एक अप्रेषित-पत्र
महेन्द्र भीष्म
सतसीरी
शहर में कर्फ्यू को लगे आज तीसरी रात है। अस्सी बरस की बूढ़ी दीना ताई की आँखों से नींद कोसों दूर है। जाग घर, मुहल्ला अौर शहर के अन्य बाशिंदे भी रहे थे। भय, घबड़ाहट से आक्रांत हो सुबह होने का बेमतलब—सा इंतजार, जैसे सूरज के उगने से, चिड़ियों के चहचहाने से शहर—भर में फैला दंगा—फसाद, मार—काट सब बंद हो जायेगा। आशा ही जीवन है, जीने की जिजीविषा सभी में होती है।
दीना ताई की तरह बूढ़ी हो चली सतसीरी गाय रँभा उठी। कान से बहरी दीना ताई के अलावा परिवार और बिल्डिंग में रहने वाले अन्य लोग सतसीरी के रँभाने से दहल उठे। दंगाइयों को खुली चुनौती देती सतसीरी के रँभाने की आवाज के साथ ही भय अौर घबड़ाहट में बिल्डिंग के बाशिंदों को महसूस होता जैसे सीने के अंदर हृदय ने धड़कना बंद कर दिया हो।
इसी सतसीरी के रँभाने पर पहले बिल्डिंग के लोग अौर गली, मुहल्ले वाले तक कह उठते थे, “वाह! जगत सिंह पा जी कितने पुण्यवान् हैं, गौ माता के सच्चे सेवक, ऐसे घोर कलयुग में उन जैसे पुण्य प्रतापी लोग बिरले ही मिलते हैं।” उसी सतसीरी का रँभाना आज सबको दुःखदायी, कष्टप्रद लग रहा था। “जगत पा जी को जाने क्या सूझी थी, जो बिल्डिंग की तीसरी मंजिल की छत पर गाय पाल हम सब की जान आफत में डाल रखी है।”
देश विभाजन के दौरान हुए क्रूर साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका में दीना ताई के पति अौर नवविवाहिता बड़ी बेटी सिमरन का सोलह वर्षीय सुहाग स्वाहा हो गया था। उन्हीं ंसिमरन फूफी को दीना ताई ने अपने बेटे जगत सिंह के दिल्ली छोड़कर कानपुर आ बसने के समय सतसीरी बछिया पूज दी थी।
सरदार जगत सिंह ने कानपुर में जो तिमंजिला मकान खरीदा, वह था तो बड़ा अौर कायदे का बना, पर तीसरी मंजिल के अलावा नीचे के हिस्सों में किरायेदारों का कब्जा था। इसी कारण तब मकान सस्ता मिल गया था अौर किरायेदारों से मकान के हिस्से येन—केन—प्रकारेण छुड़ा लिये जायेंगे, इस उम्मीद के साथ जगत पा जी मकान के तीसरे व अन्तिम माले में परिवार सहित जम गये। उन दिनों सतसीरी बछिया थी। सँकरे जीने से आसानी से ऊपर ले आयी गयी थी।
दिन, महीने, साल बीतते गये। जगत सिंह का व्यापार ठीक ठाक चल निकला। सिमरन फूफी सतसीरी को नित्य प्रति स्नान करातीं, उसका चारा—भूसा, गोबर—पानी करतीं। तदोपरांत स्वयं नहा—धो, पूजा—पाठ कर अन्न—जल ग्रहण करतीं।
