Aaina mujse meri pahli si surat mange in Hindi Moral Stories by Nidhi Agrawal books and stories PDF | आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे

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आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे

आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे
निधि अग्रवाल

पद्मा ने उकता कर बैकस्टेज की झिरी से हाल में झाँका। तिल रखने की जगह शेष न थी। शहर के गणमान्य जन आ चुके थे। बस मंत्री जी की प्रतीक्षा थी, जिनके आते ही कार्यक्रम शुरू हो जाने वाले वाला था।

"बताओ पद्मा…. ",श्रेयस ने उसे अपने अंदाज़ से झकझोरते हुए कहा!

"क्या?", उसने भावशून्य नजरें सामने खड़े संवाददाता पर टिका दी।

संवाददाता ने सवाल दोहराया,

"जलने के बाद जब पहली बार अपना चेहरा देखा था आपने, तब क्या विचार आए थे मन में?"

ऐसा नहीं कि इन मूर्खतापूर्ण सवालों का जवाब उसने पहले कभी न दिया हो बल्कि अब तो इन सवालों के उत्तर जैसे रट गए हों। वह न केवल आँखों को बिना नम किए इन प्रश्नों का जवाब देती है बल्कि बाद में अपने आधे बचे होठों को पूरा फैला कर फ़ोटो शूट के लिए मुस्कुरा भी देती है। लेकिन आज कुछ अलग-सा था। वह जवाब न देकर चार साल पीछे लौट गई थी।

तब बाबा की परचून की दुकान ठीक-ठाक चलती थी। भाई तो कोई था नहीं लेकिन माँ और तीनों बहनें भी उन्हें खूब सहयोग करते। कॉलेज से आने पर दोपहर बाद तीन से पाँच बजे तक दुकान को वह सम्भालती। इस वक्त अधिक खरीददार भी न आने से उसकी भी पढ़ाई हो जाती। पर न जाने कब ऐसा होना शुरू हुआ कि हर दोपहर ही एक चेहरा नजर आने लगा। कुछ छुटपुट-सी खरीददारी और गहरी निगाहें उसे असहज करने लगी।

उसने दुकान पर बैठना बन्द कर दिया लेकिन कॉलेज तो जाना ही था। अब वह कॉलेज के बाहर खड़ा दिखने लगा और एक दिन तो सारी सीमाओं का ही अतिक्रमण हो गया था, जब अचानक आकर उसने पद्मा का हाथ ही पकड़ लिया। वह इस बदतमीजी के लिए तैयार नहीं थी, कुछ समझ पाती उससे पहले ही न जाने कैसे सधे हाथ के एक करारे तमाचे की छाप उस लड़के के गाल पर पड़ी। उस चाँटे की गूँज उस लड़के के साथियों तक पहुँच चुकी थी। वे दोस्त का अपमान देख ठहाके मार-मार कर हँस रहे थे। वहाँ से आगे बढ़ते हुए बस वह इतना सुन पाई कि 'मजनू साहब, आशिकी उतरी कि अभी और मार खाओगे', और फिर वही अट्टहास!

उस दिन घर पहुँचने पर उसका उतरा चेहरा देख माँ ने स्वयं ही पूछ लिया था कि 'कुछ हुआ है क्या?' तब वह भावरिक्त चेहरे के साथ माँ को निहारने लगी। आखिर कैसे जान लेती है माँ सदा बच्चों की मनोस्थिति। माँ व्यर्थ ही परेशान होगी यह सोचकर माँ को तो उसने टाल दिया लेकिन दोनों छोटी बहनों को अवश्य ही बताकर अपना दिल हल्का कर लिया था। यह तय हुआ कि अब अकेले न जाकर वह किसी सहेली के साथ ही जाया करेगी। थोड़ा घूम कर जाना पड़ेगा लेकिन किसी अनहोनी का भय तो नहीं लगेगा कम से कम!

