Gavaksh - 2 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | गवाक्ष - 2

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गवाक्ष - 2

गवाक्ष

2

मंत्री जी के मुख से मृत्यु की पुकार सुनकर दूत प्रसन्न हो उठा । ओह ! कोई तो है जो उसे पुकार रहा है । 'अब उसका कार्य आसान हो जाएगा' वह उत्साहित हो गया --" महोदय ! मैं आपको ही लेने आया हूँ । "

अब तक मंत्री जी किसी स्वप्नावस्था में थे, दूत की वाणी ने उनके नेत्र विस्फ़ारित कर दिए, वे चौकन्ने हो उठे। अपनी वस्त्रहीन देह संभालते हुए वे बोले --

"मेरे अंतरंग कक्ष में किसीको आने की आज्ञा नहीं है, तुम कैसे चले आए और दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो ? क्या उस पर्दे के पीछे छिपे हो ?वे सकपका से गए । इस प्रकार किसी का वहाँ तक चले आना मंत्री जी व उनके आवास के लिए असुरक्षित व अनौचित्यपूर्ण था, वैसे भी मंत्री जी की दशा---!!

" क्षमा कीजिए महोदय! मैं आपको अपने साथ ले जाने आया हूँ। " आगंतुक विनम्र था किन्तु मंत्री जी के आवास-- वह भी स्नानगृह में घुस आना --- असुरक्षित व अशोभनीय भी था।

उनको कुछ भी सुझाई नहीं दे रहा था, वे अपनी देह सँभालने में व्यस्त हो गए थे। उनके अंतरंग कक्ष में किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित था ।

"तुम कैसे यहाँ आ पहुँचे ? " मंत्री जी संकोच व दुविधा में थे।

कितनी अदभुत बात है, मनुष्य यह जानता समझता है कि पाँच तत्वों से बनी यह देह नश्वर है, इसकी कोई कीमत नहीं। प्राणों के निकल जाने के पश्चात यह देह किसी के भी समक्ष अनावृत रहे, क्या अंतर पड़ता है किन्तु दूसरी ओर यह भी है कि इस भौतिक संसार की नींव यह देह ही है। अत: मंत्री जी अपनी अनावृत देह के प्रति अधिक सतर्क हो उठे थे, यह कौन होगा जो उन्हें इस अवस्था में ---- मंत्री जी टब में से निकलना चाहते थे परन्तु कैसे ? वे पशोपेश में थे ----!

"क्या तुम अब भी यहीं हो? पहले यहाँ से निकलो, मेरे कक्ष में चलकर प्रतीक्षा करो, मैं वहाँ मिलता हूँ। "मंत्री जी को कुछ न सूझा तो उन्होंने अदृश्य को आदेश दे डाला ।

इससे पूर्व कॉस्मॉस कई बार इस धरती पर चक्कर लगाकर गया था किन्तु अपने कार्य में असफल वह कभी धरती को एक अजूबा समझता, कभी अपने स्वामी द्वारा वर्णित कोई भयावना स्थल !कभी स्वामी के द्वारा दंडित होने के भय से केवल अपने कर्तव्य को पूर्ण करने के साधन खोजने में एक भयभीत मेमने की भाँति पृथ्वी के लोगों से छिपता-छिपाता घूम-फिरकर 'लौट के बुद्धू घर को आए 'वापिस स्वामी के समक्ष नतमस्तक हो जाता और स्वामी की अग्निमेय दृष्टि का सामना कर स्वयं को पुन: नकारा समझने लगता।

क्रमश..