जय श्रीकृष्ण बंधुवर!
श्रीगीताजी और परमेश्वर की कृपा से गीता जी के तेरहवें अध्याय के साथ आपके सम्मुख उपस्थित हूँ। श्रीगीताजी के अमृतमय शब्दो को पढ़कर अपने जीवन को कृतार्थ करे।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-१३🙏
श्रीकृष्ण बोले- हे कौन्तेय! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इसके जानने वालों को क्षेत्रज्ञ कहते हैं। सम्पूर्ण क्षेत्र में क्षेत्र मुझको जान। क्षेत्र और क्षेत्र का जो ज्ञान है मेरे मत से वही ज्ञान है। यह क्षेत्र कैसे रूप का है, इसमें कौन-२ से विकार होते हैं, उसको उत्पत्ति किस प्रकार से हुई और क्षेत्र का क्या प्रभाव है इत्यादि बातें संक्षेप में कहता हूँ सुनों। ऋषियों ने अनेक प्रकार के छंदों में इसको बताया है, वेदों ने भी पृथक-२ वर्णन किया है और हेतु वाले ब्रम्हासूत्र पदों करके भी यह ज्ञान निश्चय किया गया है। पंच महाभूत अहंकार बुद्ध8 अव्यक्त प्रकृति दसों इन्द्रियाँ, मन तथा पांचो इन्द्रियों के विषय तथा इच्छा, द्वेष, सुख-दुख, संघात, चेतना, धृति, इनके समूह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के यह विकार है। मान और पाखंड से रहित अहिंसा, सहन शीलता, सरलता, गुरु की सेवा, पवित्रता अपने मन का संयम, इन्द्रियों के विषय से विरक्त, अहंकार रहित और जन्म-मृत्यु बुढापा रोग दुःखादि दोषों को देखना, पुत्र, स्त्री, गृह, इत्यादि में आसक्ति न करना अर्थात् इनमें अपने को सुखी दुःखी न मानना और इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-विषाद रहित रहना, अनन्य भाव से मेरी अनन्य भक्ति एकांत में करना, जन समूह में रहने से विराग, सदा स्मरण रखना की मैं परम परमात्मा का ही अंश हूँ, ज्ञान प्राप्ति के उद्देश्य से मोक्ष को सबसे श्रेष्ठ मानना इसे ही ज्ञान कहते हैं, इससे जो भिन्न है वह अज्ञानी हैं। अब ज्ञेय स्वरूप वर्णन करते हैं, जिसको जान मनुष्य मोक्ष पाता है। वह आदि रहित, बड़ो से बड़ा अकथनीय होने से सत और न असत ही कहा जाता है। सब उसके हाथ और नेत्र, सिर, मुख, कान है, वही जगत में सबको घेरे हुए स्थित हैं, वह सब इन्द्रियों के गुणों का प्रकाश है, पर उसके कोई इंद्री नहीं है, जिसको किसी से आसक्ति नहीं है पर जो सबका आधार है, जो स्वयं निर्गुण होने पर भी गुणों का भोक्ता है, जो सब भूतो के बाहर भीतर है जो बीजो चर और अचर है, जो अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण जाना नहीं जाता, जो दूर भी है जिसके विभाग नहीं होते पर जो भिन्न-२ भागो में विभक्त है, समान रहता है समस्त भूतों का पालन नाश और उत्पन्न करने वाला है वही ज्ञेय है। वह अन्धकार से परे ज्योतिर्मान पदार्थों को ज्योति देता है। वही जानने योग्य पदार्थ ज्ञान सबके हृदय में निवास करता है। इस प्रकार क्षेत्रज्ञान और क्षेत्र इनको संक्षेप में कहा। इसे जानकर मेरा भक्त मेरे पड़ को प्राप्त होता है प्रकृति और पुरुष दोनों ही आनादि है। विकारों और गुणों की उत्पत्ति प्रकृति से हुई है कार्य और कारण को प्रकृति उतपन्न करती है, पुरुष तो सुख और दुःख का भोक्ता है, पुरुष प्रकृति के गुणों का उपभोग करता है, तदानुसार उत्तम और अधम योनि में जन्म लेता है। इस देह में उसे उपदृष्टा, अनन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर, परमात्मा और परम पुरुष कहते हैं। इस प्रकार के गुणों के साथ प्रकृति और पुरुष जो जानता है उसका रहन-सहन चाहे जैसा हो, पुनः जन्म नही होता। कोई ध्यान से, कोई-२ सांख्य योग से और कोई कर्म योग के द्वारा अपने को आत्मा में देखते हैं, परन्तु कोई तो इसप्रकार न जानते हुए भी दूसरों से सुनकर ध्यान करतें है श्रद्धा से सुनकर वे भी मृत्यु के पार चले जातें है। हे अर्जुन! स्थावर या जंगम सब उतपन्न प्राणी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग ही होते है। परमेश्वर सब भूत में समान रूप से है। भूतों के नष्ट होने पर भी उनका नाश नहीं होता इस भाँति जो देखता है वही देवता है सब में समान