जो घर फूंके अपना
49
और अब पुलिस पीछे पड़ गयी
दिल्ली वापस पहुंचकर हैदराबाद की उड़ान वाले उस अप्रिय प्रसंग को भूलने की कोशिश कर ही रहा था कि लगभग पंद्रह दिनों के बाद मेरे पास ऑफिस में एक फोन आया. फोन करनेवाले ने अपना परिचय अशोक सक्सेना कहकर दिया. मेरे दिमाग में इस नाम से कोई घंटी नहीं बजी. इसे वे मेरी क्षण भर की चुप्पी से भांप गए. उन्होंने कहा “ आपको शायद नाम ध्यान न हो, मैं वही पुलिस ऑफिसर हूँ जिसने जीप में आपको हैदराबाद एयरपोर्ट पहुंचाया था” मेरे दिमाग की बत्ती जली. कुछ लज्जित होते हुए मैंने कहा “नहीं,नहीं मिस्टर सक्सेना आपको कैसे भूल सकता हूँ, आप ने मदद न की होती तो उस दिन बड़ा अनर्थ हो जाता”. उत्तर में सक्सेना ने ‘नहीं, नहीं ये तो मेरा फ़र्ज़ था’ किस्म के एकाध घिसे पिटे जुमले जड़ लेने के बाद कहा “मुझे दिल्ली एक तहकीकात के सिलसिले में आना हुआ तो सोचा आपसे भी मिल लूं. उस दिन तो आप परेशान थे और हमने कुल पांच मिनट ही साथ बिताये थे. आज यदि आप शाम को फ्री हों तो कुछ देर साथ बिताते हैं. एक कप चाय पियेंगे, गपशप करेंगे. ”
उस दिन वाली घबराहट ने मुझे फिर आ दबोचा. स्पष्ट था कि हैदराबाद में राष्ट्रपति की उड़ान में जो तमाशा होते होते रह गया था उसे चुप चाप छुपा ले जाने की योजना असफल हो गयी थी. वायुसेना मुख्यालय में तो इस घटना का कोई ज़िक्र नहीं उठा था. पर इस पुलिस वाले की बातों से लग रहा था कि या तो राष्ट्रपति के प्रोटोकोल विभाग में या आंध्र प्रदेश सरकार के गृह मंत्रालय में बात तूल पकड़ गयी थी. किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति के विमानचालक को समय से वाहन नहीं मिल पाया और कैसे राष्ट्रपति महोदय के सम्मान में भारी बट्टा लगने से रह गया शायद इसकी जांच शुरू हो गयी थी. ज़ाहिर था कि जांच उच्चस्तरीय थी. तभी तो आई पी एस सेवा का पुलिस आरक्षी पद का अधिकारी सच्चाई को ढूंढ निकालने दिल्ली भेजा गया था. और ये बदमाश मुझे बच्चों की तरह फुसला रहा था. मैंने कहा “मैं आज शाम का शेड्यूल देख लूं किसी फ्लाईट पर तो नहीं जाना है. फोन नंबर दे दें, आपको अभी फोन कर दूंगा” मोबाईल क्रान्ति तब तक हुई नहीं थी. लैंडलाइन के जिस नंबर से वे बात कर रहे थे उन्होंने बताया तो मेरे होश उड़ गए. नंबर से मैं परिचित था. ये सी बी आई मुख्यालय का था. मुझे पहले एक परिचित पुलिस अधिकारी ने दिया था जो वहाँ कार्यरत थे.
