Kesaria Balam - 5 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | केसरिया बालम - 5

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केसरिया बालम - 5

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

5

पुनरारोपण

अमेरिका, न्यूजर्सी के एडीसन शहर ने दिल खोलकर स्वागत किया उसका।

इमीग्रेशन काउंटर से लेकर घर के दरवाजे तक। लैंड होने के बाद अमेरिका में कदम रखने से पहले एक कड़ी परीक्षा थी। पहले तो वह सकपका गयी थी क्योंकि ऑफिसर ने सवाल ही कुछ ऐसे पूछे और शंकास्पद नज़रों से देखते हुए अंदर आने को कहा। लेकिन बाली की बतायी बातें याद आ गयीं कि “यहाँ कई लोग नकली शादियाँ करके आ जाते हैं। कानूनी रूप से रहने के लिये, शादी का नाटक करके कागजात बनवाना उनका एक तरह से धंधा बन गया है। हो सकता है कि वे हमारे ऊपर भी संदेह करें, सवाल करें।”

उन्होंने दोनों को अलग-अलग ले जाकर ऐसे अंतरंग सवाल किए जो सिर्फ एक दूसरे के साथ समय बिताने वाले ही जान सकते हैं। धानी की आँखों की चमक ऑफिसर से छुपी न होगी तभी तो दो-चार सवाल पूछकर वापस भेज दिया था उसे, यह कहकर कि “अमेरिका में आपका हार्दिक स्वागत है। आपकी नयी जिंदगी के लिये शुभकामनाएँ!”

धानी को खुशी-खुशी बाहर आते देख बाली ने राहत की साँस ली थी।

जल्दी ही नयी जमीन पर उसकी अपनी जड़ें जमने लगीं। नयी दुनिया में नयी जिंदगी के नये अनुभवों को सहर्ष स्वीकार कर रही थी धानी। बाली के साथ होने से कुछ भी मुश्किल नहीं था उसके लिये। ये दिन-रात ऐसे थे जैसे दुनिया में अकेले दो ही प्राणी हैं बस धानी और बाली, बाली और धानी। दोनों को बाहर की कोई खोज खबर ही न रहती। काम पर देर से जाता बाली और जल्दी ही लौट आता। एक दूसरे की बाँहों में समय जैसे उड़ने लगता।

“मैं सुबह जाऊँगा तो शाम तक नहीं आऊँगा।” बाली चेतावनी देता। धानी को अपने बाहुपाश से अलग करते हुए दिल छोटा होने लगता।

“मैं जन्मों तक प्रतीक्षा कर सकती हूँ, सुबह-शाम तो कुछ नहीं।” बाली की आँखों में झाँककर देखती तो वह सिर हिला देता।

“पागल लड़की, सचमुच पागल।”

“पागल करने वाले तो तुम्हीं हो, मेरा क्या दोष! तुम्हारे ही लिये तो हूँ पागल।”

“अब सुन लो ध्यान से। यहाँ ऐसे नहीं चलेगा। अब राजस्थान की धरती पर नहीं हो तुम। इस धरती पर हर एक को अपने रास्ते खुद बनाने पड़ते हैं।”

“मैं तो वहाँ भी अपने रास्ते खुद बनाती थी। तुम्हारे आने के बाद हमारा रास्ता एक हुआ है वरना मैं तो अकेली ही अपने रास्तों पर चल रही थी।”

“देख लो कहीं....”

“कहीं-वहीं कुछ नहीं।”

और वह बाली को चुप करने के लिये अपने नर्म हाथों की हथेलियों से उसका मुँह ढँक देती। बाली के होठों को वह स्पर्श ऐसा लगता कि वह डूबने लगता उन नशीली आँखों के सागर में। गर्माहट और नर्माहट के स्पर्शों की एक नयी नदी प्रवाहित होती। सागर से बाहर निकलती, चुलबुली, नटखट। कभी इधर, कभी उधर डोलती-ढुलकती अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ती जाती।

अगले दिन फिर सुबह होती। बाली चला जाता काम पर। धानी को यूँ लगता जैसे बाली के घर में न रहने पर दीवारें खामोश हो जाती हैं। जब वह होता है तब सब कुछ जीवंत हो उठता है। घर की हर चीज मुस्कुराने लगती है। आइना इतना चमकता है कि दोनों की छाया उनके साथ मिलकर उन दोनों को एकाकार कर देती। घड़ी के काँटे चलते रहते पर समय देखने की जरूरत ही नहीं होती। धूप दीवारों से उतरती हुई कमरों के भीतर चली आती।

