Ek bund ishq - 11 in Hindi Love Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | एक बूँद इश्क - 11

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एक बूँद इश्क - 11

एक बूँद इश्क

(11)

क्या मैं जाने से पहले काबेरी काकी और शंकर दादा से नही मिल पाऊँगी? कितना याद आयेगें सब मुझे? और गणेश दादा? वह तो कितना अपने हो गये हैं? सबसे दूर हो जाना कितना मुश्किल लग रहा है? इन अनकहे पलों का क्या? जो न तो परेश समझेगा और न ही कोई और? मेरी और परेश की परिभाषा को परीक्षा में बदला जाये तो कितनी भिन्न होगी? दूर-दूर तक एक-दूसरे से कोई मेल नही। ईश्वर भी विपरीत व्यक्तित्व को उम्र भर एक ही रस्सी से बाँध कर तमाशा देखता है।

ख्यालों के ताने-वानें में घिरी वह उस कीट की तरह है जो अपना जाल खुद बुनता है और उसी में फँसा रहता है। यहाँ आने का फैसला भी उसी का था और तबियत बिगड़ने का कारण भी वही, फिर किसको दोषी ठहराया जाये? कौन है जो उसे इस भँवर से निकालेगा। यहाँ रहना भी अब आसान नही और जाना भी दिल निकाल रहा है। पाँव में बेड़ियां सी पड़ी हैं। दिल घबरा रहा है। क्या करूँ? किससे कहूँ??

पाँच बजा है सूरज अपने घर वापस लौटने की तैयारी में है। रीमा ने उस जाती हुई लालिमा को देखने के लिये परदों को सरका दिया और बालकनी में आ गयी। स्लाइडिंग डोर के खुलते ही एक गौरैया सर्ररररर से भीतर आ गयी जैसे वह उसी की वाट जोह रही हो। आकर फूल दान पर बैठ गयी...फिर झट से उड़ कर आइने पर बैठ टुकुर-टुकुर देखने लगी। उसका गरदन मटकाना जैसे कुछ ढूँढ रही हो। रीमा उसके नजदीक जाने को मचल गयी। उसे लगा अपने हाथों में लेकर उसके स्पर्श को महसूस करे और पूछे - "कहाँ रहती हो दिन मर? क्या खाती हो? कौन मित्र है तुम्हारा? किस पर अपना लाड लुटाती हो? और क्या सोचती हो दिन भर? क्या तुम्हें रात होने पर डर नही लगता? इन्सान कैसे लगते हैं तुम्हें? क्या तुम्हारा मन करता है कि इन्सान बन जाऊँ? या खुले आकाश में घूमते-घूमते थकती नही तुम? आओ तुम्हारे नन्हें पंखों को सहला कर तुम्हारी थकान मिटा दूँ ...तुम मुझसे अपने दिल की बातें करो और मैं सुनती रहूँ ..."

उसके भोले-भाले रुप में न जाने कैसा आकर्षण है जो उसे बाँध रहा है- " कहीं यह वही चिड़िया तो नही जो कल आई थी? क्या जाने यह वही हो? मैं भी कितनी मूर्ख हूँ। पूरा -का -पूरा कोसानी चिड़ियों, पक्षियों, मोर और तमाम तरह के पशु पक्षियों से भरा हुआ है एक वही चिड़िया थोड़े है जो उसके आस-पास मंडरायेगी।"

अपने आप से बातें करती उस झुटपुटे में वह न जाने कितनी दूर तक सूरज को जाता देखती रही और हाथ हिला कर विदाई देती रही- "मैं भी कल चली जाऊँगी...न जाने क्या छूट रहा है? एक हरा-भरा पत्ता जब डाली से टूट कर गिरता है तो कितना तड़पता होगा? कितना दर्द सहता होगा? पर किससे कह पाता होगा अपने बिछड़न की चुभन? सब अकेले ही किसी कोने में रख लेता होगा?"

रीमा की उदासी ने अपने पैर पसारना शुरू कर दिये। वह बोझिल कदमों को घसीटती हुई भीतर आ गयी। चिड़ियाँ कब की फुर्रर हो चुकी है। वह तो बस देखने भर आई थी उसे जाने की विदाई देने, कह कर गयी- "रीमा लौट के आना.."

