Ye Dil Pagla kahin ka - 12 in Hindi Love Stories by Jitendra Shivhare books and stories PDF | ये दिल पगला कहीं का - 12

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ये दिल पगला कहीं का - 12

ये दिल पगला कहीं का

अध्याय-12

"आप दोनों यह अवश्य समझ चूके होंगे कि मुझे आपके अफेयर की पुर्ण जानकारी है।" अनन्या बोली।

सुहानी सहम गयी। अंकित भी सकते में था।

"मैं चाहती तो इस समस्या को बीच सड़क पर भी हल कर सकती थी। मगर इससे पहले मुझे लगा सिर्फ एक बार आप दोनों से बैठकर बात करूं।"

"अनन्या बात को यहीं खत्म करते है। मुझसे गलती हुई है आई नो। आई एम साॅरी।" बात को संभालते हुये अंकित बोला।

"देखा सुहानी। अभी तो मैंने कुछ किया भी नहीं और अंकित ने अपनी भूल स्वीकार कर ली। तुम ऐसे व्यक्ति से प्यार करती हो जो एक पल भी मेरे सामने ठहर नहीं सका। ये दुनिया के सामने तुम्हें स्वीकार करेगा?" अनन्या की बातें चूभन से भरी थी।

"और फिर मान लो अंकित तुम्हें अपना भी ले, तब इस बात की क्या ग्यारंटी है कि किसी और के लिये वह तुम्हें नहीं छोड़गा? जैसे तुम्हारे लिये वह मुझे छोड़ने को तैयार हो गया है।" अनन्या बोली।

सुहानी का सिर स्वतः ही झुक गया। उसे अफसोस था कि सबकुछ जानते हुये भी उसने अंकित से प्रेम किया।

"सुहानी! किसी के बसी हुई गृहस्थी उजाड़ कर क्या तुम प्रसन्न रह सकोगी?" मंयक बोला।

"मैं स्वयं अनन्या से बहुत प्रेम करता था। आई मीन अब भी करता हूं। लेकिन प्रेम सिर्फ एक-दूसरे के साथ रहना ही तो नहीं है न।" मंयक बोला।

"मयंक और मैं हम दोनों शादीशुदा है। हम चाहते तो शादी के बाद भी अफेयर रख सकते थे। मगर नहीं। अपने जीवनसाथी के प्रति निष्ठापूर्वक साथ देने का वचन हमने अपने-अपने जीवनसाथी को दिया है। इस बात से कैसे मुकर जाते? नियमों का पालन तो सभी को करना ही चाहिए!"

अनन्या की बातों ने सुहानी की आंखें खोल दी। वह शर्मिंदा थी। अंकित को देखकर अंदाजा लगया जा सकता था कि वह भी पश्चाताप की आग में जलकर रहा था।

"आई एम साॅरी अनन्या। मैं अपनी गलती मानता हूं। भविष्य में ऐसा नहीं होगा मेरी बात का विश्वास करो।" अंकित ने दृढ़ता से कहा।

"विश्वास दोबारा बनाना सरल नहीं है अंकित। फिर भी मैं अपने रिश्ते को एक अवसर अवश्य दूंगी। किन्तु कहीं यह सब दोबारा हुआ तो परिणाम के जिम्मेदार तुम स्वयं होंगे।" अनन्या ने अपना निर्णय सुना दिया था। भीगी पलकों के साथ सुहानी वहां से विदा हुई। वह मयंक और अनन्या के प्रति कृतज्ञ थी जिन्होंने उसे सद्ममार्ग दिखाने का पुनित कार्य किया। मयंक, अनन्या और अंकित को भावी शुभकामनाएं देकर वहां से लौट गया। विशु बाहर से खेलकर द्वार पर आ खड़ा हुआ। अनन्या ने आगे बढ़कर विशु को बांहों में उठा लिया। वह विशु को नाश्ता खिलाने में व्यस्त हो गयी।

अगली कहानी हरियाणा के हिसार से थी---

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सोने के कंगन किसके लिये बनाये? इस बात पर घर में शीत युद्ध चल रहा था। नई नवेली बहू जिद पर अड़ी हुई थी। बिट्टों को किसी भी मूल्य पर कंगन चाहिए थे। दरअसल घर में प्रत्येक छः माह के उपरांत कुछ न कुछ खरिदने की परंपरा थी। परिवार सदस्य प्रत्येक छः माह की अपनी-अपनी बचत राशी से कुछ न कुछ खरिदा करते। जिससे घर में लगभग सभी तरह के संसाधन उपलब्ध हो गये थे। अब आभूषणों की बारी थी। बिट्टों की सास कलावती ने बड़े बेटे अशोक को दबी आवाज़ में बहुत पहले कंगन हेतु प्रार्थना की थी। किन्तु घर के आवश्यक खर्चों के आगे उसकी एक न चली। उसने अधिक जोर भी नहीं दिया। अब जब बिट्टों उनके घर में नयी सदस्या थी तब उसकी प्राथमिकता पहले थी। अनुरोध अपनी पत्नी बिट्टों को समझाने में असफल रहा था। संयुक्त परिवार की एक महत्वपूर्ण बैठक में स्वर्ण कंगन खरिदने का बजट पहले ही पास किया जा चूका था। बिट्टों प्रसन्न थी। स्वर्ण चूड़ियां तो उसके फास पुर्व से थी। सोने के कंगन मिलते ही सोने पे सुहागा हो जायेगा। परिवार सदस्य बिट्टों के लिये प्रसन्न अवश्य थे किन्तु कलावती के लिये दुःखी भी थे। कलावती ने कभी कुछ नहीं मांगा। एक जोड़ कंगन मांगे थे, वह भी उसे नयी बहु की मांग के आगे त्यागने पड़ गये थे।

"अनुरोध! तु ज्यादा चिंता मत कर! कंगन बहु को ही मिलना चाहिए। मुझे अब किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। मेरे वास्तविक गहनें तो तुम लोग ही हो। फिर मुझे अब कितना जीना है। सबकुछ तो तम लोगों का ही है।" कलावती ये कहकर जा चूकी थी। बिट्टों यह सुनकर सोचने पर विवश हो गयी।

'मां जी ने जो कहा वह कितना सही है। उन्होंने कंगन मुझे दिलवाने का निर्णय कितनी सरलता से ले लिया। और यह भी कहा कि उनका सबकुछ हमारा है। निश्चित ही उनका सर्वस्व हमारा है, फिर हमारा कुछ उनका क्यों नहीं हो सकता?'

बिट्टों विचार कर रही ही थी की उसकी सास कलावती सम्मुख आ खड़ी हुई। बिट्टों को संदेह हो गया कि उसकी सास उसके पास क्यों आई है।

"मां जी! इससे पहले की आप अपना निर्णय मुझे सुनाये, मेरा फैसला सुन ले।" वह कलावती से बोली।

कलावती स्तब्ध थी।

"मां जी! मुझे कंगन नहीं चाहिए। कंगन की वास्तविक अधिकारी आप है।" बिट्टों बोली।

"मगर बहु•••" कलावती बोलने ही वाली थी।

"अगर-मगर कुछ नहीं मां जी। आप इस घर की बड़ी बहू है। घर की छोटी बहु नये कंगन पहने और बड़ी बहु के हाथ खाली हो, क्या यह अच्छा लगेगा?" बिट्टों बोली।

कलावती ने बिट्टों को हृदय से लगा लिया। नयी बहु ने वह कर दिखाया था जो बहुत बड़े हृदय वाला ही कर सकता था।

अनुरोध एक समझदार जीवनसाथी को पाकर प्रसन्न था।

यह कहानी छत्तीसगढ़ के रायपुर से थी--

*इ* समें कोई संदेह नहीं है कि पार्थ एक अच्छा लड़का था। फिर भी विनिता और टीना कोई भी संभावना छोड़ना नहीं चाहती थी। उनकी सबसे अच्छी सहेली पिंकी की एंगेजमेंट पार्थ से हुई थी। विनिता और टीना पुर्ण रूपेण संतुष्ट होना चाहती थी कि पार्थ उनकी प्रिय सहेली पिंकी के लिए सुयोग्य वर है अथवा नहीं। दोनों ने अपने स्तर पर पार्थ को परखने का प्रयास आरंभ किया। पिंकी इस बात से अनभिज्ञ थी। पार्थ के मोबाइल पर किसी अनजान लड़की का मैसेज आ रहा था। जिसमें वह पार्थ से फ्रैंडशिप की याचना कर रही थी। पार्थ को उस लड़की से फ्रैंडशिप करने में कोई आपत्ति नहीं दिखी। सो उसने हां कह दिया। ये विनिता ही थी। उसे अपनी पहली जीत पर गर्व अनुभव हुआ। टीना भी सोशल मीडिया पर पार्थ को फाॅलो कर रही थी। दोनों की टैक्स चैटिंग अब आम बात थी। टीना जान चूकी थी कि पार्थ भी अन्य लड़कों की तरह ही है, जो एक साथ कई लड़कीयों से फ्लर्टिंग करना अपना स्टेटस समझते थे। उन दोनों ने यह बात पिंकी को बताना आवश्यक समझा। ताकि समय रहते वो सतर्क हो जाये। पिंकी को उन्होंने पार्थ के संबंध में सबकुछ बता दिया। उन दोनों को भरोसा था कि पिंकी अब पार्थ से सभी तरह के संबध तोड़ लेगी। क्योंकि वे पार्थ की सच्चाई पिंकी सामने ला चूकी थी। किन्तु बजाये क्रोधित होने के पिंकी मुस्कुरा रही थी। यह देखकर दोनों सहेलीयां आश्चर्यचकित थी। पिंकी ने इसके बाद जो कहा वो अचंभित कर देने वाला था। पार्थ ने विनिता के मैसेजस और टीना से चैटींग की एक-एक बात पिंकी से शेयर की थी। उसने पिंकी से यह भी कहा कि एंगेजमेंट के पुर्व उसके तथाकथित कुछ लड़कियों से संबंध रहे है। लेकिन पिंकी से संबंध जुड़ते ही उसने वे सभी अनैतिक संबंध तोड़ लिये थे। पार्थ ने पिंकी को आजीवन विश्वसनीय बने रहने वचन भी दिया था। पिंकी ने भी अपने भावी रिश्तें को संपूर्ण ईमानदारी और निष्ठा के साथ निभाने की बात स्वीकारी है। विनिता और टीना प्रसन्न थी। वे अपनी भुल को एक अच्छा प्रयास मानकर सदैव याद करती रहेंगी।

यह कहानी राजस्थान के उदयपुर से आई थी---

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*उ*म्र ढलान पर थी। सबकुछ ठीक चल रहा था। जीवन में बहुत शांति थी। मगर आरव ने जरा भर छुकर हलचल पैदा कर दी थी। कृति विचारों के भंवर से निकल नहीं पा रही थी। पति लम्बे समय से अस्वस्थ थे। नौकरी के बाद का शेष समय विनोद की देखभाल में ही चला जाता। बच्चें स्वयं बाल-बच्चे वाले हो चूके थे। सफेदी की चादर सिर के बालों ने धीरे-धीरे ने ओढ़ना शुरू भी कर दी थी। 'आरव ने ऐसा क्यों किया? दिल्लगी के लिये उसे मैं ही मिली? जबकी उसे तो कोई कमी नहीं थी। युवा है, हेण्डसम और स्मार्ट भी। फिर मैं ही क्यों?' कृति विचारमग्न थी। इन प्रश्नों के उत्तर आरव ही दे सकता था। किन्तु जब भी कृति उससे कुछ पुछने जाती आरव अपने चेहरे पर शैतानी मुस्कुराहट बिखेर लेता। जिसे देख कृति डर जाती और अपने कदम पीछे मोड़ लेती। कितना कुछ सह कर वह यहां तक पहूंची थी। नियमित पढाई करते-करते स्वाध्यायी की छात्रा बन गई। विनोद से शादी हो जाना इसकी प्रमुख वज़ह थी। काॅलेज की सभी परिक्षाएं विवाहिता बनकर ही दी। दो बेटीयों को जन्म दिया। जिनके होश सम्भालने से पुर्व ही कृति नौकरी पर चढ़ गयी। जीवन में अधुरापन अवश्य था किन्तु कभी किसी पर जाहिर नहीं होने दिया। आरव ने जाने कैसे कृति की यह दुखती नस पकड़ ली। जबसे कृति ने अपने हिस्से आई सुख-दुःख की बातें आरव से शेयर की थी तब से ही आरव उसके करिब आने की फिराक में रहता। वह इसे प्रेम का नाम देना चाहता था। किन्तु कृति नहीं मानी। वह आरव के इरादे भांप चूकी थी। उस दिन आरव ने ऑफिस में जब कृति का हाथ पकड़ा तब से ही वह सतर्क हो गयी। आरव का यह कृत्य सार्वजनिक करने को लेकर वह आत्म चिंतन कर रही थी। उचित प्रमाण के अभाव में यह तर्क सिध्द करना बहुत ही उलझनों से भरा मसला था। फिर लोग कृति को गल़त नहीं समझेगें, यह भी निश्चित नहीं था। एक दिन उसने हिम्मत कर आरव से कह ही दिया-"अच्छा होगा तुम अपनी सीमा में रहो आरव! अन्यथा परिणाम भंयकर हो सकते है।" आरव चकित था। इतनी हिम्मत कृति कहां से लाई? वह डर गया। उसने अपनी हरकतें वही रोक दी। कृति ने चेन की सांस ली। ऑफिस में अब दोनों की बातें कम ही होती। आरव ने कृति से दुरियां बना ली। 'क्या मैं कुछ ज्यादा बोल गई? बेचारा डर के मारे आंख भी नहीं मिला पा रहा था।' कृति न चाहते हुए भी आरव के विषय में सोच रही थी। "यदि मेरी बातों को बुरा लगा हो तो साॅरी।" कृति ने ऑफिस खत्म होने पर आरव से कहा। आरव खिलखिला हुठा। यह उसे कृति की स्वीकृति प्रतित हुई। उसने कृति को बांहों में भर लिया। आकस्मिक इस आक्रमण से कृति सन्न रह गई। उसे यह कतई अंदेशा नहीं था की आरव यह कदम उठा लेगा। वह छटपटाने लगी। युवा आरव की मजबुत पकड़ से छूटने में उसे समय लगा। जैसे-तैसे वह घर पहूंची। आज पुरी रात उसे नींद नहीं आई। मन का गुबार कागज पर उकेरा। खूब लिखा। इतना की कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। ऑफिस जाने का सोचकर कभी बैचेन हो जाती तो कभी आनंदित हो उठती। विनोद को चाय देकर कृति ऑफिस के लिये तैयारी करने लगी। बस में बैठी ही थी कि फिर वही समसामयिक समय जिसे वह अभी जी रही थी उस पर हावी हो गया। कृति पुनः विचारमग्न थी। कितना लम्बा समय हुआ उसे। विनोद और कृति ने कुछ पल साथ में नहीं बिताये। घर में साथ-साथ अवश्य होते, किन्तु केवल औपचारिक चर्चा ही होती। छुट्टीयां तो डाक्टर्स के चक्करों में खत़्म हो जाती। विनोद की आंखों में आत्मग्लानी के भाव कृति पढ़ लिया करती। सो वह विनोद को यह कभी जाहिर नहीं होने देती की जिस पुर्णता की वह अधिकारी थी, उसे अभी तक नहीं मिला। "मैडम! आपका स्टाॅप आ चूका है।" बस कंडकर ने कृति को बताया। बस से उतरकर वह पैदल चलने लगी। सामने से बाइक पर आरव गुजरा। उसका ऑफिस कुछ दुरी पर था। आरव को देखकर उसके चेहरा चमक उठा। (प्रश्न) 'क्या मैं इन पलों को जी लूं। कुछ समय के लिये? (उत्तर) नहीं ये अनुचित है।' कृति के अन्तर्मन में द्वन्द्व चल रहा था। (प्रश्न) 'यहां कितना कुछ अनुचित है! किन्तु उसे स्वीकार किया जाता है। फिर मेरे लिये ये प्रतिबंध क्यों? (उत्तर) तू विवाहित है! (प्रश्न) आरव भी तो विवाहित है। (उत्तर) वह पुरूष है। उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। सभी तुझ पर दोषारोपण

क्रमश..