Bhuindhar ka Mobile - 2 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | भुइंधर का मोबाइल - 2

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भुइंधर का मोबाइल - 2

भुइंधर का मोबाइल

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

हां तो आने के बाद मैंने घर को जो भटियारखाना बना हुआ था उसे वास्तव में घर बनाया। यह रात को लौटे तो साफ-सुथरा घर देख कर बोले ‘अरे वाह मेरी रानी तुमने तो एकदम काया ही पलट दी।’ फिर हमको बांहों में जकड़ लिया और मुंह भर चूम-चूम कर गीला कर दिया। तब मुझे इनके मुंह से शराब का ऐसा भभका मिला कि मेरा सिर चकरा गया। ये शराब के नशे में बुरी तरह धुत्त थे। मार हमको चूमें जाएं, रगड़े-मसले जाएं। किसी तरह खुद को छुड़ा कर अलग हुई तो जान में जान आई। चाय बनाने लगी तो मना कर दिया। कहा ‘मैं थका हूं आराम करने दो।’ फिर कुछ ही देर में बिस्तर पर पसर के सो गए। जूता भी नहीं उतारा, पैर बिस्तर से नीचे लटका हुआ था। मैंने जूता उतार कर किसी तरह इन्हें बिस्तर पर सीधा लिटाया। फिर इंतजार करती रही उठने, खाने का। भूख के मारे मेरा बुरा हाल था।

रात करीब दो बजे जब यह उठे बाथरूम जाने के लिए तो फिर मैंने पूछा तो बोले ‘सोई नहीं’ मैंने कहा ‘तुम्हें खाना खिलाए बिना कैसे सो जाती’। तो बोले ‘ये तो आते ही पीछे पड़ गई। ठीक है ले आ खाना।’ खैर किसी तरह खाना खाया, मुश्किल से दो चार कौर, फिर हमने भी खा लिया। अब तक इनका नशा उतर चुका था। चार घंटा सो भी चुके थे लेकिन मुझे जोर से नींद आ रही थी सो मैं बिस्तर पर लेटते ही सो गई।

अब क्योंकि चारपाई एक ही थी तो एक ही पर सो रहे थे। मगर इनकी हरकतों से कुछ ही देर में नींद खुल गई। फिर इन्होंने मेरे साथ जो हरकतें कीं, मुझे जिस तरह नोचा, खसोटा, मसला कि तड़प उठी। इनका यह अवतार मेरे लिए एक नया अनुभव था। मुझ से जो करने को कहा और करवाया, अपने मोबाइल में जो पिक्चरें दिर्खाइं वह सब मैं तुम से किसी सूरत में नहीं बता सकती। बस ये समझ लीजिए कि जितने अरमान लेकर गांव से यहां पहुंची थी वह इनकी हरकतों सेे इनके नए रूप से पहले ही दिन चकनाचूर हो गए।

अगले दिन सुबह जब यह तैयार होकर ड्यूटी पर निकलने वाले थे तो इन्हें खुश देख कर मैंने बड़े मनुहार से प्रार्थना की कि ‘आज मत पीजिएगा। शाम को जल्दी आइएगा मैं आपका मनपसंद खाना बनाऊंगी।’ बस इतना कहते ही इनकी भृकुटि तन गई तो मैंने सहमते हुए कहा ‘देखिए ये बहुत ख़राब चीज है। कल आप अपने होश में नहीं थे तो देखिए क्या किया।’ मैंने अपने बदन के कपड़े हटा कर वे हिस्से दिखाए जो उनकी हरकतों से चोट खाकर काले पड़ गए थे। खरोंचों, सूजन को भी दिखाया मगर इसका असर सिर्फ़ इतना हुआ कि मुझ पर एक जलती नजर डाली और गाड़ी की चाभी उठाई फिर मुझे भी एक मोबाइल थमाते हुए कहा ‘इसे रख ज़रूरत पड़ने पर फ़ोन करना। मेरी ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं।’ कह कर चल दिए। फिर उस दिन मुंह बनाए रात बारह बजे आए खाना खाया सो गए। एक बात न की।

मैं नींद न आने के कारण उठी और छत का पर टहलने लगी। उस ऊंची छत से दूर-दूर तक बिजली की रोशनी और बड़े-बड़े मकान दिख रहे थे। हर तरफ जलती बिजली देखकर एक बार मन में आया कि काश अपने गांव देहातों में भी बिजली ऐसे ही आने लगे तो कितना अच्छा होता। हम लोग तो बिजली को तरसते रहते हैं। दो चार घंटे आ गई तो बड़ी बात है। और यहां देखो कितनी इफरात बिजली है। सड़कों पर बड़ी-बड़ी महंगी गाड़ियां भी दौड़ती दिख रही थीं। मगर फिर भी न जाने क्यों मेरा मन न सिर्फ़ अजीब सा व्याकुल हो रहा था बल्कि अचानक ही रह-रह कर तुम सब की याद आ रही थी।