अगले कुछ दिन शांति से बीते और वह सब भी यह घटना दुःस्वप्न की भांति भूल गए थे। यूँ भी अपने देश में ऐसी घटनाएं किसी लड़की के लिए पहली या आख़िरी नहीं होती। यह हवाओं और अखबारों में सदा तैरती-सी ठहरी ही रहती हैं। न यह बरसती हैं, न कोई नजर इन पर रुका करती है।

फिर वह दिन भी आया जब सर्द हो चुकी स्मृति उसके पूरे चेहरे और बदन पर गर्म लावे सी बह गई। वह निराया के साथ कॉलेज की ही कोई बात करती लौट रही थी जब उसने मुँह पर अंगोछा लपेटे एक बाइक सवार को विपरीत दिशा से अपनी ओर आते देखा। अनजान डर से एक सिरहन-सी उसकी रीढ़ की हड्डी में उतर गई थी और अगले ही पल चेहरे पर मानो ज्वालामुखी फट पड़ा हो। प्लास्टिक की एक खाली बोतल उसके पैरों से टकराई और पैरों की त्वचा और जमीन की मिट्टी भी उफनने लगी।

निराया और उसकी चीखों से तारों पर बैठे पंछी फड़फड़ाते उड़ गए और बाइक पर सवार वह दोनों भी।
उसके आगे का उसे कुछ भी याद नहीं। जब चेतना लौटी तो अस्पताल की गंध और परिवार तथा चिकित्सकों के बीच वह निर्वसन थी….एक झीनी पट्टी के आवरण में लिपटी सुइयों और कई मशीनों में जकड़ी हुई। कितने ही महीने वह अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी रही। उसने न केवल अपना चेहरा खोया बल्कि कई अपनों को भी! निराया के हाथ और चेहरे पर भी छींटे आए थे। उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ था जब निराया की माँ ने कहा, 'पद्मा तो पहले भी कोई सुंदर न थी लेकिन निराया की तो जिंदगी ही दागदार हो गई।'

तब उसने पहली बार यह संज्ञान लिया था कि वह सुंदर नहीं थी। कॉलेज की यह उम्र यह सच जानने के लिए थी क्या? यह तो कल्पना लोक में विचरण की वय थी। उसे भी शालिनी मैडम जैसी कामायनी की व्याख्या करनी थी, उसे भी किसी कवि की कविताओं की प्रेरणा बनना था, और उसे उस दिन घर जाकर बहनों को बताना था कि अंग्रेजी के नए लेक्चरर विष्णु सर को देख उसे कुछ-कुछ नहीं, बहुत कुछ होता है।

डॉक्टर उसे बचाने के लिए प्रयत्नशील थे और पुलिस आरोपियों को पकड़ने के लिए।वह पूछते आरोपियों ने क्या पहना था? क्या उसे उनका चेहरा याद है?क्या वह पहले से जानती थी?कोई प्रेम प्रसंग था?बाइक का नम्बर क्या था? वह झल्ला जाती। मुँह पर बंधे अंगोछे के पीछे क्या तो चेहरा दिखता और तेजाब से जलती आँखों से क्या ही बाइक नम्बर!

यह वह समय था जब आँखों और शरीर पर रक्तरंजित, सफेद पट्टी बांधे वह अपने अंधेरे से लड़ते-लड़ते थक चुकी थी और मौत की कामना किया करती थी। वह ही नहीं, यही अनकही कामना उसके माँ-बाबा की भी आँखों में तिरा करती। उन्हें लगता था कि बेटियों की शादी के लिए जोड़ी सभी पूंजी लगाकर भी वह अपनी इस अभागन बेटी को अब कभी विवाह योग्य नहीं बना सकते थे।

वह मुक्ति पा भी जाती लेकिन तब तक जाने कैसे वह खबर बन चुकी थी। अखबार के कोनो से निकल वह मुखपृष्ठ पर छा गई। कई गैर-सरकारी और सरकारी संस्थान मदद की पेशकश करने लगे। ऋषभ एक लोकल अखबार के लिए काम करता था। ऋषभ और कई अन्य लोगों के प्रयासों और कई सर्जरी के पश्चात जब पहली बार उसने आईना देखा तो वह चीत्कार उठी। वह सुंदर नहीं थी, बदसूरत भी नहीं थी... वह भयावह थी, विकृत थी।

