरण के कारण मुझे दो - तीन बार जयपुर के समीप स्थित टोंक जिला मुख्यालय पर भी जाने का अवसर मिला।

( सात )


इस प्रक्रिया में मुझे कुछ नए अनुभव हुए। मैंने देखा कि अधिकांश स्थानों पर सरकारी सेवा में जो लोग थे, वो कई नियमों से अनभिज्ञ तो थे ही, उनमें किसी नए, उन्नति के कार्य को अंजाम देने की पहल करने का जज़्बा भी नहीं था।


इसका कारण ये था कि ये जिला प्रदेश के चंद पिछड़े जिलों में शामिल था।


मैंने अपने संस्थान की ओर से एक पत्रिका निकालने के लिए पंजीकरण करवाने के लिए आवेदन किया तो मुझे बताया गया कि बरसों से यहां ऐसा कोई आवेदन नहीं आया है अतः किसी को इसकी प्रक्रिया की जानकारी नहीं है। मैंने कागज़ी कार्यवाही पूरी करके अपनी एप्लिकेशन वहां से दिल्ली भिजवाई। जल्दी ही मुझे वहां से एक नई पत्रिका "राही अंतःक्षेप" के लिए पंजीकरण नंबर मिल गया। मैंने इस पत्रिका को त्रैमासिक रूप से निकालना भी आरंभ कर दिया।
पहले मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे इस कार्य से कहीं अपने शिक्षण संस्थान के मेरे दायित्व और कार्य में किसी भी तरह का व्यवधान नहीं अाए किन्तु जल्दी ही मैंने देखा कि मैं अपने करियर की शुरुआत मुंबई, दिल्ली से करने के कारण अधिक दायित्व लेे लेने और परिश्रम कर लेने का अभ्यस्त ही था, मुझे यहां असुविधा नहीं हुई।


बड़े शहरों की बाधाएं और चुनौतियां आपको परिश्रमी बनाती हैं और समय का भरपूर इस्तेमाल करना सिखा देती हैं।


वैसे भी मुझे ख़ाली बैठ कर समय पास करना कभी से ही पसंद नहीं था। मुझे याद है कि कई अवसरों पर लोग जब मुझसे मिलने आते थे तो मेरे "कहिए?" बोलने पर ही सकपका जाते थे। शायद उनके पास कहने को कुछ न होता हो। जबकि मुझे बिना किसी काम के किसी के पास जा बैठने की आदत बिल्कुल नहीं थी।


शायद मैं इस प्रश्न का उत्तर दिमाग़ में लिए बिना कहीं जाता भी नहीं था।


यहां आने के बाद सबसे दिलचस्प बात मुझे लगी कि यहां कई ऐसे लोग आसानी से आकर चले जाते थे, जो और कहीं मेले लगाकर या भीड़ जुटा कर ही आना पसंद करते थे। ये शायद इस स्थान का प्रताप था।


मेरे मन में एक बात अक्सर आती थी जो मैं आपसे बांटना चाहता हूं। मुझे ज़िन्दगी में अपने बारे में कभी कोई "फीडबैक" नहीं मिला। कोई मुझे बताता नहीं था कि मैं कैसा हूं, मैं जो कर रहा हूं वो कितना उपयोगी है, मैं अपनी ज़िंदगी में सफल हूं या विफल।


और सच पूछें तो मैं ही कहां जानता था कि सफल या विफल कैसे होते हैं।


कभी अपने घर की छत पर शाम को अकेलेे खड़े होकर अपने पड़ोस में किसी महिला या पुरुष को खिलखिला कर हंसते हुए देखता तो सोचने लग जाता...धरती के ठंडा होने के बाद निसर्ग की लंबी प्रक्रियाओं से कोश, ऊतक, अस्थिमज्जा, रक्त से बने पुतले हम किस बात पर इस तरह गदगद हो जाते हैं?


नहीं, इस बात से ये अंदाज़ न लगाएं कि मुझसे दूसरों की ख़ुशी देखी नहीं जाती थी। मैं दूसरों को दुखी होते देख भी इसी तरह सोचता था। पानी के बुलबुले की तरह अकस्मात मिल गए जीवन में किस बात के लिए दुःखी होना?


