Zindagi ki Dhoop-chhanv - 2 in Hindi Short Stories by Harish Kumar Amit books and stories PDF | ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 2

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 2

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

मजबूरियों की समझ

बच्चा बड़ी बेसब्री से पापा के दफ़्तर से वापिस आने का इन्तज़ार कर रहा था. परीक्षाएँ पास आ रही थीं और उसकी अंकगणित की किताब गुम हो गई थी. स्कूल में अध्यापक ने सख़्त ताकीद की थी कि अगले दिन अंकगणित की किताब ज़रूर लेकर आनी है. इसी कारण बच्चा पापा के दफ़्तर से लौट आने का बड़ी बेचैनी से इन्तज़ार कर रहा था ताकि उनके साथ जाकर बाज़ार से नई किताब खरीदकर ला सके.

कुछ देर में पापा घर आ गए. बच्चे ने सोचा कि पापा चाय-वाय पी लें, फिर वह उन्हें बाज़ार चलने के लिए कहेगा. मगर चाय पीते-पीते पापा का मम्मी से झगड़ा शुरू हो गया. बच्चे को पूरी बात तो समझ नहीं आई, पर इतना ज़रूर समझ आ गया कि झगड़ा पैसों की कमी की वजह से ही है.

सहमा हुआ-सा बच्चा चुपचाप अपना होमवर्क करने लगा. किताब खरीदने की उसकी इच्छा आँसुओं के रूप में उसी आँखों से बहने लगी.

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अपनी-अपनी ख़ुशी

आज सुबह दफ़्तर जाने के लिए पति बहुत लेट हो गया था. नाश्ते के साथ पी जाने वाली ठंडी थी. और कोई दिन होता तो वह आसमान सिर पर उठा लेता. चाय का एकाध घूँट पीकर बाही-तबाही बकते और पैर पटकते हुए दफ़्तर चला जाता. मगर आज की ठंडी चाय पति को वरदान की तरह लगी थी. गटगट उसे पीते हुए वह मन-ही-मन बहुत ख़ुश हो रहा था कि चलो एक-डेढ़ मिनट बच गया.

उधर पत्नी भी बहुत ख़ुश थी कि हर रोज़ चाय में कोई-न-कोई नुक्स निकालने वाले पति को आज चाय बहुत अच्छी लगी है, तभी तो शिक़ायत में एक लफ़्ज भी नहीं कहा.

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थैंक यू

लोकल बस में मेरे साथ बैठे सहयात्री ने खड़े होकर सफ़र कर रहे एक वृद्ध को सीट दे दी. सीट पर बैठते ही वृद्ध ने सीट पर थोड़ी-सी जगह बनाकर अपने पाँच वर्षीय पोते को भी अपने साथ बिठा लिया. इस पर पोता उस वृद्ध से कहने लगा, ‘‘थैंक यू दादू, सीट देने के लिए.’’

जवाब ने वृद्ध ने कुछ नहीं कहा बस मुस्करा-भर दिया.

तभी उसका पोता कहने लगा, ‘‘दादू, आपने इन अंकल को थैंक यू बोला था क्या सीट देने के लिए?’’

वृद्ध के चेहरे की मुस्कराहट एकाएक ग़ायब हो गई.

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अपना-अपना ईमान

कुछ दिनों से मैं काफ़ी परेशान था. पाँच सौ रुपए का नकली नोट न जाने कहाँ से मुझे मिल गया था. नया-नकोर वह नोट दिखने में तो बिल्कुल असली जैसा लगता था, पर था नकली - यह बात मुझे तब पता चली थी जब मैं बैंक में कुछ रुपए जमा करवाने गया था.

उसके बाद मैंने दो-तीन बड़ी-बड़ी भीड़-भरी दुकानों पर वह नोट चलाने की कोशिश की, पर सफल न हो पाया. बहुत व्यस्त होने पर भी दुकानदारों की पारखी नज़रें नोट के नकली होने की बात जान लेती थीं.

मैं असमंजस में था कि नोट को कहाँ और कैसे चलाया जाए. फिर अचानक मुझे एक तरीक़ा सूझ ही गया.

