Mahamaya - 24 in Hindi Moral Stories by Sunil Chaturvedi books and stories PDF | महामाया - 24

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महामाया - 24

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – चौबीस

अखिल ने भी सीट पर सिर टिकाया,आँखें बंद की और सोचने लगा।

पिछले दस दिनों में जो भी बाबाजी के सानिध्य में आया है उनमें से ज्यादातर लोगों की जिज्ञासाएँ शांत हुई है। कुछ की जिज्ञासाएँ और गहरा गई है। कुछ दीक्षा को अपने जीवन का दुर्लभ क्षण मानकर आनंदित है.....कुछ भाव विभोर.....कुछ पर गुरुभक्ति का अच्छा खासा जुनून सवार हो चुका है......कुछ समाधि के दर्शन को ही पुण्यलाभ मानकर उल्लासित हैं......साथ ही सब के सब श्रद्धा से नतमस्तक है।

बाबाजी से जुड़ने के बाद लोगों के अपने-अपने अनुभव है। लोग अनुभव आपस में बांट रहे थे। कुछ का मानना था कि गुरुदेव के सम्पर्क में आते ही उनकी शराब छूट गई.....किसी को अब पहले जितनी सिगरेट की तलब नहीं लगती......किसी ने चाय छोड़ दी तो किसी ने तम्बाकू। किसी की बेटी को महीनाभर पहले लड़के वाले देखकर गये थे। दीक्षा के तत्काल बाद लड़के वालों ने हाँ में जवाब भिजवा दिया। अभी बाबाजी ने आशीर्वाद दिया और अभी फलीभूत हो गया। कोई सुबह-शाम ध्यान कर रहा था, कोई माला जाप। कुछ पूरे दस दिनों तक मंदिर परिसर में ही बाबाजी के सानिध्य में रहकर खुश था। सच पिछले दस दिनों में इस मंदिर परिसर में इतना कुछ घट गया कि एक-एक पल को याद करने मात्र से रोमांच पैदा हो जाता है। मेरे जीवन के अविस्मरणीय अनुभव है ये दस दिन।

मैंने इन दस दिनों में कितना कुछ देखा है, कितना अनुभव किया है, कितने-कितने देशी-विदेशी लोगों से मिला हूँ। लोगों को जाना है, समझा है। इस मंदिर प्रांगण में ही कितने रिश्ते बनते देखें हैं। बरसों से अजनबियों की तरह एक ही शहर में रहने वाले सैंकड़ों लोग गुरुभाई-गुरुबहिन के नये रिश्तों में बंधे हैं। उनमें पारिवारिकता बढ़ी है। एक-दूसरे के सुख-दुख बांटने के कमिटमेन्ट हुए हैं। एक महावृक्ष के नीचे एक नयी सामाजिक संरचना के निर्माण की एक पूरी प्रक्रिया को देखा है इन दस दिनों में। सच अजनबियांे को भी आपस में इस तरह मिलते देखा है जैसे वो सब एक ही पिता की संतान हो। उनमें आपस में जन्मों-जन्मों का रिश्ता हो। समाज तेजी से एकल परिवार में बंट रहा है। एकल परिवार के कारण लोगों में अवसाद बढ़ा है। शायद ऐसे ही अवसादग्रस्त लोगों के लिये दवाई का काम करते हैं ये आयोजन और धर्मगुरू मनोचिकित्सक का।

पिछले दस दिनों में अनुराधा से प्रगाढ़ता बढ़ी है। अनुराधा का मेरे जीवन में आना किसी चमत्कार से कम नहीं है। यह चमत्कार घटा है यहीं बाबाजी के सानिध्य में।

कितने अलग-अलग चेहरे, कितने अलग-अलग चरित्र। कितनी विद्याएं, कितने ही रहस्य उजागर हुए हैं इन दस दिनों में। कोई पल भर में ही कैसे अपने इर्द-गिर्द जीते-जागते संसार को छोड़कर सत्य की खोज में सन्यासी हो जाता है। कोई कैसे निर्णय और अनिर्णय की स्थिति में झूलता हुआ उस सत्य को जानने के लिये बैचेन होता रहता है।

