छोटू की शादी में कुंती चाह के भी कोई गड़बड़ न कर पाई। कारण, न तो छोटू किशोर की तरह दब्बू था, न ही शास्त्री जी मिश्रा जी की तरह सीधे-साधे। छोटू ने कुंती को पहले ही ताक़ीद कर दिया था कि इस बार, भैया के परछन वाला सीन न दोहराया जाए। न ही घर आई लड़की को अनाप शनाप बोला जाए। यदि बोला गया तो फिर तुम जानना अम्मा...! छोटू की धमकी केवल धमकी नहीं थी। वो पूरी तरह कुंती के स्वभाव पर गया था। कुछ भी कर सकता था।
शादी के एक महीने बाद ही वन विभाग से छोटू की नियुक्ति का आदेश आ गया था। नियुक्ति भी ललितपुर के पास बलरामपुर के जंगलों में हुई थी। ज्वाइनिंग के दस दिन बाद ही छोटू , छाया को ले गया था। कुंती ये तक न कह पाई कि अभी कुछ दिन बाद ले जाना जबकि उसके मन में थी ये बात।
"मम्मी, कुंती मौसी कब आ रही हैं? आज? या कल?"
अज्जू की आवाज़ ने सुमित्रा जी को फिर ग्वालियर के उनके कमरे में ला पटका।
"कल आएगी। कह तो ऐसा ही रही थी...."
"हम्म्म्म....वैसे मम्मी, अब कुंती मौसी बहुत सुधर गयीं हैं। नहीं क्या?"
"हां..... सुधर तो गयी है, या शायद सुधरना पड़ा है। बच्चे बड़े हो गए हैं, बाल बच्चोंदार हो गए हैं। आख़िर कुछ तो बदलाव आना ही था न? फिर सबसे बड़ा रोल तो छोटू का रहा है...! किशोर तो बेचारा कुछ बोल नहीं पाता था। अभी भी कहाँ बोल पाता है? लेकिन छोटू ने उसकी मुश्कें कस दीं।"
"मुश्कें....." अज्जू हंस हंस के दोहरा हुआ जा रहा था।
"वैसे मम्मी, हम लोगों को तो बहुत प्यार करतीं हैं कुंती मौसी।"
"हाँ बिल्कुल करती है। हमने कब मना किया?"
सुमित्रा जी की आंखों में अचानक ही सबसे छोटे देवर की शादी का वाक़या घूम गया।
हुआ यूँ कि सुमित्रा जी के सबसे छोटे, चचेरे देवर की बहू घर में आई, और उसके मुंह दिखाई का बुलौआ होना था, तब रूपा, सुमित्रा जी की बड़ी बेटी, जो उस वक़्त दसवीं में पढ़ती थी और पूरी तरह शहरी माहौल की हो चुकी थी, भी वहीं मौजूद थी, जहां नई चाची को तैयार किया जा रहा था। जैसे ही उसकी काकी दादी ने नई बहू की नाक में देहाती बड़ी सी लौंग, जिसे बुन्देलखण्ड में पुंगरिया कहते हैं पहनानी चाही, तो अचानक ही रूपा बोल पड़ी- "दादी , ये क्यों पहना रही हैं, वो छह नगों वाली छोटी लौंग पहनाइए न, ये बहुत देहाती लगती है। चाची की नाक भी दुखने लगेगी।"
इतना सुनते ही मंझली कक्को फट पड़ीं।
"बैन, तुम तौ रन दो। इनै कौन तुमाय सहर में रानै। इतईं कंडा पाथने। सो बा सहराती लौंग तुम अपनी मताई खों पैराइयो। उनई खां मूँड़ उघारें फिरनै इतै उतै।"
अचानक हुए इस शाब्दिक हमले से रूपा अचकचा गयी। समझ ही नहीं पाई कि उसने क्या ग़लत बोल दिया? छोटी सी बच्ची रोने के अलावा और कर ही क्या सकती थी? रोते हुए घर वापस आ गयी। कुंती आँगन में ही बैठी थी। रूपा को रोते देखा तो तुरन्त उसके पास आई।
"क्या हुआ बेटा? काय रो रईं? कछु पिरा रओ के कौनऊँ ने कछु कै दई?"
रूपा ने इंकार में सिर तो हिला दिया लेकिन सहानुभूति मिलते ही फफक फफक के रो पड़ी। अब तो कुंती को चैन नहीं। तुरन्त रमा को आवाज़ लगाई। रमा साड़ी बदलने, अभी ही मंझली कक्को के घर से अपने हिस्से में लौटी थी। कुंती की आवाज़ सुन के अटारी से बाहर आई।
"का हो गओ जिज्जी?"
"तुम तनक नैचें उतरौ। जल्दी करौ। दोमहला सें सवाल न करौ।" कुंती फनफना रही थी।
"बताओ जिज्जी।"
"हमें का बतानै? तुम जा बताओ, अबै कितै हतीं? कक्को कने?"
"हओ जिज्जी, हते तौ उतईं..."
"जा मौड़ी रो काय रई? उतईं सें आई रोत रोत। कछु भओ है का?"
रमा ने भी कक्को की बात सुनी थी और उसे भी बहुत बुरा लगा था। जानती थी कुंती को पता चलेगा तो पता नहीं क्या हो, लेकिन इस वक़्त, अचानक ही झूठ नहीं बोल पाई।
"जिज्जी वो कक्को ने...." रमा हकला रही थी।
"का कक्को ने? जल्दी बक्कारौ तुम"
"कक्को ने रूपा खों डांट दओ....!" और रमा ने शब्दशः पूरी घटना सुना दी। अब तो कुंती को आग लग गयी। चप्पल पहनी और दनदनाती हुई मंझली कक्को के आँगन में पहुंची।
"कहाँ हैं हमारी परम् पूजनीय मंझली सास जी? ज़रा प्रकट तो होइए। बच्ची की बात पर इतने तेवर? मेरी ही बहन को आवारा बता दिया? नाक कटाती घूम रही है क्या वो वहां? ख़बरदार जो किसी ने मेरे बच्चों को एक शब्द भी बोला। तुम सब ज़ाहिल, गंवार, देहाती, अनपढ़ जानो क्या? गांव में पैदा हुए गांव में ही मर जाओगे। इस घर में बड़ा हमारा तुम्हारा होने लगा है न, तो पुंगरा पहनाओ चाहे पुंगरिया, तुम्हारी बला से। बस एक बात कान खोल के सुन लो, कि अपनी इस सड़ी ज़बान से मेरी बहन, या बच्चों के लिए एक शब्द भी झड़ाया न, तो काट के फेंक दूँगी। "
कहा तो कुंती ने और भी बहुत कुछ था... गुस्से से लाल चेहरा लिए दनदनाती वापस आई और ऐलान कर दिया कि अब उस आंगन में कोई नहीं जाएगा।
ऐसे एक नहीं, अनेक वाक़ये हैं, जब कुंती बच्चों या सुमित्रा जी के लिए दूसरों से लड़ गयी....! सुमित्रा जी भी खुद के साथ किये तमाम गुड़तान भूल के, कुंती की यही अच्छी बातें याद रखती हैं, ताकि उसके लिए मन में ज़रा भी खटास पैदा न हो।