Purnata ki chahat rahi adhuri - 4 in Hindi Love Stories by Lajpat Rai Garg books and stories PDF | पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 4

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पूर्णता की चाहत रही अधूरी - 4

पूर्णता की चाहत रही अधूरी

लाजपत राय गर्ग

चौथा अध्याय

नीलू का मेडिकल कॉलेज में एडमिशन होने के पश्चात् मीनाक्षी ने यह सोचकर कि मेरी तो ट्रांसफरेबल जॉब है, पता नहीं कब बोरी-बिस्तर बाँधने का ऑर्डर आ जाये, शुरू में ही नीलू को हॉस्टल में भेजना उचित समझा। अब घर में मौसी और वह दोनों ही रह गयी थीं। एक दिन शाम को जब मीनाक्षी घर आयी तो मौसी ने दोनों के लिये चाय बनायी और चाय पीते हुए उससे कहा - ‘मीनू, अब तो परमात्मा की कृपा से नीलू का दाख़िला भी हो गया है। तूने अपनी ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभा दी है। अब तो अपने लिये कोई अच्छा-सा लड़का देखकर शादी कर ले। अब और वक़्त निकालना ठीक नहीं।’

मीनाक्षी ने बात को हास-परिहास में टालने के लिहाज़ से कहा - ‘मौसी अगर तेरी बात मानकर मैंने विवाह कर लिया तो विवाह बाद अगर तेरे दामाद ने तुझे अपने साथ रखने से मना कर दिया तो एक बार फिर से तू अकेली हो जायेगी। नीलू तो अब हॉस्टल में ही रहेगी जब तक कि वह डॉक्टर नहीं बन जाती। फिर विवाह करके कहाँ चली जायेगी, कुछ कह नहीं सकते। कुछ भी हो जाये, दोनों भाइयों और भाभियों में से कोई भी तेरे पास आकर रहने वाला नहीं है। उनको तो अमरीकन लाइफ़ का जो चस्का लगा है, उसे अब वे छोड़ने वाले नहीं। और तू भी अन्तिम साँस अपनी मिट्टी में लेने की ज़िद्द किये बैठी है। इसलिये मेरे विवाह की बात तो भूल जा। अपन दोनों इसी तरह ज़िन्दगी गुज़ार लेंगे।’

मीनाक्षी द्वारा हल्के-फुल्के अन्दाज़ में कही गयी बात ने भी मौसी को उद्विग्न कर दिया। उसकी आँखें नम हो गयीं। मीनाक्षी से यह छिपा नहीं रहा, किन्तु उसने कुछ नहीं कहा। उसने मौसी को अपने कटु अनुभवों के साथ कुछ पलों के लिये जी लेने देना उचित समझा। मौसी एक-दो बार अपने बेटों के पास जाकर देख चुकी है कि वहाँ उसकी क्या औक़ात रह जाती है, वहाँ उसकी हैसियत नौकरानी से अधिक नहीं होती। यहाँ उसे घर की मुखिया का आदर-सत्कार मिलता है। अपने बेटों के परिवारों से लाख दर्ज़े बेहतर अपनापा महसूस करती है वह मीनाक्षी और नीलू के साथ रहकर। कुछ मिनट खामोश रहने के बाद मौसी ने कहा - ‘मीनू बेटे, तेरी बात सोलह आने सही है। मेरी तो बहुती गयी, थोड़ी रही। पता नहीं कब ऊपरवाले का बुलावा आ जाये, किन्तु तेरी तो ज़िन्दगी का सवाल है। तेरा अकेलापन मुझसे सहा नहीं जाता। क़ुदरत का नियम ही ऐसा है कि औरत और मर्द एक-दूसरे के बिना अधूरे ही रहते हैं। पहाड़-सी ज़िन्दगी अकेले गुज़ारना बड़ा मुश्किल होता है। इसलिये मेरी बात मान और शादी कर ले।’

‘मौसी, तू ख़ुश रहा कर। मम्मी-पापा के बाद तू ही हमारे लिये मम्मी-पापा दोनों हो। जैसा तू चाहती है, मैं कोशिश करूँगी कि वैसा ही हो। बाक़ी जैसा संयोग में है, होना वही है।’

.......

