प्रणाम एक ऐसा शब्द है ,जो प्रेम और आस्था से जुड़ा होने के कारण, आध्यात्म यह अपना विशेष महत्व रखता है| वैसे तो प्रणाम के कई अर्थ और गुण बताये जाते हैं, जैसे "प्राण" अर्थात एक ऊर्जा एक तत्व , "म " अर्थात "मैं " सरल भाषा मे प्रणाम का अर्थ अपनी आन्तरिक ऊर्जा को एकत्रित करना या स्वंय को ऊर्जा मे समाहित करना है | वैदिक काल से ही प्रणाम की परम्परा चली आ रही है | अहंकार को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना गया है | जिसकी अधिकता मनुष्य की विनम्रता का नाश कर उसे विवेकशून्य बना देती है | प्रणाम को अहंकार का निर्मूलक माना गया है| इसीलिए पौराणिक काल से ही माता -पिता के द्वारा अपनी संतान को सर्वप्रथम यही शिक्षा दी जाती थी | यही कारण है कि संतान के लिए माता -पिता को ही प्रथम गुरू बताया गया है , इसी शिक्षा द्वारा ही वह बडे़ -बूढ़ो तथा गुरूकुल मे गुरूवों की प्रसन्नता प्राप्त कर पाता है | वैदिककाल मे गुरू को "दण्डवत" अर्थात जमीन पर सीधा लेट कर हाथों को हाथ से और पैर को पैर से जोड़कर प्रणाम करने की परम्परा थी ,जो कालान्तर से चलती आ रही है | किन्तु आज के परिप्रेक्ष्य मे यह परम्परा लुप्तप्राय है, या यह कहना उचित होगा कि इसका स्वरूप ही बदल गया | कुछ हद तक कर "प्रणाम" अर्थात् हाथ जोड़ना, जो एक प्रकार से व्यायाम, योग, अध्यात्म से प्रेरित है , अब भी भारत मे प्रचलित है | किन्तु जैसे -जैसे हम विदेशी शैली के सम्पर्क मे , उससे आकर्षित हो रहे हैं , वैसे -वैसे हम इसके गुण और महत्व से दूर भी होते जा रहे है | परिणामतः हमारी पीढ़ियों मे गुस्सा, अहंकार, असहनशीलता जैसे भाव उत्पन्न हो रहे हैं जो उनमे डिप्रेशन और अक्रामकता तो ला ही रहे है, साथ ही बड़ो के प्रति अनादर का भाव भी उत्पन्न कर रहे है| यह कोई छोटी बात नहीं है | यह एक ऐसी विकृति की ओर संकेत है , जो बदलाव के नाम पर असभ्यता का संचार कर रही है | और आने वाले समय मे समाज से दया, कर्तव्य और परोपकार जैसे गुणों का भी नाश कर देगी | कुछ माता -पिता इस ओर सजग दिखाई पड़ते भी हैं, किन्तु इसकी सही प्रक्रिया को न जानकर | हमारे पड़ोस मे एक मिश्रा जी थे पति -पत्नि दोनो धार्मिक प्रवृत्ति के, उनकी पत्नी मेरी सहेली थी एक दिन मै उनके घर गई, उन्होंने अपने बेटे को संकेत किया "माँसी आई हैं ! इनके पैर छुओ ", बेटे ने भी माँ का कहना मानकर कमर को हल्का सा पैरो की तरफ झुकाकर कर मेरे दोनो घुटनो पर , उंगलियों का स्पर्श देकर, माथे और हृदय स्पर्श का अभिनय करते हुए, तीव्रता से बाहर की ओर निकल गया | पैरो को छूना भी दण्डवत प्रणाम का ही बदला स्वरूप है , ऐसा माना जाता है कि अंगूठे से ऊर्जा का प्रवाह होता है जो नकारात्मकता को दूर कर अप्रत्यक्ष रूप से एक सुरक्षाकवच का निर्माण कर देती है, इसीलिए आदिकाल से ही ब्राम्हण और गुरूवो के चरणस्पर्श की परम्परा रही है | इसके लिए चाहिए कि माता -पिता बच्चो को प्रणाम करना तो सिखायें साथ ही उसके महत्व और कारण को भी समझाये, तभी इस भारतीय परम्परा को सहेजा जा सकता है| अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने जहाँ एक ओर हमारी भाषा का पतन किया , वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कारो के प्रति भी घृणा के भाव उत्पन्न कर रही है | आज की