Mahamaya - 25 in Hindi Moral Stories by Sunil Chaturvedi books and stories PDF | महामाया - 25

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

Categories
Share

महामाया - 25

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – पच्चीस

नौगाँव से नैनीताल आये दस दिन गुजर गये थे। इन दस दिनों में अखिल यहाँ रम सा गया। आश्रम में भक्त आते। दो-चार दिन रूकते। फिर लौट जाते। भक्तों के आने-जाने का सिलसिला लगातार बना हुआ था। भक्त कुछ इष्ट मित्रों सहित सिर्फ पहाड़ घूमने आये थे। दिनभर सैर-सपाटा करते और रात को आश्रम में आकर ठहर जाते। कुछ भक्तों की अपनी समस्याएँ थी, जो इन्हें यहाँ खींच लायी थी। राधामाई सुबह-शाम इन भक्तों की ध्यान कक्षा लेती। दोपहर में भक्तों का दुखड़ा सुनती। उन्हें उपाय बताती। किसी को दो-दो घंटे शिव मंदिर में बैठकर ‘ऊँ नमः शिवाय’ का जप करने को कहा जाता। किसी को गीता का पाठ करवाया जाता। किसी को अभिमंत्रित माला दी जाती। किसी को अभिमंत्रित भभूत और पानी। किसी को पूजा में रखने के लिये पारद शिवलिंग। जरूरत पड़ने पर राधामाई इन भक्तों को उपदेश भी करती। बाबाजी जापान से आये विदेशी भक्तों के एक दल के साथ व्यस्त थे। निर्मला माई इन सबसे अलग अपने में मस्त रहती। कोई भक्त मिल गया तो मुस्कुराकर बात कर ली वरना जग्गा, कौशिक के साथ हंसी-मजाक करती रहती।

सुबह-सुबह आश्रम में बड़ा विचित्र सा दृश्य होता था। ज्यादातर साधू नहा-धोकर आश्रम में जहाँ कहीं भी धूप का टुकड़ा मिलता वहीं आसन जमाकर बैठ जाते। कोई घंटों अपनी जटाएँ संवारता रहता। कोई घंटों शरीर पर भभूत मलता। तिलक श्रंृगार करता। कोई अपने सिर पर एक गीला कपड़ा डालकर उस पर कंडे जलाकर धूनी तापता। कोई घंटों एक पैर पर खड़े होकर जाप करता। कोई अपने दोनों हाथों को गोद में रखे ध्यानस्थ बैठ जाता। बीच-बीच में शरीर को जोर से झटकते हुए ‘बम-बम’ की ध्वनि करता। एक प्रौढ़ साधु सुबह दो-तीन घंटे सिल बट्टा पर कुछ-कुछ हरी पत्तियाँ पीसते रहते। इन्हें आश्रम में सब चटनी महाराज कहते थे। यह बट्टे (बड़े गोल पत्थर) को दोनों हाथ से पकड़े लगातार सिल पर घुमाते रहते और लोगों से चटखारे ले-लेकर स्वादिष्ट भोजन की चर्चा करते जाते। आश्रम में दो-एक ऐसी गुप्त जगह भी थी जहाँ साधु फुरसत में बैठकर आराम से चिलम खींचते।

आज भी एक कोने में दो साधु चिलम खींचते हुए आपस में बतिया रहे थे।

‘‘एकाध दिन इस भजनानंद का काम डालना पडे़गा, मंगलगिरी।’’

‘‘क्यों बजरंगी महाराज.....? वो तो देवी का भक्त है। दिन भर दुर्गासप्तशती का पाठ करता है।’’

‘‘काहे का भक्त। खूनी है खूनी। हमारे पास इसका कच्चा-चिट्ठा है।’’

‘‘अच्छा.....’’ मंगलगिरी ने आश्चर्य प्रकट किया।

‘‘देखो यहाँ आके कैसा भगत बन गया है। हम चाहे तो आज इसपे खून का मुकदमा शुरू करवा दें।’’

‘‘वो तो आप सही कह रहे हो महाराज। पर साधु होके तो इसका दूसरा जनम कहलाया न! कुल, नाम, गाँव, पुराना सब खतम। अरे जब सन्यास दीक्षा के समय अपना पिंडदान ही कर दिया तो फिर मुकदमा किस पर चलेगा। पुराना सब खतम।’’

‘‘हओऽऽ आधे से ज्यादा तो ऐसे ही लंपट भरे पड़े हैं हमारे साधु समाज में। लाओ यार, तुम तो चिलम लेकर ही बैठ गये।’’ बजरंगी महाराज के चेहरे पर नाराजगी थी।

