होने से न होने तक
40.
लॉन के दॉए तरफ के कोने में फूलों की गज्झिन सजावट है। किनारे पर रखी मेज़ पर बहुत सारे बुके रखे हैं। मुझे तो कुछ ध्यान ही नही था। मैं तो ऐसे ही ख़ाली हाथ ही आ गयी हॅू। वहॉ इस समय यश और आण्टी खड़े हैं और उनकी बगल में यश के कंधे से ऊपर आती हुयी वह लड़की शायद गौरी है...बेहद सुंदर, बेहद अभिजात्य। आण्टी ने कहा था कि हमे इतनी अच्छी लड़की इण्डिया में तो मिलती नहीं। शायद सही ही कहा था उन्होंने। क्या यश गौरी से सिंगापुर में पहले मिल चुके थे। मिले तो हांगे ही। मिले हांगे तो शायद गौरी की कामना भी की ही होगी। अनायास उस दिन की यश के चेहरे की द्विविधा,अपने चेहरे पर टिकी यश की ऑखें याद आती हैं। क्या वे गौरी से मेरी तुलना कर रहे थे। मैं अचानक सकुचाने लगती हूं। अपनी साधारणता के साथ मैं अचानक दीन हीन सा महसूस करने लगी थी। अचानक लगा था कि मेरे कंधे नीचे लटकने लगे हैं। क्या मैं यश के मन पर रखा वह बोझा थी जिस के कारण से वह एकदम से शादी के लिए हॉ नहीं कर पा रहे थे। शायद आण्टी समझती थीं वह बात। इसी लिए आण्टी ने वह काम मुझे सौंपा था। ख़ैर जो भी हो। मेरे लिए उतनी तसल्ली ही काफी होना चाहिए कि यश ने मुझे उतना महत्व तो दिया।
आण्टी किसी बात पर बहुत ज़ोर से हॅस रही हैं। यश और उनके पास खड़ी गौरी भी हॅस रही है। अचानक आण्टी की निगाह मेरे ऊपर पड़ी थी। उन्होने मुझे वहीं से आवाज़ लगायी थी और साथ ही बुलाने के लिए हाथ का इशारा किया था। हॅसते हुए यश कुछ क्षण के लिए जैसे गंभीर हो गये थे या शायद मुझे लगा था वैसा। कई निगाहें एक साथ मेरी तरफ को मुड़ गयी थीं, कई जानी पहचानी और बहुत सी अन्जानी भी। मुझे लगा था कि वे पहचानी हुयी बहुत सी आंखे मुझे देख कर असहज हो गयी थीं। कुछ चेहरों पर आश्चर्य भी है जैसे इस क्षण उन्होने मेरे यहॉ होने की आशा नही की थी। मैं उधर की तरफ को बढ़ ली थी। यश के बगल में उनके घनिष्ट मित्र मोहित और उनकी पत्नी मुक्ता खड़े हैं। यश के साथ बहुत बार उनके घर जा चुकी हॅू। बहुत सारे लॅच और डिनर भी साथ किये हैं हम लोगों ने। मोहित ने हैलो कहा था और मुक्ता ने ‘‘कैसी हो? बहुत देर कर दी अम्बिका।’’ कह कर मेरे दॉए कंधे पर हाथ रख दिया था। मुझे लगा था उस स्पर्श में बहुत सा ढॉढस हो जैसे। कंधे पर उस अपनेपन से भरी थपथपाहट के नीचे मेरा मन पिघलने लगा था और मैंने अपने आप को यत्न से संभाला था। यश ने हमेशा की तरह धीरे से मेरी पीठ पर हाथ रखा था। हमेशा की तरह ही वह स्पर्श कुछ छुआ सा और कुछ अनछुआ सा-बहुत अपना और बहुत दूर भी। यश ने मुझे गौरी के सामने को कर के मुझे उस से मिलवाया था। परिचय में यश ने क्या कहा था यह याद नही है। बस इतना याद है कि बहुत ही अपनेपन से भरे कई सारे वाक्य बोले थे उसने जैसे मुझे बहला रहे हों वे, जैसे किसी चोट को सहला रहे हों, जैसे किसी हानि की क्षति पूर्ति कर रहे हों। अनायास लगा था कि मैं यहॉ क्यो आयी? आण्टी ने आने के लिए कहा और मैं चली आयी? आख़िर मैं अपनी शहादत को कितनी दूर तक ले जाना चाहती हूं।