बिल्डिंग की ऊपरी मंजिल से न तो कभी दीना ताई नीचे उतरीं अौर न ही सतसीरी। दीना ताई अपनी इच्छा से नीचे नहीं आयीं, सतसीरी बछिया से गाय हो जाने पर संकरे जीने से नीचे न आ पाने के कारण कभी नहीं लायी गयी अौर न ही नीचे लाये जाने की सोची ही गयी। ‘हाँ' बूढ़ी हो चली सतसीरी के निधन के बाद उसे नीचे कैसे लाया जायेगा?.... रस्सी से बाँधकर नीचे लटकाया जायेगा? या फिर काट—काट कर.... अटकलें बिल्डिंग अौर गली मुहल्ले के बड़े बूढ़े से लेकर बच्चे तक अपने—अपने दिमाग के अनुसार लगाने लग गये थे।
सतसीरी फिर रँभाई, जगतसिंह पा जी का दिमाग घूम गया। सिमरन दी से छोटे थे वे, आठ—दस बरस के, जब देश—विभाजन में उनके पिता, बहनोई अौर वतन सदा के लिए छूट गये थे। शरणार्थी के रूप में दिल्ली आकर तंगहाली में गुजर बसर करते हुए, छोटे भाई निरंकार सिंह के साथ कपड़े का व्यापार बढ़ा लिया था। धीरे—धीरे अच्छा मकान, अच्छी दुकान अौर सुदृढ़ आर्थिक व पारिवारिक स्थिति के साथ वाहे गुरु की मेहेर उन पर सदैव बरसने लगी, पर तभी देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की निर्मम हत्या उन्हीं के अंगरक्षकों द्वारा जो संयोग से सिख थे, कर दी गयी। फलस्वरूप पूरे दिल्ली शहर में दंगे भड़क उठे। कुछ अराजक, असामाजिक तत्वों ने पूरे देश का माहौल खराब कर दिया। सिखों के ऊपर अकारण, अनावश्यक आक्रमण होने लगे। बलवाइयों ने मौके का फायदा उठाया। कई सिख मार दिये गये। उनकी दुकानें, घरबार लूट लिया गया। इन्हीं दंगों की चपेट में जगत पा जी की कपड़ों की एकमात्र दुकान अौर दुकान में बैठा उनका एकमात्र छोटा भाई निरंकार आ गया। बलवाइयों ने निरंकार सिंह अौर नौकरों को दुकान में शटर बंदकर आग लगा दी। दुकान, भाई अौर नौकर सब जलकर खाक हो गये।
निरंकार की याद में आँखें भर आयीं जगत पा जी की। वास्तव में उस वक्त दुकान में उन्हें बैठा होना चाहिए था, पर निरंकार के बार—बार आग्रह करने से उन्हें रोटी खाने घर जाना पड़ा। काश वे उस दिन रोज की तरह गुरुद्वारे से सीधे घर आ जाते, दुकान न जाते.... तो निरंकार बच जाता... वे उसकी जगह.... भाई तो बच जाता। जगत पा जी ने आँखों से छलक आयीं आँसू की बूँदों को कुरते की बाँह से पोंछ एक दीर्घ साँस ली।
परसों था वह काला मनहूस दिन, जब अतिवादियों ने अयोध्या में विवादित ढाँचा ढहा दिया था, ढाँचा क्या गिरा भूचाल—सा आ गया। जगत सिंह पा जी दोपहर बाद ही सूचना पा दुकान बंद कराके अपने युवा पुत्र सरबजीत सिंह के साथ घर आ गये थे। जंगल में आग—सी फैली ख़बर ने कुछ ही घंटों में व्यस्त शहर को वीरान बना दिया। ‘अल्लाह हो अकबर.... हर—हर महादेव‘ के नारे शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक गूँजने लगे। रेेडियो, टेलीविजन में आ रहीं ख़ब़रों से लोगों में जिज्ञासा अौर दहशत दोनों बढ़ रही थी। फिरकापरस्त दंगाइयों अौर मौकापरस्त बलवाइयों की बन आयी थी। यत्र—तत्र—सर्वत्र मौका पाते ही खून—खराबा, लूट—पाट पर इनकी टोलियाँ उतारू हो जातीं। फलस्वरूप शासन को एहतिहातन पूरे शहर को कर्फ्यूग्रस्त घोषित करना पड़ गया। पुलिस फोर्स की गश्त, लाउडस्पीकर में एनाउंसमेण्ट, सन्नाटे को चीरती कोई धमाके की आवाज वातावरण में अौर भयानकता घोल जाती।