महाराज, आप तो जरा-जरा सी बात पर गुस्सा हो जाते हो। अग्नि जरा ठंडी पड़ गई है। अभी जलाकर लाते हैं’’ कहते हुए मंगलगिरी चिलम नीचे रखकर आग लेने चल दिया।

इसी बीच घुटनों तक अंगोछा लपेटे एक प्रौढ़ साधु वहाँ आ पहुंचा और नमोनारायण कहते हुए पंजों के बल नीचे बैठ गया। थोड़ी देर में मंगलगिरी भी चिमटे में आग लेकर आ गये। उन्होंने बजरंगी महाराज से चिलम ली। चिलम के मुँह पर अंगारा रखा और चिलम को मुँह से लगाकर एक गहरा कश खींचा। चिलम में भरा गांजा तड़तड़ाकर जल उठा। साथ ही मंगल महाराज के नथुनों से धुआं निकलने लगा। उन्होंने चिलम बजरंगी महाराज की ओर बढ़ा दी। बजरंगी महाराज ने जल्दी-जल्दी तीन-चार कश खींचे और चिलम अभी-अभी आकर बैठे साधु की ओर बढ़ायी।

‘‘नहीं महाराज। हम बाल ब्रह्मचारी हैं महाराज’’

बजरंगी महाराज ने बिना कुछ कहे चिलम मंगलगिरी की ओर बढ़ाते हुए पूछा -

‘‘बहुत देर कर दी महाराज अग्नि लाने में’’

‘‘पहले तो चंद्रगीरी अग्नि देने में गरिया रहे थे फिर जब हमने कही कि बजरंगी महाराज ने मंगाई है तो ठंडे पड़ गये। चट से धूनी में से अंगार निकाल के दे दिया।’’

तीन-चार गहरे कश खींच लेने से गांजा अपना असर दिखाने लगा था। बजरंगी महाराज की आँखों में लाल-लाल डोरे उभर आये थे। उन्होंने अपने दांये पैर को चढ़ाकर अपनी बांयी जांघ पर रखा और अर्द्धपद्मासन मुद्रा बनाकर कहने लगे-

‘‘देता कैसे नहीं......चंद्रगीरी जानता है बजरंगी की ताकत। इंदौर जिले के मूंडला गाँव में हमारे गुरू का अस्थान है। हमने पाँच साल तक अपने गुरू की सेवा की है। हमारे गुरू बहुत बड़े सिद्ध हठयोगी हैं। हमारे गुरू का गुस्सा बहुत खराब है। हम भी उन्हीं गुरू के चेले हैं। हमारा गुस्सा भी आग है।

तो महाराज, क्या हुआ कि एक दिन ये चंद्रगिरी कहीं से घूमते-घामते तीन साधुओं के साथ हमारे गुरू के अस्थान पर पहुंच गया। दो-चार महिने तो ये ठीक-ठाक रहा। फिर इनके मन में विचार आया कि ये गुरू चेले दो ही तो हैं। इनको भगा के आश्रम पे कब्जा कर लो। हम इनका इरादा पहले ही ताड़ गये थे। एक दिन ये चारों बैठे हमारे गुरू को लतिया रहे थे। थोड़ी देर तो हम इनका तमाशा देखते रहे। फिर हमसे रहा नहीं गया। पास में ही एक पचास किलो का बाट रखा था। हमने बाट को एक डोरी से अपने लिंग से बांधा और ऊपर उठा दिया। साथ वाले तीनों साधुओं ने तो उसी समय हमारे सामने हाथ जोड़ दिये। पर ये चंद्रगीरी हँस दिया। हमारे बदन में आग लग गई। हमने चंद्रगीरी को अपने लिंग पर बैठाया। दौड़कर पहाड़ी चढ़े। फिर इसको लिंग पर बैठाये-बैठाये ही मैया की आरती की। बस तभी इस चंद्रगिरी को अहसास हो गया कि बजरंगी महाराज की ताकत क्या है। हाथ जोड़कर कहने लगा हमें चेला बना लो। हमने कहा तुमसे ये विद्या न सधेगी। तुम लंगोट के कच्चे हो। उसी रात चारों चुपचाप आश्रम से खिसक लिये। ‘‘बजरंगी महाराज ने मंगलगिरी से चिलम लेते हुए फिर दो-चार लंबे कश खींचे। मंगल महाराज नशे के मारे चुप कर गये थे। प्रौढ़ साधु पहले तो भौंचक होकर बजरंगी महाराज को देखता रहा। फिर उसने हिम्मत करके कहा -

‘‘महाराज आप हमें चेला बना लो।’’

‘‘क्यों ?....’’

