Mamta ki chaav - 3 in Hindi Classic Stories by Sarita Sharma books and stories PDF | ममता की छाँव - 3

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ममता की छाँव - 3


मौली अपनी माँ को खो चुकी थी। हालांकि उसका इसपर विस्वास कर पाना मुश्किल था, क्योंकि अभी कल की ही तो बात थी, जब वह मां के मना करने पर भी स्कूल जाने की ज़िद लिए बैठी थी । कितने प्यार से उसकी माँ ने उसे बाल बनाकर स्कूल भेजा था। पलभर का समय औऱ पलक झपकते ही सब खत्म ।

मौली ने अपनी माँ से बहुत सी जादू की कहानियां सुनी हुई थी.. जिसमें रात को परी आकर छोटी बच्ची की सारी ख़्वाहिशें पूरी करती..हालांकि मौली हमेशा जानती थी कि ये सब सच नही है..पर इन चमत्कारों से भरी कहानियों में ना जाने क्यों आज बार बार विश्वास करने को मन कर रहा था.. काश की कोई परी उसकी जिंदगी में भी आये तो वह भी मांग ले अपनी माँ को हमेशा के लिए..

आँगन में खड़ी, गहरी सोच में डूबी मौली के दिल और दिमाग में अलग जंग छिड़ी हुई थी.. दिमाग जो सच को स्वीकार करने को कह रहा था..और दिल जो मानने को तैयार ही नहीं था.. वो जो लोग कहते है कि नहीं हो सकता आज हो जाए..उसे नहीं जानना था, कि मृत्यु हो जाने के बाद कोई वापस नहीं आता.. बस किसी भी तरह उसकी माँ उसके पास वापस आ जाये..

ख़ैर! जल्द ही उसकी ये ग़लतफ़हमी भी दूर हो गयी.. जब उसने, अपने पापा को मुरझाए हुए से, अकेले वापस आते देखा.. माँ उनके साथ भी नही आयी थी.. बेबस सा मन ये नहीं जानता कि माँ कैसे आती?.. वो तो जा चुकी थी? हमेशा हमेशा के लिए..

सांत्वना देने वाले लोगों से घर भरा हुआ था.. आने जाने वाले रिस्तेदार , पड़ोसियों का तांता लगा हुआ था.. हर कोई परिवार के सदस्यों से संवेदनाये प्रकट कर रहा था.. और संवेदनाये हो भी क्यों ना?.. भला अपने पीछे छोटे-छोटे बच्चे छोड़ गई थी!, और उम्र भी तो क्या! ..मुश्किल से जीवन के 30 बसन्त भी पार नहीं कर पाई होगी... वैसे तो हर एक ज़िन्दगी अनमोल होती है, लेकिन एक माँ की ज़िंदगी देखी जाए तो उससे ज्यादा किमती कुछ भी नहीं.. क्योंकि उसके साथ जुड़ी होती है कई ज़िंदगियां....
"माँ के जाने से एक परिवार बिखर जाता है और साथ में बिखर जाती है कई आशाएं जो पनप रही थी, कहीं चंचल से मन में"..

नन्हें से सपने , ख्वाहिशों का आसमां..
माँ की गोद औऱ कदमों में सारा जहां...


संवेदनाये थोड़ी देर मन तो बहला सकती हैं, पर दिल को सुकून नहीं देती...

बरामदे के एक कोने में पापा बैठे थे... धोती कुर्ते में..सबसे अलग... अक्सर तो वो धोती कुर्ता नहीं पहनते थे.. और वो सबसे अलग क्यों बैठे हैं.. सर्दी के दिनों में उन्होंने स्वेटर भी नहीं पहना था.. तो क्या उन्हें ठंड नहीं लग रही है या फिर माँ के चले जाने का दुःख उन्हें भी इतना गहरा था की ठंड का एहसास बहुत छोटा सा लगता है या मानो कहीं ठहरता ही नहीं.. सवाल तो बहुत थे जो बार बार मन को कचोट रहे थे. और जवाब जिसे मौली जानना नहीं चाहती थी..