इस विकृतता ने उसे समाज का भी असली विकृत चेहरा देखने का अवसर दिया। वह जान पाई की सामाजिक विकृतता के आगे उसकी विकृतता कितनी सूक्ष्म है। केंद्र सरकार ने नगद अनुदान दिया तो राज्य सरकार ने एक स्थायी नोकरी। छोटे शहर को छोड़ वह लोग बड़े शहर के सरकारी आवास में आ गए। कई कार्यक्रमों में उसे सम्मानित किया जाने लगा, इंटरव्यू हुए… फैशन शो भी, लेकिन वह हर रात सोने से पहले आईने के सामने खड़े हो अपना चेहरा देखती और सोचती कि यह सब लौटाकर भी काश वह अपना चेहरा वापिस पा पाती!

ऐसे ही एक लाइव इंटरव्यू के दौरान जब ऋषभ ने उसे विवाह का प्रस्ताव दिया तो वह सहसा विश्वास ही न कर पाई। आँखें छलछला उठी। प्रयत्न कर रोकने पर भी मन में कोमल भावनाएं पनपने लगी, लेकिन निराशा इतनी गहरी पैठ बना चुकी थी कि उसे इस सच्चाई पर विश्वास ही न होता था। क्या सच ही कोई पुरुष इस चेहरे से प्यार कर सकता है? वह आईने से पूछती, उत्तर की प्रतीक्षा भी करती।

क्या वह नहीं जानती कि उसका स्वयं का परिवार हो या अन्य लोग, उससे बात करते हुए भी वह नज़रें उसके चेहरे पर नहीं टिका पाते थे। बदसूरती किस नजर को भाती है भला? छोटी बहन के पति ने कहा था, 'पद्मा को देख लो तो फिर दिनभर खाना खाने का मन नहीं होता', तब से उसके आने पर वह सामने तक नहीं पड़ती थी, लेकिन मन होता है कि चीख कर बोले कि इस कुरूप चेहरे को मिले अनुदानों से ही तुम्हें यह चाँद-सरीखी पत्नी मिली है। क्या बिना दहेज के भी तुम्हें वह इतनी ही सुंदर नजर आती?

वह अपने संशयो से अकेले संघर्षरत थी। पर मन को कैसे समझाए, मन था कि अभी भी न जाने किस लोक में उड़ान भर कर लजाता रहता। जब भी माँ-बाबा से इस बारे में बात करनी चाही, उन्होंने विषय बदल दिया। बहनें अपने घर परिवार में व्यस्त हो गई थीं। ऐसे में पुराने कॉलेज के एक कार्यक्रम में उसे नारी दिवस पर अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। वहीं निराया भी मिल गई। दोनों गले मिलकर देर तक रोती रहीं। कभी सलोने रहे निराया के चेहरे को अपनी हथेलियों में थामे वह अवलोकन करने लगी। उसका बाई तरफ का चेहरा अधिक प्रभावित हुआ था। सिकुड़ी हुई त्वचा वाली उँगलियों को एक दूजे की उंगलियों में फंसाये वह दोनों बहुत देर तक चुप बैठी रही। मौन पद्मा ने ही तोड़ा। बोली, "मुझे माफ़ कर देना निराया। मेरे ही कारण तेरी भी दुर्दशा हुई।"

"तेरा क्या गुनाह था पगली, लेकिन भगवान को कभी माफ नहीं कर पाऊँगी", वह बोली।

"तुझे पता है पद्मा, कुछ ही महीने बाद वह दोनों जमानत पर रिहा हो गए थे । तू तो अब सेलिब्रिटी बन गई है। बड़े लोगों मे उठना-बैठना है। उन्हें सजा क्यों नहीं दिलाती।"

"सेलिब्रिटी", पद्मा ने होठो में बुदबुदाया। पर प्रतिकार न कर पाई। प्रकट में बोली, "प्रयास तो करती हूं, लेकिन सब कहते हैं कि कोर्ट अपने नियमों से चलती है। उन्हें मृत्युदंड भी मिल जाए तो सब वैसा नहीं हो सकता।जो हमनें खोया वह अब किसी प्रकार भी वापिस नहीं पा सकते हम, निराया!"

