शाम ढ़ली भी न थी कि कोहरा उतरने लगा था. कुछ ही समय गुजरेगा ,यह जमीन को अपने आगोश में ले लेगा. फिर चलते-फिरते लोग काले धब्बे मात्र रह जायेंगे.उनकी आकृति भी साफ नजर नहीं आयेगी.
ऐसे में सड़क पर चलते वाहन भी नहीं दिखाई देते. यकायक जब उनकी लाईट चेहरे पर पड़ती है. तब वे अजगर की तर मुँह फाड़े नजर आते हैं. अब बचो किधर बचना है.
ज्यों-ज्यों कोहरे की चादर गहरी होती जा रही थी, उसकी कोफ्त बढ़ती जा रही थी. दरअसल, उसे सर्दी के मौसम से ही कोफ्त थी.कभी -कभी वह अपने नन्हे-नन्हे हाथों से कोहरे पर मुक्के बरसाने लगता-"मेरे पास न आना घुमाकर मुक्का दूँगा. देख!उनके पास जा,जिन्हें सर्दी सुहानी लगती है. जो गर्म कोट और जैकेट पहने हैं."
गर्म कोट के नाम पर उसके हाथ अनायास ही अपने बदन पर पड़ी पुरानी, फटी किन्तु गर्म शर्ट पर चले गए. यह शर्ट उसके दोस्त रवींद्र ने उसके जन्मदिन पर दी थी.रवींद्र के जन्मदिन की तरह उसका केक तो नहीं कटता था.लेकिन, माई मीठे पुए बनाती थी. बांटती और उसे भर पेट खिलाती.वह शर्ट को स्नेह से सहलाने लगा.जैसे अपने दोस्त रवींद्र को सीने से लगाए उसकी पीठ पर हाथ फेर रहा हो.
कितना अच्छा था रवींद्र. स्कूल में उसीके साथ पढ़ता था. उसके माई-बाबा ने भी उसका नाम अंग्रेजी स्कूल में लिखवाया था.सब कुछ ठीक चल रहा था. लानत जाए उस ट्रक वाले पर.जिसने शहर जाते माई-बाबा को कुचल दिया था. उस ट्रक ड्राइवर के नाम पर उसने एक बड़ा सा थूक का गोला हवा में उछाल दिया.
तभी पीछे से ट्रक के तेज हार्न से उसका कलेजा मुँह को आ गया. वह उछलकर सड़क किनारे बिल्ली की तरह दुबक गया. पलभर को उसने अपनी आँखें कसकर बंद कर लीं.जब से उसके माई-बाबा को ट्रक ने कुचला. उसे हर ट्रक यम नजर आने लगा था.वह तो शुक्र है कि गाँव में ट्रक नहीं चलते. कम से कम गाँव में लोग सड़क दुर्घटना से तो सुरक्षित हैं.
गाँव का नाम होठों पर आते ही उसके मानस पटल पर अपना घर घूम गया. कमरा ईंटों का बना .आगे छप्पर. छप्पर के एक कोने में खुली रसोई. दूसरे कोने में काली गाय और उसका मन्नू. किसी ने माई को बताया था. काली गाय का दूध दिमाग को अच्छा होता है. बस ,उसने उधारी में काली गाय पाल ली.वह उसे पढ़ाकर शहर में नौकरी करवाना चाहती थी. पास के अंग्रेजी स्कूल में उसका नाम भी लिखवाया था.हर साल पास होते हुए वह सैकेंड में आ भी गया था. लेकिन, उस कलमुँह ट्रक ड्राइवर ने सब कुछ खत्म कर दिया.उसका घर भी. उसके छप्पर में चाची की गाय भैंस बँधने लगी थीं. उसके कमरे में भूसा भर दिया गया था. उसे रहने को मिला था ,चाची के बरामदे का एक कोना. जमीन पर पुआल ,उस पर फटी दरी.ओढने को फटी रजाई.
लेकिन, वह बिस्तर भी स्टेशन के नंगे फर्श से कितना गर्म था.स्टेशन पर गुजारी पिछली दो रातें याद आते ही उसको पीठ में झुरझुरी महसूस हुई. मन में पुआल की गरमाहट.पुआल ठंडा ता न था.ऊपर से चाची आग जलाये पड़ोसी औरतों से देर रात तक बतियाती रहती. कोहरा भी उस आग को देखकर भाग जाता. लेकिन, यहां तो कोहरा किसी से डरता ही नहीं. सड़कों को ढ़क लेता है.सड़क किनारे के पेड़ भी रात में राक्षस नजर आने लगते हैं.