सारिका अचंभित है बाबाजी के मुँह से अपने पिछले तीन जन्मों का हाल जानकर। वो सब कुछ छोड़ छाड़कर सन्यासिन हो जाना चाहती है। उसके माता-पिता उलझन में है। मोह बेटी को छोड़ने नहीं देता लेकिन संस्कार कहते हैं कि यदि कोई परमात्मा प्राप्ति के रास्ते पर जाना चाहता है तो उसे रोकना पाप है। मेरी आज दिन में ही सारिका के माता-पिता से लम्बी बातचीत हुई। वो स्वीकार करते हैं कि वो अपनी बेटी को एक अच्छा भविष्य देने में सक्षम नहीं है। लेकिन यदि उनकी बेटी बाबाजी के सानिध्य में चली जाती है तो हजारों, लाखों लोग उसे प्रणाम करेंगे। वो भी समाधि की अवस्था को पा सकेगी और फिर इस सब से ऊपर उनकी बेटी के पास होगा एक सुरक्षित भविष्य। लेकिन मोह, मोह का क्या करें? सच जीवन अपने आप में एक उलझन है।

सारिका से भी मैंने बात की। सारिका ने निर्णय कर लिया है। देखना है वो अब कब नैनीताल पहुंचेगी? अनुराधा ने भी निर्णय कर लिया है कि वो अपना सब कुछ दांव पर लगाकर सत्य को पाने की कोशिश करेगी। समाधि का अनुभव मुझे भी करना है।

आज सूर्यानन्द जी महाराज से भी मैंने समाधि के अनुभव जानने की कोशिश की। लेकिन वो चुप रहे। ऐसा लगता है कि सूर्यानन्द जी तो कुछ बोलना चाहते हैं लेकिन श्रीमाता उन्हें कुछ बोलने नहीं देती। मैंने महसूस किया है कि सूर्यानन्द जी श्रीमाता से डरते हैं। आज भी श्रीमाताजी ने बात घुमा दी। वो उल्टे मुझसे मेरे बारे में ही पूछती रही। नैनीताल में सूर्यानन्द महाराज का कुछ साथ मिले तो शायद मैं कुछ जान सकूं। मैंने एक बात और गौर की है कि अनुराधा स्वामी सूर्यानन्द जी से बहुत प्रभावित है। सूर्यानन्द जी भी अनुराधा के साथ खुलकर बात करते हैं। मुझे लगता है कि अनुराधा को माध्यम बनाकर ही सूर्यानन्द महाराज से समाधि को लेकर उनके अनुभव जानने में सहुलियत होगी।

निर्मला माई आजकल मुझे खूब लाड़ करती है। विदेशियों में काशा अद्भुत है। भारतीय साधु सन्यासियों के बारे में उसकी जानकारी चमत्कृत कर देने वाली है। जब चाय की गुमटी पर उससे चर्चा हो रही थी तो मुझे खुद अपने पर ग्लानि होने लगी थी। हम भारतीय अपनी संस्कृति को उतना नहीं जानते जितना कि विदेशी चार दिन में देश में रहकर जान लेते हैं। सोचते-सोचते अखिल की नींद लग गई। गाड़ियों का काफिला तेजी से आगे बढ़ रहा था।

पहाड़ों में गोल-गोल चक्कर काटती हुई गाड़ियाँ अन्ततः एक बड़े से लोहे के दरवाजे के सामने पहुंचकर रूक गई। दांयी ओर बने मंदिर में एक सन्यासी जोर-जोर से रूद्रपाठ कर रहा था। गाड़ियों के हार्न की आवाज सुनकर सन्यासी रूद्रपाठ अधूरा छोड़कर तेजी से दरवाजे की ओर लपका। उसने अपनी कमर में लटके चाबियों के गुच्छे में से एक चाबी निकालकर दरवाजा अंदर की तरफ खोला और प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। दरवाजे से नीचे की तरफ खड़ी ढलान पर लुढ़कती हुई गाडियाँ मैदान में आकर खड़ी हो गई। यह मैदान पहाड़ काटकर बनाया गया था। इसी बीच दो नवयुवक दौड़ते हुए गाड़ियों के समीप आये। बाबाजी की गाड़ी से सामान निकाला और नीचे ले गये। उनके पीछे एक युवा सन्यासी भी थे। बाबाजी ने युवा सन्यासी से एक तरफ जाकर कुछ बात की और नीचे की ओर चल दिये। बाबाजी के पीछे-पीछे वानखेड़े जी, दोनों माताएँ और सूर्यानंद जी भी चले गये।

गाड़ी से सामान निकालते समय अखिल की निगाह अचानक दिव्यानंदजी पर पड़ी। वह ऊपर वाले दरवाजे से आ रहे थे। अखिल ने चिल्लाकर कहा -

‘‘स्वामी जी प्रणाम’’

अखिल को देखकर दिव्यानंद जी के चेहरे पर भी मुस्कुराहट आ गई। उन्होंने अखिल के पास पहुंचकर उसे गले लगाया।

