Anjane lakshy ki yatra pe - 21 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग - 21

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे - भाग - 21

अब तक आपने पढ़ा...

जासूस की पीठ पर वात्सल्य से हाथ फेरते हुये उसे सजा से बचाने की कोशिश करते हुये अचानक उसे षड्यंत्र पूर्वक मार दिया गया। व्यापारी यह देख विचलित हुआ। ऐसा दोहरा व्यव्हार क्यों? इस बात का रहस्य क्या था?

जानें इस भाग में...

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे...

भाग-21

षड्यंत्र पर स्पष्टिकरण के बहाने

प्रातः की बेला रक्तरंजित थी। जहाज़ पर हर तरफ क्षत-विक्षत मानव शरीर बिखरे पड़े थे। मानव रक्त की तो जैसे बाढ़ आ गई थी। पैर जहाँ भी रखो खून से सन जाता है। यह तो अपमान है मेरा, तुम्हारा, हर किसी का अपमान है। क्या मानव रक्त इतना महत्वहीन हो गया है कि पैरों तले रौंदा जाये। यह हम सभी का रक्त था; मेरा, गेरिक का, सैनिकों का असैनिकों का। अभियान सहायक का रक्त था, सेनापति का रक्त था। जो घायल हुये उनका रक्त था और जो घायल नहीं हुये उनका भी रक्त था... यह मानव रक्त था। और सच पूछो तो मानवों में आज कौन घायल नहीं था।

जल दस्युओं का आक्रमण निष्फल हुआ था। कुछ लुटेरे मारे गये इक्का दुक्का पकड़े गये लेकिन अधिकतर अपने पोत में चढ़कर भागने में सफल हुये थे।

एक भयंकर खामोशी के साथ ही आश्चर्यजनक रूप से विजय का दर्प हर ओर व्याप्त था। लाशें उठाकर सागर में फेंकी जा रही थीं। खून साफ करके समुद्र में बहाया जा रहा था। दूर दूर से हर ओर से भयानक शार्क मछलियाँ पोत के इर्द-गिर्द मंडरा रही थीं। एक शव पानी में फेंका जाता और भयंकर उथल पुथल मचाती शार्क मछलियाँ क्षण भर में उसे चिथड़े चिथड़े कर खा जातीं। फिर दूसरा शव फेंका जाता और वही दृश्य...

मुझे लगा वे मछलियाँ मुझे झिंझोड़ रही हैं क्योंकि उन मानव शरीरों में और मेरे शरीर में एक ही तत्व मौजूद थे।

प्रातः का सूर्य भी रक्तिम था और सूर्य का प्रकाश भी। इस दृश्य ने मुझे वितृष्णा से भर दिया था। सागर का पानी भी रक्त रंजित हो चुका था।

मानवों अपने रक्त का अपमान न करो... मेरा हृदय चीत्कार कर रहा था। लेकिन मेरे अंतर्मन की चीख सुनने वाला वहाँ कोई न था।

मैं वहाँ ठहर न सका। नीचे अभियान सहायक के कक्ष में चला आया जहाँ सेनापति महोदय भी पहले से विराजमान थे और बहुत से लोग थे। चर्चा थी कि वह गुप्तचर रात की अफरातफरी का फायदा उठाकर भाग गया। उसकी बेड़ियाँ उसी कक्ष में मिलीं जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि उसे भागने में किसी ने मदद की होगी और वह ज़रूर उन जलदस्युओं का ही काम है। यह भी सम्भावना व्यक्त की गई कि सम्भवतः वह उन जलदस्युओं से पहले से मिला हुआ हो? इन गुप्तचरों का कोई भरोसा भी तो नहीं। उनकी तो हर जगह पैठ होती है।

“वह निश्चित रूप से उनके दल में शामिल हो गया होगा। उसके पास और कोई रास्ता भी तो नहीं।” किसी ने अपना मत रखा और बहुत से लोगों ने उसके मत का समर्थन किया। वे सैनिक जो उसकी बातों में आकर विद्रोह पर उतर आये थे अब स्वयम् पर लज्जित थे और उसे गालियाँ दे रहे थे।

मैंने गेरिक की तरफ देखा, उसने मुझे इशारे से शांत रहने कहा।

मैं मौन रह गया।

**

“आपने ऐसा क्यों किया?” मैं चीख उठा।

मैं इस बात से आहत था। मुझे घृणा हो रही थी यह देखकर कि यहाँ कोई विश्वसनीय नहीं है। मैं जिनका सम्मान करता था और जिन्हे सत्य की मूरत समझता था न्यायशील विवेकशील समझता था, वही हमारी यात्रा के प्रमुख नायक यानि अभियान सहायक स्वयम् इस षड्यंत्र के रचयिता हैं? और मेरा सबसे विश्वसनीय, मेरा अपना मित्र गेरिक भी...