रात के समय मैंने पटरी पर सब्ज़ी बेचने वाले से डेढ़ सौ रुपए की सब्ज़ी ख़रीदी और वही पाँच सौ का नकली नोट उसे पकड़ा दिया. मुझे उम्मीद थी कि लैम्पपोस्ट की मद्धम-सी रोशनी में वह सब्ज़ीवाला यह जान ही नहीं पाएगा कि नोट नकली है.

वह नोट लेने के बाद उस दुकानदार ने बाकी के नोट मुझे लौटाने के लिए रुपए गिनने शुरू किए, मगर रुपए गिनने में वह काफ़ी समय लगा रहा था. मुझे लगने लगा कि कहीं उसे नोट के नकली होने की भनक तो नहीं लग गई.

मैंने उससे पूछ ही लिया, ‘‘भइया, साढ़े तीन सौ रुपए ही तो वापिस करने हैं न मुझे. इतने-से रुपए गिनने में इतना ज़्यादा वक़्त लगता है क्या?’’

इस पर वह दुकानदार बाकी के रुपए मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, आपका नोट बिल्कुल नया था. अब ऐसे नए नोट के बदले आपको पुराने-पुराने नोट कैसे दे देता, इसलिए नए-नए नोट छाँट रहा था आपको देने के लिए.’’

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लूट

‘‘ये हर महीने पैंसिल का पैकेट मँगवाने की क्या ज़रूरत है? इतना तो मत लूटो सरकार को.’’ कहते हुए अफ़सर ने ‘पैंसिल का पैकेट’ वाली लाइन को काट दिया और स्टेशनरी मँगवाने का माँगपत्र क्लर्क को वापिस कर दिया.

अगले दिन उसी क्लर्क को बुलाकर अफसर ने अपने कम्प्यूटर का ख़त्म हो गया कार्टेरिज देते हुए नया कार्टेरिज मँगवाने के लिए एक नोट बनाकर लाने के लिए कहा. यह बात अलग है कि वह ख़त्म हो गया कार्टेरिज अफ़सर के घर में लगे निजी कम्प्यूटर का था. ऐसा करके अफसर ने करीब नौ सौ रुपए तो बचा ही लिए थे.

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असलियत

ऊपरवाले फ्लैट के फर्श पर जब-तब चलने की आवाज़ बहुत परेशान करती थी. कुछ दिन पहले ही उस फ्लैट में नए किराएदार आए थे. उस दिन छुट्टी के रोज़ नाश्ता करके मैंने सोने की सोची थी ताकि कई दिनों की बाकी नींद को पूरा कर पाऊँ, मगर सो पाना सम्भव लग नही रहा था. वजह वही ऊपरवाले फ्लैट से हमारी छत पर होती आवाज़ थी. परेशान होकर मैं गुस्से से भुनभुनाता हुआ दनादन सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर की मंज़िल पर जा पहुँचा. सोचा था जो भी घर में होगा, उसे खूब खरी-खोटी सुनाऊँगा. मगर दरवाज़े के पास पहुँचा तो अन्दर से किसी महिला की आवाज़ सुनाई दे रही थी, ‘‘देखो जी, अब तो आप काफी अच्छी तरह चलने लगे हो. भगवान ने चाहा तो कुछ दिनों बाद बिल्कुल ठीक-ठाक हो जाओगे और बिल्कुल सही तरह चल पाओगे.’’

तभी किसी पुरूष का स्वर सुनाई दिया, ‘‘एक्सीडेंट के बाद छह महीने बिस्तर पर पड़े-पड़े तो मुझे यही लगता था कि मैं अब कभी दोबारा चल ही नहीं पाऊँगा. मुझे तो लगता है जैसे फिर से चलना शुरू करने पर मुझे नई ज़िन्दगी मिली हो.’’

यह सब सुनकर मैं एकदम से वापिस मुड़ा और धीमे-धीमे कदमों से सीढ़ियाँ उतरते हुए अपने घर की ओर बढ़ने लगा. मेरा सारा गुस्सा न जाने कहाँ काफूर हो गया था.