पीढ़ी प्रणाम करने मे अपना अपमान समझती है ,इसमे इनका दोष नही सबकुछ एकदम से नही बदलता | इसमे हमारे पूर्वजों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा था, पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली और उनके रहन - सहन के प्रति आकर्षण , लालसा इसका मुख्य कारण रहा है | जो विचारो मे क्रान्तिकारी व अक्रामक परिवर्तन ला बदलने के लिए विवश कर रहे है, यह विवशता किसी वाह्य करके की नही बल्कि स्वयं के अन्तरमन मे तर्को के पराजय से उत्पन्न है, क्योंकि तर्को के युध्द मे हमारे अपने हथियारो ( हमारी अपनी संकृति से परिचित न होना) के उपयोग का ज्ञान ही नही | जो हथियार शामिल है वह केवल वाह्य प्रतिक्रियाओं पर ही केन्द्रित होती है, अर्थात हाथ जोड़ने को वह केवल झुकना ही समझते है| और विदेशी ज्ञान उन्हें पराजित कर देता है | प्रणाम की अपेक्षा हाथ मिलाना या गले मिलना अथवा होठों को होंठों का स्पर्श इन पश्चात्य और क्षुद्र प्रचारो ने भारतीय संस्कारो पर जो प्रहार किया है , वह धीरे-धीरे पूरे समाज को ही विकृत करती जा रही है | यह विकृति मनुष्य जीवन मे किसी भी प्रकार से सफल नही है | यह बात एक छोटे से वायरस कोरोना ने हमे समझा दी है | भारतीय परम्परा और भारतीय संस्कार ही केवल भारतीयों के लिए ही नही वरन् सम्पूर्ण मानव जाति के लिए हितकर, आवश्यक अथवा अनिवार्य है| आजकल एक और सत्य सामने आ रहा है, जहाँ हम अपनी संस्कृति, अपना परिचय भूलकर, पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर ,
स्वयं को असभ्य निश्तेज करते जा रहे हैं | वही विदेशी इसके महत्व को समझ, हमारी संस्कृति का अनुसरण कर स्वयं की उन्नति करने मे लगे है | भारतीय संस्कृति स्वर्ण के समान है | स्वर्ण को चाहे कितना भी तपाया जाये वह जलकर राख तो हो सकता है, परन्तु वह अपने गुणों का त्याग कभी नही करता | इसी प्रकार भारतीय संस्कृति भी हर परिस्थिति मे अनुकरणीय व सर्वथा हितकारी है | मनुष्य के जीवन मे विकास के तीन पक्ष माने गये है शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक | प्रणाम भारतीय संस्कृति की पहचान है यह हमारे अहंकार को मस्तिष्क से निष्कासित करती हैं जो हमारी आध्यात्मिक उन्नति मे बाधक है | प्रणाम तभी सार्थक है जब इसके मूल को समझकर उचित तरीके से किया जाया | यह केवल शारीरिक प्रक्रिया नही अपितु मन, भाव के समर्पण का सम्मिलित रूप है| उदाहरणतः हम इलेक्ट्रॉनिक वस्तु को ही लेते है, जब तक हम उनकी तारो को सही तरीके से नही जोड़ेगे तो उसे उर्जा कैसे प्राप्त होगी, प्रणाम का अभिनय संतान मे बड़ो मे सम्मान का तरीका बता सकती है, किन्तु उसके महत्व को नही | प्रणाम करते समय जब हथेलियों को आपस मे जोड़ा जाता है तो, हमारे अन्दर एक नैसर्गिक ऊर्जा का संचार होता है जो हमे आन्तरिक बल प्रदान कर आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर करता है | अन्ततः केवल इतना ही कि श्रीमदभगवद्गीता मे भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि "हर जगह केवल मै ही हूँ, मै ही दृश्य, मै ही दृष्टा मेरे अतिरिक्त कुछ है ही नही इस सत्य को जानने के लिए किसी तत्वज्ञानी महापुरुष के पास जाकर उन्हें दण्डवत प्रणाम कर |" अर्थात हमारे ग्रन्थों मे भी प्रणाम के महत्व को बताया गया है |