उस रात बिस्तर पर लेटे हुए मीनाक्षी करवटें बदल रही थी कि सर्विस के आरम्भिक दिनों की स्मृतियाँ ताज़ा हो आयीं। अवचेतन अवस्था से सचेत हो एक-एक घटना उसके सामने उपस्थित होने लगी जैसे जीवन की फ़िल्म को ‘रिवाइंड मोड़’ में डाल दिया हो।

उपायुक्त की अध्यक्षता में ज़िला अधिकारियों की मासिक मीटिंग चल रही थी। पहली बार आये एक युवा अधिकारी की उपस्थिति ने मीनाक्षी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। प्रथम दृष्ट्या मीनाक्षी उसके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित हुई। मीटिंग के दौरान उसके बातचीत के लहजे ने सोने पर सुहागे का काम किया। मीटिंग की समाप्ति पर मीनाक्षी ने उस अधिकारी जिसका नाम सन्तप्रकाश था, को आगे बढ़ कर ‘हैलो’ की और सरसरी परिचय को व्यक्तिगत पहचान में बदलने के उद्देश्य से उसे चाय का निमन्त्रण दिया। सन्तप्रकाश ने भी निमन्त्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर तो एक-दूसरे से मिलने का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि मीनाक्षी ऑफिस के कामों से फ़ारिग होकर या तो सन्तप्रकाश को अपने पास बुला लेती या उसके ऑफिस पहुँच जाती। उनके सम्बन्धों को लेकर अफ़सरों तथा कर्मचारियों की बातचीत में भी टीका-टिप्पणी होने लगी। इन सब बातों से बेपरवाह मीनाक्षी अपने अन्तर्मन में सन्तप्रकाश के साथ भावी जीवन के सुखद सपने बुनने और कल्पनाओं का संसार रचने में रमी रहने लगी। अन्ततः वह घड़ी भी आ गयी जब उसके सपनों का महल भरभरा कर ढह गया। हुआ यूँ कि एक दिन मीनाक्षी ने सन्तप्रकाश को रात्रिभोज के लिये एक होटल में आमन्त्रित किया। डाइनिंग हॉल में बहुत ही मद्धम रोशनी थी। मीनाक्षी ने एक कोने का टेबल चुना था। भोजनोपरान्त उसने सन्तप्रकाश को सम्बोधित करते हुए कहा - ‘सन्त जी, बहुत दिनों से मैं आपसे एक व्यक्तिगत बात शेयर करना चाहते हुए भी कर नहीं पायी। आज मैं वह बात, अपने दिल की बात आपके समक्ष रखना चाहती हूँ। इतने दिनों की अपनी दोस्ती को देखते हुए मुझे विश्वास है कि आप मेरी बात ज़रूर मान लेंगे।’

‘मीनाक्षी जी, ये पहेलियाँ छोड़ो। जो बात मन में है, बेझिझक कहो।’

‘सन्त जी,......’ मीनाक्षी थोड़ा रुकी, फिर कहा - ‘सन्त जी, मैं चाहती हूँ कि आप और मैं...... मेरा मतलब है कि हम दोनों विवाह करके सदा-सदा के लिये एक हो जायें।’

सन्तप्रकाश बहुत ही सन्तुलित व्यक्तित्व का धनी था। उसने बिना किसी तरह का आश्चर्य जताये सामान्य स्वर में कहा - ‘सॉरी मीनाक्षी जी। आपने कभी पूछा नहीं और ऐसा कभी मौक़ा आया नहीं कि मैं बता पाता कि मेरा विवाह हो चुका है। हमारा एक नन्हा-सा बेटा है।’

इतना सुनते ही मीनाक्षी को तो जैसे चार सौ चालीस वोलट का करंट लगा। उसकी इन्द्रियाँ एकदम सुन्न हो गयीं। वह स्पन्दनहीन पत्थर की बुत बनकर रह गयी। इस स्थिति की तो उसने कल्पना भी नहीं की थी। अतः प्रतिक्रिया स्वरूप आश्चर्य-मिश्रित स्वर में उसके मुख से इतना ही निकला - ‘क्या!......क्या मैंने ठीक सुना है कि आप विवाहित हैं?’