लौटते समय यश मुझे गेट तक छोड़ने आये थे,‘‘राम सिंह तुम्हें छोड़ देगा अम्बिका।’’ यश ने कहा था।
‘‘नहीं यश मैं घर नहीं जा रही। थोड़ी देर गंजिंग करुंगी। कुछ कपड़े ड्राईक्ल्निंग के लिए दिये हुए हैं। बहुत दिन से उन्हें उठाना टल रहा है। नवलकिशोर रोड पर टेलर से कपड़े लेने हैं। कई सारे छोटे छोटे काम हैं।’’ मैंने हॅस कर यश की तरफ देखा था, ‘‘आज घर से निकली हूं तो सब काम निबटा कर ही लौटॅूगी।’’मैंने अपनी आवाज़ को भरसक सहज रखा था।
‘‘ठीक है। गंज तक ही सही।’’
‘‘नहीं। थोड़ी दूर पर ही तो है।बगल की लेन में ही तो है नवल किशोर रोड। पहले तो उधर ही जा रही हॅू। वैसे भी टहलना चाह रही हूं यश।’’मैंने जाने की मुद्रा बनायी थी। लगा था हमारे बीच के वे छोटे संवाद खिंच नही पा रहे और हर क्षण बीच की हवा भारी होती जा रही है। मुझे सच में लगा था कि मुझे जल्दी ही चलना चाहिए। कई जोड़ी निगाहें हम दोनों को देख रही हैं। आण्टी भी।
यश को बाई कह कर मैं बाहर निकल आयी थी। जीवन का यह अध्याय भी समाप्त। पर यह तो बाद में समझ आया था कि रिश्ते, उनसे जुड़ी बातें, यादें और चोटें समाप्त कहॉ होती हैं। वे तो सॉसों के समानान्तर पूरी ज़िदगी अपने साथ साथ चलती रहती हैं। छोटे छोटे कदम रखते हुए मैं यश के घर की लेन पार कर के मेन अशोक मार्ग पर आ गयी थी। मन में आया था अब? घर जाने का दिल नहीं किया था पर मैंने पास से निकलता रिक्शा रोक लिया था।बैठने लगी थी तो रिक्शे वाले ने पूछा था किधर?और मैंने उसे घर का ही पता दिया था। शायद घर जा कर सबसे ज़्यादा चैन मिलेगा...अकेला घर...और अपने साथ बस मैं। इस समय जा भी कहॉ सकती हूं। वैसे भी किसी से बात करने का मन ही नही कर रहा। मैं अपने साथ अकेले रहना चाहती हूं। पर घर पहुंच कर जी अजब तरह से घबराने लगा था। वही घर, दरवाज़े, दीवारे और छत,फिर भी लगता रहा था जैसे सब एकबारगी बदल गया है...एकदम वीरान,उदास और अकेला। अपने घर की उदासी मुझे परेशान करने लगी थी। मैं बिना कपड़े बदले हुये मैगज़ीन ले कर पलंग पर लेट गयी थी। पर कुछ पढ़ने में मन ही नहीं लगा था। निगाहें शब्दों पर घूमती रही थीं पर कुछ भी समझ नहीं आ रहा। मैंने मैगज़ीन पास रखी मेज़ पर रख दी थी और ऑखें बंद कर के काफी देर तक ऐसे ही लेटी रही थी। मैंने सोने की कोशिश की थी पर यश की निगाहें,आण्टी की ख़ुशी, गौरी की सुंदरता,उस घर की