Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit - 11 in Hindi Spiritual Stories by Durgesh Tiwari books and stories PDF | श्रीमद्भगतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-११)

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श्रीमद्भगतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-११)

जय श्रीकृष्ण बन्धुवर!
भगवान श्रीकृष्ण के असीम अनुकम्पा से आज फिर मैं श्रीगीताजी के ११ वें अध्याय को लेकर उपस्थित हूँ। आप सभी बन्धुजन श्रीगीताजी के अमृतमय सब्दो को पढ़कर , सुनकर अपने जीवन को कृतार्थ करे। श्रीगीताजी और भगवान श्रीकृष्ण की कृपा आप सभी श्रेष्ठ जनों पर बनी रहे।
जय श्रीकृष्ण!
~~~~~~~~~~~~~~ॐ~~~~~~~~~~~~
🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-११🙏
अर्जुन ने कहा -हे भगवन! मुझपर कृपा करके गुप्त अध्यात्म विषयक वचन जो आपने कहे उससे मेरा मोह दूर हो गया।
हे कमलनेत्र! मैनें जीव की उत्पत्ति, नाश और आपका अक्षय महात्त्म्य आपके मुखारविंद से विस्तार पूर्वक सुना। हे पुरुषोत्तम! हे परमेश्वर! आपने जैसा वर्णन किया वह आपका रूप देखने की मेरी इच्छा है। हे योगेश्वर! है मधुसूदन! आप यदि मुझे उसको देखने योग्य समझें तो अपना वह अव्यय रूप मुझे दिखाइये। श्री भगवान ने कहा- हे पार्थ! नाना प्रकार के नाना वर्णों के और नाना आकार में मेरे शत-२ सहस्त्र-२ दिव्य रूपों को देख। हे भारत! तुम वसु, रुद्र, अश्विनी कुमार, मरुद्गण, और पहले कभी नही देखे थे ऐसे आश्चर्य देखो! है गुणाकेश! चराचर सहित यह जगत तथा जो देखना चाहो रु। यहां मेरी देह में देख लो। परन्तु इन नेतृन से तुम मुझे नहीं देख सकोगे, इसलिए मैं रूमको दिव्य नेत्र देता हूँ उनसे मेरा दिव्य रूप देखो। संजय ने धृतराष्ट्र से कहा- कि हे राजन्! इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र जी ने अर्जुन से कहा और दिव्य दृष्टि देकर अपना अलौकिक रूप दिखाया। उस विश्व रूप के अनेक मुख, नेत्र और अद्भुत दृश्य थे और उसमें अनेक सूंदर-२ आभूषण व आयुध सुसज्जित थे। देह पर दिव्य गंध वस्त्र लगे थे। उस समस्त आश्चर्यमय अनन्त देव के सब ओर मुख दिखाई देते थे। आकाश में यदि हजार सूर्यों की प्रभा एक साथ हो तो उस महात्मा की प्रभा की समता न कर सकेगी। उस समय अर्जुन ने देवाधिदेव के शरीर में अनेक प्रकार से विकल समस्त जगत को एकत्रित देखा। रजं आश्चर्यचकित हो गया, शरीर रोमांचित हो गया, उसने शीश नवा हाथजोडकर कहा- हे देव! तुम्हारी देह में सब दोष भिन्न-२ प्राणियों के समुदाय, कामलाशन पर बैठे हुए देवताओं के ईश ब्रम्हा सम्पूर्ण ऋषि और दिव्य सर्पो को मैं देखता हूँ। हे विश्वेश्वर! तुम्हारे अनेक भुज, अनेक उदर, अनेक मुख, अनेक नेत्र हैं, तुम्हारा रूप अनन्त है, तुम्हारे अन्त तथा आदि को नहीं देखता किंतु समस्त विश्वमय तुम्हारा रूप देखता हूँ। तुमको किरीट युक्त गदा, चक्र धारे चारों ओर से देदीप्यमान, तेजोराशि सर्वत्र चमकते हुए अग्नि तथा सूर्य के भाँति प्रकाशवान, दुर्निरीक्ष और अपरम्पार देख रहा हूँ। मेरे मत से तुम ही ब्रम्हा, जानने की वस्तु, विश्व का महान आधार, नित्य स्नातन, धर्म के रक्षक पुराण पुरुष हो। मैं आपको आदि, मध्य तथा अंत से रहित , अनन्त शक्ति, अनन्त भुजचंद्र सूर्य नेत्र