सन्तप्रकाश ने सहजता से कहा - ‘मीनाक्षी जी, आपने ठीक सुना है। मैं विवाहित ही नहीं, बल्कि मेरा एक बेटा भी है।’ और उसके हाथों पर हाथ रखकर कहा - ‘मुझे अफ़सोस है कि ग़लतफ़हमी के कारण आपकी भावनाओं को ठेस पहुँची।..... हम अच्छे दोस्त हैं और आगे भी रहेंगे।’

मीनाक्षी सोचने लगी कि नज़दीकियाँ और दूरियाँ केवल भौतिक ही नहीं होतीं, मानसिक भी होती हैं। कुछ पल पहले तक कितने पास थे हम, अब आपने-सामने बैठे हुए भी कितने दूर हो चुके हैं। उसने वेटर को बिल लाने के लिये कहा। वेटर के बिल लाने पर सन्तप्रकाश ने मीनाक्षी के हाथ से बिल लेते हुए कहा - ‘चाहे डिनर के लिये निमन्त्रण आपकी ओर से था, किन्तु आज बिल मुझे देने दो।’

मीनाक्षी में किसी भी तरह की बहस करने की क्षमता बाक़ी नहीं बची थी। अतः सन्तप्रकाश ने बिल अदा किया और वे बाहर आये तथा अपनी-अपनी कार की ओर बढ़ते हुए औपचारिक ‘गुड नाइट’ करके अपनी-अपनी राह हो लिये।

मीनाक्षी सोचने लगी कि घर आकर मैं सारी रात सो नहीं पायी थी। रात बीतने में ही नहीं आ रही थी, क्योंकि दु:ख की रात सर्दियों की रात से भी लम्बी होती है। इससे पहले किसी से प्यार नहीं हुआ था। यौवन से भरपूर वे दिन ऐसे ही थे जब उत्तप्त भावनाएँ मचल रही थीं। जैसे वसन्त के आगमन पर मन तरंगित हो उठता है, उसी तरह पहली नज़र में ही सन्तप्रकाश अच्छा लगने लगा था। आहिस्ता-आहिस्ता उसके प्रति मन में कोमल भावनाएँ जागृत होने लगीं, लेकिन मैंने उन भावनाओं को कभी शब्द नहीं दिये थे। उन भावनाओं को पंख तब लगे जब एक बार रेस्तराँ में बैठे हुए सन्तप्रकाश ने मेरी आँखों की तारीफ़ करते हुए कहा था - ‘मीनाक्षी जी, आपकी आँखें बहुत सुन्दर हैं।’ और मैंने उसके कथन से सहमत होते हुए कहा था कि शायद मेरे मम्मी-पापा ने इसी कारण मेरा नाम मीनाक्षी रखा था। लेकिन इससे अधिक उसने मेरी तारीफ़ में कभी कुछ नहीं कहा था और न ही कभी कोई ऐसा संकेत दिया था जिससे उसके मनोभाव प्रकट होते हों। फिर भी न जाने क्यों मैं उसके सपनों में खोई रहती थी। कभी होश ही नहीं आया कि उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछूँ। अच्छा हुआ कि सन्तप्रकाश एक नेक इंसान है; उसने कभी कोई अनुचित पहल नहीं की।

सन्तप्रकाश का मेरे जीवन में प्रवेश सुगन्धित बयार की भाँति था, जिसने अन्त:करण की गहराइयों तक शीतलता का अहसास करवा दिया था, लेकिन अन्त, हाँ अन्त ही कहना उचित होगा चाहे औपचारिक मित्रता बनी हुई है, जीवन में ऐसा सूनापन छोड़ गया जिसकी भरपाई असम्भव नहीं तो मुश्किल अवश्य है।