खैर! दुःख तो था ही.. पर मौली ये भी नहीं जानती थी ये सब उसकी माँ के मोक्ष के कर्मकांड का हिस्सा भी था..

मौली को भी भूख-प्यास का अहसास नहीं था.. इस दर्द का अहसास इतना गहरा था कि हर चीजे फ़ीकी सी लगती थी..
घर तो भर ही चुका था, लोगों की भीड़ से पर दिल खोया था...अकेला, गुमसुम सा कहीं तन्हाई में..

दिन बीत तो रहे थे, पर बोझिल से थे.. घर में आने वाले लोग कभी गले लगाते , पुचकारते, प्यार करते..पर वो बात नहीं थी जो माँ की एक झलक से मिलती थी..

घर के हर हिस्से में, लोगों की भीड़ में ना जाने क्या खोजती निगाहें.. शायद इस उम्मीद में की क्या पता माँ आ ही जाए.. कितना पागल सा मन.. "एक 10 साल की बच्ची समझदारी से कोसो दूर पर नादान भी नहीं"..

यूँही दिन बीत रहे थे.. आज 13 दिन भी पूरे हो चुके थे...मोक्ष कार्यकर्म पूरा हो चुका था.. शाम को सभी रिश्तेदार अपने घर चले गए.. बिन्नी और मौली आँगन में दरी पर बैठे थे..बिन्नी और मौली जो दोनों अक्सर साथ होती तो या तो स्कूल के बातें या फिर दोनों के झगड़े.. उन्हें चुप कराना माँ के लिए मुश्किल हो जाता था, दोनों आज चुपचाप बैठी थी..घर सुनसान सा लग रहा था.. घर में हंसती, गुनगुनाती, इधर उधर काम करती.. कभी डांटती कभी प्यार करती माँ जो नहीं थी..और माँ के साथ घुलती बच्चों की चहचहाट वो भी कहीं गायब थी.. ऐसे ही जाने कितने ख़्याल जो दोनों के मन में रहे होंगे सोचते सोचते वहीं आँगन में ही सो गई..
रेनू और उसके पापा जो बाकी घर के काम निपटाने में व्यस्त थे.. उन्होंने दोनों को अंदर लेटाया.. अब अगली सुबह के इंतजार में हां अब दिन मुश्किलों भरे होने वाले थे.. थोड़ी हिम्मत तो दोनों ही दिखा रहे थे..पर क्या पता कब मन की पीड़ा इसपर हावी हो जाए...और ये हिम्मत कब जवाब दे जाए..

उठ जा बेटा-मौली के सर पर कोई हाथ फेर रहा था..मौली के कानों में आवाज गूँजती है..वही हाथ, वही एहसास, वही प्यार..आंखे बंद मौली के चेहरे पर मुस्कान छा जाती है.. चहकते हुए तुरन्त उठ जाती है.. और मुह से अनायास ही निकल पड़ता है- माँ........पर आंखे खुलते ही..ये क्या? ये तो पापा थे.. माँ शब्द सुनकर मौली के पापा के चेहरे पर भी दुख का भाव आसानी से देखा जा सकता था.. आखिर उनके लिए भी तो ये सुबह हमेशा की सुबह की तरह नहीं थी..

मौली के चेहरे पर जो मुस्कान आयी थी..माँ को ना पाकर.. अब धीरे-धीरे खत्म हो रही थी पर इससे पहले मुस्कान पूरी तरह खत्म होती, मौली पापा के गले लग जाती है..गले लगते ही.. पापा के चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान खिल उठती है.. पापा पास में लेटी बिन्नी को भी उठाते हैं.. रेनू पहले ही उठ चुकी थी.. शायद उसे भी एहसास हो गया था कि अब समय बदल चुका है..और उसकी जिम्मेदारी भी..

चाय पीकर रेनू ने घर की सफाई में लग जाती है..उसके पापा गाय बेलों को घास देने चले गए.. बिन्नी और मौली भी मुह धोकर हमेशा की तरह अपने आँगन की सफाई में लग गयी..पर आज दिन अलग था.. ना कोई झगड़ा, ना कोई लड़ाई दोनों चुपचाप अपना काम कर रही थी..

घास देकर आने के बाद मौली के पापा रसोई में चले गए..और नास्ता बनाने लगे जो पहले माँ बनाया करती थी.. इधर रेनू भी सफाई निपटा चुकी थी..तो रसोई में आ जाती है..जहां पापा को सब्जी काटते देखती है..

खाना मैं बना लुंगी- रेनु अपने पापा से कहती है..
..तुझे स्कूल भी तो जाना है ना तू तैयार हो जा?
..हां अभी थोड़ा देर है..मैं बना लुंगी आपको खेत पर भी तो जाना है ना..?
मैं बाद में चला जाऊंगा तू बिन्नी, मौली को भी तैयार कर दे तब तक मैं नास्ता बना दूंगा.. बहुत विस्वास के साथ पापा रेनु को कहते है पर कहीं अंदर मन में तो सवाल थे कि कैसे कर पाएंगे सब.. जबकि खाना बनाना दोनों को ही अच्छे से नहीं आता था.. दोनों ही ये बात जानते थे..
मैं आपकी मदद करा दूंगी..बाद में तैयार हो जाऊंगी..रेनु अपने पापा से कहती है..
पापा भी हामी में सर हिला देते है..
जैसे-तैसे सब्जी तो बन ही जाती है..
अब पापा आटा गूंथने बेठ गए.. रेनु दिशानिर्देश के लिए वही पास में बैठी थी...
ओह्ह..पापा आटा ज्यादा है, थोड़ा पानी डाला जाए?..
अरे ये तो पानी ज्यादा हो गया है, रेनु! थोड़ा आटा तो डालना..?
ऐसा करते-करते आटा गुथने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी..
कभी आटा ज्यादा.. तो कभी पानी ज्यादा.. दोनों एकदूसरे को आटा गूंथने के दांव पेंच बता रहे थे.. जितना-जितना दोनों जानते थे.. सारे हथकंडे अपनाकर अंततः आटा गूंथ तो गया पर दोनों एक साथ बोल पड़े-इससे अच्छा तो खिचड़ी बना लेते..!

इतना सुनते ही रेनु और उसके पापा दोनों हंस पड़ते हैं..
ठीक है अब तू जा तैयार हो जा स्कूल के लिए..
पापा आपको रोटी बनानी तो आती है ना?
हां बना लूंगा अब तू जा तुझे देर हो गयी है..
ठीक है..कहकर रेनु रसोई से चली जाती है. पापा रेनु को जाते हुए देखते है..शायद मन ही मन सोच रहे होंगे की रेनु भी ज़िम्मेदारी सम्भालने का प्रयास कर रही है वो भी इतनी कम उम्र में...हालांकि पापा हर सम्भव प्रयास में थे कि माँ के जाने से उन्हें किसी तरह के बदलाव का बोझ महसूस ना हो..पर ऐसा कैसे हो सकता था..बदल तो सबकुछ ही गया था.. तो महसूस होना भी लाज़िमी था..

अभी बाल बनाना शुरू ही किया था कि पापा खाना खाने के लिए आवाज देते हैं..
तीनों खाना खाने बेठ जाती है..
कुछ आड़ी-तिरछी रोटियां कुछ जली, कुछ कच्ची..सब्जी से भी सब रंग गायब थे..पर नमक पूरी ईमानदारी से डाला गया था.. पर सब चुपचाप थे .. शायद रोटी के जले में, या सब्जी के नमक में पापा की मेहनत और प्यार का स्वाद ज्यादा था..