हाँ, जब वह बाली को बिदा कर रही होती तब दीवार घड़ी शांत होने लगती। उसके दरवाजा खोलने के साथ ही ठंडी हवा का झोंका अंदर चला आता और बाली उसी वेग से कमरे से बाहर निकल जाता। वह यंत्रवत सड़क पर गाड़ी को जाते हुए देखती रहती। और कुछ क्षणों बाद जब वह वापस कमरे में आती तब तक घर, घर नहीं सिर्फ चहारदीवारी का घेरा बन कर रह जाता। दीवार घड़ी के काँटे इतनी धीमी गति से चलते कि अपने स्थान पर स्थिर लगने लगते। बाली के जाने के साथ सब कुछ बदल जाता। सिर्फ दीवार घड़ी और कमरा ही नहीं, खुद भी।

तब वह माँसा-बाबासा से बातें करती। उन्हें हर चीज दिखाती अपने इस नये घर की। एक तरह से सैर करा देती चार बेड रूम के अपने घर की। वे भी बहुत खुश होते। बाबासा सोचते अगर अमेरिका इतनी दूर न होकर यहीं कहीं पास में होता, राजस्थान में ही होता तो अब तक बिटिया के घर के कई चक्कर लगा देते वे। कभी खाने-खिलाने के लिये ये चीज लेकर जाते तो कभी वो। इतनी दूर है ससुरा अमेरिका कि मन मसोस कर ही रह जाते। यह तो लाडो का अपना भाग्य था कि अमेरिका में जाकर अपना घर बसाए।

इन दूरियों से रिश्तों की नजदीकियाँ और अधिक महसूस होतीं। दिन भर के सारे हालचाल सुनाने के बाद धानी वहाँ के हालचाल पूछती, अपना पूरा ध्यान रखने को कहती। फिर कजरी और सलोनी को फोन करती, कभी बात हो पाती, कभी नहीं। घर के झमेलों में उलझी वे दोनों कुछ पलों के लिये ही सही, बात करके बहुत खुश होतीं। अब तो अगले महीने कजरी की शादी होने वाली है पर वह जा नहीं पाएगी।

“तुम्हारे बगैर मैं कैसे शादी करूँगी, धानी”

“मेरी मिट्ठी, अब मेरी जरूरत ही कहाँ रहेगी तुझे, पर सच मैं बहुत मिस करूँगी तुम सबको।”

“फोन करती रहना, धानी”

“हाँ, बिल्कुल। मेरे बारे में सब कुछ बता देना जीजू को। फिर मैं बात करूँगी उनसे।”

वे कुँवारे सपने जो उन तीनों ने साथ मिलकर देखे थे, उन्हीं सपनों का साकार रूप कई प्रश्न खड़े करता, कई जिज्ञासाएँ होतीं। कभी एक दूसरे से पूछ पातीं, कभी नहीं। जब भी पूछने की कोशिश होती तो उन सबके उत्तर अपने-अपने, अलग-अलग होते। सही भी तो था, प्रेम का अहसास राजा-रंक, ऋषि-मुनि, स्त्री-पुरुष या फिर यूँ कहें कि हर प्राणी के लिये अलग होता है। तभी तो इस शब्द की अनगिनत अनुभूतियाँ हैं। किसी एक के भाव में दूसरा नहीं बह सकता। उसे अपना बहाव खुद ही पहचानना होता है।

सबके फोन से निपटने के बाद दिन-भर का एकाकीपन सहने के बजाय वह बाहर निकल जाती। यह देखने-जानने कि इस दुनिया में उसके लिये क्या कुछ है। अपने लिये कुछ तलाशती। निगाहें वहाँ की जीवन शैली से रूबरू होतीं। जानती थी कि यहाँ घर में अकेले तो रहना नहीं है उसे, अपने लिये काम खोजना है। ऐसा काम जो उसे पसंद हो। ऑफिस में बैठकर कम्प्यूटर से उलझने का काम उसे कतई पसंद नहीं था। ऐसा काम अपने लिये ढूँढ रही थी जहाँ रोज़ कुछ नया हो। जहाँ उसकी अपनी रुचि की ऐसी चुनौतियाँ हों जो कुछ नया करने के लिये उकसाती रहें।