‘‘नमो नारायण.......वाह अखिल प्रभू! आपको यहाँ देखकर आनंद आ गया। हमें तो लगा था अब शायद ही मुलाकात हो। चलो, पहले आपके ठहरने का प्रबंध करवा दें। फिर आराम से बैठकर बात करेंगे।’’ कहते हुए दिव्यानंद जी ने दूसरी गाड़ी के पास खड़े युवा सन्यासी को हाथ के ईशारे से पास बुलाया।

‘‘ये हैं सूर्यगिरी महाराज। यहाँ का सारा राजपाट इन्हीं के हाथों में है।’’ फिर सूर्यगिरी महाराज की ओर मुड़ते हुए बोले ‘‘ये हैं....’’

‘‘अखिल प्रभू’’ सूर्यगिरी महाराज ने दिव्यानंद जी की बात बीच में काटते हुए कहा।

‘‘अरे वाह! आप तो अंतर्यामी हैं महाराज’’ दिव्यानंद जी ने आश्चर्य प्रकट किया।

‘‘अभी-अभी बाबाजी हमें इनके बारे में बताकर गये हैं’’

‘‘तब तो मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है।’’ दिव्यानंद जी ने मुस्कुराते हुए कहा। फिर भावपूर्ण हो गये ‘‘अखिल प्रभू हम पहले बाबाजी को प्रणाम कर आयें। फिर आपसे मिलते हैं। हमने तो ठीक से बाबाजी के दर्शन भी नहीं किये। बस गाड़ी में झलक भर देखी है।’’

‘‘हाँ.....हाँ.....आप पहुंचिये’’ कहते हुए अखिल भी सामान उठाकर सूर्यगिरी महाराज के पीछे-पीछे चल दिया। पार्किंग से नीचे जाने के लिये सीढ़ियाँ बनी हुई थी। सीढ़ियों के ऊपर छत डालकर रास्ते को गुफा का स्वरूप दिया गया था। कुछ दूर जाकर सीढ़ियाँ दो भागों में बंट गई थी। बांयी ओर वाली सीढ़ियाँ बाबाजी और माताओं के कमरे की ओर जाती थी। दांयी ओर वाली सीढ़ियाँ एक लम्बे दालान में जाकर समाप्त हो गई। दालान के दोनों तरफ अति विशिष्ट लोगों के लिये सुसज्जित कमरे थे। अखिल को इन्हीं में से एक कमरे में ठहराया गया। बाकि लोगों को नीचे बेसमेन्ट में बनी डोरमेटरी में भेजकर सूर्यगिरी महाराज भी लौट गये।

अखिल फ्रेश होकर पलंग पर लेट गया। लम्बे सफर की थकान के कारण वह देर तक सोता रहा। शाम को घंटे घड़ियाल, शंख की आवाज से उसकी आँख खुली। आवाजें ऊपर वाले मंदिर से आ रही थी। वह झटपट तैयार होकर ऊपर वाले मंदिर में पहुंच गया। एक सन्यासी पूरे भाव से दोनों हाथ से आरती की थाली पकड़े गोल-गोल घुमा रहे थे। अखिल को आरती के बाद पता चला कि उनका नाम मड़ला महाराज है। प्रसाद लेकर लोग एक-एक करके आश्रम की ओर चल दिये। दो-चार साधु मंदिर में बैठकर मड़ला महाराज से चर्चा में व्यस्त हो गये। अखिल मंदिर की सीढ़ी पर बैठ गया। आसमान की ओर सिर ताने देवदार के पेड़ों को अंधेरे में डूबते देखता रहा। मौसम में ठंडक घुलने लगी थी। उसने शरीर में सिरहन महसूस की और आश्रम में लौटने के लिये उठ खड़ा हुआ। उसके आगे-आगे दो प्रौढ़वय के साधु भी सीढ़ियाँ उतर रहे थे। वे आपस में बातें कर रहे थे।

‘‘आज तो आश्रम में भारी चहल-पहल हो गई महाराज।’’

‘‘हाँ, नई-नई मूर्तियाँ आई है प्रभू।’’

‘‘बाबाजी के संगे तो हमेशा मेलो ही लगो रहत है।’’

‘‘हमारे-तुम्हारे जैसे साधु नहीं है। गुरूदेव.....महामंडलेश्वर हैं....महामंडलेश्वर।’’

‘‘तभी तो इत्तो बड़ो आश्रम बनाये हैं।’’

‘‘हम कितने ही आश्रमों में गये पर ऐसा सुंदर आश्रम किसी का नहीं है।’’

‘‘आपने सही कही महाराज। जहाँ पे ज्यादा चिल्लपों भी नहीं है।’’

‘‘हम सोच रहे हैं कि बाबाजी से पूछ के अपना डेरा यहीं जमा लें।’’

‘‘नेक मथुरादास को आश्रम और देख लेते महाराज, फिर निर्णय करते तो ठीक रहतो।’’

‘‘ठीक है प्रभू जैसी तुम्हारी ईच्छा.....। तुम बाबाजी को प्रणाम कर आये?’’