अब पता नहीं इस दफ़ा क्या होने वाला है? लाहौर से दिल्ली, दिल्ली से कानपुर कुछ न कुछ खोते चले आये हैं..... अब तक जगत पा जी....। इस बार क्या खोने जा रहे हैं वे.... इकलौता जवान बेटा सरबजीत सिंह, तीन—तीन अविवाहित बेटियाँ, बूढ़ी ताई, बाल विधवा बड़ी बहन सिमरन दी, गऊ—सी सीधी धर्मपत्नी, सतसीरी गाय अौर वे स्वयं, कुल मिलाकर नौ प्राणी बिल्डिंग की तीसरी मंजिल में तीन दिन से अटके पड़े हैं। कर्फ्यू एक मिनट के लिए भी नहीं खुला अौर न ही जल्दी खुलने के आसार नजर आ रहे हैं।
प्रदेश के मुख्यमंत्री ने ताल ठोंक कर इस्तीफा दे दिया। केन्द्र सरकार ने रातों रात राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। शहर भर में पता नहीं कहाँ से अौर कब? पुलिस ही पुलिस छा गयी। शहर क्या पूरे प्रदेश अौर देश के कोने—कोने से भयावह खबरें आ रहीं थीं...या रब खैर.... जगत सिंह पा जी ने आँखें मूँद उच्छ्वास ली।
सारी रात जागते—चौकसी में बीती। सतसीरी रात ज्यादा रँभाई थी। सुबह—सवेरे सिमरन चिल्लायी, “मेरी सतसीरी.... मेरी सतसीरी” जगत सिंह पा जी उस वक्त गुसलखाने में थे, उन्हें लगा सतसीरी वाहे गुरु को प्यारी हो गयी। एक पल के लिए उनकी आँखें संतोष में मुँद गयीं, ‘चलो ठीक हुआ, जो रब करता है, ठीक ही करता है। अगले ही पल उनके मस्तिष्क में कौंधा, ऐसे माहौल में सतसीरी की मृत देह का क्या होगा?'
जगत पा जी गुसलखाने से बाहर आये, तो देखते हैं, परिवार के सभी सदस्य छत के कोने में सतसीरी के चारों अौर एकत्र हैं। वह भी उनके पास पहुँच जाते हैं। सतसीरी मरी नहीं थी, बेहोश थी, उसकी साँसें तेज—तेज चल रहीं थीं। सरबजीत ने सतसीरी की एक आँख खोली... आँख सुर्ख लाल थी। सतसीरी के ऊपर पानी किंछा गया...वह कसमसायी, किन्तु उठी नहीं।
सिमरन सतसीरी की इस दशा पर घुटी आवाज में विलाप करने लगी। बड़ी—बूढ़ी दीना ताई समझ गयीं ... बूढ़ी सतसीरी अब बचेगी नहीं। उमर ही कितनी होती है.... गाय बैलों की बारह, चौदह वर्ष अौर सतसीरी बारह साल की हो चली थी। उन्हें लगा जैसे सतसीरी के बाद उनका नम्बर है। ठीक ऐसे ही एक दिन परिवार के सभी लोग उनकी मृत देह को घेरकर खड़े हो जायेंगे। अगले ही पल उनके दिमाग में आया, “वाहे गुरु इस कर्फ्यू के दौरान मेरी मौत न हो, नहीं तो, मेरा दाह—संस्कार मेरा बेटा अौर पोता कहाँ अौर कैसे कर पायेंगे ?”