खोजती रहती अपनी उड़ान के लिये ऐसे पंख जो उड़ने की खुशी भी दे और आकाश में अपनी जगह भी बनाए। जो अपने क्षितिज को तलाशें। कई दिनों की इस तलाश के बाद पहले वेब पर और उसके बाद उस लोकेशन पर पहुँच कर देखा। आखिर वह बिन्दु मिल ही गया जिसकी खोज चल रही थी। “स्वीटस्पॉट” बेकरी का बड़ा-सा बोर्ड, जहाँ मुख्य बेकर की पोस्ट के लिये ‘हेल्प वांटेड’ की तख्ती टँगी थी।

कोशिश करने में क्या हर्ज है। यह उसकी पसंद का काम है। बेकरी का कोर्स किया हुआ है और एक समय ऐसा भी था जब वह बाबासा के साथ इसका बड़ा स्टोर खोलने के बारे में सोच रही थी। जब तक बात आगे बढ़ती तब तक बाली आ गया उसके जीवन में और सब कुछ योजनाओं में ही रह गया। शायद यह सही समय है अपनी उस योजना पर काम करने का।

आज जब बाली आएगा तो उसके पास कुछ है उसे बताने के लिये।

कुछ खास जो कभी उसका सपना रहा है।

यहाँ से शुरूआत कर सकती है वह।

बाली को कोई आपत्ति नहीं थी। हाँ, एक बात जरूर कही थी कि – “हाँ, हाँ, क्यों नहीं। लेकिन पहले जाकर देखो, वहाँ का माहौल कैसा है, छोटी सी बेकरी है या बहुत बड़ी है। सब पड़ताल कर लो उसके बाद अप्लाय कर देना।”

“ठीक है, तो फिर मैं उनसे समय ले लूँगी, सब कुछ देखकर फिर आवेदन करूँगी।”

“तुम जो चाहो सब कर लो- जब तक कि हमारी नन्हीं-मुन्नी न आ जाए।”

उसकी वे निगाहें आँखों से उतर कर अंदर तक चली गयी थीं, वहाँ जहाँ तक और किसी की पहुँच नहीं थी, खुद धानी की भी नहीं। धानी को लगने लगा कि महसूस करने भर के लिये यह देह उसकी है पर उसमें खुशी, नाराजगी, दर्द, अहसास और इतने सारे खानाबदोश भाव जो आते-जाते रहते हैं, शायद बाली भरता है। बाली ने उसके मन और देह पर इतना अधिकार कैसे पा लिया। नहीं, ऐसा नहीं है। उसने भी तो बाली के मन को तार-तार करके अपने हिसाब से गूँथ लिया है। प्रेम को यदि सरल सा आकार भी देना हो तो वह प्रेम की गहराई वाला अक्ष है और बाली प्रेम की ऊँचाई का। उसे खुद पर हैरत होती है कि जिस प्रेम को वह शब्द नहीं दे पा रही थी, अब बाली और वह स्वयं, उसे आकार देने के बारे में सोचने लगे हैं।

सही तो कहता है बाली। बच्चा हो तो सारा दिन किलकारियों में निकल जाता है। कितने प्यारे लगते हैं बच्चे। सारे दिन मस्ती करते रहो। कपड़े भी खराब कर देते हैं तो बुरा नहीं लगता। पर छोटे रहते हैं तभी तक अच्छे रहते हैं। बड़े होते ही दोस्तों से, घूमने से, पढ़ने लिखने से फुरसत नहीं मिलती। उसे कहाँ अब माँसा-बाबासा की इतनी याद आती है। वैसे वह उन्हें भूल ही कब पाती है! वे तो उसी के भीतर बसे हुए हैं। चाहे समीप हों, न हों, उनके कहे शब्द घड़ी के टकोरों की तरह गूँजते रहते हैं।