ऐसे कोहरे में वह देर शाम सड़क पर आना भी नहीं चाहता था.लेकिन, क्या करे?दो दिन से घूमफिर कर स्टेशन पर ही रह रहा था. पुलिस वालों की नजरों में आ गया तो धरा जायेगा. सुना है, बहुत बुरी तरह मारते हैंयह.गाँव का नंदू बेटिकट दिल्ली चल दिया था. पकड़ा गया. बच्चा और बेहाल देखकर जेल में तो न ठूंसा था.लेकिन, अपने जूतों और डंडों से मारा बहुत था.किसी तरह वापस आया तो महीने भर तक उठने लायक न रहा. वह तो उसकी अपनी माई थी.हल्दी का लेप कर -करके जिला लिया. उसकी जगह वह होता तो-अपना ख्याल आते ही वह सिहर उठा -"न बाबा न ! इन पुलिस वालों की नजरों में न चढ़ूंगा. इससे तो चाची की मार भली.मारती बहुत है ,लेकिन हड्डियां नहीं तोड़ती. पता नहीं उसके सीने में कहीं औरत का दिल हैया अपनी गाय -भैंसों का काम कराने के लिए सही सलामत रखना चाहती है.
सड़क किनारे चलते हुए उसके पेट में गडगडाहट हुई और हल्का सा दर्द होने लगा.वह वहीं सड़क किनारे पेट पकड कर बैठ गया-"पता है ,भूख से कुलबुला रही हो.अगर मैं तुम्हें कुछ खिला दूँगा तो घर कैसे जाऊँगा. जेब में चायवाले के दिए बीस रूपये हैं. जो उसने मुझे घर वापस जाने के लिए दिए थे.मैंने उससे भीख नहीं मांगी थी. घर से भागकर स्टेशन पर शरण ली तो सोचा था-चाय की दुकान पर काम मिल जायेगा."
घर से आया तो जेब में तीस रूपये थे.जो उसे नवरात्रि में कन्या-बरूआ खाने में मिल गये थे.जिन्हें उसने अपनी फटी रजाई में छिपाकर रख लिया था.घर से चला तो यही तीस रूपये थे उसके पास. बीस रूपये का टिकट ले लिया था. दस रूपये की चाय के साथ डबल रोटी खा ली थी.जेब खाली हो गई थी, उसी दिन. काम ढूँढना लाजमी था.उसने सड़कों पर दुकान दारों से काम मांगा था. कहीं काम नहीं मिला. हारकर उसने स्टेशन के बाहर चाय की दुकान वाले के पैर पकड़ लिए थे-"बाबा, मेरा दुनिया में कोई नहीं है. मुझे कप धोने पर अपने पास रख लो."
चायवाले की अनुभवी आँखें स्थिति को भांप गई-"भागकर आये हो?"
"माई-बाबा को ट्रक ने कुचल दिया. चाचा बाहर रहते हैं. चाची बहुत मारती है."उसने सुबकते हुए अपनी पीठ से शर्ट हटाकर नंगी पीठ चायवाले के आगे कर दी.
चाय छानते हुए चायवाले के हाथ यकायक रूक गए. फिर चाय की प्याली ग्राहक को देते हुए बोला-"पेटभर खाना तो देती होगी?"
"गाँव में रोटी की इतनी कमी नहीं होती. बची रोटी और अनाज गाय भैंस भी खाते हैं."कहते हुए वह झूठे कप धोने लगा.
"लो,यह चाय पिओ.ठंड़ से तुम्हारे होंठ नीले पड़ रहे हैं."
"लेकिन, मेरे पास पैसे नहीं हैं मुझे काम दे दो."
"कोई बात नहीं चाय पिओ और यह डबलरोटी खाओ.भूखे लग रहे हो."
वह चाय में डुबोकर डबलरोटी खाने लगा.कल से उसके पेट में कुछ गया न था. उसे घर की मोटी -मोटी रोटियां याद आने लगीं.
चाय और डबलरोटी पेट में पहुँचने के बाद उसके चेहरे पर चमक आ गई थी-"बाबा! मुझे अपने यहां काम पर रख लो.यहां में किसी को नहीं जानता.
"देखो,एक तो तुम नादान बच्चे हो .उस पर भी घर से भागकर आये हो.यहां बाल मजदूरी के खिलाफ आंदोलन चल रहा है. तुम्हें दुकान पर नहीं रख सकता. घर में रख लूंऔर तुम्हारे चाचा ने गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा दी तो मैं पकड़ा जाऊंगा."
"बाबा !मुझपर तरस खाओ."उसने एकबार फिर चायवाले के पैर पकड़ लिए. पेट में पड़ी चाय और डबलरोटी अनिश्चित भबिष्य के आगे पानी हो गई थी.
"कहां से बैठे थे?"भगोने में चाय की पत्ती डालते हुए चाय वाले ने सवाल किया.
"दबतोरी से."उसने डरते-डरते कहा.
"यहां आने का बीस रूपया लगा होगा.?"