मैं भागा उस राष्ट्रपति वाली उड़ान के कप्तान स्क्वाड्रन लीडर जयसिंह के पास. उन्होंने मुस्कराकर कहा “बड़े एक्साइटेड लग रहे हो क्या तुम्हारी गर्लफ्रेंड का फोन आया है ?”मैंने जवाब दिया “नहीं सर, हम दोनों के ब्वाय फ्रेंड का फोन आया है. ” सक्सेना के फोनकाल का विवरण देने से पहले ही “हम दोनों के ब्वायफ्रेंड” कहकर मैंने बड़ी चतुराई से उन्हें याद दिला दी थी कि मैं अपने भाई साहेब के घर उनकी अनुमति से ही रात में रुका था. सुबह कार नहीं आई तो इसमें मुझ अकेले का कोई कसूर नहीं था. इस हैदराबाद वाले प्रकरण में मेरे सिवा जयसिंह, उस सरकारी कार के ड्राइवर, हैदराबाद ट्रैफिक पुलिस के उस हवलदार और राज्य सरकार के परिवहन विभाग वालों आदि दर्जनों लोगों को फंसाकर मामले को उलझाया जा सकता था. अंत में अंधेर नगरी चौपट राजा वाले निर्णय की तरह क्या पता शायद अंत में जाकर घूमती हुई सुई उस हैदराबादी दूधवाले पर रुकती जिसकी साइकिल को बड़ी बड़ी अम्बैसेडर “कारां” से टक्कर लेने का शौक था या उसकी भैसों पर रुकती जो न दूध देतीं न वह उसे बेचने निकलता. भाई साहेब ने मुझे बाद में सूचित किया था कि हमारे घर से निकलने के दस पंद्रह मिनट बाद ही जो सरकारी कार आ गयी थी उसकी भी एक दूधवाले से टक्कर हो गयी थी. क्रुद्ध दूधवाले से पुलिस के हस्तक्षेप के बाद किसी तरह जान बचाकर जब तक आ पाया हम लोग निकल चुके थे. मुझे पहुंचाने के बाद जब भाई साहेब ने घर लौटकर भाभी को आपबीती सुनाई तो भाभी ने उनसे हंस कर पूछा था कि क्या सारे पुरुष ड्राइवरों की कार की दूधवालों से वही रिश्तेदारी होती है जो क्रुद्ध सांड की लाल गमछे से होती है?
भाभी का चटखारे ले लेकर भाई साहेब की ड्राइविंग का मज़ाक उड़ाने के पीछे भी वज़नदार कारण था. भाई साहेब ने पहली बार जब कार खरीदी तो उन्हें तो ड्राइविंग आती थी पर भाभी को नहीं अतः भाभी को भी ड्राइविंग सीखने का शौक चर्राया. भाई साहेब ने या तो अतिशय पत्नीप्रेम के कारण या अतिशय कंजूसी के चलते ये ज़िम्मेदारी बजाय किसी ड्राइविंग स्कूल को सौंपने के अपने सर पर ले ली और उन्हें रोज़ सुबह ड्राइविंग सिखाने लगे. पहले तीन चार दिनों में ही उन दोनों की मेहरबानी से सारे अडोस पड़ोस वाले त्रस्त हो गए थे. किसी के घर का गेट अपने खम्भे से लटक कर झूलने लगा था, किसी के बेटे की बाईसाइकिल उनकी कार के नीचे आकर मोनोसाइकिल बन गयी थी. पड़ोस वाली आंटी से यद्यपि टक्कर बहुत हल्की सी हुई थी पर घबराहट में आंटी के नकली दांत मुंह से निकल कर बाहर गिर पड़े थे. इस भयानक दृश्य को देखकर उनके अगले घर में रहने वाला एक बच्चा इतना आतंकित हो गया था कि उसे महीनो तक रात में सोते में भयानक दुह्स्वप्न आते रहे कि उसके मम्मी, पापा के दांत भी मुंह से निकल कर हवा में उड़ रहे हैं. उधर उन आंटी के दांत यद्यपि ज़मीन पर गिरकर टूटे नहीं थे पर उन्हें इस बात का गम था कि सरेआम उनके नकली दांतों के राज़ का पर्दाफ़ाश हो गया था. आंटी जी ने सड़क के किनारे फैले कचरे पर गिरी हुई वह बत्तीसी उठा कर, इधर उधर देखकर कि कोई देख तो नहीं रहा है, जब अपनी साडी के पल्लू से जल्दी जल्दी पोंछकर गप्प से अपने मुंह में रख ली थी तो उन्हें ऐसा करते