‘‘हमारी लिंग से ट्रक खींचने की साध है......क्यों?’’

‘‘महाराज साधु पे कुछ न कुछ सिद्धी हो तो भक्त उसको घेरे रहते हैं। वरना कोई रोटी-साटे भी नहीं पूछता।’’

‘‘तुम्हारे गुरू महाराज का अस्थान कहाँ है?’’

‘‘हमारे गुरू तो सीताराम दास जी महाराज हैं। उनपे कोई सिद्धी नहीं है महाराज। वे तो बस भजन किया करें। आश्रम-वाश्रम भी नहीं है। अमरकंटक के पास नर्मदा किनारे हनुमान जी का एक चैंतरा है। वहीं रहते हैं। आसपास आदिवासी गाँव हैं महाराज। वो लोग क्या साधु की सेवा करेंगे। उनपे खुद खाने को रोटी नहीं है। बस दो टेम टिक्कड़ का इंतजाम हो जाता है। हमारे गुरू तो खुश हैं। पर हमने सोचा कि कब तक इन भूखे नंगों के बीच पड़े रहेंगे। बाहर निकलें। कुछ सिद्धी प्राप्त करें। दो-चार चेला बना के छोटा-मोटा आश्रम बना लें। आश्रम होगा तो चेले भी सेवा करेंगे। वरना बुढ़ापे में साधु की बड़ी दुर्गत है महाराज।’’

‘‘हूँऽऽ......’’ बजरंगी महाराज की आँखों में चिंता उभर आयी। उनका भी कोई आश्रम नहीं था। बुढ़ापे में दुर्गति का ख्याल सामने आते ही गांजा सिर से नीचे उतरने लगा। उन्होंने मन ही मन सोचा ये साधु तो चेला नहीं गुरू बनाने लायक है। बजरंगी महाराज कुछ देर तक मन ही मन कुछ गणित लगाते रहे। फिर सहज हो गये।

‘‘तुम्हारा नाम क्या है महाराज।’’

‘‘बालकदास’’

‘‘गृहस्थी छोड़ के सन्यासी हुए हो?’’

‘‘बालब्रह्मचारी हैं महाराज, बारह बरस की उमर में ही सन्यासी हो गये थे। पर पीछे एक संतान है।’’

बजरंगी महाराज का माथा ठनका। बाल ब्रह्मचारी है। पीछे एक संतान भी है। गांजा ज्यादा तो नहीं हो गया। उन्होंने अपनी दुविधा बालकदास से कही।

‘‘हओऽऽ महाराज सही है। हम बाल ब्रह्मचारी भी हैं और पीछे हमारे एक संतान भी है।’’

‘‘बाल ब्रह्मचारी हो और पीछे एक संतान भी है। महाराज कोई नशा-वशा तो नहीं किये हो।’’

‘‘नहीं महाराज हम नशा नहीं करते। हम अपने माँ-बाप के एक ही लड़का हैं। बाप को बचपन में ही चेचक माई अपने साथ ले गई थी। पीछे से हम भी साधु हो गये। माँ हमारी बहुत दुखी हुई। उसे एक ही दुख था कि अब आगे कुल कैसे चलेगा। छुटपन में ही हमारी शादी हो गई थी। सो हमारे पीछे से गौना करके बहू को घर ले आयी। हमसे भी घर लौट आने के लिये कहने लगी। पर महाराज, हमने साफ कह दिया कि हमने बाल ब्रह्मचारी रहने का संकल्प लिया है। मरते दम तक इस संकल्प को निभायेंगे।

फिरऽऽ संतान कैसे हुई महाराज’’ बजरंगी महाराज के चेहरे पर उलझन के भाव थे।

‘‘हओऽऽ हुई महाराज....गुरू के आदेश से हुई। गुरू महाराज ने ही हमसे कहा कि संतान के लिये संभोग करने से ब्रह्मचर्य नष्ट नहीं होता। उनने महाभारत का एक किस्सा भी बताया था महाराज। कि सत्यवती ने अपने कुल को चलाने के लिये व्यास मुनि को बुलाया था। उनके वीर्य से ही धृतराष्ट्र, पांडव और विदुर पैदा हुए थे। हमने भी सोची महाराज कि जब व्यास मुनि जैसे विद्वान ऋषि कुरूवंश में संतान उत्पत्ति के लिये तैयार हो गये। वो भी साधन छोड़कर। तो फिर अपने ही वंश को चलाने के लिये हमारे जाने में क्या बुराई है। सो हम भी चले गये। आठ दिन घर पर रहे। लड़का अब कोई 17-18 बरस का हो गया होगा महाराज।’’ कहते-कहते बालकदास की आँखों में वात्सल्य का भाव उमड़ा, वो कुछ देर खामोश रहे फिर कहने लगे -

