Aadha Aadmi - 20 in Hindi Moral Stories by Rajesh Malik books and stories PDF | आधा आदमी - 20

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आधा आदमी - 20

आधा आदमी

अध्‍याय-20

मैंने बड़ी चतुराई से उसे जवाब दिया, ”ऐसा कुछ नहीं हैं.”

‘‘सुना हैं तुम्हारी शादी हो गई हैं.‘‘

‘‘शादी भी हो गई हैं और एक बच्ची भी हैं.‘‘

‘‘ठीक हैं मैं शाम को मिलने आऊँगा.‘‘

मैंने मन ही मन में सोचा, ‘अगर यह शाम को मिलने आएगा तो मैं इसराइल से क्या कहूँगा.‘

‘‘क्या सोच रहे हो?‘‘

‘‘कुछ नहीं, मैं शाम को तुमसे खुद मिलने आऊँगी.”

मैं रात होते ही सबकी चोरी से ड्राइवर से मिलने बस स्टैण्ड पहुँच गया। पूरी रात उसके साथ रहने के बाद मैं सुबह होने से पहले वापस घर आ गया। और आँगन में टहलने लगा। इसराइल ने सोचा होगा कि मैं बीबी के पास लेटा हूँ और बीबी ने सोचा होगा मैं इसराइल के पास लेटा हूँ।

यह ड्राइवर से मिलने-मिलाने का सिलसिला रोज का हो गया था। और फिर एक दिन बीबी ने रंगें हाथों मुझे पकड़ लिया।

बाहर का शोर इतना तेज था कि ज्ञानदीप के पढ़ने का तारतम्य टूट गया। उसने दरवाजा खोलकर देखा तो बिहारी के दरवाजे पर कई हिजड़े खड़ी ताली बजा रही थी। उनकी बातों पर लड़कियाँ, औरतें, लड़के तो ऐसे चटकारे ले रहे थे। जैसे कोई कॉमेडी शो चल रहा हो।

मोहनी आँख मटका कर कन्हैया की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘रात में जब चोदते हो तब नहीं सोचते, अब बधाई देने में तुम्हारी गाँड़ फटती हैं। अरे हम हिजड़े हंै बगैर बधाई लिये तो अपने बाप को न छोड़े.‘‘

इतना कुछ सुनने के बाद भी लड़कियाँ और औरतें वहाँ खड़ी खिलखिला रही थी। ठीक ऐसे ही जब भारत में सुनामी लहरें आई थी तब पाकिस्तान भी खिलखिलाया था।

कन्हैया जाने लगा तो लुल्ली मौसी घाघरा उठा कर बोली, ‘‘सुन रे मोटे, पहले हमारी बधाई देते जा फिर जाना। वरना ऐसा श्रापूगी कि आने वाली पीढ़ी ताली बजायेगी.‘‘

‘‘जो लेक-देक हय इन से लेव.‘‘ कन्हैया कहकर चला गया था।

लुल्ली मौसी ताली बजाकर उस अधेड़ महिला की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘अरी खड़ी मुँह क्या देख रही हैं जा-जा के बधाई ला.‘‘

‘‘यह लो.‘‘

‘‘मकान खड़ा कियै हव दस लाक का अउर पकड़ावत हो देढ़ सौ रूपल्ली....तोहका शरम नाय आवत हय। सीधी तरह से एक हजार एक देव नाय तो हम्म हियाँ धरना देबैं.‘‘ कहकर लाली जोर-जोर से ताली बजाने लगी।

काफी जद्दोज़हद के बाद उस अधेड़ महिला की पोटली से दो सौ इक्यावन रूपये ही निकले। वे सब इतने पैसो से संतुष्ट नहीं थी। मगर भागे भूत की लँगोटी के मुहावरे को चरितार्थ करती चली गई। भीड़ छटने लगी थी।

ज्ञानदीप ने दरवाजा बंद किया और पढ़ने बैठ गया-

‘‘तुम रात भर कहा थे?‘‘

मैंने बड़ी सफाई से झूठ बोला, ‘‘मैं छत पर इसराइल के साथ सो रहा था.‘‘

मगर वह यह मानने को जरा भी तैयार नहीं थी। मैंने सोचा, ‘कही इसराइल ने यह सब सुन लिया तो गज़ब हो जाएगा.‘

बीबी बजाय चुप होने के एक ही रट लगाये थी, ‘‘रात भर तुम कहाँ थे?‘‘

यह तो कहो उस वक्त छोटी बहन और उसके मियाँ आ गये। तो वह चुप हो गई। वरना न जाने क्या हो जाता।