जिसके कान्तिमान अग्नि के सदृश्य मुख वाला, अपने तेज से इस सम्पूर्ण संसार को तपते हुए देख रहा हूँ। है महात्मन्! पृथ्वी और आकाश के मध्य की वह अनन्त और सम्पूर्ण दिशायें आपसे व्याप्त हो रही हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देख तीनों लोक व्यथित हो रहे हैं। वह देवताओ के समूह तुम्हारी शरण आ रहे हैं। उनमें कितने ही भयभीत हो हाथ जोड़ तुम्हारी प्रार्थना कर रहे हैं। उनमें कितने ही भयभीत हो हाथ जोड़ तुम्हारी प्रार्थना कर रहे हैं।महर्षियों और सिद्धो का समूह स्वस्ति कहकर नाना प्रकार से तुम्हारी प्रशंसा कर रहा है। रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य, विश्वदेव, अश्विनी मारुत पिता, गंधर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध इनके संघ विस्मित होकर आपकी ओर देख रहे हैं। हे महाबाहो! अनेक नेत्र बहु जांघ पेट कराल दन्त युक्त तुम्हारा यह विशाल रूप देखकर सब अत्यन्त भयभीत हो रहे हैं और मैं भी घबरा रहा हूँ।आकाश तक पहुँचे हुए प्रकाशमान, अनेक वर्षों से फैलाये हुए मुख के जलने वाले विशाल नेत्र युक्त तुमको देखकर हे विष्णो! मेरा जी घबरा रहा है। मुझसे धैर्य धरा नहीं जाता और चित्त स्थिर नहीं होता हे देवेश! हे जगन्नीवाश! भयंकर दाढो वाले और कालाग्नि के सदृश्य आपके मुखों को देखकर मुझे दिशाये नही सुझतीं, में शांति नहीं पाता अतःएव मुझपर दया करो। धृतराष्ट्र के दुर्योधनादिक पुत्र अपने साथ राजाओं और भीष्म, द्रोण और कर्ण तथा हमारी ओर के मुख्य-२ योद्धा बड़ी-२ दाढ़ों से युक्त विकराल आपके मुख में प्रवेश कर रहे हैं और उनमें से कितने लोग आपके दांतों से दबकर ऐसे दिखाई देते हैं मानों उनका शरीर चूर्ण हो गया है। जैसे नदियों की अनेक जल धारायें समुन्द्र की ओर बहती है वैसे ये मनुष्य लोक के वीर आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। अग्नि में पतंग की तरह सब लोग अपने नाश के लिए आपके मुख में बड़ी तेजी से प्रवेश कर रहे हैं। हे विष्णों! जलते हुवे मुखों से चारों ओर से सब वीरों को निगल कर आप जीभ चाट रहें है। आपकी तीक्ष्ण प्रभायें समस्त संसार को तेज से व्याप्त कर तृप्त हो रही है। यह भयानक रूपधारी कौन है? यह मुझसे कहा? हे देववर! आपको नमस्कार है मुझपर प्रसन्न हो। हे जगतकर्ता! आदि पुरुष आपको जानने की मैं इच्छा रखता हूँ क्योंकि आपकी यह प्रवृत्ति मेरी समझ मे नहीं आती है। श्री भगवान बोले- संसार का नाश करने वाला मैं उगरकाल हूं सब का संहार कण्व के लिए आया हूँ। तू।हारे युद्ध न करने और भी यह वीर जीवित न रह सकेंगे। अतःएव तुम उठो। शत्रुओं का संहार कर यश यश को लेकर इस समृद्धशाली राज्य का भोग करो। हे स्वयसाचीन! उनको मैंने पहले मार रखा है। तुम केवल निमित्त मात्र हो जाओ। मेरे मारे हुए द्रोण, भीष्म जयद्रथ, कारण और अन्य योद्धाओं को मारो, घबराओं मत युद्ध करो। तुम संग्राम में शत्रुओं को जीतोगे। संजय ने कहा इस प्रकार श्रीकृष्ण जी के वचन सुन मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़ कंपित भयभीत हुए साष्टांग प्रणाम कर नम्रता पूर्वक बोले- हे ह्रषिकेश! आपके गुणगान करने से सब संसार प्रसन्न और प्रेम मग्न हो रहा है, राक्षस डरकर दिशाओ की ओर भागते हैं, और सिद्ध आपको नमस्कार करते हैं सो ठीक