दुष्यन्त के साथ सम्बन्ध बनाने और प्रगाढ़ता तक ले जाने में मैंने कोई भूल नहीं की थी, बल्कि सोची-समझी रणनीति के तहत उसे अपने जीवन में प्रवेश करने दिया था। मुझे पता था कि उसका अपना परिवार है। इतना होते हुए भी मैंने उसे अपने जीवन-पथ का हमराही बनाने का कदम उठाया था तो केवल इसलिये कि मुझे पता चल गया था कि उसके अपनी पत्नी से सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। यह भी सुनने में आया था कि वे किसी समय भी तलाक़ लेकर अलग हो सकते हैं। इन्हीं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मैंने उसे मूक निमन्त्रण दिया था, क्योंकि उसने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा सहज व्यवहार से मेरे मन में अपने लिये जगह बना ली थी। एक बार मिलना-जुलना आरम्भ हुआ तो दिनोंदिन बढ़ता ही गया। सामाजिक दायरे और परिवार में खुसर-पुसर से मुखर टीका-टिप्पणी तक की नौबत आ गयी। घर में बात पहुँची तो पापा ने सीधे मेरे साथ बात न करके मम्मी को मुझे समझाने के लिये कहा। मम्मी ने मुझसे बात की। कहा कि तेरे पापा और मैं भी चाहते हैं कि तू किसी योग्य व्यक्ति के साथ जीवन में सैटल हो जाये, किन्तु जिस व्यक्ति के साथ आजकल तू मिलती-जुलती है, हमें पता चला है कि वह बाल-बच्चेदार है। मीनू बेटे, इस तरह के सम्बन्ध बहुत लम्बे नहीं चला करते। हमें डर है कि कहीं तेरे सपने चूर-चूर न हो जायें। जब मैंने कहा कि दुष्यन्त और उसकी पत्नी के सम्बन्धों में दरार आ चुकी है और वे बहुत जल्दी ही तलाक़ लेने वाले हैं तो मम्मी ने कहा था कि जो व्यक्ति अपनी पत्नी का नहीं हुआ जिसने उसकी सन्तान को जन्म दिया है, वह तेरा कैसे जीवनभर साथ निभायेगा। जब मैंने दुष्यन्त के गुणगान में क़सीदे पढ़े तो हथियार डालते हुए मम्मी ने कहा था कि मीनू अब तू अल्हड़ तो है नहीं, अपना भला-बुरा बख़ूबी समझती है। हमारा फ़र्ज़ था तुझे आगाह करना, बाक़ी तेरी मर्ज़ी। उसके बाद मम्मी-पापा ने दुष्यन्त को लेकर चुप्पी साध ली थी।

और फिर.......

क्रिसमस की छुट्टियों में हम यानी मैं और दुष्यन्त मनाली गये थे।

चार दिनों और तीन रातों का दुष्यन्त का निर्विघ्न साथ......

क्या कभी भूल पाऊँगी?

कदापि नहीं।

उस साल क्रिसमस शुक्रवार को था। शनिवार-रविवार की छुट्टी होती ही है। बुधवार को मैं दुष्यन्त से मिलने उसके ऑफिस गयी थी। बातों-ही-बातों में उसने पूछा था - ‘वीकेंड में क्या कर रही हो?’ मेरे ‘कुछ विशेष नहीं’ कहने पर उसने कहीं घूम आने की बात कही तो लगा था, जो मैं कहने के लिये असमंजस की स्थिति में थी, उसने उसे शब्द देकर न केवल मुझे असमंजस की स्थिति से उबार लिया था, बल्कि मेरे मन की मुराद भी पूरी कर दी थी। मैं भी चाहती थी कि परिचित परिवेश से दूर कहीं ऐसे एकान्त में हम कुछ समय बितायें जहाँ घूरती निगाहें हमारा पीछा न करती हों। मैंने झट से कहा था - ‘कल की छुट्टी ले लेते हैं और सुबह ही मनाली के लिये निकल लेते हैं। रविवार को वापस आ जायेंगे।’ उसने तुरन्त ‘तथास्तु’ कहकर मेरी योजना पर अपनी मोहर लगा दी थी। रात को फ़ोन पर पापा को बताया था कि इस बार छुट्टियों में घर नहीं आ पाऊँगी। पापा ने कारण जानना चाहा था तो सफ़ेद झूठ बोल दिया था, जिसके कारण मन में दु:ख भी हुआ था, कि मुझे डिपार्टमेंट ने इंटर स्टेट काउंसिल की नॉर्थ ज़ोन की मीटिंग के लिये नोमिनेट किया है, जो कि मनाली में होगी। पापा ने और कोई सवाल नहीं किया था।