‘‘हमने संतान पैदा करने के लिये वीर्य स्खलन किया था। अय्याशी के लिये नहीं। हम बाल ब्रह्मचारी थे और बाल ब्रह्मचारी हैं। हमने सुना है कि जो बाल ब्रह्मचारी हो वो अगर सिद्धी करे तो अपने लिंग से ट्रक खींच सकता है। और यदि हमने ट्रक खींच दिया तो लोग तुम्हे सच्चा गुरू मानेंगे......कि नहीं?’’

‘‘मानेंगे......जरूर मानेंगे।’’ बालकदास की आँखें चमक उठी।

‘‘ठीक है कल तड़के चार बजे आ जाओ...। हम तुम्हे दीक्षा देंगे.....यहीं आश्रम के सामने तुम छः महिने के भीतर-भीतर अपने लिंग से ट्रक खींचोगे। बाबाजी भी देख लेंगे कि उनके आश्रम में कोई सच्चे गुरू का सच्चा चेला है।’’ कहते-कहते बजरंगी महाराज उठ खड़े हुए और मंगलगिरी को झिंझोड़ा ‘‘चलिये महाराज.....भोजन का टेम होने वाला है।’’ बालकदास ने बजरंगी महाराज को साष्टांग दंडवत किया और तीनों भोजनशाला की ओर चल दिये।

अखिल सीढ़ी पर बैठा साधुओं की ये बातचीत सुन रहा था। उसके लिये ये दूसरी ही दुनिया थी। साधुओं की बातें उसे चकित कर रही थी। लेकिन इससे भी कहीं ज्यादा इस दुनिया के प्रति उसके अंदर दिलचस्पी जगा रही थी। बालकदास की कहानी ने उसके अंदर समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर अनेक प्रश्न खड़े कर दिये थे। उसे लगा कि यदि अनुराधा यहाँ होती तो वो उन तमाम सवालों को उसके साथ शेयर करता। वह सीढ़ियों से उठा और कमरे की ओर चल दिया।

तभी कंधे पर झोला टांगे न जाने कहाँ से कुसुम आ पहुंची। अनुराधा के कारण उसे भी कुसुम से सहानुभूति थी। वह रूका। कुसुम ने अपने कंधे पर टंगा झोला नीचे पटका और बड़बड़ाने लगी -

‘‘बाबाजी ने कैसे टुच्चे लोगों को पाल रखा है। वो स्सालाऽऽ चंद्रगिरी मुझसे कहता है कि तंत्र सिद्धी के लिये एक भैरवी की जरूरत है। आज रात यहीं कुटिया में ठहर जा। तंत्र पूरा हुआ तो दोनों को सिद्धी मिलेगी। तेरा भी आश्रम बनवा दूंगा। अब बताईये, कुसुम तंत्र में भैरवी होने का मतलब नहीं समझती है क्या? कुसुम....कुसुम को पंद्रह साल हो गये हैं आश्रम-आश्रम भटकते हुए। कुसुम ये तंत्र-मंत्र के सारे खेल समझ चुकी है। इसीलिये तो सब मुझे पगली कहते हैं। जो सच बोले वो पागल है। स्साला लुच्चा। बाबाजी को आज इसकी करतूत बताना ही पड़ेगी। चलती हूँ। मुझे बाबाजी को ढूंढना है।’’ कहते हुए कुसुम ने अपना थैला उठाकर पीठ पर टांगा और तेज-तेज कदमों से चली गई।

अखिल को कुसुम का इस तरह बात करना अच्छा नहीं लगा। इस समय आश्रम में कितने ही ऐसे भक्त होंगे जो पहली बार यहाँ आये होंगे। वो कैसे समझ सकेंगे कि कुसुम पागल है। वो तो यही समझेंगे कि कुसुम जो कह रही है वही सही है। वह दिव्यानंद जी से इस बारे में बात करेगा। उनसे कहेगा कि कुसुम के इस तरह आश्रम में बड़बड़ाते हुए घूमने पर पाबंदी लगाई जाना चाहिए।

सोचते-सोचते अखिल अपने कमरे में पहुंच गया और पलंग पर लेटकर एक किताब पढ़ने लगा।

क्रमश..