Gavaksh - 5 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | गवाक्ष - 5

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गवाक्ष - 5

गवाक्ष

5==

सत्यव्रत ने आँखें मूंदकर एक लंबी साँस ली। वे समझ नहीं पा रहे थे इस अन्य लोक के प्राणी से वे क्या और कैसे अपने बारे में बात करें?

" हर वह धातु सोना नहीं होती जो चमकती हुई दिखाई देती है । " उन्होंने मुरझाए शब्दों में कहा ।

"अर्थात ---??" उसकी बुद्धि में कुछ नहीं आया अत: उसने उनसे पूछा;

"वैसे आप इतने व्यथित क्यों हैं? क्या इसलिए कि मैं आपको ले जाने आया हूँ ? "

"नहीं दूत, मैं इस तथ्य से परिचित हूँ कि समय पूर्ण होने पर सबको वापिस अपने वास्तविक निवास पर लौटना होता है । "

"क्या मैं अपेक्षा करूँ आप मुझे अपने बारे में बताएंगे ?"उसने मंत्री जी से चिरौरी सी की ।

मंत्री जी सोच की गहरी झील में डूबने-उतरने लगे । वे कोई पुराना द्वार खोलकर उसमें से अपने अतीत में झाँकने लगे थे, उनके चेहरे पर द्वार के चरमराने के चिन्ह उभरने लगे, खट्टे -मीठे चिन्ह!

" तुम जानते हो दूत 'gone with the wind is always a history 'यानि बीत जाने वाली बात इतिहास बन जाती है । इतिहास के पन्ने पलटना इतना सहज भी नहीं होता । इतिहास में आँसू, आहें सबका मिश्रण होता है | हाँ ! खुशियाँ भी होती हैं किन्तु यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह खुशियों के ऊपर आँसू व आहों का आवरण चढ़ाए रखता है । इसीलिए उत्तम यह है कि मनुष्य अपने उस पल में जीवित रहे जिसमें वह साँस लेता है । "

दूत मुह बाए सत्यव्रत जी की बातें सुनने में मग्न हो गया। इस धरती पर कई बार आने में उसका बहुत लाभ हुआ था। कितनी ही बातें उसने ऎसी सुनी थीं जिनकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता था।

" आप कितने ज्ञानी हैं !कितने अच्छे !कितने शुभ्र विचार हैं आपके !"दूत उन पर लट्टू हुआ जा रहा था ।

" नहीं, मैं ज्ञानी नहीं, मैं तो इस धरती का एक सामान्य व्यक्ति हूँ -- दुःख और सुख के दामन में जकड़ा एक ऐसा साधारण मनुष्य जो अपनी ही समस्याओं के वृत्त में चक्कर लगाता रहता है । " उनके मुख पर फिर से पीड़ा की छाया दिखाई देने लगी थी ।

"आपकी पृथ्वी पर ही मुझे यह ज्ञात हुआ कि अच्छा व बुरा दोनों समय किसी न किसी प्रकार कट ही जाते हैं। क्या यह सत्य है?"

" सौ प्रतिशत सत्य है, अच्छा समय नहीं रहता तो बुरा कैसे रह सकता है?किन्तु हम मनुष्य हैं, अपने को बुरे समय के जाल में फँसा देखकर बहुत शीघ्र असहज हो जाते हैं, घबरा जाते हैं । "मंत्री बहुत ईमानदारी से कॉस्मॉस के प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे ।

आश्चर्य इस बात का था कि वे कुछ बातों को लेकर असहज थे, कॉस्मॉस से वार्तालाप करने के बाद बड़े ही सहज होते जा रहे थे । एक दूसरी दुनिया का यह जो उनके समक्ष था और स्वयं को दूत बता रहा था अनजाने ही उन्हें एक शीतलता का अनुभव करा रहा था ।

" तो महोदय! क्या पृथ्वी पर कोई ज्ञानी नहीं होता ? मैं तो समझा जो दूसरों के दुःख-सुख का ध्यान रखते हैं, दूसरों की पीड़ा से जिन्हें परेशानी होती है, दूसरों के लिए जो कुछ करना चाहते हैं, उनसे बड़ा ज्ञानी और कौन हो सकता है?"

" तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो लेकिन यदि तुम्हारा ज्ञान केवल तुम तक ही सीमित रह जाए तो ? ज्ञान व शिक्षा वह है जो समाज के लिए हितकारी हो । " मंत्री जी फिर कहीं शून्य में विचरण करने लगे ।

" महोदय मैं ऐसे ज्ञानी महोदय के दर्शन करना चाहता हूँ, उनसे मिलना चाहता हूँ जिनसे मैं बहुत कुछ और सीख सकूँ । अपनी अर्जित की हुई शिक्षा को समाज में वितरित करना, कितना उच्च कार्य है!" कॉस्मॉस के मुख पर प्रशंसात्मक चिन्ह अवतरित होने लगे थे ।

" हाँ, एक महापुरुष ऐसे ज्ञानी हैं जो आजकल अपने जीवन के पूर्ण ज्ञान को समेटकर पृथ्वीवासियों में वितरित करके इस दुनिया से विदा होना चाहते हैं, वे अपने जीवन का पूर्ण ज्ञान पृथ्वी पर बाँटकर जाना चाहते हैं । मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ ---"उन्होंने पुन: निश्वांस ली।

"क्या नाम है उनका ? कहाँ रहते हैं ?" दूत चंचल हो उठा ।

"कुछ समय मेरे पास बैठो। तुम्हारे आगमन से मेरा अशांत मन स्थिर हो चला है उनका नाम सत्यविद्य है, यहीं रहते हैं किन्तु तुम मेरे बारे में जानना चाहते थे?

क्रमश..