ही है। हे महात्मन! हे अनन्त! हे देवाधिदेव! हे जगन्निवास! आप ब्रम्हा से भी श्रेष्ठ हो, आपको देवता क्यों न नमस्कार करें? व्यक्त और अव्यक्त आप हो तथा इन दोनों से परे अक्षर भी आप हो। हे अनन्त! आप आदि देव हो, पुरातन पुरुष हो, विश्व के परम आधार हो, ज्ञाता और झेय हो, श्रेष्ठ स्थान आप हो। विश्व का विस्तार करने वाले आप हो। आप वायु, यम अग्नि वरुण, चन्द्र, ब्रम्हा और ब्रम्हाजी के भी पिता हो आपको नमस्कार हैऔर बार-२ आप ही को नमस्कार है। है सर्वस्वरूप! आप अनन्त वीर्यवान तथा अतुल पराक्रमी हो, आप जगत में व्याप्त हो इसलिए स्वरूप हो, तुम्हारी महिमा को न जानकर मैंने तुमको अपना मित्र मानकर हे कृष्ण! हे सखे! ऐसे जो तिरस्कार से कहा सो प्रमाद से अथवा स्नेह से, हे अच्युत! तुमसे इन बोलों की क्षमा मांगता हूं जो कि परिहास से विहार, सोने, बैठने, और भोजन के समय, अकेले अथवा मित्रों के मध्य में तुम्हारा अपमान किया है तुम इस स्थावर जंगम रूप से पिता पूज्य और महान गुरु हो, त्रिलोकी में भी तुम्हारे समान कोई नहीं है तुमसे अधिक अतुल प्रभाव कहां से होगा? इसलिए हे ईश! तुमको सिर झुकाकर प्रणाम करटक हूँ, मुझ पर कृपा करो। हे देव! जैसे पिता पुत्र के, मित्र मित्र कौर प्रिय प्रिया के अपराध क्षमा करता है वैसे ही तुम मेरे अपराध क्षमा करो। हे देव! पहले कभी नहीं देखा। ऐसा आपका रूप देखकर मैं प्रसन्न हूं और भय से मेरा मन व्याकुल है। इसलिए वही पहला रूप मुझको दिखाओ और हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हो। हे सहस्त्रबाहु! विश्वमूर्ति! मैं फिर आपको वही किरीट, गदा, औश्र हाथ मे चक्र धारण किये हुवे देखना चाहता हूँ! श्रीकृष्ण भगवान ने कहा- है अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर यह तेजोमय,अनन्त आघ और विश्वरूप अपने योग के प्रभाव से तुमको दिखलाया है जिसको तुम्हारे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था। हे पांडवो में श्रेष्ठ, मनुष्य लोक में तुम्हारे सिवाय कोई वेदों के अध्ययन दान अग्निहोत्रादिक और घोर तप करके भी यह रूप धारण किये मुझको नहीं देख सकता। मेरा ऐसा भयानक रूप देखकर तुम व्याकुल और मूढ़ न हो, भय त्याग प्रसन्नचित्त होकर फिर तुम मेरा वही रूप देखो। संजय ने कहा इतना कहकर श्रीकृष्ण जी ने फिर चतुर्भुज रूप दिखलाया और सौम्य रूप धारण कर महात्त्म्य ने अर्जुन को धीरज बंधाया। अर्जुन ने कहां- हे जनार्दन! आपके सौम्य दिव्य मंगल रूप को देखकर अब मैं प्रसन्नचित्त हो स्वस्थता को प्राप्त हुआ। श्रीकृष्ण जी बोले- हे अर्जुन! जो मेरा यह विश्वलुली। तुमने देखा है इसका दर्शन संभव नहीं है। देवता भी इस लय के दर्शन की आकांक्षा करते हैं। हे अर्जुन! जैसा मेरा लय तुमने देखा है। ऐसे लय को वेदाध्ययन, तप व यज्ञादि कर्म द्वारा देखना भी असंभव है। हे अर्जुन! परंतप मेरा जो विश्वलय है इसको मनुष्य अनन्य भक्ति द्वारा जान सकते हैं और तत्व ज्ञान द्वारा इसमें लीन हो सकते हैं। हे अर्जुन! जो कोई मनुष्य मेरी ही भक्ति के लिए कर्म करते हैं मुझे सर्वोत्तममानते हैं, मुझमे भक्ति रखते हैं, सांसारिक संगी से मुख मोड़ चुके हैं सम्पुर्ण प्राणीमात्र से वैर त्याग चुके होते है वे ही मुझको प्राप्त हो सकते है।
अथ श्रीमद्भगवतगीता का अध्याय-११ समाप्त