रौनक और चहल पहल तरह तरह से ऑखों के आगे तैरती रही थी। अजब सी बेचैनी मैंने महसूस की थी और अचानक ही मैं उठ कर बैठ गयी थी। मैंने मानसी जी को फोन किया था। वे इस समय घर पर ही हैं और अकेले ही हैं। मैंने एक बैग में रात में पहनने के लिए नाइटी,एक दो और कपड़े डाले थे, ब्रश पेस्ट वगैरा भी और मैं नीचे उतर आयी थी। जौहरी आण्टी का पीछे का दरवाज़ा बंद है। मैं बाहर निकल कर आयी तो देखा सामने वाले बराम्दे में बैठी वे बुनायी कर रही हैं। मुझे देख कर वे मुस्कुरायी थीं,‘‘बहुत अच्छी धूप आती है इधर। अब तो ढल रही है, फिर भी। आओ बैठो थोड़ी देर।’’
‘‘नहीं आण्टी चलूंगी।’’ मैं बराम्दे से सट कर बनी हुयी उन पॉच सीढ़ियो के बीच में ही खड़ी रही थी।’’आण्टी को बताना ज़रूरी है कि मैं मानसी जी के घर जा रही हूं और यह भी कि शायद एक दो दिन वहीं रहूंगी। पर मेरा तो कोई भी प्रोग्राम निश्चित नही है सो समझ नही आया था कि क्या बताऊॅ। पर लौट आए तो ठीक है नही तो मेरे घर से बाहर होने की बात कम से कम उन्हें तो पता होना ही चाहिए,‘‘आण्टी,’’मैं कुछ क्षण असमंजस में उसी जगह खड़ी रही थी, वे मेरी तरफ ही देख रही हैं,‘‘आण्टी मानसी जी के घर जा रही हूं।’’ मैंने उनकी तरफ देखा था,‘‘हो सकता है मैं दो चार दिन उधर रुकूॅ।’’
‘‘ठीक तो हो बिटिया?’’आण्टी ने प्यार से पूछा था। उनकी सवाल करती निगाहों में उलझन है।
मैंने सीधे उनकी तरफ देखा था,‘‘हॉ आण्टी।’’मैने अपनी बात दोहरायी थी,‘‘हॉ आण्टी एकदम ठीक हूं।’’ मैं धीरे से हॅसी थी। अच्छा हुआ उन्हें यश की सगाई की बात अभी नही पता है। वे लोग तो मेरे और यश के बीच के रिश्ते में सच से भी बहुत अधिक पढ़ते रहे हैं।
आण्टी के चेहरे पर हल्की सी उलझन अभी तक है,‘‘ठीक है बेटा।’’
मैं सामने की वह तीन सीढ़ियॉ उतरने लगी थी तो आण्टी को जैसे कुछ याद आया हो,‘‘मुझे मानसी का फोन नम्बर दे जाओ बेटा। मैं तो पहले से ही सोच रही थी कि तुम्हारी दोस्तों के और बुआ का फोन नम्बर हमारे पास होना चाहिए।’’ आण्टी उठने लगी थीं ‘‘अन्दर से डायरी और पैन ले आऊॅ।’’
‘‘मुझे वहॉ खड़े खड़े ऊब लगने लगी थी,‘‘आण्टी मैं चलती हूं। मानसी जी के घर पहुंच कर मैं आपको फोन कर दूंगी।’’
आण्टी उठते उठते बैठ गयी थीं,‘‘ठीक है बेटा।’’
मैं वह तीन सीढियॉ उतर कर नीचे आ गयी थी। गेट खोल कर बाहर निकली तो घर के सामने ही रिक्शा खड़ा हुआ दिख गया था। मानसी जी के घर के सामने रिक्शे से उतरी थी तो लगा था यहॉ क्यो आ गयी हूॅ। मानसी जी को पता है कि मैं आज यश के घर जाने वाली थी और यह भी कि आज यश की मंगेतर उसके घर आ रही है। अब उनकी तरफ से होने वाले सवाल, उनकी धारा प्रवाह बातें, थोड़ी बहुत बड़बड़ाहट भी। मैं सोच कर ही परेशान होने लगी थी।