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सपना

सुबह-सुबह दूध लेने डिपो की तरफ जाते हुए रास्ते में एक पार्क पड़ता था – उजाड़, वीरान, न घास, न पौघे. पार्क को देखकर अक्सर दिल में हूक उठती कि काश, अगर यह पार्क हरा-भरा होता तो सुबह-सुबह किसी तरह वक़्त निकालकर इसमें थोड़ी देर चहलकदमी की जा सकती थी.

फिर एक दिन तीन-चार सप्ताह के लिए शहर से बाहर जाते हुए देखा कि पार्क का कायाकल्प किया जा रहा था. घास रोपी जा रही थी. पौधे लगाए जा रहे थे. नई चारदीवारी बनाई जा रही थी. यह देखकर जी बहुत खुश हुआ कि चलो अब सुबह-सुबह पार्क में सैर करने का सपना पूरा हो सकेगा.

लगभग एक महीने बाद वापिस लौटने पर अगली सुबह दस-पन्द्रह मिनट पहले दूध लेने निकला. इरादा पार्क में थोड़ी देर सैर करके दूध लेने जाने का था. पर अभी पार्क से थोड़ी दूर ही था कि दिल धक्क से रह गया. रात को पार्क में सम्पन्न हुए विवाह समारोह के लिए लगाए टैंटों को उतारा जा रहा था और पूरे पार्क में जूठी पत्तलें बिखरी पड़ी थीं.

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रक़म-बनाम-रक़म

मैंने हाथ बढ़ाकर पिताजी के हाथ से डेढ़ लाख रुपए का चैक ले लिया. चैक लेते समय मुझे लगा कि चालीसवाँ पार करने के बाद भी पिताजी के सामने मैं स्कूल में पढ़नेवाला बच्चा ही हूँ.

बचपन में जब-तब कापी-किताबों, खिलौनों और दूसरी ज़रूरतों के लिए पिताजी से रुपए-पैसे माँगा करता था और अब मकान-बीमे-कार की किश्तें भरने के लिए. फर्क़ बस इतना-भर था कि पहले यह रक़म सैंकड़ों में होती थी और अब लाखों में.

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उदारता

‘‘दफ़्तर पहुँचने में आधा घंटे की देर कैसे हो गई आज?’’ पी.ए. ने डरते-डरते जैसे ही साहब के कमरे में प्रवेश किया, साहब ने उस पर यह सवाल दाग़ दिया.

‘‘सर, बच्चे का मैथ का एग्ज़ाम है आज. उसी की तैयारी में....’’ पी.ए. की बात अभी पूरी हुई भी नहीं थी कि साहब का मोबाइल बज उठा.

‘‘हाँ, फोन खराब है आज.’’ साहब फोन पर कह रहे थे, ‘‘ठीक है, आराम से आ जाना. बेशक बच्चे को स्कूल से लाकर लंच के बाद आओ.’’ कहते हुए साहब ने फोन काट दिया और उसे जेब में रखते हुए बोले, ‘‘शंकर का था. उसके बच्चे को थोड़ा बुख़ार है, पर उसे स्कूल ले जाना पड़ा क्योंकि उसका पेपर है.’’

पी.ए. हैरान हो रही थी कि इतने सख़्त साहब ने चपरासी को आराम से लंच के बाद आने की बात ख़ुद ही कैसे कह दी.

उधर साहब मन-ही-मन मुस्कुरा रहे थे कि यह अच्छा हुआ. अब दोपहर तक पी.ए. को अपने कमरे में ही बिठाकर उससे जी-भर बातें करने का सुख पाया जा सकेगा. क्या पता बात सिर्फ़ बातों तक ही सीमित न रहे.

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औक़ात

आकाश जनरल स्टोर के दुकानदार से मेरी जान-पहचान अपनी बहन की शादी के सिलसिले में उसकी दुकान से कुछ सामान खरीदने के दौरान हुई थी.

शादी के बाद हिसार से वापिस दिल्ली लौटते हुए बस में वही दुकानदार मिल गया. वह भी दिल्ली ही जा रहा था. रास्ते में उसके साथ हुई थोड़ी-बहुत बातचीत के दौरान उसने मुझसे कहा कि अगली बार जब मैं हिसार आऊं तो उससे भी मिलूं.