रूप से स्थिर परमेश्वर को देखता हुआ जो अपनी आत्मा का नाश नहीं करता वह उत्तम गति प्राप्त करता है। जो यह देखता है कि प्रकृति द्वारा सब कर्म होते हैं और आत्मा अकर्ता है वही मानो देवता है। जब वह भिन्न-२ भूतों को परमेश्वर के बीच एक रूप देखता है और उसी से उनका विस्तार देखता है तब वह ब्रम्हा को प्राप्त होता हैओ। हे कौन्तेय! अनादि और निर्गुण होने से परमेश्वर अव्यय है शरीर में रहता हुआ भी वह कुछ नहीं करता, न उनमें लिप्त होतां है। जैसे आकाश में सर्वत्र व्याप्त होने पर भी किसी से मिलता नहीं है, उसी भाँति देह में सर्वत्र व्याप्त यह आत्मा भी इसमें लिप्त नहीं होती। हे भारत! जैसे एक ही सूर्य समस्त लोक को प्रकाशित करता है वैसे ही क्षेत्रज्ञ समस्त क्षेत्र को प्रकाशित करता है। जो लोग-ज्ञान-दृष्टि से क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ का भेद तथा भूतों की प्रकृति देखकर मोक्ष का उपाय जान लेते हैं, वे परम पद को पा लेते हैं।
अथ श्रीमद्भगतगीता का तेरहवाँ अध्याय समाप्त।
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🙏अथ तेरहवें अध्याय का महात्त्म्य🙏
श्री नारायणजी बोले- हे लक्ष्मी! अब तेरहवें अध्यायय का महात्त्म्य सुन
दक्षिण देश में हरिनाम नगर था वहां एक व्यभिचारिणी स्त्री रहती थी व्यभिचार करे मांस मदिरा खावें एकदिन एक पुरुष से उसने वचन किया अमुख स्थान में मैं तेरे पास आऊंगी रम वहां चलो वह पुरुष किसी और वन में चला गया और वह स्त्रीं उसे ढूंढती-२ हैरान हो गई पर मनुष्य न मिला वह भी भागता फिरे वह गणिका थककर उसका रास्ता देखने लगी देखते-२ ही सारा दिन व्यतीत हुआ प्रीतम न आया। सांझ पड़ गई वह गणिका प्रीतम का नाम लेकर पुकारने लगी इतनें वह पुरुष मिला, दोनों बड़े प्रसन्न होकर बैठे। इतने में एक शेर आया गणिका डरी, देखकर सिंह बोला री ओ गणिका में तुझे खाऊंगा। गणिका बोली तू अपने पिछले जन्म की बात कह तू कौन है। सिंह बोला मैं पूण जन्म में ब्राम्हण था झूठ बोला करता था बड़ा लोभी था यथा तथा दूसरे का धन हर लेता था। एकदिन प्रभात के समय घर से उठकर चला मार्ग में गिरते ही देह छूट गई यमों ने पकड़ लिया धर्मराज के पास ले गए देखते ही धर्मराज ने हुक्म दिया इसी घड़ी ब्राम्हण को सिंह का जन्म देदो। यह देह मुझे मिली और हुक्म दिया जो प्राणी पापी दुराचार करने वालें हो उनको तू खाया कर जो साधु वैष्णव हरि भक्त हो उनके पास न जाना। हे गणिका! मुझे धर्मराज की यह आज्ञा है जिनकी आज्ञा के सिंह की योनि में आया हूँ तू व्यभिचारिणी गणिका पापिन है इसी से तुझे खाऊंगा इतना कह गणिका को खा लिया। तब यह धर्मराज के पास गणिका को ले गये। धर्मराज ने हुक्म दिया इसको चाण्डालिनी का जन्म देवो। श्रीनारायणजी कहते हैं है लक्ष्मी! इसने गणिका की देह त्याग चाण्डालिनी की देह पाई। की दिन पीछे एकदिन नर्मदा नदी के तट पर चलती थी। वहां क्या देखा कि एक साधु गीता के तेरहवें अध्यायय का पाठ करता है उसने सुन लिया अब अध्यायय पढ़कर भोग पाया चांडालिनी के प्राण छूट गए देव देह पाई आकाश से विमान आए जिस पर बैठकर बैकुण्ठ को चली साधु ने पूछा री तूने कौन पूण्य किया है जिसको कण्व से तू बैकुण्ठ को चली है चाण्डालिनी ने कहा हे सन्तजी! इस तेरे पाठ को श्रवण कर मैं देव लोक को चली हूँ तब पार्षदों को कहा कोई ऐसा यत्न करो की जिस सिंह ने मुझे पूर्व गणिका के जन्म में खाया था उसको भी साथ ले चलो। तब साधु से प्रार्थना की है सन्तजी! गीता के एक श्लोक के पाठ का फल इसके निमित्त देवो तो सिंह का उद्धार होवें, तब उस संत ने पाठ का फल दिया तत्काल उस सिंह की देह छूटी देव देह पाई दोनों विमानों में चढ़कर वैकुंठ वासी हुए परमधाम को प्राप्त हुए । तब श्रो नारायणजी ने कहा- हे लक्ष्मी! यह तेरहवें अध्याय का महात्त्म्य है जो प्रीत के साथ पढ़ने की बात का कुछ फल कहा नहीं जाता अनजान पन से पढ़े तो भी परम धाम को प्राप्त होता है।
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💝~Durgesh Tiwari~