padhai se ladai ke samikaran sulajhati film super thirty in Hindi Film Reviews by Amit Singh books and stories PDF | पढ़ाई से लड़ाई के समीकरण सुलझाती फ़िल्म सुपर थर्टी

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पढ़ाई से लड़ाई के समीकरण सुलझाती फ़िल्म सुपर थर्टी

“पढ़ाई से लड़ाई के समीकरण सुलझाती फिल्म सुपर थर्टी”

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“बच्चे काम पर जा रहे हैं,

हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह

भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना

लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?”

इस दौर के बड़े नामी कवि राजेश जोशी अपनी कविता “बच्चे काम पर जा रहे हैं” में जिन बच्चों को काम पर जाते देखकर भाव-विह्वल हो उठते हैं, वही काम पर जाने वाले बच्चे जब अपने मेहनत-मजूरी के काम-धंधों के साथ अपनी आँखों में ज़माने से होड़ लेने का सपना बसा लेते हैं तो उन असंभव-से सपनों को संभव बनाने का काम करते हैं,पटना के आनंद कुमार| यानी कवि राजेश जोशी की दुश्चिंताओं को सुनहले ख़्वाब का रंग देकर काम पर जाने उन बच्चों को ज़माने के काम के लायक वर्ल्ड-क्लास इंजीनियर बनते दिखाने वाली फिल्म है- सुपर थर्टी|

बिहार के गरीब-गुरबे परिवारों से आने वाले तीस बच्चों को अपनी “सुपर थर्टी” कोचिंग में पढ़ाकर उन सभी का आई.आई.टी. जैसे इंजीनियर उत्पादक संस्थान में दाखिला कराने का दावा करने वाले आनंद कुमार से लोग अच्छे से परिचित हैं| उन्हीं आनंद कुमार की कहानी को बम्बईया मसाले के छौंक के साथ चखाने वाली फिल्म है “सुपर थर्टी”| विगत वर्षों में जिसतरह खिलाड़ियों, योद्धाओं, लेखक, नेता-अभिनेताओं के जीवन पर बायोपिक बनाने की बहार आई है, उसी कड़ी में निर्देशक विकास बहल ने समाज में प्रायः निरीह-से समझे जाने वाले प्राणी एक मास्टर जी के जीवन संघर्षों की कहानी को फार्मूलाबद्ध तरीके से पर्दे पर उतारा है|

इस कहानी का सूत्रधार है- फुग्गा, जो उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से भागकर आया है| वह अपने हालात से इस कदर मजबूर है कि रास्ते का किराया न होने पर अपने पड़ोसी की मुर्गी चुराकर भागा है| इसीतरह बाकी के बन्दे भी जमीन से इस कदर जुड़े हैं कि बिलकुल मिट्टी में मिल गए हैं| आसमां छूने की ताकत उनमें भी है लेकिन सामने खड़े अंग्रेजी और मजबूरी के दो पहाड़ो से टकराकर अपने-आप के खाक हो जाने के लिए बेबश हैं| ऐसे में उनकी उम्मीद बनते हैं हालात के आगे खुद भी खाक हो चुके आनंद कुमार|

आनंद कुमार की शुरूआती कहानी बड़ी दिलचस्प है| अभावों के “कुच्छ ना” का फलसफा देने और इसी “कुच्छ ना” के आधार पर दुनिया को “शून्य” का उपहार देने वाली धरती बिहार की जमीन से उठकर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में जाते-जाते चूक जाने और फिर टूटकर जार-जार हो जाने वाले तथा दो पैसे आने पर फिर से स्वभावतः दीन-दुनिया को भूल बैठने वाले आनंद जब अपने ही अतीत से टकराते हैं तो उनके भीतर का वह ज़िद चट्टान-सा उभर आता है, जो बिहार के राजनीति से लेकर शिक्षा को व्यवसाय बना देने वाले कोचिंग संस्थानों के मकड़जाल से पूरजोर लड़ाई लड़ता है| यह लड़ाई आनंद के भीतरी और बाहरी दोनों स्तरों पर है| धनाड्य धनपशुओं से लड़ना आनंद के लिए एक आसान-सा समीकरण है लेकिन भूख से लड़ना ऐसा टेढ़ा सवाल है जिसके आगे कोई सूत्र या समीकरण काम नहीं आता|

आनंद कुमार के किरदार के लिए ग्रीक गॉड कहे जाने वाले ऋतिक रोशन मुफ़ीद तो नहीं लगते लेकिन अपने अभिनय में वह इस कदर डूब गए हैं कि फिल्म देखते समय इसतरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं जाता| बिहार के और अभाव के ताप को उन्होंने अपने चेहरे पर बखूबी उतारा है| कहीं-कहीं उनकी बोली खटकती है लेकिन कहानी के भावपूर्ण प्रवाह में वह कहीं-किसी किनारे लग जाती है|पंकज त्रिपाठी अपने रेडीमेड इमेज में उतना ही जँचे हैं जितना पहले से जँचते आए हैं| मृणाल ठाकुर का अभिनय स्वाभाविक है| वीरेंद्र सक्सेना और आदित्य श्रीवास्तव अपने किरदार में हरजगह असरदार दिखे हैं|

फिल्म के असली हीरो हैं वे तीस कलाकार जो बिहार की असलियत को अपने अदा में उतारकर फिल्म को सँवार दिए हैं| सुपर थर्टी के ये सुपर तीस स्टार जब भी पर्दे पर दिखे हैं, एक उम्मीद की रोशनी के साथ दिखे हैं| कचरे बीनने या मजूरी करने के अपने कामों से लेकर आनंद सर के सिखाए फार्मूले तक को जब ये अपने जीवन के हर कदम में उतार लेते हैं तो “राजा की सीट” के असल हकदार ये “काम पर जाने वाले बच्चे” ही बन जाते हैं| तब फिर आनंद सर की पढाई इनके लिए न केवल किसी परीक्षा को पास करने का जरिया-मात्र बल्कि जीवन की हर लड़ाई से जूझने का समीकरण बन जाती है।

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मैं अमित कुमार सिंह यह घोषित/प्रमाणित करता हूँ कि यह फ़िल्म समीक्षा मेरी मौलिक रचना है।

नाम- अमित कुमार सिंह

कार्य- केन्द्रीय विद्यालय (क्र.-1) वायुसेना स्थल गोरखपुर में पीजीटी (हिंदी)

पता- ख़लीलपुर, डाक-सँवरा, ज़िला-बलिया 221701 (उत्तर प्रदेश)

फोन संपर्क- 8249895551

ईमेल- samit4506@gmail.com

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