और किस तरह वे एक सैनिक की सेवाओं को भूलकर उसका अपमान कर रहे हैं?

मैं अपने आप पर काबू नहीं रख पा रहा था। यह तो अच्छा था कि इस समय कक्ष में हम तीनों, यानि गेरिक, अभियान सहायक महोदय और मेरे सिवा कोई न था।

...”आपने ऐसा क्यों किया?...” मेरा प्रश्न अपनी जगह विद्यमान था।

“अपने लोगों के लिये। अपने मत्स्यद्वीप के लोगों के लिये।” अभियान सहायक महोदय ने एकदम दो टूक जवाब दिया जैसे वे जताना चाहते हों कि मेरे प्रश्न की वे पहिले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे।

मैं हैरान रह गया।

“आपने यह नहीं पूछा कि मैं किस बारे में प्रश्न कर रहा हूँ?”

“उस गुप्तचर की हत्या के बारे में।” अभियान सहायक ने उत्तर दिया।

“वह तो एक मामूली गुप्तचर था। भला आपके सामने उसकी क्या हैसियत?”

“उसे मामूली समझना आपकी अनुभवहीनता को दर्शाता है।” वे बोले, “वह विचारों की एक विस्फोटक पोटली था।”

“यदि यह सत्य है तो आपने उसे मृत्युदंड से बचाया क्यों?” मैंने पूछा, “आपने पहले तो अपने आप को एक दयालु व्यक्ति के रूप में निरूपित किया फिर उसे षड्यंत्रपूर्वक मरवाकर बदनाम भी किया। मैं जानता हूँ आपने यह सब अपने लोगों के लिये नहीं बल्कि अपनी छवि चमकाने और अपने शत्रु को बदनाम मृत्यु देने के लिये किया है। और सबसे बुरी बात तो यह कि मेरा अपना मित्र, मेरा परम मित्र भी इस षड्यंत्र में शामिल था।” मैं बहुत ही आहत अनुभव कर रहा था। मैं प्रलाप तो नहीं कर रहा था; किंतु मेरी बातें प्रलाप की तरह ही लग रही थीं।

“मुझे समझ में नहीं आ रहा, किस पर विश्वास करूँ, किस पर नहीं।” मैं चुप न रह सका। मेरी आत्मा तड़प उठी थी। मेरी आवाज़ में एक तड़प थी; जो मेरी आत्मा की तड़प को प्रतिबिम्बित कर रही थी।

मैं झपटकर गेरिक के पास पहुंचा।

“इन लोगों का तो समझ में आता भी है; लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया।” मैंने उसे झिंझोड़ते हुये पूछा, “तुम जानते हो, मैं तुम्हारी दोस्ती पर, इमानदारी पर सच्चाई पर कितना विश्वास करता था। लेकिन...”

“मैं अभी भी तुम्हारा वही मित्र हूँ, मेरे मित्र ! मुझपर विश्वास रखो।” उसने मुझे मेरी बाहों से थामते हुये कहा।

“कैसे विश्वास रखूं? कैसे? जो एक अच्छा इंसान नहीं हो सकता वह किस प्रकार कोई भी सम्बंध निभा सकता है?” मैंने अपने दिल के भाव उंडेल दिया, “जो धोखा दे सकता है, वह मित्र कैसा?”

“तुम मेरा अपमान कर रहे हो मित्र। मैंने तुम्हारे साथ कोई धोखा नहीं किया।” गेरिक ने नाराज़ होकर कहा।

“किसी के भी साथ किया, किंतु किया तो न?” मैंने अपना तर्क रखा।

“वह आवश्यकता थी।” उसने कहा।

“तो आवश्यकता होने पर तुम मुझे धोखा क्यों नहीं दोगे?”

“क्योंकि, तुम मेरे मित्र हो...”

“फिर भी बुरा कार्य तो बुरा ही होता है। वह मित्र के साथ हो अथवा शत्रु के...”

गेरिक स्तब्ध रह गया। शायद आहत भी। वह चुप रह गया। उसे मेरे इस व्यव्हार की किंचित भी अपेक्षा न थी।

“हमारा चरित्र ही हमारे कार्य करने के तरीकों का निर्धारण करता है; मित्र। और हम अपने चरित्र के अनुसार ही कार्य करते हैं।” मैंने कुछ नरम स्वर में उससे कहा। वह चुप रहा...

हमारे पोत के अभियान सहायक महोदय अब तक चुपचाप हमारी बात सुन रहे थे। गेरिक को चुप और दुखी देख वे उठ खड़े हुये। वे गेरिक तक पहुंचे उसके कंधे पर हाथ रखा और अचानक पीछे मुड़कर मुझपर लगभग चीख ही उठे, “तुम किसे मित्रता का पाठ पढ़ा रहे हो? तुम स्वयं ही शत्रु और मित्र के बीच अंतर नहीं कर पा रहे हो?”