"हां."
"यह लो बीस रूपये और घर वापस चले जाओ.यहां सर्दी में बेमौत मर जाओगे. अखबार में रोज कोई न कोई ठंड़ और भूख से मर जाता है."चायवाले ने उसे बीस का नोट देकर घर घर लौट जाने की हिदायत दी.
उसने भी घर वापस जाने का निश्चय कर लिया था. लेकिन, रातवाली ट्रेन से जा नहीं सकता था. छोटा स्टेशन था.रूकने की जगह नहीं थी.रात में गाँव भी नहीं जा सकता था. रास्ते में भेडिये मिल सकते थे जो चाची से जायदा खतरनाक थे.देखे तो नहीं थे .लेकिन, उसे पता था .वह बच्चों को देखते ही चट कर जाते हैं.
पेट का दर्द कुछ कम हुआ तो वह उठकर चल दिया. बिना मंजिल के निरथर्क चलना भी कितना कष्ट प्रद होता है.
आज तीसरा दिन था उसे घर से निकले हुए. घर से निकला तो उम्मीदें उसके साथ थीं. किसी हलवाई या चाय की दुकान पर बर्तन धोने का काम कर लेगा. पैसा मिलेगा तो पेट भर लेगा .चाची की मार से बच जायेगा.
लेकिन, शहर में बिना काम के पेट भरना और रात गुजारना कितना मुश्किल है,उसे समझ आ रहा था. घर से चला तो पेट में रोटी का बजन था और हौसले भी.वह रात उसने स्टेशन की बैंच पर बैठकर बिना खाये इस उम्मीद से गुजार ली थीकि कल निकलने वाला सूरज उसकी जिदंगी में उजाले भर देगा.लेकिन, उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया था. कहीं काम न मिला था.
आखिर ,आज शाम उसने स्टेशन के बाहर चाय की दुकान वाले के पैर पकड़ लिए थे.और उसने घर लौटने की हिदायत के साथ किराया दे दिया था.
रात धीरे-धीरे गहराने लगी थी.सड़क का खुला कोहरा उसकी हड्डियों को कपकपाने लगा था.खुले में रूकना मुश्किल हो गया तो वह स्टेशन पर आ गया ,रात गुजारने. बस एक रात ही की तो बात थी.सुबह पहली ट्रेन पकड़कर घर वापस चला ही जायेगा.
चाची घर से भागने पर मारेगी बहुत. लेकिन वह उसके पैर पकड़ लेगा. माफ कर देगी. आखिर उसकी गाय -भैसों को जंगल में घुमाने वही तो ले जाता है. खूँटे पर बँधे -बँधे तो वह सालभर का भूसा कुछ ही महीनों में चट कर जायेगी.
स्टेशन पर पहुंच कर उसने कचरे में से पुराने अखबार और गत्ते उठाये. उन्हें स्टेशन के एक कोने में डालकर लेट गया. ऊपर से अखबार ओढ़ लिया. लेकिन, ठंड़ सबकुछ बेंधकर उसकी हड्डियों में समा रही थी. उसे याद आया-"माई डाटती थी .ठीक से खाना खाया कर.खाली पेट में ठंड़ बहुत लगती है."
ओह!खाली पेट की बजह से ही हड्डियां कड़कड़ा रही हैं. लेकिन ,कुछ कर भी तो नहीं सकता. जेब में बीस रूपये ही हैं .यदि इनसे कुछ खा लिया तो टिकट कहां से लेगा.बेटिकट तो जायेगा नहीं .पुलिस वालों से पंगा कौन ले.
उसने पैरों को समेटकर पेट में घुसालिया.और दोनों हाथों से पैरों को जकड़ लिया. जैसे जाड़े से बचने की नाकाम कोशिश कर रहा हो.
उसे अपने शरीर में गर्मी सी महसूस होने लगी.तेज थरथराहट के साथ उसका शरीर भट्टी बन गया और आँखें मुंद गई. उसे लगा उसकी माई उसके सिरहाने बैठी उसके सिर पर हाथ फेर रही है.
रात गुजरी.दिन निकला. चहल-पहल बढ़ी.स्टेशन के कोने में उसका जकड़ा हुआ शरीर बेजान पड़ा था. उसके चारों ओर भीड़ लगी थी.पुलिस वाले ने उसकी तलाशी ली.जेब में वही बीस का नोट पड़ा था.
लोग अटकलें लगा रहे थे-"ठंड़ से मौत हुई है. नहीं, भूख से मरा है. नहीं, जेब में बीस का नोट निकला है. भूखा होता तो कुछ खा लेता. ठंड से ही मरा है."
कुछ देर बाद लाश वहां से उठ गई. भीड़ तितर-वितर हो गई. सब कुछ पहले जैसा सामान्य था.
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आभा यादव
7088729322
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