हुए किसी ने देख लिया था. बदकिस्मती से देखने वाली लडकी पड़ोसी के यहाँ घरेलू काम करने वाली सहायिका थी. उसे कोलोनी के ही एक अन्य घर के नौजवान नौकर के साथ इश्क फरमाते देखकर कभी इन आंटी जी ने उसकी मालकिन से शिकायत की थी और तब उसे बेभाव की पडी थी. अब आंटी जी को कचरे से बत्तीसी उठा कर अपने मुंह में रखते हुए उसने देख लिया था तो आंटी जी के साथ पुराना हिसाब किताब चुकता करने का उसे मौक़ा मिल गया. इस पूरे काण्ड के चलते मोहल्ले की सारी आंटियों के दो खेमे बन गए थे. एक अधेड़ और बूढ़ी आंटियों का खेमा जो इन बत्तीसी वाली आंटी के पक्ष में था और चाहता था कि उस लडकी की बात की सच्चाई का पता लगाने के लिए अग्निपरीक्षा जैसे किसी तरीके का प्रयोग किया जाए. असल में वे पहले ही उस नौजवान के साथ इश्क करने के जुर्म में उसका मुंडन कराना चाहती थीं पर करा नहीं पाई थीं. दूसरा खेमा था उन कमउम्र वाली बहुओं का जो आंटी जी की अपनी-अपनी सासू के साथ होने वाली खुसुर पुसुर से परेशान हो चुकी थी. वे अब सरेआम आंटी जी की बखिया उधेड़े जाने के पक्ष में थीं. तीसरा छोटा सा तम्बू उन कम उम्र वालों का था जो समझते थे कि उस बेचारी घरेलू नौकरानी के जीवन में पड़ोस के छोकरे से इश्क फरमाने के अतिरिक्त और कौन सा सुख था कि उसे इससे भी वंचित कर दिया गया.
बहरहाल जब भाई साहेब के सिखाने से भाभी के ड्राइविंग कौशल में कोई सुधार होते नहीं नज़र आया तो आस पास के घरों से एक डेलीगेशन भाई साहेब के पास ये मांग लेकर पहुंचा कि वे भाभी को घर से कम से कम दस किलोमीटर दूर ले जाकर ड्राइविंग सिखाया करें. भगवान ने चाहा तो वे आठ दस महीनों में नित्य अभ्यास करने से सीख ही जायेंगी. दो एक ने दबी जुबान से ये इशारा भी किया कि यदि भाई साहेब इसके लिए तैयार नहीं थे तो वे चन्दा करके भाई साहेब को इतनी रकम देंगे कि भाभी किसी कायदे के ड्राइविंग स्कूल में प्रवेश लेकर ड्राइविंग सीख सकें. भाई साहेब ने इस पर जब आपत्ति की तो उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा था “वर्मा साहेब, इसमें संकोच करने की या बुरा मानने की क्या बात है. हम इसे अपनी और अपने परिवारवालों की जान का बीमा करने का खर्च समझेंगे. ”
बहरहाल, अब यदि मेरी होते होते रह गयी अनुपस्थिति के कारण की जांच शुरू हो गयी थी तो मेरे साथ उस फ्लाईट के कप्तान के भी नत्थी होने से मेरा भला ही हो सकता था. जयसिंह ने उस समय बहादुरी दिखाते हुए सिर्फ इतना कहा “ ठीक है यार, ये राज्य सरकार का अपना कोई पंगा होगा. हमारी तरफ से तो उस फ्लाईट में अंत में सब कुछ ठीक ही रहा था. फांसी पर थोड़े ही चढ़ा देंगे वे किसी को. तू आज मिलकर आ उस पुलीस वाले से और बताना क्या बात हुई. फिर आगे सोचेंगे. ” डर और बहादुरी दोनों संक्रामक होते हैं. जयसिंह की बेफिक्री से मेरा भी हौसला बढ़ा. मैंने अशोक सक्सेना को फोन किया तो उन्होंने कनाट प्लेस के वोल्गा रेस्तरां में शाम को सात बजे मिलने का अनुरोध किया. मेरी जान में जान आई. वैसे भी अब लग रहा था कि मुझे पुलिसिया पूछताछ के लिए बुलाना होता तो वोल्गा रेस्तौरा में बुला कर चाय पेस्ट्री पिलाने खिलाने की क्या ज़रूरत थी.
क्रमशः -------------