"न पा पाए लेकिन उन अपराधियों से भी तो कुछ छीना जाए। हम दोनो नहीं कर सकते क्या उनका मर्डर पद्मा... चाहे फिर कोर्ट हमें ही फांसी पर क्यों न लटका दे।",निराया आक्रोशित हो बोली।न उन्हें कोई सजा मिली न ही तेजाब की खुली बिक्री बंद हुई।हमारा क्या गुनाह था पद्मा?हम क्यों आजीवन दंड भुगतने को बाध्य हो गए?

क्या जवाब देती।उन दोनों का आक्रोश केवल उन्हें ही आहत कर सकता था समाज बदल देने की सामर्थ्य तो न थी।विषय बदलते हुए अचानक वह पूछ बैठी-

"तेरी शादी हुई क्या?"

"हम्म... दो साल हुए। एक बेटा भी है एक साल का", निराया की तनी हुई नसें ढीली पड़ गई थी। चेहरे पर वात्सल्य तिर गया था।

"तूने की?"

"नहीं, अभी नहीं", वह नजरें चुराती-सी बोली। फिर झिझकती हुई बोली, "एक प्रपोजल है लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पा रही अब खुशियाँ डराने लगी हैं और माँ बाबा बात ही नहीं करते।"

"माँ बाबा क्यों करेंगे बात। दुधारू गाय कौन घर से बाहर जाने देगा। समझने में दिमाग न लगा, कर ले स्वीकार। खोने को है ही क्या हमारे पास। जो मिले जितना मिले बहुत है।"

"तू खुश नहीं शादी से?", पद्मा ने आशंकित हो पूछा।

"हर कोई विष्णु जैसा नहीं होता पद्मा। मैं नहीं जानती तू इस मामले में मुझ जैसी भाग्यशाली है या नहीं। तुझे कोई झूठी उम्मीदें नहीं देना चाहती।"

'विष्णु सर?", पद्मा का स्वर कांप गया। अचानक ऐसा लगा जैसे विष्णु सर को उससे छीन लेने को ही सृष्टि ने यह सब खेल रचा हो। वहाँ से लौटी तो लगा जैसे सब हार आई हो। वह नितांत अकेली थी, विस्मृत हो चुके अपने एक तरफा प्रेम के साथ। भगवान के समक्ष खड़े हो पूछती-सी कि और कितना तोड़ोगे?, बोलो।

उसने पत्थर का शिवलिंग उठा कर काँच के दरवाजे पर दे मारा। झनझनाता काँच पूरे कमरे में फैल गया। माँ-बाबा सहमे से उसे देख रहे थे। वह एक नजर उन पर डाल बेपरवाह हो नंगे पाँव ही काँच के ऊपर से गुजर बाहर आ गई।

वह विद्रोही हो गई। माँ बाबा को अकारण सताने लगी। वह जो कहते उसका उल्टा ही करती। माँ की आँखें छलछला जाती। पिता सिर झुकाए अखबार में डूब जाते, लेकिन वह द्रवित न होती। इस वक्त एक मात्र सहारा श्रेयस ही था। वह हर निर्णय उसी से पूछ कर लेने लगी। श्रेयस ने बताया कि वह प्रयासरत है कि सबसे बड़े मीडिया हाउस द्वारा दिए जाने वाले "वर्ष की प्रभावी महिलाएँ" के अवार्ड में पद्मा का भी नाम आए।

उस शाम वह माँग में सिंदूर भर और कलाइयों में लाल चूड़ी पहन श्रेयस के साथ ही घर लौटी। पता नहीं माँ-बाबा दुधारू गाय के जाने से दुखी थे, या सींग मारती गाय से छुटकारा पा सुखी, पर उन्होंने आशीषों से उसकी झोली भर दी। बाबा ने आगे बढ़ श्रेयस को गले लगा लिया और फूटफूटकर रोने लगे।