किसी ने दरवाजे को नॉक किया है। अनुमति मिलते ही गणेश दादा अन्दर आये हैं। उनके हाथ में एक पैकेट है-

"मेमशाव, ब्रेकफास्ट में क्या लाऊँ? डिनर में अभी टाइम है।" गणेश ने सपाट स्वर में कहा।

"दादा, आज से मेमशाव नही" फिर कुछ ठहर कर बोली- "बिटियाँ नही हूँ आपकी??? "

"मे..म..शाव......."गणेश हकला गया...उसका दिल भर आया। इतना मान? इतना प्रेम? किसी ने नही दिया। उसकी आँखों में नन्हीं तान्या घूम गयी। वह भी इसी तरह मासूमियत से भरी थी। एकदम सच्ची, निश्छल और भोली।

"पहले बिटिया कहिये.." रीमा अड़ गयी।

"बि..टि...या....रीमा...बि....टि....या..गणेश की आँखों से झर झर आँसू बह रहे हैं। वह अब इस रिश्ते से डर भी रहा है। एक बार वह मीरा को खो चुका है और तान्या को भी दोबारा नही मिला। ऐसी यादें छोड़ कर गयी वो निष्ठुर कि आज भी जीने नही देतीं....कहीं इश बार भी हमनें कुछ छिन गया तो?? वैसे अब और है ही क्या खोने को? नही...यह मैं क्या सोच रहा हूँ? प्रेम का कोई मोल नही? मेमशाव ने हमें एक रिश्तें में बाँध दिया है अब हम इश रिश्तें को मरते दम तक निभाऊँगा-

"बिटिया, आप मेरी बिटिया हो.... मैं मर जाऊँगा मगर आपको नही भूल पाऊँगा, यह वायदा करता है आपसे एक अदना सा आदमी, आजमा लेना कभी भी, कहीं भी, हम दौड़ा चला आऊँगा।"

रीमा भरी हुई आँखों से गणेश को देख रही है- " अदना सा क्या होता है?? छोटा या बड़ा तो नजरिया होता है आदमी नही....और आप मेरी नज़र में छोटे नही हो दादा....याद रखना।"

परेश उस वार्तालाप का साक्षी है। उसके अन्दर का बच्चा कुलबुलाने लगा है। किसी अपने बुजुर्ग का प्रेम? कितना सुखदाई होता है जो सब भय, परेशानी और कड़ी धूप की तपिश से बचा लेता है। असीम आनन्द की अनुभूति से वह सरावोर है। मगर यह कैसी बिडम्बना है कि व्यक्ति अपने ईर्दगिर्द स्वयं ही लक्ष्मण रेखा खींच लेता है और खुशियों की अदालत खड़ी कर लेता है जहाँ पहले उसे तमाम बहस से होकर गुजरना पड़ता है। अगर तथ्य अपनी सत्यता प्रमाणित कर पाये तभी भीतर जा पाते हैं नही तो अहम और स्टेटस की दीवारें उसे बाहर ही रोके रखती हैं। खुशियों के लेन- देन की इतनी परीक्षा??? रीमा कितनी दौलतमंद है? और मैं.....नही...नही...सब बकवास है...मैंने जो दौलत कमाई है वह अपार है सब सुख, ऐशोआराम खरीदे जा सकते हैं। किसी का प्रेम भी। दिल्ली जैसे मँहगे शहर में करोड़ों का डूप्लैक्स, जिसके इंटीरियर में लाखों रुपया बहाया है मैंने, चार-चार लग्जरी गाड़ियां, फैक्ट्री.. यह सब आसान है क्या? सारे वर्कर, पूरा-का-पूरा स्टाफ कितना रिस्पैक्ट देता है? उन सबके परिवार चलने का कारण हूँ मैं...मेरे एक इशारे पर सब खड़े हो जाते हैं..और क्या चाहिये मुझे?