मैं सचमुच चौंक उठा। मेरे साथ इस व्यव्हार की उनसे मुझे अपेक्षा नहीं थी।

“क्या तुम शत्रु और मित्र के साथ एक सा व्यव्हार करते हो?”

उनके इस प्रश्न ने मुझे निरुत्तर कर दिया।

मैं वहाँ रुक न सका। सीधे जहाज़ की छत पर चला गया। वहाँ से लाशें फेंकी जा चुकी थी। खून के चिन्ह मिटाये जा चुके थे। मनवता के प्रति अपराध के कोई निशान बाकी न थे। मानव अपने अपराधों को कितनी सफलता से छिपा जाता है।

मुझे याद आया एक बार इसी प्रकार हमारे व्यापारिक जहाज़ पर जलदस्युओं ने लूटपाट की थी और हमारे सारे सैनिकों को मारकर, जहाज़ पर अधिपत्य कर लिया था। हम व्यापारियों को बंदी बनाकर हमसे साफ सफाई का काम करवाया जा रहा था। तब मैंने उन जल दस्युओं के एक वृद्ध सदस्य से जो हमसे काम करवा रहा था; यह पूछा था कि, “जब खून खराबा आप लोगों को इतना पसंद है तब इन खून और के निशानों को मिटाते क्यों हो? यह तो आपकी वीरता के चिन्ह हैं।”

“क्योंकि ईश्वर ने मानवों को मानवों का रक्त बहाने के लिये नहीं बनाया। मानव का यह अपनी जाति के प्रति सबसे बड़ा अपराध होता है। और मानव की अवचेतना में कहीं न कहीं यह बात रहती है अतः वह अपनी कथित वीरता के इन चिन्हों के साथ अपना मानसिक तालमेंल स्थापित नहीं कर पाता है। इसी लिये वह अपने मानवता के प्रति किये गये अपराधों के चिन्हों को छिपाता है।”

मैं जानता हूँ, अपनी ही प्रजाति का रक्त बहाना प्रकृति विरुद्ध और अस्वाभाविक कार्य है और अपने इसी अपराध बोध से छुटकारा पाने हेतु नस्लवाद अथवा राष्ट्रवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया जाता है; अन्यथा, समस्त मानव तो मानव ही हैं।

तो यहाँ भी अपने अपराध के सारे चिन्ह मिटा दिये गये थे और इतना साफ-सुथरा वातवरण देख कर कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि कुछ घंटे पहले यहाँ क्या हुआ था। सागर की ठंडी हवायें भी शरीर से टकरा कर तन मन को प्रफुल्लित कर रही थीं। अपनी उत्तेजना पर नियंत्रण पाने और अपनी गलतियों की समीक्षा करने के लिये एक दम उपयुक्त वातावरण था।

मैं क्या कह रहा था। मैं सोंचने लगा। एक मित्र और एक शत्रु को एक ही पड़ले में तौल रहा था। मुझे अपने आप पर शर्म आने लगी थी। आखिर मैंने ऐसा किया क्यों? कई बार ऐसा होता है, हमारा अपनी भावनाओं पर वश नहीं रहता। कई बार हम भावनाओं में बहकर जो बोलते हैं हम खुद नहीं जान पाते कि हम क्या बोल रहे हैं। बात स्पष्ट है, जो हम बोल रहे होते हैं वह हमारा मंतव्य नहीं होता है। किंतु हम बोल चुके होते हैं और ज़बान से निकली बात और धनुष से निकला बाण कभी लौटे हैं भला?

“लेकिन मैं ऐसा नहीं हूँ। यह अभियान सहायक तो एक राजनैतिक व्यक्ति है; राजनैतिक और कूटनीतिज्ञ भी। इसने कितनी आसानी से मेरी बात का मतलब बना कर हम दोनो मित्रों के बीच दरार डाल दी।” मैंने अपने आप से कहा। फिर मुझे लगा जैसे मैं जो कह रहा हूँ उसपर मैं स्वयं ही विश्वास नहीं करता।

‘लेकिन अभियान सहायक और गेरिक के मध्य इतनी घनिष्ठता क्यों बढ़ती जा रही है? कहीं मेरी बजाय वे गेरिक को तो अपना दामाद बनाना नहीं चाह रहे हैं?’ यह विचार मन में आते ही मेरे मन में अपने मित्र गेरिक के लिये कड़वाहट बढ़ गई। ‘ठीक है, गेरिक मुझसे हर बात में श्रेष्ठ है। एक समय में वह सेना में रह चुका है; किंतु उनकी पुत्री तो मुझसे प्रेम करती है...'