एकाएक सतसीरी ने अपने चारों पैर फटकारे अौर उठकर बैठ गयी। सिमरन विलाप करना भूल गयी, अपने आँसू पोंछ सतसीरी का सिर अपनी गोद में रख उसके गले में हाथ फेरने लगी। सरबजीत की माँ सतसीरी की उसार करने लगीं। बाकी लोग अपनी—अपनी दैनिक क्रियाओं में लग गये।
कर्फ्यू लगातार सातवीं रात भी अौर अधिक भयावह परिस्थितियों के साथ जारी रहा। जगत सिंह पा जी सरबजीत को अपने साथ ही सुलाते। उसके गर्म खून को गुरु नानक के उपदेशों अौर गुरु ग्रन्थ साहब के सबद सुना—सुना कर ठंडा रखने की कोशिश करते।
कल रात से ख़तरा अौर बढ़ गया था। मुहल्ले में अफवाह थी विधर्मियों ने बाहर से कुछ आतंकवादी बुलाये हैं, जो घर—घर पहुँचकर चुन—चुनकर विपरीत धर्म के मानने वालों का संहार करेंगे। ऐसी दशा में सतसीरी के रँभाने से जगतसिंह पा जी के परिवार के साथ ही नीचे की दो मंजिलों में रहने वाले किरायेदारों के दिल दहल उठते।
सबसे ज्यादा ख़तरा तो नीचे के किरायेदार लाला धर्मपाल को था। दंगाई सबसे पहले उन्हीं के दरवाजे को तोड़ते.... फिर ऊपर को आते।
देर रात जगत पा जी ने लाला धर्मपाल की सलाह मान ही ली अौर फिर दोनों ने बिना आहट छत की चहार दीवार का एक कमजोर हिस्सा तोड़ डाला, जो सीधे सड़क की ओर था.... अौर फिर दोनों सतसीरी के पास आये, चरण वंदना कर उसके गले की रस्सी खोल दी। सतसीरी छत पर टहलेगी.... अौर.... अौर सीधे सड़क पर, ‘न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी...'. पल—पल भयभीत करती उसकी रँभाने की आवाजों से सभी निजात पा जायेंगे। जगत पा जी यह सब कैसे कर पाये, यह अपने आप में बेहद आश्चर्यजनक था..... रह रह कर इकलौते बेटे सरबजीत की चिन्ता उन्हें खाये जा रही थी। इस बार के दंगे में वह अपने परिवार के किसी सदस्य की बलि नहीं होने देना चाह रहे थे।
घनी काली ठंडी रात अौर गहराती जा रही थी “अल्लाह हो अकबर.... हर हर महादेव.... जय श्री राम” के समवेत स्वर आराधना के लिए नहीं उठ रहे थे, बल्कि ईश्वर द्वारा रचे इंसान आपस में मर—मिटने के लिए उसी एक ईश्वर का नाम ले लेकर स्वयं में जोश भर रहे थे।
रात्रि के अन्तिम प्रहर जगत पा जी की आँख लग गयी।
लाला धर्मपाल की भय से चीखती—सी पुकार, “जगत पा जी.... जगत पा जी.... उठो..... जागो... बिल्डिंग को दंगाइयों ने घेर लिया है।” लाला धर्मपाल के सूखे हलक से बोल नहीं फूट रहे थे।
जगत पा जी का माथा ठनका, बगल में सोया सरबजीत बिस्तर से गायब था। उनकी दृष्टि दीवार पर गयी, एक कृपाण गायब थी। दूसरी कृपाण ले वह छत पर आ गये। सरबजीत लाला धर्मपाल के पास ही नंगी कृपाण लहराते हुए बोेल रहा था,......परेशान न हो मैं ........ जो हूँ.... अकेले ही एक—एक को काट डालूँगा... जो बोले सो निहाल.... सरबजीत आगे नहीं बोल पाया। जगत पा जी ने उसका मुँह दोनों हाथों से बंद कर दिया अौर शांत रहने का मौन इशारा किया।