या फिर सबको ये एहसास हो गया था कि माँ कितनी मेहनत किया करती थी..जाने कितनी बार खाना बनाते हुए उनका भी हाथ जला होगा जिसका कभी जिक्र तक नही था..वो भी इतनी आसानी से मुस्कुराते हुए..
भले ही खाने से ज्यादा पानी पिया गया पर आज खाने के ऊपर शिकायतें कोसो दूर थी..

तैयार होकर रेनु घड़ी की तरफ देखती है 9 बज चुके थे स्कूल 10 बजे का था.. रेनु बैग उठाती है.. बरामदे से होकर आँगन में आती है बाहर मौली और बिन्नी खड़े थे.. बिन्नी के हाथों में दोनों के बैग थे.. और मौली उछल-उछल कर दीवार पर टँगे शीशे में अपना मुह देखने की नाकाम कोशिश कर रही थी.. शीशा काफी उचांई पर टँगा था तो उस तक पहुंच नहीं पाती.. फिर थककर बिन्नी से ही पूछती है।
चोटी ठीक है ना?
हां एकदम ठीक है..
ला मेरा बैग दे..
बिन्नी मौली को बैग पकड़ाती है..दोनों स्कूल के लिए जाने को होते हैं सामने रेनु खड़ी थी..

रेनु दोनों को देखती है और हंस पड़ती है...
दोनों की चोटियों में निकली आड़ी-तिरछी मांग..अनसुलझे से गुंथे बालों में कही बाल बाहर निकले हुए..ऐसा लग रहा था मानो कई दिनों से बाल बनाये ही ना हों.. बेढंग सी बनी दो चोटियां और सर पर लाल रिबन से बने दो फूल..हालांकि फूल कहना भी ठीक नहीं था..दोनों किसी कार्टून के खरगोश से कम नहीं लग रहे थे..

रेनु अपना बैग नीचे रखकर दोनों के बाल बनाने लगती है..कहीं ना कहीं तीनो को मन में एक कमी का अहसास हो चुका था.. तभी शायद मौली ने बिना कहे दोनों की चोटी बनाने की कोशिश की उसको लगा होगा शायद वो ये तो कर ही सकती है.. या फिर रेनु बिना कहे दोनों के बाल बनाने लगती है जबकि वो जानती थी कि स्कूल के लिए देर हो चुकी है..

हां माँ के जाने के बाद ज़िन्दगी रुकी तो नहीं थी पर बदल जरूर गयी थी..

तीनो स्कूल की तरफ निकल पड़ती हैं.. रेनु का स्कूल दूर था लगभग 4 किलोमीटर दूर.. दौड़ते भागते, सजा के डर से हांफते हुए, स्कूल पहुचंती है.. देर हो चुकी थी.. स्कूल में देर से आने वाले बच्चों को कान पकड़कर सबसे आगे खड़ा किया जाता था..आज रेनु को भी खड़ा किया गया..हालांकि और भी बच्चे थे साथ मे जो देर से आये थे..वो तो हमेशा ही रहते थे..पर रेनु के लिए ये पहली बार था.. वह कान पकड़ कर खड़ी थी.. आंखों से अनायास ही आंसू टपकने लगते हैं.. मन मे उदासी, दुःख, किसको बताए, किसको समझाए.. शायद सोच रही होगी कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ..या फिर ये की कम उम्र में ज़िम्मेदारी का बोझ ज्यादा हो चुका था..

वक़्त अपने आप ये एहसास बार-बार करा ही देता है.. वैसे ये दिन तो बीत ही जाने थे.. और वर्षों बाद भले ये कोई कह भी दे की! अब वक्त बीत चुका है, अच्छे दिन आ गए हैं.. पर ये कहाँ समझ पाते हैं सब की वक़्त कैसे बिता.. पल पल का हिसाब तो वो ही जान सकता है जिसने ये वक़्त जिया है..
आसान होता है ये कह देना की हम समझ सकते हैं..पर असल में कोई नहीं समझ सकता यूँ हर पल में गुजरते अहसासों को.....