“किसी को प्यार करो तो इतना करो कि कभी उसकी किसी बात को मन पर मत लाओ” वहाँ से चलते समय माँसा ने कहा था। उनके और बाबासा के जीवन का सार था। पूरा समर्पण एक दूसरे के लिये। पूरा सहारा एक दूसरे के कंधों का। एक ही गाँव के रहने वाले दो लोगों ने अपनी एक दुनिया बनायी थी जिसमें धानी बेटी की खिलखिलाती हँसी के खजाने ने अपनी जगह बनाकर दोनों को धन्य कर दिया था। भोले-भाले मेहनती लोगों की एक छोटी सी दुनिया में तीन लोग, तीनों एक दूसरे का खूब ध्यान रखते। साथ-साथ खाना-पीना-खेलना। स्कूल जाती रही, पढ़ाई के साथ वह सब किया जो माँसा-बाबासा को खुश करता। उनके होंठों की हँसी उसकी चंचलता को बढ़ा देती थी।

बचपन, समय के हर टुकड़े के साथ, वैसा का वैसा भीतर तक कैद था। ममता के सागर में लगायी गयी वे डुबकियाँ उसके अंदर भी स्नेह और प्यार का अपार भंडार छोड़ गयी थीं।

इस नये देश के, नये शहर के, नये रास्तों के रोड़ों से टकराती तो सही पर वे मुश्किलें महसूस नहीं होतीं क्योंकि बाली साथ था। उसे समझाता रहता – “कहीं गुम न हो जाना, पढ़कर निकलना और कहीं भी अटक जाओ तो तुरंत फोन करना”। ये करना वो करना, जैसी तमाम हिदायतें। सब कुछ पढ़कर सीखने की आदत से बहुत कुछ जानने लगी थी यहाँ के बारे में। कहीं भी कोई भी जानकारी की मार्गदर्शिका मिलती तो पढ़ समझ कर ही उसे छोड़ती। रोज घूमते हुए कई नये चेहरे देखती और नये देश की नयी बातों को अंदर तक उतारने का प्रयास करती।

विदेश में पहला त्योहार होली का पड़ रहा था। उसका पसंदीदा त्योहार जो रंग-गुलाल-अबीर के थालों से सजे एक टेंट के नीचे होता था। पूरा मोहल्ला, सारी सखियाँ-सहेलियाँ होती थीं। लेकिन अपने उस उत्साह पर पानी फिर गया था जब बाली ने सख्त ताकीद कर दी थी कि “घर में रंग बिल्कुल नहीं आएगा। राजस्थान जैसी होली का तो प्रश्न ही नहीं उठता।” वह उदास हो गयी थी पर इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था।

“लेकिन थोड़ी गुलाल, थोड़ा रंग तो होना ही चाहिए न”

“बिल्कुल नहीं, पहली बात तो मैं बहुत व्यस्त हूँ, कुछ ला नहीं पाऊँगा और तुम्हें इतनी दूर खरीददारी के लिये जाना नहीं है।”

“तो क्या होली ऐसे ही सूनी निकल जाएगी।”

“होली ही क्या, कई त्योहार ऐसे ही सूने निकलेंगे, बेहतर है कि आदत डाल लो।”

“मैंने तो एक ही आदत डाली है, बस तुम्हारी, बाकी तो सारी चीजें उसी का एक हिस्सा है।”

“तुम्हारा नाम धानी नहीं दीवानी होना चाहिए”

मुस्कराती धानी बहुत कुछ कह जाती।

उसी रात जब वह सोकर उठी तो आइने के सामने नज़रें टिक नहीं पायीं। बाली की शरारतों का अंबार लगा था उसके शरीर पर चारों ओर। अंग-अंग पर इस तरह रंग लगाया था बाली ने कि शरमा कर लाल हो गयी थी। सोच भी नहीं पा रही थी कि वह कितनी बेसुध सोयी होगी कि बाली उसके शरीर पर चित्रकारी करता रहा और वह खर्राटे भरती रही। कितनी शैतान सोच रही होगी बाली की उस समय। अंदर बाथरूम में आकर भी वे शरारती आँखें उसका पीछा करती रहीं। अपने शरीर पर रंगों की तूलिका चलाती बाली की उंगलियों का स्पर्श महसूस करती रही और प्यार के आवेग में डूबती रही। ऐसा उद्दाम आवेग जहाँ धानी और बाली दोनों थे बस, पूरी दुनिया से दूर, अपनी ही दुनिया में।

एक दूसरे की चिंता करते, एक दूसरे की सोच का आदर करते, एक दूसरे का ध्यान रखते, एक दूसरे से बेतहाशा प्यार करते, प्यार के पंछी।

क्रमश...