"मेरी बच्ची ने बहुत कष्ट देखे हैं, अब इसे सब सुख देना बेटा", कहती हुई माँ श्रेयस के पैरों में गिर पड़ी। अचानक हुई सुख की आगत ही दुख की तीव्रतम पीड़ा का बोध कराती है। यदि यह सतयुग होता तो भगवान राम अवश्य ही इन तीनों का रुदन देख प्रकट हो जाते और जैसे केवल अपने अँगूठे के स्पर्श से अहिल्या का उद्धार किया था वैसे ही पद्मा को भी छू उसका दुख हर लेते या कृष्ण अपनी मायावी उँगलियों को उसके चेहरे पर फेरा कुब्जा को पुनः सैरन्ध्री होने का सुख प्रदान कर देते।

जीवन आगे बढ़ चला था। भावसागर में उठी आवेश की लहरें भी शांत हो चली थी। पद्मा और उसकी सम्पति को लेकर एक अनकही खींचतान बाबा और श्रेयस के बीच चलती लेकिन कोई प्रकट में कुछ न कहता। हालांकि यहाँ श्रेयस स्पष्ट विजेता यूँ भी था कि इस विवाह के बाद अब वह स्वयं सेलिब्रिटी था…. महापुरुष था जिसने शारीरिक सौन्दर्य से ऊपर उठ एक स्त्री के मन मे झाँका था। कोई उन पर किताब लिखने की पेशकश करता, कोई फ़िल्म बनाने की! श्रेयस ने स्पष्ट कहा था कि वह जल्दबाजी न करे सब सोच समझ कर ही फैसला लेना होगा। आखिरकार एक चर्चित लेखक ने उनकी जीवनी लिखी। उसकी बेरंग कहानी में जिस प्रकार उत्तेजना के रंग उस दक्ष लेखनी ने भरे थे उसे महसूस हुआ जैसे हादसे के बाद उसके निर्वसन शरीर पर पड़ा झीना आवरण भी किसी बलिष्ठ हाथ ने एक झटके में खींच डाला हो। उसकी आपत्ति अनसुनी ही रह गई थी। श्रेयस ने कहा, 'वह बड़ा राइटर है। वही लिखता है जो बिकता है। उसकी कई किताबों पर फिल्में बनी हैं', और सच ही किताब छप कर आने से भी पूर्व ही फ़िल्म का अनुबंध भी साइन हो गया था। आज इसी किताब का विमोचन समारोह था।

"आपने जवाब नहीं दिया पद्मा जी?",

संवाददाता का स्वर फिर गूंजा। वह कुछ उत्तर देती इससे पहले ही मंत्री जी के आ जाने से उत्पन्न हुई अफरा-तफरी में उसका स्वर, श्रेयस और संवाददाता तीनों ही गायब हो गए। उसने पुनः झिरी से बाहर देखा। श्रेयस गुलदस्ता देता हुआ मंत्री जी के साथ तस्वीर खिंचवा रहा था। उसे कल रात अपने बिस्तर पर मिले मोगरे के फूल स्मरण हो आए। पूर्व में कार में भी मिले इन फूलों ने कई बार कुछ चुगली करनी चाही थी लेकिन निराया की बात याद आ जाती, 'जो मिले ...जितना मिले'।

उमड़ती आँखों से वह सोचने लगी कि तन की अपूर्णता मन की पूर्णता की चाह को लील क्यों नहीं पाती? यह सत्य है कि श्रेयस न मिला होता तो वह अखबार के एक कोने में छपी कुछ उपेक्षित पंक्तियों की खबर-सी ही कहीं उपेक्षित जीवन जी रही होती, या फिर सम्भवतः जीवित ही न होती। एसिड से जले हाड़-माँस के शरीर में भी कितनी संवेदी कोशिकाएं बिना जली ही रह जाती हैं, इसका अहसास उसे श्रेयस ने ही कराया था। यह अलग सत्य है कि उन तमाम रातों में वह केवल उसके भार तले दबी उसकी वीभत्स कल्पनाओं को मूर्त करती ही रह जाती थी। कभी भी श्रेयस के अधरों ने उसके आधे अधरों को अपने मध्य नहीं भीचा, कभी उसकी हथेलियों ने उसके खुरदुरे कपोलों को नहीं सहलाया। उन्माद के अनियंत्रित क्षणों में राह तलाशते उसके अधर अगर कभी श्रेयस के अधरों तक पहुँचे तो उस रात वही अबोला पटाक्षेप हो जाता।