मानसी जी मेरा ही इंतज़ार कर रही थीं। मुझे देख कर वे घर से बाहर निकल आयी थीं। हॅस कर उन्होने मेरे हाथ से मेरे कपड़ों का बैग ले लिया था और मुझे लिये लिये कमरे में चली गयी थीं। मेरी तरफ को कुर्सी खिसका कर स्वयं बगल के पलंग पर बैठ गयी थीं। फुल्लो इस समय उनके घर पर काम कर रही है। मुझे वहॉ देख कर एकदम से ख़ुश हो गयी थी।
‘‘फुल्लो बढ़िया सी गरम गरम चाय तो पिला दे।’’मानसी जी ने कहा था। फुल्लो हॅसती हुयी किचन की तरफ बढ़ गयी थी। मैंने मेज़ पर रखी पत्रिका उठा ली और उसे यूॅ ही पलटती रही थी। मानसी जी ने मेरी पत्रिका के अंदर को झांका था। खुले हुये पन्ने पर उन्होंने ऊंगली रख दी थी,‘‘बहुत अच्छी कहानी है यह। थीम भी बहुत अच्छी है और उसे लिखा भी बहुत बढ़िया है।’’और वे उस कहानी पर विस्तार से बात करने लगी थीं। फुल्लो चाय नाश्ता ले आयी तो मानसी जी ने किताब मेरे हाथों से ले ली थी,‘‘अब चाय पी लो मैगज़ीन घर ले जाना।’’वे बहुत प्रसन्न भाव से हॅसीं थीं,‘‘तुम्हारे लिये हरी मटर बनायी है।’’और वह प्लेट में मेरे लिये मटर निकालने लगी थीं। उसके ऊपर उन्होने चम्मच से थोड़ी सी दालमोठ डाली थी फिर उसके ऊपर चाट मसाला डाल कर नीबू निचोड़ा था। वह यह सब काम धीरे धीरे करती रही थीं जैसे बड़े यत्न से रुचि पूर्वक। मैं चुपचाप बैठी उन्हे देखती रही थी। हम दोनो ही चुप हैं। उन्होने प्लेट मेरे सामने बढ़ा दी थी और एक प्लेट स्वयं उठा ली थी। पास की मेज़ पर रखा कागज़ उन्होंने उठा लिया था,‘‘यह देखो पिक्चरों की लिस्ट मैंने बनायी है। तुम बताओ कौन सी मॅगा लें। अभी फुल्लो को भेज कर मंगा लेते हैं। चतुर्वेदी जी और बच्चे घर पर हैं नहीं, बढिया है हम और तुम,’’मानसी जी छोटे बच्चों की तरह गर्दन को धीरे धीरे हिला कर हॅसती रही थीं,‘‘यह दो दिन की छुट्टी इन्जाय करेंगे।’’मानसी जी ने ख़ुश हो कर कहा था।
उस रात हम लोग देर तक जागते रहे थे। मानसी जी दुनिया भर की बात करती रही थीं। मेरे मूड के अनुसार बीच में बहुत बहुत देर चुप भी रही थीं। पर उन्होंने एक बार भी यश की, यश की शादी की,उसके इन्गेजमैन्ट या गौरी की कोई भी बात मुझसे नही की थी। न मुझसे कुछ पूछा था न अपनी तरफ से ही कुछ कहा था। मुझे लगा था मैं बेवजह ही डर रही थी। रात को मानसी जी के बगल में सोने के लिए लेटी तो अजब सा सहारा महसूस हुआ था। लगा अच्छा ही हुआ यहॉ आ गयी। पर अपने घर तो जाना ही है, आज नहीं, कल नहीं, तो उसके बाद ही सही। जाना तो पड़ेगा ही। बंद ऑखों के नीचे अपने घर का अकेलापन मुझे डराने लगा था। मुदी हुयी पलकों के भीतर ऑसू भरने लगे थे...और मैंने मानसी जी की तरफ पीठ कर के करवट बदल ली थी।
Sumati Saxena Lal.
Sumati1944@gmail.com