‘‘नहीं महाराज अबे कहाँ जा पाये।’’

‘‘हम भी नहीं जा पाये। चलो पहले बाबाजी को प्रणाम कर लें।’’

‘‘बाबाजी कहाँ भागे जा रहे हैं। पहले प्रशादी तो पा लें महाराज। आज नेक मूर्तियाँ बढ़ गई हैं सो टेम पे निपट लेनो ही ठीक है।’’

‘‘सही कही प्रभू आपने....चलो पहले सीधे प्रशादी पा लें।’’

दोनों साधु बांयी ओर की सीढ़ियों से खट-खट उतरते हुए रसोईघर की ओर चले गये।

बाबाजी के कमरे के बाजू से दालान में होकर एक गलियारा रसोईघर की ओर जाता था। रसोईघर के ऊपर ही सूर्यानंद जी का कमरा था। बाबाजी के कमरे के सामने वाले चबूतरे पर दो-तीन साधु ध्यान की मुद्रा में बैठे थे। उनके पास ही एक पाॅमेरियन भी अपने दोनों अगले पंजों पर मुँह टिकाये नीचे घाटी में ताक रहा था। दो-तीन युवा साधु तेज-तेज रसोईघर से निकलकर बाबाजी के कमरे में जा रहे थे। तो कभी बाबाजी के कमरे से निकलकर भक्तों के निवास स्थान की ओर। चबूतरे पर खड़े कुछ भक्त आपस में बातें कर रहे थे।

‘‘बड़ा ही रमणीक स्थान चुना है भई बाबाजी ने।’’

‘‘सो तो है....... पर ये आश्रम किसी भूल-भूलैया से कम नहीं है।’’

‘‘क्यों क्या हुआ।’’

‘‘अभी ये भैया नीचे से ऊपर आ रहे थे तो रास्ता भूल गये। सीधे ऊपर सड़क पर निकल गये।’’

‘‘फिरऽऽऽ.....’’

‘‘फिर क्या.....पूछते-पूछते वापिस आये।’’

‘‘देखना रात को ध्यान रखना। नहीं तो नीचे उतरते-उतरते तुम सीधे खाई में चले जाओ।’’

‘‘हाँऽऽ... मड़ला महाराज बता रहे थे कि नीचे खाई में शेर रहता है।’’

‘‘डराओ मत भैया। हम तो रोटी खाके जो कमरे में घुसेंगे तो उजाला होने पर ही बाहर निकलेंगे।’’

‘‘डरते क्यों हो.....? तुम बाबाजी के आश्रम में हो। सुना नहीं, पहले के जमाने में हमारे ऋषि-मुनियों के आश्रम में शेर-बकरी एक साथ रहते थे।’’

तभी गंजे सिर वाले एक युवा सन्यासी ने बातों का सिलसिला तोड़ा।

‘‘चलिये......चलिये.....जल्दी-जल्दी प्रशादी पा लीजिए।’’

लोग बातचीत छोड़कर रसोईघर की ओर चल दिये।

अखिल बहुत देर तक चबूतरे पर खड़ा पहाड़ों को देखता रहा। आश्रम के सामने पहाड़ और घाटियाँ अंधेरे में डूब चुकी थी। केवल पहाड़ की गोद में यहाँ-वहाँ बने घरों में रोशनी टिमटिमा रही थी। देखकर लगता था कि आसमान ने चमकीली बुंदकियों वाले परदे से पहाड़ों को ढंक दिया है। सुबह होते ही परदा सिमट जायेगा और धूप में नहाये पहाड़ खिलखिला पड़ेंगे।

‘‘प्रभू प्रशादी पा लीजिए। आप अकेले ही बचे हैं’’ एक गंजे सिर वाले सन्यासी ने अखिल की तंद्रा भंग की।

‘‘आँऽऽ.....हाँऽऽ.....चलिये’’ अखिल सन्यासी के पीछे-पीछे रसोईघर की ओर चल दिया।

क्रमश..