अपनी पत्रिका का प्रकाशन शुरू करने के बाद देश भर से मेरे मित्र, परिचित और रूचिशील लोगों के अलावा स्थानीय लोग, विशेष कर युवा मुझसे जुड़ने लगे।


पूर्व संपर्कों के सहारे मुझे देश भर से ही साहित्यिक समारोहों के निमंत्रण भी मिलते। व्यस्त होने पर भी यथासंभव समय निकाल कर उनमें जाने का प्रयास करता।


यहां एक और बात स्पष्ट कर देने की ज़रूरत लग रही है।


कई जगह इस तरह जा आने के बाद मुझे ये अनुभव हुआ कि हिंदी में हर कहीं एक समूह या गुट बना लेने की प्रवृत्ति पनप रही है। सब एक से विचारों का अपना एक गुट बना लेना चाहते हैं और बार -बार वही लोग, उसी उद्देश्य को लेकर अलग- अलग जगह पर मिलते हैं।


ये गुट अगर राजनीतिक अथवा विचारधारा को लेकर है तो ग़ज़ब की कट्टरता है।


"अपने लोगों के मैले में भी सुगंध है और दूसरे विचार के इत्र में भी बदबू है।" कष्ट की बात केवल ये है कि इस तरह की प्रवृत्ति के लोग बुद्धिजीवी कहलाने की कतार में हैं।


जो लोग इन सीमाओं को न मान कर खुले तौर पर गमनागमन करते हैं उनके लिए सम्मान तो है, स्वीकार नहीं है। सम्मान "दिल से" नहीं, शॉल श्रीफल से!


अपने दौरों और पुरस्कार- सम्मान यात्राओं के समाचार स्थानीय अख़बारों में लगातार छपते रहने का परिणाम ये हुआ कि राज्य की जन सतर्कता समिति ने मुझे इस ज़िले का जिलाध्यक्ष बना दिया।


अब इसकी नियमित अंतराल पर बैठकें होती और उनमें शिरक़त करने का सिलसिला शुरू हो गया।


कई पुलिस अधिकारियों, प्रशासनिक अधिकारियों व विशेषज्ञों के समय - समय पर व्याख्यान आदि आयोजित किए।


देखते - देखते सदी बीत गई।


नई सदी की पहली किताब के रूप में हरियाणा के एक प्रकाशन से अगला कहानी संग्रह "सत्ताघर की कंदराएं" छपा। इसमें कुछ ताज़ा कहानियां थीं जो काग़ज़ कलम से घोर व्यस्तता और अफरा- तफरी में भी "पिंड न छूटने" का प्रमाण था।
इस किताब पर लुधियाना में मुझे एक पुरस्कार भी मिला।


इन्हीं दिनों बाल साहित्य का प्रतिष्ठित "सूर" पुरस्कार उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से प्राप्त हुआ।


दिल्ली प्रेस की पत्रिका "सरिता" ने भी अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत किया और ये पुरस्कार लखनऊ में आमंत्रित करके दिया।


बाल साहित्य की पुस्तक "उगते नहीं उजाले" के बाद संपादित पुस्तक "याद रहेंगे देर तक" छपी।


प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान के प्रशासन व जनसंपर्क अधिकारी होने का एक परिणाम ये भी हुआ कि स्थानीय अख़बारों ने मेरी उपलब्धियों को हाथों - हाथ लेकर मेरे नाम का मेला सा लगा दिया।


देश की दो- तीन लोकप्रिय व नामचीन साहित्यिक संस्थाओं ने इन्हीं दिनों सम्मान अथवा पुरस्कारों से नवाज़ कर अख़बारों को और ज्वलनशील ख़बरें दे दीं।


अगर मैं कहूं कि मेरे बारे में खबरें तिल का ताड़ बना कर छापी गईं, तो भी मीडिया को बार - बार "तिल" उपलब्ध करा देने का कुसूरवार तो मैं ही था।


मुझे वर्षों पहले के मेरे दिल्ली के वो उच्चाधिकारी याद आने लगे, जो मुझे इस बात के लिए डांटा करते थे कि जो अख़बार बैंक की करोड़ों की खबरें चार लाइन में छाप देते हैं वो तुम्हारा फ़ोटो और आधे पेज का आलेख क्यों छापते हैं?