समय के साथ यह अबोला शब्दों मे प्रस्फुटित होने लगा। श्रेयस स्पष्ट कहता कि तुम सत्य स्वीकार क्यों नहीं कर लेती। तत्पश्चात छोटे-बड़े, न जाने कितने सत्य अपना फन उठा उसके समक्ष लहराने लगे थे। कितनी ही रातों में वह एसिड की बोतल श्रेयस के चेहरे पर दे मारती और पसीने में भीगी, घबरा कर उठ बैठती।

"पद्मा!", श्रेयस की आवाज सुन वह यूँ चौकी जैसे गुनाह करती रंगे हाथ पकड़ी गई हो।

"चलो कितनी बार तुम्हारा नाम पुकारा जा चुका",

और श्रेयस उसे बाहों में भर स्टेज पर ले आया। दर्शक हर्ष से ताली बजा रहे थे। पद्मा को लगा मानो उन सभी की आँखों में श्रेयस के लिए मान और उसके लिए दयनीय करुणा हो। ऐसी करुणा जो उसे गीली मिट्टी के ऐसे लोथड़े में बदल देती, जिसे हर कोई अपने स्वार्थ के अनुसार मथ सकता था।

उन दोनों को माला पहना स्टेज पर सस्मान बिठा दिया गया। मंत्री जी ने अवसर का लाभ उठा अपनी पार्टी द्वारा किए अन किए कई सत्कर्म गिना डाले। आयोजकों ने लेखक को अभी तक के मिले अनेकोंनेक पुरस्कार गिना डाले। श्रेयस ने सदा की तरह बताया कि वाह्य सुंदरता मिथ्या है, जो आंतरिक है, वही परमात्मा का अंश है। 'आंतरिक' का असली अभिप्राय सोच पद्मा के चेहरे पर एक व्यंगात्मक मुस्कान चली आई।

आखिर में पद्मा को दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित किया गया। वह उठ कर माइक तक गई। पीछे मुड़ एक नजर मोबाइल पर उँगलियाँ चलाते नेताजी पर डाली। लेखक महोदय दम्भ से अकड़े आयोजकों के साथ कुछ गहन विमर्श कर रहे थे। श्रेयस की नजरें स्टेज पर खड़ी आज की कार्यक्रम की उदघोषिका का मूक चीर हरण करने के बाद पद्मा से टकराई और झेंप कर झुक गई। इतनी शर्म सच ही बाकी है क्या, पद्मा ने सोचा। उसकी भी नजरें दिशा बदल सामने दर्शकों पर घूमती हुई पीछे से तीसरी पंक्ति में दुपट्टे से चेहरा ढके बैठी एक लड़की पर ठहर गई। सालों पहले का लावा मानो फिर चेहरे को जलाने लगा। उसने हाथ के इशारे से लड़की को स्टेज पर बुलाया। वह सकुचाती हुई दुपट्टे को और आगे खींचती पद्मा के पास आ खड़ी हुई। पद्मा उसका हाथ थामे डाइस छोड़ स्टेज के मध्य में आ गई। बोली,

"मेरी सच्ची झूठी बाकी कहानी तो आप 'जलजला' में पढ़ ही लेंगे। जल्द ही शायद किसी खूबसूरत अभिनेत्री को भी सलीके से मेरी बदसूरती का किरदार निभाते देख भी लें, लेकिन मैं आपके साथ वह अंतिम अध्याय साझा करना चाहती हूँ जो इस किताब में नहीं है", कहकर वह थोड़ा रुकी, पर अगले ही क्षण बोली,