परेश औंधा लेटा खुद को तोलता रहा, उधर रिश्तों का नाजुक मोड़ अपने हिस्से का सफर तय करने में लगा था।

अपनी नम आँखों का पानी पोछते हुये गणेश ने पूछा है- "मेमशाव....न..न..बि.टि..या, बिटिया क्या भिजवा दूँ अभी नाश्ते में?"

"दादा, उपमा, पोहा जैसा कुछ बन जायेगा क्या? परेश ऐसा ही कुछ खाते हैं हल्का-फुल्का।"

"हाँ, बिटिया हम अभी लेकर आते हैं और साथ में साहब को एक चीज भी खिलवायेगें उन्हें जरुर पसंद आयेगी ...सिंगोरी"

"यह सिंगोरी क्या है दादा?"

"इसे यहाँ पर लोग बहुत पशंद करते हैं। यह मावे और चीनी से बनती है। यह पारम्परिक व्यंजन मुख्यतः शादी ब्याह के मौकों पर जरुर बनता है। आप लोगों को भी बहुत स्वादिष्ट लगेगा..खाकर देखना बिटिया"

गणेश बहुत उत्साह से बता रहा है और रीमा मंत्रमुग्ध सी सुन रही है। दर असल मावे की मिठाईयां उसे बहुत पसंद हैं। शायद परेश को भी। शायद इसलिये कि परेश ने कभी अपनी पसंद को जताया ही नही।

"मेरे मुँह में तो अभी से पानी आ रहा है। जल्दी से भिजवाइये न? वह बच्चों जैसी मचल पड़ी।

"सब्र करो बिटिया, डिनर के शाथ ही लेकर आऊँगा। और हाँ यह लो तुम्हारे लिये कुछ लाया हूँ मना मत करना..नही तो बहुत दुख पहुँचेगा हमें"

गणेश ने कागज में लिपटा हुआ एक छोटा सा पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया।

"क्या है दादा इसमें?" वह उसे देख उत्साहित है।

"खुद ही देख लो मेमशाव"

"ये क्या ? फिर मेमशाव?" रीमा गुस्सा पड़ी।

गणेश ने जीभ को दाँतों में दबा कर मुँह बिचकाया- "ओह सॉरी बिटिया"

"ठीक है अब गलती मत करना" कह कर रीमा खिलखिला पड़ी।

वह उसे खोलने की जदोजहद में लगी है। बिल्कुल वही अहसास के साथ जैसा बचपन में बर्थडे पार्टी के बाद उपहारों को खोलने की जल्दी होती है। मेहमानों के जाते ही उपहारों पर टूट पड़ना कितना मजेदार होता है।

"वाओ....वैरी नाइस...यह क्या है दादा? कितना खूबसूरत है यह?" रीमा के हाथों में घांघरी और पिछौड़ा है (एक तरह का घाघरा और चूनर जो पहाड़ पर सुहागन औरते ही ओढ़ती है। बड़ा सम्मान दिया जाता है इस पहनावे को) रीमा हाथों में लिये उसे देखती जा रही है। उसने घाघंरी को कस कर अपने हाथों में भीचं लिया है। वह दूसरी दुनिया में खोती जा रही है। वर्जनाओं का समुन्दर लाँघ कर वह सुध-बुध खो रही है-

"हाँ, ऐसी सी घांघरी मेरे पास भी है गुलाबी रंग की और गहरा नीला बार्डर...यह वही है....बैजू को यह रंग बहुत पसंद है उसने ही मुझे लाकर दी है मैं कब से ढूँढ रही थी इसे कहाँ थी यह बताओ....??? और मेरी मूखली कहाँ है? जिसे बैजू ने खुद मेरे कानों में पहनाया था...?? कहाँ है मेरा सब सामान...? बैजू....तुम कहाँ हो??? मेरी लाल वाली घांघरी उस दिन कैकटस के काँटों में फँस कर फट गयी थी ...तुम लेकर गये थे न ठीक कराने???? कहाँ है मेरी घांघरी बोलो बैजू...तुम बोलते क्यों नही??बैजू......कहाँ हो...तुम???

क्रमशः