इन्हीं दिनों गाजियाबाद से मेरे संस्मरणों की किताब "रस्ते में हो गई शाम" छपी।


इस किताब में मेरे कुछ ऐसे संस्मरण थे जो उन साक्षात्कारों के दौरान हुए मेरे अनुभवों पर आधारित थे जो मैंने विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं के लिए नामी- गिरामी और बड़े साहित्यकारों से लिए थे, जैसे - हरिवंश राय बच्चन, विष्णु प्रभाकर, डॉ धर्मवीर भारती, सागर सरहदी आदि।


इसके विमोचन की खबर पत्र- पत्रिकाओं में जिस तरह छपी, मैं भीतर से डर ही गया। मुझे ऐसा लगा मानो मीडिया ने मुझे उस पहलवान की भांति दोनों हाथों में उठा लिया हो जो अपने किसी प्रतिस्पर्धी को हराकर रिंग से बाहर फ़ेंक देने के लिए उठा लेता है।


यहां तक कि घर में बच्चे भी मुझसे मज़ाक करते। यदि मुझे किसी दिन नहाने में थोड़ी देर हो जाती तो मेरा बेटा हंस कर कहता - "अरे पापा, जल्दी से नहा लो, नहीं तो कल अख़बार में आ जाएगा कि सर्दी देख कर साहित्यकार प्रबोधकुमार गोविल ने नहाने से तौबा की।"


एक बहुत वरिष्ठ व प्रभावशाली नेता ने तो जन सतर्कता समिति की एक गोपनीय बैठक में मुझसे बेहद आत्मीयता और विश्वास से ये पूछ डाला कि "ख़बरें कैसे छपती हैं?"


उन्हें लगता था कि मैं मुंबई से पत्रकारिता का स्वर्णपदक लेकर नहीं, बल्कि कोई जादू सीख कर आया हूं।


इन्हीं दिनों जन सतर्कता समिति के प्रदेश अध्यक्ष ने मुझे राज्य का विशेष सचिव नियुक्त कर दिया।


अब बैठकों में भाग लेने के लिए मुझे जयपुर में आना होता। इसी दौरान दो पुलिस थानों में कर्मठ पुलिस कर्मियों को मेरे हाथ से पुरस्कार दिलाए गए।


एक बार चुनाव के समय आचार संहिता लग जाने के कारण प्रदेश के शिक्षा मंत्री के स्थान पर सरकारी समारोह में मैंने पुरस्कृत शिक्षकों को पुरस्कार देकर संबोधित किया।


कुछ पुरस्कृत प्रधानाचार्यों ने मुझ से बाद में मिलकर गुप्त रूप से कहा कि "शिक्षा मंत्रीजी आते तो कार्यक्रम इतना गरिमामय नहीं हो पाता, आपका नाम सुन कर शिक्षक ज़्यादा ख़ुश थे।"


ये सब क्या था, मुझे तो सुनकर घबराहट सी ही होती थी।


मैंने इन दिनों अपने दफ़्तर के बाद रात को दो घंटे के लिए नज़दीक के ही गांव के अपने उस भवन में भी जाकर बैठना शुरू कर दिया था जो मैंने कभी बनवा कर छोड़ दिया था।


इसके दो- तीन हिस्सों में कुछ परिवार किराए से रहते थे पर पीछे के एक भाग में लॉन से लगते हुए कुछ कमरे अपने निजी ऑफिस के लिए भी बनवा लिए थे। यहां मैंने एक - दो कर्मचारियों को भी रख दिया था जो मेरा निजी कार्य भी देखा करते थे।


शाम को ऑफिस से आने के बाद घर पर चाय पीकर मैं अपनी कार लेकर यहां चला आता था और फ़िर दो घंटे बाद घर लौट कर परिवार के साथ भोजन होता।


आसपास के क्षेत्र के कुछ सरकारी व निजी स्कूल, कॉलेज आदि जो मेरे एनजीओ से जुड़े थे उनके पदाधिकारी व कर्मचारी यहीं मुझसे मिला करते थे।


मैंने अपने संस्थान और अपने निजी कार्य को आपस में कभी नहीं मिलाया। मैं घर आते ही दफ़्तर को, और दफ़्तर पहुंचते ही घर को भूल जाने का कायल था।


दोनों ही के लिए एक निष्ठा पूर्ण प्रतिबद्धता मेरे स्वभाव में थी।


यहीं एक कमरा पुस्तकों के लिए था। मेरी लिखने की मेज़ भी यहीं थी। मैं अपने घर पर पूरी तरह लेखन से दूर रहता था।