डेढ़-दो महीने बाद चार-पाँच दिनों के लिए जब मैं हिसार गया, तो एक दिन सोचा कि उस दुकानदार से भी मिल लूँ - पिताजी के लिए एक अच्छी-सी अटैची भी ख़रीदनी थी.

आकाश स्टोर में जब मैं पहुँचा तो वह दुकानदार एक ग्राहक को रूमाल, बनियानें वग़ैरह दिखलाने में व्यस्त था. मैं जाकर चुपचाप खड़ा हो गया. ज्योंही दुकानदार ने मुझे देखा, मैंने आगे बढ़कर मुस्कराते हुए उससे हाथ मिलाया.

‘‘और क्या हालचाल हैं?’’ दुकानदान ने मुझसे पूछा.

‘‘बढ़िया. बहुत बढ़िया.’’

‘‘और कब आए?’’

‘‘बस एक-दो दिन ही हुए हैं. मैंने सोचा चलो आपके दर्शन ही कर लिए जाएँ.’’ दुकानदार को अभी मैं यही जतलाना चाहता था कि मैं उससे मिलने के लिए ही इस दुकान में आया हूँ, लेकिन मेरा जवाब सुनते-सुनते वह फिर से अपने ग्राहक में व्यस्त हो गया था.

खड़े-खड़े मुझे काफी देर हो गई थी, पर वह अपनी दुकानदारी में ही उलझा हुआ था. आख़िर परेशान होकर मैंने उसे कह ही दिया कि मुझे वी.आई.पी. का एक अटैची केस चाहिए. यह सुनते ही रूमाल और बनियान के ग्राहक को उसने अपने नौकर के सुपुर्द कर दिया और बड़ी गर्मजोशी से मुझसे कहने लगा, ‘‘आप बैठिए तो सही भाई साहब! इतनी देर से खड़े क्यों हैं?’’ और फिर सामने वाली चाय की दुकान की ओर मुँह करके ज़ोर से बोला, ‘‘भई एक कैंपा भिजवाना जल्दी से! खूब ठंडा हो!’’

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सॉरी

दफ़्तर के कॉरीडोर में तेज़-तेज़ कदमों से चल रहा था. तभी सामने से एक अन्धा व्यक्ति अपनी लाठी से रास्ता टटोलते हुए आगे बढ़ता दिखाई दिया. जल्दबाज़ी में मेरा पैर उस व्यक्ति की लाठी से टकरा गया. तभी वह अन्धा व्यक्ति बोल उठा, ‘‘सॉरी!’’

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यार की टॉफी

दफ़्तर के एक सहकर्मी मुझे पितृवत स्नेह देते थे. उन्हें कार्यालय के काम का बहुत अनुभव होने के कारण मैं अपने काम की अनेक समस्याओं की चर्चा अक्सर उनसे किया करती थी, जिनके समाधान वे प्रायः सुझा दिया करते थे.

पिछले दिनों वे सहकर्मी दफ़्तर के टूर पर विदेश गए, तो वापिस आकर उन्होंने मुझे टॉफियों का एक ख़ूबसूरत डिब्बा दिया जो वे मेरे दो वर्षीय बेटे, चीनू, के लिए लाए थे.

टॉफियों का डिब्बा मैंने घर आकर अपने पति, प्रदीप, और चीनू को दिखाया. फिर हाथ-मुँह धोकर चाय-वाय बनाने के लिए मैं किचन मैं चली गई.

कुछ देर बाद मुझे चीनू के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनाई दी. कुछ देर तो मैं किचन में काम करती रही, लेकिन जब चीनू का रोना बन्द नहीं हुआ, तो मैं घबराकर उस कमरे की ओर चली गई, जिसमें चीनू और प्रदीप थे.

चीनू न जाने किस बात पर लगातार रोए जा रहा था. मैंने पास ही पड़ा टॉफियों का वही डिब्बा खोला और उसमे से एक टॉफी निकालकर चीनू को दे दी. टॉफी मिलते ही चीनू चुप हो गया और टॉफी चूसने में मग्न हो गया.

तभी प्रदीप बोल उठे, ‘‘देखा, यार की टॉफी का कमाल!’’

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