"मैं अपनी सारी चल अचल-सम्पति लगा एक संस्था बना रही हूँ जिसका एकमात्र उद्देश्य काबिल वकील मुहैया करा एसिड अटैक के अपराधियों को कठोर से कठोर सजा दिलाना होगा। एसिड की खुली बिक्री रोकने के सभी प्रयास असफल होने के बाद मुझे लगता है कि कोई और पद्मा.. कोई और निराया ताउम्र आईने से उत्तर की अपेक्षा में समय न गुजारे।" आँसुओ के प्रबल वेग को नियंत्रित करती फिर आगे बोली,

"इसका एकमात्र उपाय अपराधियों को त्वरित और कड़ी सजा दिलाना ही है। ऐसी सजा जिसे देख-सुन भी रूह काँप जाए और स्वप्न में भी कोई इस घृणित कार्य को अंजाम देने की हिम्मत न जुटा पाए। आप लोगों में से जो लोग, जैसा भी, जितना भी सहयोग करना चाहे, सहर्ष आमंत्रित हैं।"

हॉल तालियों से गूंज उठा। श्रेयस कुछ सकपकाया और कुछ आक्रोशित-सा उसके पास चला आया। माइक को लगभग उसके हाथों से लगभग जबरन छीनता हुआ बोला,

"पगला गई हो क्या? जानती भी हो क्या कर रही हो तुम?"

"चिंता मत करो। यह घर तुम्हारे ही पास छोड़े जा रही हूँ। जिसके साथ भी जब तक भी चाहो रह सकते हो",

और पास खड़ी लड़की का दुपट्टा सिर से हटा, उसके कन्धों पर फैलाते उसने सस्नेह उसका नाम पूछा।

"रूपा", वह सजल नेत्रों से बोली।

"आपको देख बहुत हिम्मत बंधती है दीदी", कहते हुए रूपा उसके पैरों में झुक गई।

"आओ", रूपा को मध्य में ही रोक कर गले से लगाते हुए वह उसका हाथ अपने हाथों में थामे स्टेज से नीचे उतर आई। तब तक रूपा के माँ-बाप भी हाथ जोड़ पद्मा के निकट आ गए। पिता ने कहा,

"हम बहुत गरीब हैं बेटी। तुम ही इसे सम्भालना।" उसकी माँ ने आगे बढ़ पद्मा को अपने सीने से लगा लिया।

उनके कंधे थपथपा वह आगे बढ़ चली। अपनी आँखों को नम नहीं करना चाहती थी, सो आँसूओं को सहेजती हुई सोचने लगी कि यूँ अमीर होने की कीमत भी तो कितनी अधिक है। लगता था कि उसकी जिन्दगी में अब कोई दोराहा नहीं, उसने मंजिल को पा लिया है।

वह कार में बैठ आगे बढ़ गई और ड्राईवर को चलने का संकेत किया। श्रेयस की पुकार उसे विदा करने आए लोगों की भीड़ के कोलाहल में पार्श्व में कहीं बहुत दूर छूट गई लगती थी।

कार के वैनिटी मिरर में अपना चेहरा देख उसने स्वयं से ही प्रश्न किया, 'क्या कोई इस चेहरे से प्यार कर सकता है?'

आईने में उभर आए रूपा के अक्स ने उत्तर दिया, 'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर कुछ संशय भरा भले हो, लेकिन सत्य है कि यह चेहरा कई चेहरों को स्वयं से प्यार करने की हिम्मत अवश्य दे सकता है।'

पद्मा ने संतुष्टि का एक श्वांस भर सिर पीछे टिका लिया। वह जानती है कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता!

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संपर्क :

Dr Nidhi Agarwal
w/o Dr Vikram Agarwal
Kargua ji road,
In front of MLB Medical College, Gate No-2
Jhansi (UP)-२८४१२८
ई-मेल: nidhiagarwal78.jhansi@gmail.com


मेरे विषय में:

गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) में जन्म. बचपन से पढने और लिखने में रुचि. एम बी बी एस के बाद पैथोलॉजी में परास्नातक की शिक्षा. वर्तमान में झांसी (उत्तर प्रदेश ) में निजी रूप से कार्यरत.

विगत दो वर्षों से कविताएँ, कहनियाँ और सामाजिक विषयों पर ब्लॉग आदि का लेखन.