कभी- कभी मैं अकेले बैठा हुआ अपने ही मानस में दो खंडों में बंट जाता था।


एक तरफ़ मुझे लगता था कि मुझे अब अपने लेखन से पूरी तरह ध्यान हटा कर केवल अपने संस्थान के लिए ही चौबीस घंटे सोचना चाहिए और अपनी क्षमता का उपयोग इसकी बेहतरी में ही करना चाहिए।


किन्तु दूसरी ओर अपने लंबे और विविध अनुभवों से लदा फदा मेरा मन मुझसे कहता कि केवल नौकरी एक दिन मुझे कार्य से रिटायर कर देगी और फ़िर किसी भी पद पर काम करने वाला मैं या कोई भी आदमी हर माह पेंशन पाने और हरसाल अपना जीवितता प्रमाणपत्र जमा कराने वाला एक ऐसा शख़्स बन कर रह जाएगा जिसका "उपयोगिता वक्र" रसातल में ही झुकता चला जाएगा।


मैं अपने इस दूसरे मन के साथ होकर फ़िर दिन में पंद्रह सोलह घंटे काम कर सकने के लिए अपने को तैयार करने लग जाता।


मुझे अपने परिवार और समाज के कई ऐसे लोग याद आने लगते जो दस से पांच के दफ़्तर के बाद बचा समय अख़बार, टीवी, शराब, ताश, या बोरियत में बिताते थे। और अपना ये रूप मैं अपनी कल्पना में कभी नहीं देख पाता था।


लोगों से मिलना, चर्चाओं- समारोहों में भाग लेना और कुछ न कुछ लिखते रहना शुरू हो जाता।


ये गांव एक अपेक्षाकृत संपन्न गांव था क्योंकि यहां रहने वाले परिवारों का कोई न कोई व्यक्ति उसी प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान में काम करता था जिसकी बाहरी बाउंड्रीवॉल के सहारे- सहारे ही ये गांव दूर तक फ़ैला हुआ था।


इसके और विद्यापीठ के बीच एक सड़क का ही फासला था जिस पर होकर ही शाम को मैं यहां आया करता था।


इन्हीं दिनों कुछ बच्चों की पत्रिकाओं में भी मैं लिखा करता था। इनमें कुछ बड़ी व्यावसायिक पत्रिकाएं थीं और कुछ लघु पत्रिकाएं।


यहां मैं लघु पत्रिकाओं को लेकर भी कुछ बात करना चाहूंगा क्योंकि इनमें लिखते रहने का भी लंबा अनुभव मुझे था।


डॉ धर्मवीर भारती से बात करते हुए एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि अधिकांश लघु पत्रिकायें केवल एक व्यक्ति की जिजीविषा के सहारे चलने वाले उपक्रम हैं जो अपने संपादक के साथ शुरू होते हैं और उसी के साथ समाप्त भी।


उनकी इस बात के बाद मैं हर पत्रिका के लिए इस बात की पड़ताल किया करता था। मेरा मानना था कि कुछ लघु पत्रिकाएं भी बहुत स्तरीय हैं और प्रतिबद्धता के साथ चल रही हैं, पर ऐसी छोटी पत्रिकाओं की भी भरमार है जो अपने संपादकों के हितों को साधने के लिए ही मैदान में हैं।


एक मार्मिक प्रसंग मुझे भी याद आता है, संकोच और क्षमा के साथ आपको बताता हूं। आरंभ में मैं कविताएं भी लिखा करता था।


एक छोटी पत्रिका में उन्हें भेजता तो हर रचना पर कुछ न कुछ कमी इंगित करने के साथ - साथ और और दूसरी रचनाएं भेजने के लिए कहा जाता।


मैंने खिन्न होकर वहां भेजना ही बंद कर दिया।


कुछ महीनों बाद अचानक बड़ी साज- सज्जा के साथ मेरी सभी रचनाएं छप कर अा गईं।


और बाद में मुझे पता चला कि संपादक महोदय स्वास्थ्य संबंधी किसी बड़ी समस्या में घिरे हैं और उन्हें मुंबई में दिखाने के लिए कहा गया है जहां रहने व संपर्क करने के लिए वो मेरी मदद चाहते हैं। मैं उन दिनों मुंबई में था। उनका पत्र पढ़ कर द्रवित हो उठा।


मुझसे जो बन पड़ा वो मैंने किया भी। किन्तु अवचेतन में बैठी हुई कविता के लिए मेरी प्रतिबद्धता इससे कुछ खंडित ज़रूर हुई होगी।


सबका भला करो कुदरत!