Ram Rachi Rakha - 1 - 3 in Hindi Moral Stories by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | राम रचि राखा - 1 - 3

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राम रचि राखा - 1 - 3

राम रचि राखा

अपराजिता

(3)

क्लास में बताया गया था कि अगले हप्ते से वर्कशॉप शुरू होगा। डेढ़ महीने के वर्कशॉप के बाद सिरीफोर्ट आडिटोरियम में लाइव परफोर्मेंस होना था। अगले हप्ते से क्लास का समय एक घंटे बढा दिया गया था।

उस एक दिन के बाद से अनुराग का कोई मेल नहीं आया था। फिर भी जब अपना मेल बॉक्स खोलती थी तो अचेतन मन में कहीं एक प्रतीक्षा सी रहती थी। आजकल ऑफिस में काफी वर्कलोड बढ़ गया था और मुझे रात के बारह-एक बजे तक काम करना पड़ता था।

शाम के पाँच बजने वाले थे। मैं ऑफिस में ही थी। काम में व्यस्त थी कि मेरे फ़ोन की घंटी घनघना उठी। मैंने फ़ोन उठाया।

"हेलो ...।"

"हाय वाणी, कैसी हो तुम?

"ओह अनुराग, तुम हो !" मैं पहली बार अनुराग को फ़ोन पर सुन रही थी। लेकिन उसकी भारी भरकम आवाज फ़ोन पर भी बिल्कुल वैसी ही थी जैसी कि सामने होती है।
"अरे पहचान लिया! मैंने तो सोचा था कि कुछ देर तक नहीं बताउँगा कि मैं कौन हूँ।"
"मुझे टीज़ करना चाहते थे...?" मैंने हँसते हुए कहा, "खैर, अच्छा लगा कि तुमने फोन किया, कैसे हो ?"

"मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ, लेकिन तुम्हारी आवाज़ ठीक नहीं लग रही। क्या हुआ ?"

"कुछ ख़ास नहीं...थोड़ा सा कोल्ड हो गया है। "

"ओह, रात में आइसक्रीम खा ली थी?"

"नहीं आइस क्रीम तो नहीं खाई थी। शायद मौसम के कारण हो गया होगा"

"हाँ, मौसम तेजी से बदल रहा है... अपना ख़याल रखा करो न।" हालाँकि उसने एक बहुत ही सामान्य और औपचारिक बात कही थी, लेकिन उनका ध्यान देना अच्छा लगा।

हम थोड़ी देर तक बातें करते रहे। फिर मैंने कहा कि मुझे कुछ जरूरी काम निपटाना है और फ़ोन रख दिया था।

अनुराग ने बताया कि उन्हें कल सुबह की फ्लाईट से तीन दिन के लिये मुंबई जाना है कंपनी के काम से। जानकार मुझे ख़ुशी नहीं हुई। हालाँकि हम साप्ताहांत में ही मिलते थे और वह भी दो-तीन घंटे के लिये ही, फिर भी उसका दिल्ली से जाना पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लग रहा था।

दूसरे दिन ऑफिस में काम करते-करते अचानक अनुराग की याद आ गई। मैंने कुछ सोचते हुए, एक स्केच जो काफी पहले बनाया था, अनुराग को मेल कर दिया और साथ में यह भी लिखा- इस स्केच को देखकर बताओ कि तुम्हारे मन में बनाने वाले के बारे में क्या धारणा बनती है। उस दिन उनका कोई उत्तर नहीं आया।

अगले दिन रात के ग्यारह बजे मैं काम कर रही थी कि अनुराग का मेल आया।

"आज ही तुम्हारा मेल देखा। कल पूरे दिन मीटिंग में व्यस्त रहा, बिल्कुल भी अवकाश न मिल सका था। आज भी दिन भर काफी व्यस्तता रही।

तुम्हारा स्केच बहुत ही सुन्दर लगा। बहुत ही कुशलता से मनोभावों को व्यक्ति के चहरे पर उकेरा है। पहले कभी नहीं बताया कि पेंटिंग भी करती हो। चलो किसी दिन पोर्ट्रेट बनवाऊंगा। बनाओगी न।

अभी तबियत कैसी है? जल्दी से पूरी तरह से ठीक हो जाऑ। इस हप्ते से डांस क्लास में अधिक मेहनत करनी पड़ेगी।"

मैंने उत्तर लिखा –

"तुम्हारा मेल पाकर प्रसन्नता हुई। आशा है कि वहाँ तुम्हारा काम अच्छा चल रहा होगा। मैं अब पूरी तरह से स्वस्थ हूँ। स्केच की सराहना के लिए आभार।

यदि तुम मुझे समर्थ समझते हैं तो अवश्य बनाउँगी तुम्हारी पोर्ट्रेट। किन्तु उसके लिये काफी समय निकालना पड़ेगा। उतना समय निकाल पाओगे? तुमने मेरा एक प्रश्न अनुत्तरित ही छोड़ दिया।"

तुरंत ही उनका मेल आया-

"शायद मैं उस प्रश्न से बचना चाहता था। वास्तव में पेंटिंग मुझे सबसे मुश्किल कला लगती है। पेंटिंग देखकर बनाने वाले के बारे में कुछ भी कह पाना मेरे लिये बिल्कुल भी संभव नहीं है। हाँ

समय की कोई समस्या नहीं है। तुम जितना समय चाहोगी मैं निकाल लूँगा। अभी तक काम कर रही हो ?"