इतने हलचलों से भरे शहर में एकदम अकेलापन महसूस कर रही थी। सच भी तो यही था, वहां आखिर अपना था भी कौन और जब कोई अपना था नहीं तो अकेलापन डसे बिना कैसे छोड़ता। सो वह डसता रहा। अंततः मैं ऊब कर कमरे में आ गई। वहां मेरी नजर इनके कपड़ों पर पड़ी। अनायास ही मैं उनकी तलाशी लेने लगी। मैं जानती थी यह गलत है, लेकिन इनकी हरकतों के चलते रोक न सकी। और जानती हैं अम्मा क्या मिला इनके कपड़ों में ? एक डिब्बी बहुत महंगी वाली सिगरेट, और नोटों की गड्डी। जिसमें दो हज़ार, पांच सौ, सौ-सौ के नोट थे। गिनने पर 12 हज़ार से ज़्यादा निकले। मैं परेशान हो गई। आखिर कहां से आया इतना पैसा, महंगी सिगरेट। दूसरी जेब में हाथ डाला तो उसमें इनकी घड़ी मिली। जिसे यह रोज लगाते थे। बरबस ही मेरी नजर इनकी कलाई पर गई तो देखा एक नई घड़ी लगाए हुए हैं। जो देखने में बहुत महंगी लग रही थी। मैं परेशान हो गई कि अपनी कमाई से दस गुना ज़्यादा यह कहां से खर्च कर रहे हैं। मैं यह सोच ही रही थी कि यह कसमसा कर उठे फिर मेरी तरफ देखा। मैं तब तक इनका सामान वापस रख चुकी थी। मुझे देख कर पूछा ‘सोई नहीं क्या?’

मैंने कहा ‘नींद नहीं आ रही।’

‘क्यों।’

‘अ....नई जगह है न इसीलिए, और आज अम्मा की भी बहुत याद आ रही है।’

अम्मा फिर यह उठकर बाथरूम गए और आकर पानी पीकर लेटते हुए बोले ‘लाइट ऑफ करके आ मैं तुझको सुला देता हूं।’ मैं इनकी हरकतों से समझ गई कि यातना के मेरे क्षण शुरू। पर मैंने भी सोच लिया कि जैसे भी हो आज इनसे हक़ीक़त पूछूँगी । जब यह अपना यातनापूर्ण खेल मेरे साथ खेल कर अघा गए तो मैंने पूछ लिया रुपया, घड़ी, फोटो आदि के बारे में। बस फिर क्या था आग बबूला हो बोले ‘मेरी जासूसी करती है। दिमाग खराब हो गया है तेरा। देख बीवी है बीवी की तरह रह। मास्टरनी बनने की कोशिश की तो फाड़ कर रख देंगे समझी।’

अम्मा इसके बाद और भी ऐसी बातें कहीं, गालियां दीं कि बता नहीं सकती। खैर मैंने भी ठान रखा था इसलिए चुप मैं भी न हुई। मुझे बार-बार तुम्हारी बात याद आती तो मैं बार-बार तनकर खड़ी हो जाती। गाली मार खाती रही मगर फिर भी पीछे न हटी। मैं ठान चुकी थी कि इनको रास्ते पर लाकर रहूंगी। इसी समय मुझे तुम्हारी यह बात भी याद आ जाती कि ‘ऊ मेहरिया भी कऊन जऊन अपने मनसवा का अपने वश मा न राखि सकै।’ मैं अपनी कोशिश में लगी रही कि ये पीना बंद कर दें। यह भी जानने की कि नौकरी के अलावा कौन सा धंधा कर रहे हैं जो ऊटपटांग पैसा, सामान ले आ रहे हैं। इस कोशिश में अम्मा आए दिन हम गाली, मार खाते रहे और कि खाते ही आ रहे हैं।

एक दिन ये रात में साहब को एयरपोर्ट पर छोड़ कर बारह बजे के करीब आए। मैं खाना बनाए इंतजार कर रही थी। लेकिन आए तो किसी बहुत बढ़िया होटल से अपना और मेरा खाना लेते आए। अपने लिए मुर्गासुर्गा लाए थे। मेरे लिए शाकाहारी। सोते-सोते दो बजने वाले थे। बहुत गर्मी हो रही थी। कि तभी कूलर में न जाने क्या हुआ कि बंद हो गया। कमरे में पंखे की हवा भी तपाए दे रही थी। बाहर छत पर गए, वहां हवा कुछ राहत दे रही थी तो यह बोले ‘चलो आज खुले में सोते हैं। बहुत दिन से बाहर सोए नहीं हैं।’

जमीन पर ही बिस्तर लगाया। बाहर की हवा वाकई पंखे की हवा से ज़्यादा राहत दे रही थी। ये एकदम मस्तियाए हुए थे। मैंने मौका देख कर पूछ लिया फिर से उन सारी बातों के बारे में तो बोले ‘ए फालतू का ड्रामा करके मूड मत खराब कर चल इधर आ।’ कहकर मुझे खींच कर चिपकाना चाहा तो अम्मा मैंने भी छिटक कर बिस्तर के एकदम किनारे पहुंच कर कहा ‘नहीं पहले बताओ तभी कुछ करने दूंगी।’

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