जननम
अध्याय 5
आनंद को उन्हें सहलाने की भावना तीव्रता से उठी। उनके हाथ को पकड़ कर हाथ हिलाने की इच्छा हुई कि बहुत धन्यवाद बोले ऐसा लगा। वह लावण्या को देखकर एक मुस्कान दिखाकर और लोगों के साथ बाहर आ गया।
"मुझे बहुत दुख हो रहा है मिस्टर वेदनायकम !" ऐसा राजशेखर गंभीर मुद्रा में बोल रहे थे "आप की भांजी जिंदा होगी इस विश्वास के साथ आप यहाँ आए थे...."
अब वेदनायकम के प्रश्नों का जवाब देना दुख बढ़ाना ही है। उनके दुख का समाधान बोलना राज्य की ही जिम्मेदारी है ऐसा सोच कर उन दोनों को बाहर तक छोड़ आनंद अंदर आ गया। उसका मन पंख लगाकर उड़ा, मेज पर इकट्ठे हुए कामों को देख कर वह यथार्थ की दुनिया में वापस आया।
आज एक वेदनायकम आकर खड़ा हुआ जैसे कल कोई सचमुच का मामा आकर खड़ा हुआ तो क्या जवाब दूंगा? क्या कारण बताकर, किस न्याय के आधार पर लावण्या को मैं यहां रख सकता हूं ? कितना पागलपन का विचार उसके मन में आया ! एक पढ़े-लिखा होकर जिम्मेदार पोस्ट पर रहते हुए उसके मन में ऐसी बात कैसे आई ? एक निराधार खड़ी लड़की के मन में घुसना बहुत बड़ी मूर्खता है विवेकहीन बात है उसने अपने आप से ही बोला। अपने मन को दबाकर ना रख सके तो इस डॉक्टरी के धंधे को बंद कर अम्मा के साथ भजन करने निकलना पड़ेगा। अपने आप में बोलते हुए भी उसके होठों पर मुस्कान फैल गई और उसे आश्चर्य हुआ।
4:30 बजने में 5 मिनट पहले ही उसे राउंड में जाने का ख्याल आया। 4:30 बजे तो वह लावण्या के कमरे में पहुँच गया । लावण्या बरामदे को देखते हुए लेटी थी
"क्या बात है लावण्या। क्या सोच रही हो ?" आराम से वह बोला।
उसने उसे ध्यान से देखा।
"वह आदमी मुझे कोई और समझ कर आया था क्या ?"
"हां ।"
"मुझे मेरे लिए कोई ढूंढने अभी तक कोई नहीं आया डॉक्टर।"
वह परेशान होकर हंसी।
"हमसे जो बन सकता था वह सब हमने किया लावण्या ! थोड़ा सहन शक्ति रखो।"
‘मेरी समस्याएं मेरे असमंजस के बारे में तुम्हें नहीं पता’ इस तरह की भावना के साथ उसने उसे देखा।
"आपको हम पर विश्वास होना चाहिए लावण्या। आपके ऊपर हम लोगों को बहुत श्रद्धा है उसे आप को समझना चाहिए।"
"आप सभी लोगों की श्रद्धा ही मुझे डराती है।"
उसने चकित होकर उसे देखा।
"ओह........ आपने हम लोगों को गलत ले लिया ऐसा लग रहा है... ?"
"आपके बारे में नहीं कह रही हूं। वह बूढ़े, सॉरी शोक्कलिंगम के आकर खड़े होने से डर लगता है।"
उसका मन हल्का हुआ ऐसा लगा वह हंसा।
"आपको उन्हें देखकर डरने की जरूरत नहीं। वे थोडी बेवकूफी की बातें करते हैं। बस इतना ही। खराब आदमी नहीं है।
"बदमाशी बेवकूफी के द्वारा ही आती है।"
वह शायद मुझे और कुछ कहना चाह रही है क्या ?
"मैं इसी गांव में पैदा हुआ और यहीं बड़ा हुआ। इस गांव के लोगों के बारे में मैं अच्छी तरह जानता हूं। आप हिम्मत से इस गांव में ठहर सकती हैं ऐसा मैं सोचता हूं। उसके बाद फिर आपकी इच्छा। और एक हफ्ते में आपको डिस्चार्ज कर देंगे। कोई भी आप को ढूंढ कर नहीं आए तो आप कहां रहेंगी यह फैसला आपको ही करना है। आपको जो सहायता चाहिए मैं करूंगा...."