"हाँ, आजकल थोड़ा वर्क लोड बढ़ गया है। कुछ देर तक और काम करूँगी। तुम अभी तक सोये नहीं। सो जाओ, सुबह ऑफिस भी जाना होगा।“

"नीद नहीं आ रही है"

"नीद भला क्यों नहीं आ रही है?"

"पता नहीं क्यों नहीं आ रही है। यूँ लग रहा है जैसे कहीं कुछ गुम गया है।"

"क्या गुम गया है , बताओ, मैं ढूँढने में मदद करूँ ?”

"अभी तो मुझे स्वयं ही नहीं पता चल पा रहा है। जैसे ही पता चलेगा तुम्हें अवश्य बताउँगा।"

"अच्छा, अब सो जाओ। बहुत रात हो चुकी है। मुझे भी कुछ काम निबटाना है।

शुभरात्रि और सुखद नीद की कामना के साथ...।।"

"शुभ रात्रि"

अनुराग से बात करना अच्छा लगा था।

*******

अगले दिन अनुराग वापस दिल्ली आ गया। शाम को मुझे फ़ोन किया। अभी शनिवार आने में एक दिन बाकी था। मन हो रहा था कि बीच का एक दिन ख़त्म हो जाए।

शनिवार और रविवार आकर कब चला गया, पता ही नहीं चला। रविवार शाम को जब घर पहुँची तो लग रहा था जैसे पिछले दो दिन किसी स्वप्न की तरह उड़ गये थे।

"एक बात बता..." खाना खाते हुए पूर्वी ने बहुत ही गंभीरता पूछा, "क्या, तेरी वो डेट वाली बात सही थी?"

"…?" मेरी प्रश्नवाचक नज़रें उसकी तरफ उठ गयीं, "ऐसा क्यों पूछ रही है?"

"इसलिए कि तू कुछ बदली-बदली सी लग रही है आजकल। चेहरे पर एक अलग ढंग की चमक दिखाई देती है। पहले से कहीं अधिक खुश लगती है। किसी बात पर अब तू खीझती भी नहीं है...।" फिर कुछ देर रूक कर बोली, "आज भी तू देर से आई।"

"अरे वो मैं तुझे बताना भूल गई थी। इस हप्ते से वर्कशॉप शुरू हो गया है और अब क्लास की टाइमिंग पाँच से आठ हो गई है।" मैंने बात को सम्भाला, "और मैं डांस को काफी एन्जॉय कर रही हूँ। शायद वही ख़ुशी मेरे चेहरे पर तुझे दिखाई दे रही होगी।” मैंने थोड़ा मजाक के लहजे में कहा।

जब बिस्तर पर लेटी तो पूर्वी की बात मन में घूमने लगी। मैं सोचने लगी, क्या वास्तव में मेरे अन्दर कोई परिवर्तन हो रहा है? यदि हो रहा है तो उसका कारण क्या है। अनुराग की तरह तो मेरे और भी मित्र हैं जिनसे बात करना मुझे अच्छा लगता है। जिनके साथ मैं घंटों गप्पें मारती हूँ। फिर पूर्वी को आज ऐसा क्यों लग रहा है?

अनुराग के साथ हुए अपनी बातों के बारे में सोचने लगी। अभी तक तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिसे असहज और असामान्य कहा जा सके। उसने कोई बात ऐसी नहीं कही है तो अस्वाभाविक हो और जिससे मेरे प्रति उनके मन में किसी अतिरिक्त आकर्षण का भान हो सके। एक मित्र की तरह ही तो हमने अपनी बातें एक दूसरे से कही है।

और मैं...? मुझे उसका मुंबई जाना अच्छा क्यों नहीं लगा था? शनिवार की प्रतीक्षा का कारण मात्र डांस ही रहता है? उनका होना क्यों मेरे आस-पास को भर सा देता है?

"नहीं ऐसा कुछ नहीं है..." मैंने स्वयं को समझाया, "हमारे चारो तरफ जो भी वातावरण उत्पन्न होता है उसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता ही है। किसी भी नए रिश्ते में एक गर्माहट होती ही है। हमारे बीच अब तक जो भी रिश्ता बन पाया है, वह बिल्कुल सहज है। मन में उभरी प्रतिक्रियाएँ सदैव एक सी नहीं हो सकती हैं क्योंकि वे परिस्थितिजन्य होती हैं...आस पास के व्यक्तियों के व्यवहारों से प्रभावित होती हैं। अनुराग से मिलना उस समय हुआ था, जब मैं नृत्य को लेकर उत्साहित थी। उनके व्यक्तित्व की सरलता ने हमारे संबंधों को सहज बना दिया है..." सोचते-सोचते न जाने कब नींद आ गई।

रात भर सपने में डांस फ्लोर घूमता रहा। अनुराग की बाहों में मैं तकली की तरह नाच रही थी। डांस रूम से निकलकर कभी बगीचे के झुरमुटों के नीचे...कभी किसी बर्फ से ढँके पर्वत के शिखर पर...कभी हरे भरे घास के मैदानों में...कभी नदी के पानी पर पड़ती सूरज की झिलमिलाती चंचल किरणों पर। सुबह उठी तो मन एक अनजान मिठास से भरा हुआ था।

क्रमश..