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🙏अथ ग्यारहवें अध्याय का महात्त्म्य🙏
श्री नारायण जी बोले- हे लक्ष्मी! अब ग्यारहवे अध्याय का महात्त्म्य सुन तुंगभद्र नाम नगर था जिसके राजा का नाम सूखानंद था, वह श्री लक्ष्मीनारायण की सेवा बहुत करता था, वहां एक ब्राम्हण बड़ा धनपात्र विद्वान पंडित रहता थावह ब्राम्हण नित्य गीताजी के ग्यारहवे अध्याय का पथ किया करता था और राजा भी वहां नित्य लक्ष्मी नारायण की सेवा करता थाऔर पाठ भी नित्य श्रवण करता था ऐसे ही सेवा करते-करते बहुत काल व्यतीत हुआ। एकदिन राजा घर को गया, उसदिन बहुत अतीत देशांतर फिरते-२ उस नगर में आएं अतितो ने राजा से कोई जगह मांगी। राजा ने बड़ी हवेली खुलवादी वहां अतीत उतरे, राजा ने सिदा दिया रसोइकर अतीत बहुत प्रसन्न हुए, अमृतबेले राजा उनके दर्शन को गया राजा का बेटा भी साथ था, के भृत्य साथ थे राजा उस हवेली में आया और जो महंत था उसके साथ बात करने लगातार राजा का पुत्र खेलने लगा वहां एक प्रेत रहता था। उस प्रेत ने राजा के पुत्र को मारा चाकरों ने राजा को खबर कारण।राजा यघपि सेवा करता था कथा श्रवण करता था परन्तु पुत्र के मोह के कारण राजा को दुर्बुद्धि आ गई। राजा बोला हे संत जी आपका दर्शन हमको बहुत फला है। एक पुत्र था सो प्रेत ने मार लिया। तब ब्राम्हण ने कहा- है राजा जी! चलों देखें कहा है तेरा पुत्र? राजा, ब्राम्हण, महंती भी वहां आए जहां राजकुमार मरा पड़ा था तब ब्राम्हण ने कहा अरे प्रेत तू इस लड़के पे कृपा दृष्टि कर जो ये लड़का जी उठे और में तुझे श्रीगीताजी के ग्यारहवे अध्याय का पथ सुनाता हूँ तू श्रवण कर इससे तेरा कल्याण होगा अब तू अपने पिछले जन्म की बात कह तब पर्वत बोला में पूर्ण जन्म में ब्राम्हण थाइस ग्राम के बाहर हाल जोतता था वहां एक दुर्बल विप्र आया था सो इस खेत मे गिर पड़ा उसके अंग से रुधिर निकला एक चील ने उसका मंच नोच खाया, मैं बैठा देखता था मेरे मन मे दया न आयी जो इस को छुड़ा डन।इतने में एक और पंडित आया उसने यह देखा और मुझसे कहा अरे हाल जोतने वाले विप्र तेरे कर्म चांडाल के है, निर्दयी तेरे खेत के पास विप्र का मांस चील तोड़ खाती है और तू आंखों से अंधा है जो छुड़ाता नहीं। सो मेरव श्राप से तू प्रेत योनि पावेगा तब मैंने उसके चरण पकड़ कर कहा मेरा उद्धार कैसे होगा तब पंडित ने कहा जब तुझे कोई गीता के ग्यारहवे अध्याय का पाठ सुनावेगा तब तेरा उद्धार होगा। प्रेत अपनी कथा कह चुका। तब विप्र ने राजा से पूछा- राजा ने कहा इसका उद्धार करिए और मेरे बेटे को जीवित करें। टैब विप्र ने गीता के ग्यारहवें अध्याय का पाठ किया और प्रेत पर जल छिड़का तत्काल औरत की देह छूटकर देव देह पाई। राजा का पुत्र जीवित हुआ प्रेत श्याम सुंदर चतुर्भुज रूप होकर खड़ा हो गया स्वर्ग से विमान आये उनमें चला गया राजा का पुत्र भी गीता का ग्यारहवें अध्याय का पाठ सुनने से श्रीनारायणजी परायण हुआ , वह भी विमान में बैठकर बैकुण्ठ गया। तब उस ब्राम्हण से राजा ने ग्यारहवे अध्याय का पाठ श्रवण किया मन मे कहा पुत्र-पुत्री कोई नहीं विरक्त होकर गीता का पाठ कर तुलसी में जल डाला करे , इस प्रकार राजा भी परम गति का अधिकारी हुआ।
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💝~Durgesh Tiwari~