पहले दिन शाम को हम मणिकर्ण पहुँचे थे। कुल्लू से पहले भुंतर एक गाँव है। वहाँ से नदी का पुल पार करके मणिकर्ण को रास्ता जाता है। भुंतर तक कल-कल, छल-छल करती व्यास नदी हमारे दायीं ओर थी। भुंतर में पार्वती नदी व्यास नदी में आकर मिल जाती है। भुंतर से ऊपर के सफ़र में पार्वती नदी घाटी में बायीं ओर बहती है। भुंतर से मणिकर्ण तक सड़क इतनी संकरी और सर्पिलाकार है कि एक साथ दो गाड़ियों का क्रॉस करना मुश्किल होता है। किसी एक गाड़ी को रिवर्स गियर में किसी खुले कोने तक जाना पड़ता है, तभी दूसरी गाड़ी निकल पाती है। नदी गहरी खाई में बह रही थी। जब भी मैं नीचे पानी की धार को देखने का प्रयास करने लगती तो मेरा सिर चकराने लगता। मैंने जब अपनी मन:स्थिति दुष्यन्त को बतायी तो उसने कहा था - ‘कार तो मैं चला रहा हूँ, तुम्हारा सिर क्यों चकरा रहा है? अच्छा ऐसे करो, तुम नीचे की ओर देखो ही मत। निगाहें सामने रखो।’

मणिकर्ण में पार्वती नदी के अनछुए अद्भुत सौंन्दर्य ने जहाँ मन मोह लिया था, वहीं समस्या आन खड़ी हुई थी कि रात कहाँ काटेंगे, क्योंकि मणिकर्ण तो बिना सोचे-विचारे ही पहुँच गये थे। दरअसल जब मण्डी शहर से थोड़ा आगे निकले थे तो दुष्यन्त ने मणिकर्ण देखने की बात चलायी थी। मुझे तो मणिकर्ण के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। कुछ नया और अनदेखा देखने की चाह के चलते मैंने तो बस उसकी हाँ में हाँ मिला दी थी। मणिकर्ण में छोटा-सा मन्दिर था। साथ लगते गुरुद्वारे में निर्माण-कार्य चल रहा था, फिर भी लंगर की व्यवस्था थी। होटल उन दिनों वहाँ कोई था नहीं। छोटे-से गाँव में अधिकतर झोंपड़ीनुमा घर थे। घूमते-घामते एक घर ऐसा दिखायी दिया, जिसमें रात कट सकने की उम्मीद जगी। किवाड़ की कुंडी खटखटाने पर एक अठारह-बीस साल की युवती ने दरवाजा खोला। उसकी वेशभूषा से लगता था जैसे वह सद्य-ब्याहता हो। अन्दर से खाँसने की आवाज़ के साथ प्रश्न हुआ - ‘कौन है बहू?’ युवती ने कहा - ‘माँ जी, दो अजनबी हैं।’ फिर अन्दर से सवाल आया - ‘क्या चाहते हैं?’ हमारे बताने पर कि हमें रात काटने के लिये जगह चाहिये, युवती हमें वहीं खड़ा छोड़ कर अन्दर गयी। कुछ क्षणों बाद उसके साथ बुढ़िया लाठी के सहारे चलती हुई आयी और हमें ऊपर से नीचे तक देखकर बोली - ‘जगह तो मिल जायेगी बाबू, क्योंकि आज मेरा बेटा यहाँ नहीं है, किन्तु हमारे पास तुम्हारे लिये रज़ाई तो नहीं है।’ हमने राहत की साँस ली। चलो, रात के लिये ठिकाना तो मिला। दुष्यन्त ने कहा - ‘अम्मा, उसकी चिंता नहीं; हमारे पास अपनी रज़ाई है। हमें तो बस जगह ही चाहिए थी।’ घर में अस्थायी विभाजन करके दो कक्ष बनाये हुए थे। युवती हमें अपने कक्ष में ले गयी। उसने अपनी रज़ाई उठायी और दूसरे कक्ष की ओर जाते हुए फ़र्श पर बिछी हुई बोरियों की ओर संकेत कर बोली - ‘यहीं सोना पड़ेगा। नीचे ज़मीन गर्म है।’ ठंड इतनी थी कि हवा चेहरे पर सुइयाँ चुभो रही थी, दाँत किटकिटा रहे थे। मैं तो दाँत से दाँत दबाकर अपनी कँपकँपी रोकने का यत्न कर रही थी। मरता क्या न करता। कोई विकल्प नहीं था। मैं नीचे बैठने लगी तो दुष्यन्त ने कहा - ‘मैडम, अभी मत बैठो। कार में से सामान भी लाना है।’ युवती ने यह सुनते ही अपनी रज़ाई फ़र्श पर रखी और बोली - ‘बाबू जी, बीबी जी को बैठने दो, उसे ठंड लग रही है। मैं चलती हूँ आपके साथ सामान लाने के लिये।’ मैंने मन-ही-मन उसका आभार माना। अभी तक मैं खड़ी थी। उनके जाते ही मैं बोरियों पर बैठ गयी। बैठते ही नीचे से गर्मी का अहसास हुआ और शरीर में गर्मी का संचार होने से कँपकँपी भी रुक गयी। दस-एक मिनटों में सामान रखवा कर युवती अपनी रज़ाई उठा कर दूसरे कक्ष में चली गयी और हम कपड़े बदलकर तथा ब्लैंकेट खोलकर लेट गये। दिन भर की थकावट और दो जिस्मों की नज़दीकियों से पैदा हुई गर्मी के कारण शीघ्र ही पलकें मुँदने लगीं और हम नींद में गोता लगा गये।

सुबह युवती की आवाज़ - ‘बाबू जी, चाय बना दूँ?’ सुनकर नींद खुली थी। ‘बिस्तर’ छोड़ कर उठे थे हम। बाहर आने पर जो नज़ारा देखा तो देखते ही रह गये थे। एक तरफ़ बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों पर सूर्य का प्रकाश पड़ रहा था जिससे बर्फ़ की सतह सोने की भाँति चमक रही थी तो दूसरी ओर पहाड़ों से नीचे की ओर तीव्र वेग से बहती पार्वती नदी से भाप के बवंडर उठकर कोहरे में तब्दील हो रहे थे। दूर से ऊपर से नीचे की ओर गिरता पानी ऐसे लग रहा था जैसे दूध की धार बह रही हो। शायद इसीलिये यहाँ पार्वती नदी को ‘क्षीर गंगा’ की संज्ञा दी जाती है। अम्मा के सुझाने पर स्नान मन्दिर परिसर में बने गर्म पानी के कुंड में किया था। भाप उठते गर्म पानी में स्नान करने से शरीर तरोताज़ा हो गया था। स्नानोपरान्त भगवान शिव की आराधना करके कुछ देर तक प्राकृतिक दृश्यों के सौन्दर्य को आत्मसात् करते रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था जैसे प्रकृति ने सौन्दर्य का ख़ज़ाना चहुँओर दिल खोलकर बिखरा रखा हो। मैं तो इतना प्राकृतिक सौन्दर्य देखकर नि:शब्द हो गयी थी। मुँह से केवल एक शब्द निकला था - ‘वाह!’ तिस पर दुष्यन्त ने कहा था - ‘मुझे यह सौन्दर्य इसलिये और भी मनमोहक लग रहा है, क्योंकि तुम मेरे साथ हो।’ यह सुनते ही मैंने उसे बाँहों में घेर लिया था। तत्पश्चात् अम्मा और उसकी बहू का दिल से धन्यवाद करके मणिकर्ण को अलविदा कहा था तथा पहाड़ों की सरताज मनाली के लिये प्रस्थान किया था।

मनाली में होटलों की कमी न थी। स्वतंत्रता से पहले बनी एक इमारत को परिवर्तित कर बनाये गये होटल को ठहरने के लिये पसन्द किया था। यूरोपियन वास्तुशिल्प तथा लकड़ी के अत्यधिक इस्तेमाल होने की वजह से होटल की अलग-सी पहचान थी। कमरा बहुत खुला था। एक दीवार के साथ बने फायरप्लेस में रात के समय लकड़ियों के अलाव ने जहाँ ठंड को दूर रखा, वहीं वातावरण को रोमांटिक बना दिया था। सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की से पर्दे हटाये तो बाहर के दृश्य ने मन मोह लिया था। खिड़की से ही रोशनी से भरे और दमकते चाँद को देखा था। धवल चाँदनी के फैलाव के नीचे पहाड़ी ढलानों पर बने बर्फ़ से ढके मनाली के घर और व्यावसायिक ठिकाने अपने अस्तित्व की झलक मात्र दिखा पा रहे थे। जाड़े की वजह से मनाली सिमटा पड़ा था। यही हाल वृक्षों का था। कोई इक्का-दुक्का टहनी ही बर्फ़ की चादर के बाहर दिखायी पड़ती थी। चाहे मनाली में चहुँओर बर्फ़ की चादर बिछी हुई थी, फिर भी क्रिसमस की छुट्टियों के कारण पर्यटकों की भरमार थी। दिन के समय सभी सैलानी रुक-रुक कर हो रहे स्नोफॉल का भरपूर आनन्द उठा रहे थे। ज़िन्दगी में पहली बार स्नोफॉल देखने का अवसर मिला था, सो इसका आनन्द उठाने और मस्ती करने में हमने भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी। सोलंग नाला होते हुए रोहतांग जाने वाली सड़क के किनारे मनाली से लगभग चार किलोमीटर दूर स्थित ‘वशिष्ठ कुंड’ में गर्म पानी के कुंड के साथ महर्षि वशिष्ठ जी का मन्दिर है तथा उसी परिसर में हिमाचल सरकार के पर्यटन विभाग द्वारा बनाये गये स्नानागार हैं। चाहे मणिकर्ण में गर्म पानी के कुंड में स्नान का आनन्द ले चुके थे, किन्तु यहाँ के स्नानागार में प्राकृतिक गर्म पानी से एक साथ शावर लेने का आनन्द क्या भूले से भी भुलाया जा सकता है? शायद नहीं। स्नोफॉल तथा वशिष्ठ कुंड में बिताये समय को छोड़कर दो दिनों का अधिकांश हिस्सा होटल में ही बीता था। प्यार की गर्मी से रगों में तितलियाँ मँडराने लगी थीं। ऐसे में शून्य डिग्री पर पहुँचे बाह्य तापमान का अहसास तक नहीं हुआ था। उन क्षणों में मिल गये थे हम दोनों कुछ इस तरह, मिल कर होती हैं दो लहरें एक जिस तरह। मन में उठी, बसी उस लहर ने अहसास करवा दिया था कि समुद्र हो जाना कोई बहुत कठिन नहीं। रजनीगंधा की गंध-से दुष्यन्त के संसर्ग में शर्मो-हया के सब बन्धन टूट गये थे। एकान्त में बिताये प्रेम-रस से सराबोर वे आह्लादित पल, एक-दूसरे के रोम-रोम से परिचित होने का वह समय हनीमून नहीं था तो क्या था? अन्तर केवल इतना ही था कि सामाजिक मान्यता-प्राप्त विवाह का बन्धन हमारे बीच नहीं था। सामाजिक नैतिकता के मापदण्डों को नज़रअंदाज़ कर दें तो आत्मीय स्तर पर हम पूर्णतः एक-दूसरे के प्रेम-बन्धन में बँध चुके थे। एक अनाम आत्मीयता का रिश्ता हमारे बीच क़ायम हो चुका था। मनाली से लौटने के बहुत दिनों बाद तक जब भी हम मिलते तो अक्सर वहाँ बिताये उन आनन्ददायक पलों की स्मृतियाँ किसी-न-किसी रूप में बातचीत का हिस्सा बन जातीं और ख़्यालों में वे पल सजीव हो उठते थे।

और फिर आया वह दिन.......!

मनुष्य को सबसे बुद्धिमान प्राणी माना जाता है। फिर भी जीवन में बार-बार धोखा खाते देखा जाता है। मैं भी एक मनुष्य हूँ। नियति को मेरी ख़ुशियाँ स्वीकार न थीं। एक बार फिर मैं धोखा खा गयी।

शाम का समय था। कुछ मिनट पहले ही ऑफिस से आकर चाय पीने लगी थी कि फ़ोन बज उठा। चाय का कप टेबल पर रखकर कॉर्डलैस उठाया। फ़ोन दुष्यन्त का था। उसकी आवाज़ में आम दिनों की भाँति खनक नहीं थी बल्कि अफ़सोसजनक टोन में उसने जो बताया, उसे सुनते ही मैं तो सन्न रह गयी थी। कहाँ तो पिछले कुछ समय से ख़ुशियों के अतिरेक में मेरे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे, सारा-सारा दिन सुनहरी भविष्य के कल्पनालोक में विचरा करती थी, वहीं फ़ोन सुनते ही एकाएक धड़ाम से खुरदरी धरा पर आन पड़ी थी। मेरी सारी ख़ुशियाँ उदासी के कफ़न में दफ़्न हो गयी थीं। दुष्यन्त ने बताया था कि फ़ैमिली कोर्ट में चल रहे तलाक़ के केस में मीडिएशन के दौरान उसकी पत्नी ने अपना केस वापस लेने की स्वीकृति दे दी थी और साथ ही मुझे आश्वस्त करवाने की कोशिश करते हुए उसने कहा था कि मुझे ‘पैनिकी’ होने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि इससे हमारे सम्बन्धों पर कोई विशेष आँच नहीं आयेगी, किन्तु मैंने मन कड़ा करके उसी समय दुष्यन्त को कह दिया था कि अब उसे मुझको भूलना होगा।

अब सोचती हूँ तो लगता है कि वह कहावत - परमात्मा जो करता है, अच्छा ही करता है - बिल्कुल सत्य है। कई बार क्षणिक तौर पर हमें लगता है कि हमारे साथ जो घटा, वह नहीं घटना चाहिए था। हमें उस अप्रिय घटना से कष्ट होता है। अपने कष्ट के दबाव में हम परमात्मा की न्याय-व्यवस्था तक पर प्रश्नचिन्ह लगाने से भी नहीं संकोच करते। कालान्तर में हमें अहसास होता है कि जो हुआ था, उसका होना ही ठीक था। दुष्यन्त की फ़ोन कॉल सुनकर एकबारगी मुझे बहुत बड़ा आघात लगा था। मेरी सारी योजना पर पानी फिर गया था, किन्तु आज सोचती हूँ तो लगता है कि मैं एक बसी-बसायी गृहस्थी को तोड़ने के कलंक से बच गयी थी। औरत ही औरत की दुश्मन होती है, का ठप्पा भी मुझ पर नहीं लग पाया था। दुष्यन्त की पत्नी तथा उसके परिवार की आह लगने से भी मैं बच गयी थी। यह भी कोई कम सांत्वना नहीं थी।

दुष्यन्त की ओर से हताश होने के बाद, मुर्दा सपनों को सीने से निष्कासित कर निश्चय किया था कि जीवन में कुछ भी करूँगी, लेकिन किसी से प्रेम पाने की उम्मीद नहीं करूँगी। अपने उस निश्चय पर आज तक क़ायम हूँ। अब मौसी जो रोज़ विवाह की बात लेकर बैठ जाती है, क्या इतने सालों बाद मेरे अन्तर्मन में कोई स्रोत बचा हुआ हो सकता है कि उस तरह की भावनाएँ फिर से जागृत हो सकें! लगता नहीं कि ऐसा हो सकता है!

इसी तरह के चिंतन-मनन में मीनाक्षी को कब नींद ने आ घेरा, उसे पता भी नहीं चला।

क्रमश..