आने वाले दिनों में वह संभल कर रहा। बेकार की कोई भी बात उससे नहीं कही | अपनी भावनाओं को भी उसे ना दिखा कर, शोक्कलिंगम अस्पताल में ना आए यह भी उसने ध्यान रखा।
डिस्चार्ज करने के पहले दिन उसने उससे पूछा "लावण्या आपने क्या डिसाइड किया? "
धीरे से हंसी, उसके गालों में गड्ढे पड़े।
"यहीं रुकूंगी ऐसा सोच लिया।"
लावण्या ने वहां लगे पेड़ को उत्सुकता से देखा। रोजाना इस समय तोते यहां आकर बैठते हैं । छोटे-छोटे, हरे-हरे तोते सौम्य शरीर लाल नाक ! इस पीपल के पेड़ पर कई तरह के पक्षी आकर बैठते हैं उसने देखा है। हर एक पक्षी अलग तरीके का उस में अंतर साफ नजर आता है उन्हें उसने आश्चर्य से देखा। लावण्या को ऐसा लगता है कि जितने भी पक्षी इस पीपल के पेड़ पर आते हैं उन्हें पेड़ आइए-आइए बुलाकर कहता है आपको शरण देने के लिए मेरे पास जगह है.....
लावण्या सोचती है कि इस गांव नुमा शहर में लोगों में और इस पीपल के पेड़ में ज्यादा अंतर नहीं है । नाम, गांव, गुण न जानने वाली एक लड़की को इन लोगों ने अपनाया | शायद उन्होंने यह गुण इस पेड़ से सीखा हो। बिना प्रश्न पूछे खोद-खोद कर सवालों की झड़ी लगाकर मन को असमंजस में ना डाल कर दूसरों को जगह दे देना और स्वयं उसका नामकरण भी कर देना......
इतना सब कुछ होने के बावजूद प्रेम प्यार के अलावा मन है कि अब भी दुख में डूबा है। 'मैं कौन हूं मैं कौन हूं ? यह सवाल बिना कोई जवाब सूझे मन में उमड़ता घूमड़ता रहता है। बहुत दिन तक, मुझे ढूंढने कोई आया क्या ? यह बात जानने की उत्सुकता ने पीछा छोड़ा नहीं। रोजाना 'नहीं' जवाब से मन में बहुत दुख और धोखे का अनुभव हुआ। मैं अनाथ हूं.... नाम को भी भूल कर पुरानी बातों को भी भूल कर अनाथ होने का प्रमाण मन में विश्व रूप धारण करके मुझे विचलित करता है। यह विश्वास अभी ठीक ठाक चल रहे दिमाग को कहीं पागल तो नहीं कर देगा यह डर भी समा गया था। मैं इसी स्थिति में रहने वाली स्वयं के पश्चाताप से सब पर संदेह करने लगी । डॉ. आनंद के मन को दुखाने लायक बात करने लायक मेरा मन बहुत ही असमंजस में पड़कर तड़पता रहा यह बात उसे याद आ रही थी। वह जब भी याद आती तब दुख होता अभी भी याद आते ही उसे दुख होता है।
वह शोक्कलिंगम रोजाना कोई न कोई कारण बताकर उसे देखने आ जाते हैं। अपने झुर्रीदार चेहरे, इन झुर्रियों के लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं ऐसा कहते जैसे काले रंग से मूछें और बालों को रंग कर आते उन्हें देखते ही उसे क्रोध आता।
"कोई तुम्हें ढूंढने नहीं आया इस बात से तुम परेशान मत हो लावण्या।" वे अधिकार से ऐसा कहते।
'तुम यहीं रह सकती हो। तुम पढ़ी लिखी हो। यहीं स्कूल में टीचर की नौकरी कर लेना। 400 रुपये पूरा तुम्हें मिलेगा। उसमें तुम सम्मान से रह सकती हो।'
'मेरी बेटी को कह रहा हूं जैसे कहता हूं।'
उनकी निगाहों में बातों में बहुत अंतर था। जिससे उसको डर पैदा हो गया। इन लोगों का प्रेम, उत्सुकता अतिशयोक्ति पूर्ण लगा। इन पर कितना विश्वास कर सकते हैं ?