मैं इससे अधिक और कोई तथ्य अपने पक्ष में रख भी नहीं सकता था।

अचानक अपने कंधे पर एक हाथ का स्पर्ष अनुभव कर मैं पीछे मुड़ा। सामने गेरिक खड़ा था। पता नहीं किस प्रेरणा के वश मैं उससे लिपट गया।

“मेरा वह मंतव्य नहीं था। मैं तो बस मानव-मानव के बीच न्यायपूर्ण व्यव्हार की बात कर रहा था।”

“मैं जानता हूँ। कई बार हम कहना कुछ चाहते हैं और उसका अर्थ कुछ और निकल आता है। लेकिन मित्र, वह मित्र ही क्या जो मित्र के मन की बजाय उसके शब्दों को महत्व दे। मैं तुम्हारे मन में रहता हूँ, अतः तुम्हारे शब्दों का मेरे लिये कोई महत्व नहीं है।”

“सच कहा मित्र, तुमने मेरे मन से बहुत बड़ा बोझ उतार दिया।” मैंने कहा।

“यदि तुम्हे मुझपर भरोसा है तो अपने मन पर बोझ मत लो। मैंने कुछ गलत नहीं किया। मैंने इन लोगों की मदद ही की है, जिन लोगों ने हमारे लिये इतना कुछ किया है। वह व्यक्ति, वह गुप्तचर, इन लोगों के लिये खतरा बन चुका था। वह इतना निकृष्ट था कि सिर्फ अपने स्वार्थ के लिये, उसने अपने लोग, अपनी मातृभूमि के हितों खतरे में डाल दिया। और सिर्फ तुम्हे रास्ते से हटाने के लिये उसने नस्लीय विचारधारा का सहारा लिया।”

“क्या एक मानव को अपने विचारों के लिये भी दंड देना उचित है?” मैंने पूछा।

“नहीं, कदापि नहीं,” गेरिक ने कहा, “किंतु अनैतिक कृत्य और अपराधों के लिये...”

“क्या विचारों की अभिव्यक्ति भी अनैतिक कृत्य या अपराध हो सकता है...?”

“कदापि नहीं मित्र, किंतु वह आम व्यक्ति नहीं था, साधारण नागरिक न था। वह सत्ता की शक्ति का एक हथियार था। एक सैनिक सत्ता की शक्ति होता है अतः इस प्रकार के विचारधारात्मक अभियान, एक सैनिक के लिये अनैतिक कृत्य होता है। मैं एक सैनिक रह चुका हूँ इस लिये इस सारी क्रियाकलापों का महत्व समझता हूँ।”

“तो सेनापति द्वारा प्रदान मृत्युदंड से उसे बचाने वाली बात से मैं क्या निष्कर्ष निकालूँ?”

“मित्र !” गेरिक ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा, “मृत्युदंड सिर्फ व्यक्ति को दिया जासकता है, विचारों को नहीं। मृत्युदंड से तो विचार अमर हो जाया करते हैं। विचारों को मृत्युदंड दिया जाता है,… उसके प्रवर्तक को बदनाम करके; और यही हमने किया। और तुम क्या समझते हो, वह एक व्यक्ति या एक सैनिक मात्र रह गया था। नहीं वह एक विचार के रूप में परिवर्तित हो चुका था। तुमने देखा नहीं था किस तरह उसने अपने नस्लवादी विचारों से अपने सैनिक साथियों को संक्रमित कर लिया था।”

थोड़ी देर बाद हम अंदर कक्ष में चले गये थे।

“किंतु आपने तो अपने साथी को धोखे में रक्खा न?” मैंने अभियान सहायक पर आरोप लगाया। गेरिक के इतना समझाने के बाद भी मुझे अपनी गल्ती मानने में हिचकिचाहट थी।

“किसे?” अभियान सहायक ने पूछा।

“सेनापति महोदय को...”

“नहीं मैं भी इस मिशन का एक भाग था। सबकुछ हम तीनो ने मिलकर किया था।”

मैं स्तब्ध रह गया।

“मिशन?... या षड्यंत्र?”

“जो कह लो। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यह सब राजनीति का एक भाग है।” सेनापति ने हंसते हुये कहा और अभियान सहायक की ओर देखा। अभियान सहायक भी हँसने लगे। मैं जानता था इस हँसी का मतलब...

वे मुझे नौसिखिया या बेवकूफ समझते हैं।

“कोई बात नहीं सीख जाओगे।” अभियान सहायक महोदय ने गुरु गम्भीर स्वर में कहा, “चलो एक कथा सुनाता हूँ-

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जारी अगले भाग में‌-

भाग-22

एक कथा और उसमें कई कथायें

में...

क्या उन कथाओं से वह संतुष्ट हुआ?

(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति)