पूर्व कथा जानने के लिए पढ़ें प्रथम अध्याय।
दूसरा अध्याय---
आरती दिन भर तो घर के कार्यों में व्यस्त रहती, जब रात को कमरे में आती तो ऐसा प्रतीत होता कि किसी अजनबी व्यक्ति के साथ रात गुजारने जा रही है।मुँह फेेरकर सोए विक्रम को देखकर बेहद झुंंझलाहट आती।कभी हाल-चाल पूछने की जहमत भी नहीं उठाता।अक्सर हृदय चीत्कार कर उठता कि क्या वह इस घर मेंं केवल सेविका बन कर आई है, क्या सारे कर्तव्य सिर्फ उसके लिए ही हैंं,क्या सिर्फ खाना-कपड़ा देेकर एक पति का कर्तव्य पूर्ण हो जाता है, क्या सिर्फ मांग में सिंदूर भर देने से एक स्त्री पूर्ण ब्याहता हो जाती है?जब मन प्रेम का भूखा हो तो शारीरिक प्रेम पत्नी के लिए भी शोषण समान प्रतीत होता है।किससे कहती मन की पीड़ा जब जीवनसाथी ही उसके दुख का मुख्य् कारण था।
जििंदगी की गाड़ी खिसकती रही।दो वर्ष बाद बेटी, फिर तीन साल बाद बेटे की मां बनकर वह उनके पालन पोषण में व्यस्त हो गई।इस मध्य विक्रम जी की सिंचाई विभाग में नोकरी लग गई एवं आगरा में पोस्टिंग हो गई।आरती भी साथ जाना चाहती थी, कििंतु जिम्मेदारियों के नाम पर उसे वहीं छोड़कर विक्रम आगरा चले गए, साथ में देवर राहुल भी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए चला गया।यथा समय नन्द का विवाह भी सम्पन्न हो गया।
शिक्षा पूर्ण करने के बाद राहुल दिल्ली जॉब करने चला गया।रश्मि देवर के साथ उसी के ऑफिस में कार्यरत थी,वेे दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगेे।सजातीय होने के कारण दोनों परिवारों ने प्रसन्नता से उनका विवाह संपन्न कर दिया।उन्होंने दिल्ली में ही एक फ्लैट बुक कर अपनी सुुंदर,सुखद गृहस्थी बसा ली।
देखते देखते 10-11 वर्ष व्यतीत हो गए।बच्चे बड़े होने लगे थे।देवर, नन्द अपने जीवन में व्यवस्थित हो गए थे।अब पुनः आरती ने साथ चलने का प्रयास किया, किन्तु विक्रम ने हमेशा की तरह मना कर दिया।हर शनिवार को आते एवं सोमवार की सुबह वापस लौट जााते।अब आरती समझ चुकी थी कि विक्रम उसे साथ रखना ही नहीं चाहता।
नन्द, देवर, देवरानी सभी ने उसे भरपूर प्यार, सम्मान प्रदान किया था, परन्तु जब पति ही अपने ह्रदय में स्थान न दे तो जीवन से उमंग समाप्त हो जाता है। दर्पण के समक्ष खड़े होकर जब वह स्वयं को निहारती तो आँखों में सूनापन साफ नजर आता था।सजने सँवरने की इच्छा ही समाप्त हो गई थी, किसके लिए करे।पिछले कई सालों से तो विक्रम करवाचौथ पर भी नहीं आए थे, होली- दिवाली पर तो उम्मीद करना ही बेकार था।अब तो उसने कारण पूूछना भी बंद कर दिया था।उसकी किस्मत में ये सुख शायद थे ही नहीं, था तो सिर्फ एक अन्तहीन इंतजार,अकेलापन, उदासी, जिन्हें अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था।
अब धीरे धीरे विक्रम का आना और कम होने लगा था, पन्द्रह दिन महीनों में बदल गए थे।आने पर पति धर्म की औपचारिकता पूरी कर देते।हां,औपचारिकता ही तो थी। आरती को अब इससे भी घृणा होंने लगी थी,जब प्यार ही नहीं तो इस कृत्य की क्या आवश्यकता है।कभी कभी तो उसे स्वयं पर ही बेहद क्रोध आता कि वह समर्पण कर ही क्यों देती है।शायद इसका कारण यही था कि मन में एक उम्मीद बाकी थी कि एक न एक दिन तो विक्रम घर लौट ही आएगा, उसका न सही,बच्चों का प्यार तो खींच ही लाएगा।काश!उसे ज्ञात होता कि यह उसका मात्र दिवास्वप्न बनकर रह जाएगा, वह कभी नहीं लौटेगा क्योंकि उसने तो वहां घर ही दूसरा बसा लििया है।
कभी कभी सास का ताना उसके हृदय को छलनी कर देता कि यह पत्नी की कमी है जो अपने पति को बांध न सके। किितने अफसोस की बात है कि एक स्त्री दूसरे स्त्री की पीड़ा समझना ही नहीं चाहती, सहानुभूति व्यक्त करना तो दूर की बात है।परन्तु इस समय वे एक बेटे की मां थीं जिन्हें समस्त त्रुटियां अपनी बहू में ही नजर आती हैं।यदि बेटी की मां होतीं, और यही कृत्य उनके दामाद ने किया होता तो बेेटी की तकलीफ अच्छी तरह से समझ में आती।
वाह रे समाज!पुरूष भटके तो पत्नी की कमी और यदि औरत भटके तो वह कुलक्षणी।
खैर, आरती ने विक्रम की अवहेलना को स्वीकार कर बच्चों के लिए जीना सीख लिया था।यह तो ग़नीमत थी कि विक्रम खर्च देने में कमी या अनाकानी नहीं कर रहे थे।पैसे की कमी थी भी नहीं।सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता के पास ऊपरी आमदनी के पर्याप्त साधन उपलब्ध होते हैं।कभी सूखा, तो कभी बाढ़।सहायता राशि का अधिकांश भाग तो विभागों में ऊपर से लेकर नीचे तक सभी मिलकर बांट खा लेते हैं।पीड़ितों को तो बस सांत्वना राशि प्राप्त होती है,जो नगण्य होता है।
जीवन के पथ कितने ही पथरीले क्यों न हो चलना तो पड़ता ही है, रुकना तो सांसों के थम जाने पर ही होता है।
बच्चे इतने भी बड़े नहीं थे कि पिता के कम आने का कारण समझ सकें।वे अन्य बच्चों को अपने पिता के साथ घूमते देखते, माता-पिता दोनों को पेरेंट्स-टीचर मीटिंग में साथ जाते देखते तो आरती से सवाल करते, वह क्या जबाब देती जब कारण वह स्वयं नहीं जानती थी।पहले तो देवर बहुत कुछ सम्भाल लेते थे, परन्तु अब वे भी दो बच्चों के पिता बन चुके थे, उनकी जिम्मेदारी एवं व्यस्तता बढ़ गई थी।कितना अंतर था दोनों भाइयों में।देवर एक अत्यंत स्नेही पिता, जिम्मेदार एवं प्रेमी पति साबित हुए।वे अपने परिवार की हर छोटी बड़ी बात का पूरा ध्यान रखते थे।
पिछले एक वर्ष में तो मात्र चार बार आए थे विक्रम एवं माता ,पिता-बच्चों का कुशल क्षेम पूछकर मेहमान की तरह वापस लौट गए थे।मन चीखकर कहना चाहता था कि फोन से समाचार तो मिल ही जाते हैं,पैसे अकाउंट में ट्रांसफर हो ही जाते हैं, फिर इस 4-6 घण्टे की औपचारिकता की भी क्या आवश्यकता।अब आरती के मन से भी प्रेम धारा सूखने लगी थी।हालांकि अभी भी कहीं न कहीं एक नन्हीं सी उम्मीद की किरण बाकी थी कि उम्र ढलने पर शायद मेरी अहमियत समझ विक्रम वापस लौट आएं।आशाएँ जीने के लिए बहुत बड़ा सहारा होती हैं, यदि ये समाप्त हो जाएं तो जिंदगी गुजरना अति दुष्कर हो जाएगा।
क्रमशः .......
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