उस दिन डॉक्टर से अपने डर के बारे में बताया तब से शोक्कलिंगम ने उसे देखने आना बंद कर दिया। उस पर ध्यान देना किसी तरह कम नहीं हुआ फिर भी यही उसके सामने डॉ आनंद अधिक देर तक नहीं खड़े रहते। आंखों से कुछ ढूंढ रहे जैसे नहीं देखते। अपनी निगाहों से वह कुछ अर्थ लगा लेगी यही सोच शायद डरते हुए जल्दबाजी में वहां से निकलते हैं | यह देख इसको दया आई। उसे लगा शायद मैंने उनके दिल को दुखा दिया | ऐसा एक अपराध बोध उसके मन में उठा। किसी के ऊपर भी संदेह करो पर उन पर संदेह करने की बुद्धि कैसे हुई उसे आश्चर्य हुआ। किसी को भी भूल जाओ कृतज्ञता की सभ्यता को भूल जाओ तो मनुष्य कहलाने के काबिल नहीं ।
वह एक हफ्ता इस बारे में गहराई से सोचती रही। इस शहर के लोग उसके लिए नए होने पर भी जानते तो हैं | इनसे मिलकर इन्हीं लोगों में प्रेम दिखाते हुए साथ रहे तो क्या बात है | उसके मन में यह विचार जड़ पकड़ने लगा। मेरा शरीर ठीक हो गया। चेहरे पर या शरीर पर किसी तरह का निशान नहीं है। जैसे यह लोग कह रहे हैं कि घोर दुर्घटना में फंसकर निकली हूं। ऐसा कोई निशान मुझ पर नहीं है। यह भूलने की बीमारी एक नहीं होती तो इन लोगों के बोलने पर विश्वास करना भी कठिन होता.....
वह एक निराशा के साथ उठी। डॉक्टर बोल रहे हैं जैसे सोचते रहो कुछ नहीं होने वाला। अब अपना भविष्य ही मेरे लिए सब कुछ है इस बारे में सोचना ही अकलमंदी है।
"लावण्या, आपका मन ही आपकी लाठी है। यह अच्छी बात है कि आपका मन स्वस्थ है !"
उसके होठों पर मुस्कुराहट आई ।
कितना सुंदर बोलते हैं !
उन पर जो यहां की जनता का जो सम्मान और इज्जत है उसे देखने से वह साधारण आदमी नहीं लगते।
कई बार व्यंग्य और मजाक करते समय उसे परेशान करे तो भी यह सब भी है आदमी है उसके मन में हमेशा रहता है। अस्पताल से बाहर आते ही रहने के लिए स्कूल के पास ही एक छोटा सा घर का प्रबंध भी करके दिया । उसके लिए काम करने और एक साथी के रूप में एक बुढ़िया को रख दिया। स्कूल में तुरंत एक नौकरी के लिए बंदोबस्त कर दिया। शोक्कलिंगम स्वयं के कारण ही सब कुछ होगा ऐसी बात कर रहा था। उसको जो कुछ सुविधाएं मिली है वह सब आनंद के कारण ही अब उसके समझ में आया।
उस मकान में उसके आने के पहले ही सब सुविधाएं करवा कर फिर ही उसे वहां छोड़कर जाते समय एक लिफाफा दिया।
"यह क्या है ?" वह आश्चर्य से पूछी।
"आपके खर्चे के लिए इसमें कुछ रुपए रखा है ।" बोलकर मुस्कुराया । उसके चेहरे पर जो घबराहट दिखी तो तुरंत बोला "उधार दे रहा हूं। आप आराम से इसे वापस कर देना। वैसे भी आपको अपनी जरूरत के लिए किसी से भी उधार लेना पड़ेगा। उसे मुझसे ही ले लेना चाहिए ना ?"
वह निरुत्तर हो गई। "इस उधार को लौटाते समय आपकी फीस भी मैं दे दूंगी डॉक्टर। नहीं-नहीं लूंगा आप नहीं बोलोगे।"
स्नेह से हँसा"फीस ही तो है ! मैं ही मांग कर ले लूंगा । डोंट वरी ।"
क्रमश...
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