बिल्डिंग के नीचे बलवायी नारे लगाते हल्ला कर रहे थे। गली—मुहल्ले के सारे लोग जाग—चौकन्ने हो, अपने—अपने घरों में दुबके पड़े थे। मशाल लिये बलवाइयों के धर्मान्धता के नारे रात के सन्नाटे को भंग कर रहे थे।
जगत पा जी की बिल्डिंग का मुख्य दरवाजा दंगाइयों द्वारा पीटा—तोड़ा जाने लगा। बिल्डिंग के नीचे की दोनों मंजिलों में रहने वाले सारे लोग, जगत पा जी के ऊपरी हिस्से में आ चुके थे। जीने के शेष दोनों दरवाजे अच्छी तरह बंद कर दिये गये थे। पर वे दोनों दरवाजे कमजोर थे। बिल्डिंग की सभी महिलायें दीना ताई के कमरे में परस्पर चिपकी—सिमटी प्रभु का नाम बारम्बार स्मरण कर रहीं थीं। आधे—जागे, आधे—सोये बच्चों की आँखें भयाक्रांत थीं... सभी के चेहरों पर अनहोनी की छाया स्पष्ट दिख रही थी.... मूक संवाद परस्पर कायम था।
बिल्डिंग के पुरुषों ने छत पर मोर्चा सँभाल लिया था; जिसके, जो हाथ आया वही हथियार के रूप में सँभाल लिया। सरबजीत अौर जगत पा जी के हाथों में नंगी तलवारें चमक रहीं थीं।
सभी की स्थिति किंकर्तव्य—विमूढ़—सी हो चुकी थी। किसी को कुछ सुझायी नहीं दे रहा था.... छत से नीचे झाँकना भी जोखिमपूर्ण था.... बिल्डिंग की छत पर ऐसा कुछ नहीं था, जो नीचे सड़क पर दंगाइयों के ऊपर फेंका जा सके....। घण्टे—दो—घण्टे में होने वाली पुलिस पेट्रोलिंग भी पता नहीं कहाँ चली गयी थी।
जगत पा जी का फोन पहले से ही डेड था। नीचे की मंजिलों से पुलिस कंट्रोल रूम कोई फोन करता इतनी सुध किसी में न रही.... काश गली—मुहल्ले की अन्य बिल्डिंग से कोई पुलिस कंट्रोल रूम फोन कर दे.... काश पुलिस गश्ती दल आ जाये.... काश.......
एकाएक रात भर शांत रही बूढ़ी—बीमार सतसीरी रँभाने लगी। सतसीरी के रँभाने से दंगाइयों में अौर जोश बढ़ गया। वे अौर जोर—शोर से नारे बाजी करते हुए दरवाजा तोड़ने लगे। बिल्डिंग की ऊपरी मंजिल पर मौजूद लोगों के हृदय की धड़कन सतसीरी के रँभाते ही धीमी हो जाती।
भोर का उजास फैलने लगा था। इस हल्के उजाले में.... पलक झपकते ही बिजली—सी कौंधी,.... शायद बिजली के खम्भे में शार्ट सर्किट हुआ था.... लोगों ने देखा बूढ़ी—बीमार सत्सीरी छत के कोने से छोटे बछड़े की तरह कुलांचें मारती हुई छत की टूटी—कमजोर चहार दीवारी के पास आयी अौर बिल्डिंग से नीचे कूद गयी।
अगले ही पल दंगाइयों में चीख—पुकार मच गयी। छत पर एकत्रित लोगों ने नीचे देखा.... सतसीरी की मृत देह के आस पास तीन चार दंगाई खून से लथपथ पड़े हैं.... नंगे टूटे बिजली के तारों की जद में आये दस—बारह दंगाइयों के मुँह से फेन निकल रहा था....शेष बचे दंगाई.... जान बचाकर भाग रहे थे.... गश्ती दल के सायरन की आवाज शनैः—शनैः पास आती जा रही थी....।
सरदार जगत सिंह पा जी नीचे का सारा दृश्य देख.... माजरा समझ निढ़ाल हो लाला धर्मपाल के कंधे का सहारा लेते हुए छत पर पड़े तख्त पर बेहोश हो गये।
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