17-12-1984

सदायें देनी थी जिसको, उसे सदाये न दी,

मेरे नसीब ने फिर,कम मुझे सजाये न दी।

मिली है विरसे में मुझको कलंदराना रविष,

मुझे कभी दरवेश ने दुआयें न दी।

उस दिन मैं अपनी बच्ची को लिये बाहर बैठा था कि गंगाधाम से रामलीला पार्टी वाले आये और मुझसे प्रोग्राम करने को कहने लगे। मैंने अपनी डिंमाड सौ रूपये नाईट बताया तो चालीस रूपये देने को राजी हुए। अंततः बात पचास रूपये पर आकर तय हुई। मैंने एंडवास के रूप में बीस रूपये लिए।

शाम को जब इसराइल आया तो मैंने उससे बात बतायी। सारी बात सुनने के बाद उसने अपनी फरमाइश की, ‘‘क्यों न आज रात मोहब्बत महल में रूका जाए.‘‘

‘‘ठीक हैं, तुम शाम को सीधे दुकान से वहीं आ जाना.‘‘

मैं रिक्शा पकड़ कर मोहब्बत महल आया और खाना बनाकर इसराइल का इंतजार करने लगा।

आधी रात बीतने के बाद इसराइल शराब के नशे में आया और मुझे गाली-गलौज देने लगा, ‘‘मैं दारू पीकर आऊँगा तो तुम क्या कर लोगी?‘‘

‘‘कर तो बहुत कुछ लूँगी, हमें शराब पीने वाले आदमी से सख़्त नफरत हैं। न हम गंदी चीज लेती हैं न हम गँदे लोगों का साथ करती हैं। अगर तुमने दोबारा ऐसी हरकत की तो ठीक नहीं होगा.‘‘

‘‘शराबियों से नफरत हैं शराबी के पैसे से नहीं.‘‘

‘‘अगर तुम लड़ाई करना चाहते हो तो हम डरेगी नहीं.‘‘ मेरे इतना कहते ही वह मुझे बालों से पकडकर मारने लगा और सारा खाना उठा कर फेक दिया।

लड़ाई-झगड़ा करते-करते कब रात बीत गई पता ही नहीं चला। जब इसराइल का नशा उतरा तो वह माफी माँगने लगा, ‘‘माफ कर दो भैंया, नशे में था.‘‘

‘‘नशे में कोई आदमी गूँ खा ले तो मैं जानू, अगर तुम्हें हमारा साथ करना हैं तो शराब छोड़नी होगी.‘‘

‘‘ठीक हैं तुम जैसा कहोगी मैं वैसा ही करूँगा.‘‘

फिर हम दोनों दरगाह गये। वहाँ मैंने इसराइल को कसम खिलाई कि कहों तुम हमारे साथ कभी धोखा नहीं करोंगे। उसने मेरे बताये अनुसार कसम खाई।

जब हम-दोनों सजदा करके लौट रहे थे कि रास्ते में मुझे ड्राइवर मिल गया। मैं उसे अचानक देकर हक्का-बक्का रह गया।

उसने छुटते ही पूछा, ‘‘मैं तुम्हारे क्वाटर पर गया था, लेकिन तुम कहाँ गई थी..?”

पढ़ते-पढ़ते दीपिकामाई की डायरी के पन्ने तो खत्म हो गए थे। पर आगे उनके साथ क्या हुआ होगा यह छटपटाहट ज्ञापदीप को बेचैन किए थी। इतना कष्ट, इतनी पीड़ा शायद किसी और की जिंदगी में गुजरी हो।

दूध जलेबी खालूँगी मैं तो बनिया यार फँसा लूँगी

पिछले कई दिनों से कोहरे का वर्चस्व छाया था। मगर सूरज के निकलते ही कोहरे का वर्चस्व फना हो गया। पूरी धरती सूरज की किरणों से नहा गई। लेकिन इस वक्त सूरज की निगाह तो दीपिकामाई के चौखट पर थी। उस चैखट पर जहाँ समाज देखना भी गंवारा नही करता। उसी चौखट पर सूरज ने अपनी कोमल किरणें बिछा दी थी। चमकती किरणों के बीच दीपिकामाई बाल खोले बैठी थी।

‘‘मइया! सुपारी कच्ची डालूँ या पक्की?‘‘ चाँदनी ने पान में चूना लगाकर पूछा।

‘‘अरी कोई भी डाल दे.‘‘ कहकर दीपिकामाई रेखा की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘जरा देख री रेखिया सर मे कहीं लुड़खुड़ (जुआँ) तो नहीं.‘‘

रेखा ने चावल बिनना बंद किया और मुँह बिचकाकर जुआँ देखने लगी।

पान की गिलोरी खाते ही दीपिकामाई को याद आया कि लिफाफा पोस्ट करना हैं। उन्होंने कापी में से लिफाफा निकाला और चाँदनी की तरफ बढ़ा दिया, ‘‘यह ले इसे ठीक से पोस्ट करना। पता नहीं मुवे, वे दो खत पहुँचे भी या नहीं.‘‘

चाँदनी ने कैटरीना कैफ की तरह बड़े गौर से लिफाफा को देखा, ‘‘मइया! उस दिन जब आपने पोसकार्ड दिया था तो उसका दायाँ कोना काट दिया था। मगर जब अंतरदेशी दिया तो उसका दायाँ कोना मोड़ दिया। और आज इस लिफाफे के दायें कोने पर बिंदू बना दिया। आखिर इन सबका मतलब क्या हैं...?‘‘

‘‘अरी करमजली, यह हम हिजड़ो के पत्र-व्यवहार की गोपनीय पहचान हैं। समझी, अब जा-जाकर इसे पोस्ट कर दे.‘‘ दीपिकामाई ने उगलदान उठाकर पिच्च की।

चाँदनी मटकती चली गयी।

‘‘मरी लुड़खुड़ निकाल रही हैं या सो रही हैं.‘‘

‘‘निकाल तो रही हूँ गुरू.‘‘ रेखा ने मुँह बिचका के कहा।

‘‘बकबक में घाम भी चली गई, चटईया इधर घसीट लाव.‘‘ दीपिेकामाई उठी और हाथ पीछे करके बाल समेटने लगी, ‘‘ अब छोड़ जा धौकनी ले आ.‘‘

‘‘दूध जलेबी खालूँगी मैं तो बनिया यार फँसा लूँगी....।‘‘ रेखा गाती हुई चली गयी।

सूरज की किरणें दीपिकामाई के गले से लगी थी जैसे कह रही हो, हिम्मत क्यों हारती हो सब ठीक हो जाएगा।

साइकिल खड़ी करके ज्ञानदीप ने दीपिकामाई के चरण-स्पर्श किये। और डायरी के पन्ने निकाल कर बोला, ‘‘वाकई माई, जितनी तकलीफ़े आप ने सही हैं। शायद दुनिया में किसी और ने सही हो.‘‘

‘‘शायद अल्लाह को यही मंजूर हो बेटा, हम लोग तो दुनिया के ठुकराये हुए हैं हमारी कौन सुनने वाला हैं....।‘‘

‘‘सरकार.‘‘

‘‘किस सरकार की बात कर रहे हो, राज्य सरकार या केन्द्र सरकार? अजीब देश में पैदा हुए हैं हम लोग। यह विचित्र लोकतंत्र हैं। तमिलनाडु सरकार ने हम जैसे लैगिंक विकलांगो को ‘थर्ड जेंडर‘ मान तो लिया लेकिन इसके पीछे अपना कौन-सा हित साधा है?‘‘

ज्ञानदीप बड़े ध्यान से उनकी बात सुन रहा था मगर दीपिकामाई थी जो अपनी पीड़ा व्यक्त किये जा रही थी, ‘‘इस देश में चारों तरफ़ दलितों, महिलाओं और गुर्जरो के आरक्षण के लिए आवाज़ें बुंलद होती रही। हक पाने के लिए हिंसात्मक कार्यवाहियाँ की गई। मगर हम हिजड़ों की आरक्षण की माँग तो दूर उसे मुख्यधारा में लाये जाने के लिए किसी भी राजनेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार, साहित्यकार, समाज सेवी संगठन ने पहल नहीं की.‘‘ कहकर उन्होंने उगलदान उठाकर पीक की और अपनी बात आगे बढ़ायी, ‘‘यह भ्रष्ट, बेशर्म और चोर सरकार किन्नरों को आरक्षण इसलिए नहीं देती हैं क्योंकि उनकी शक्ति और सामथ्र्य से डरती हैं। असल में बेटा, किन्नर हम नहीं हमारी सरकार है। आज अगर किन्नर समाज से अलग-थलग पड़े हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण तो सरकार की कायरता हैं.‘‘

‘‘मेरी यह समझ में नहीं आता हैं माई, जबकि हमारे देश में ‘गे‘ और लैस्बियन के कानूनी-अधिकारों पर चर्चाये होती हैं, सेमिनार होते हैं, गोष्ठियां होती हैं, जुलूस निकाले जाते हैं। इतना ही नहीं जानवरों के प्रति मानवता दिखाने के लिए जनहित याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचती हैं.‘‘ ज्ञानदीप, सुभाष चन्द्र बोस स्टाइल में बोला।

‘‘यह सरकार हम जैसे अभागे लोगों के लिए कुछ नहीं कर सकती। हम तो पशु-पक्षियों से भी कहीं गैर-गुज़रे हैं.‘‘

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