पूजा (लघुकथा)
मेरा साठवां जन्मदिन था । बड़ा उत्साह का माहौल था। चारों तरफ खड़े मेरे बेटे बहू, मेरे लिए बड़े गर्व की बात थी कि सब ने बहुत बड़ा इंतजाम किया। मुझे शुभकामनाएं देने मेरे कई मित्र गण भी उपस्थित हो रहे थे। बच्चों ने शाम पूजा के समय मेरा जन्म दिवस मनाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। एक बड़ा सा चॉकलेटी केक मेरे सामने रखा गया। मैं हमेशा की तरह देख कर बहुत खुश हुई। बड़े बड़े अक्षरों में अंग्रेजी में मेरा नाम लिखा हुआ था। खुशी का माहौल था। मुझे केक काटने के लिए कहा गया। मैंने प्लेट को अपनी तरफ घुमा कर एक कोने से कैक काटा। सारे हैप्पी बर्थडे टू यू कहते हुए हंसने लगे और कहने लगे अंशु तुम्हारे केक पर नाम अब हंसु बन गया है। हंशु लग रहा है। मेरी कैक जैसे ही नजर गई, देखा कि अंग्रेजी का 'ए' फोंट अब कैक का कोना काटने से 'एच' नजर आ रहा था। सारे हंस रहे थे। जब मेरे मुँह में कैक का टुकड़ा दिया गया, मैं हंसते हंसते रो पड़ी। छोटी सी बातें हमारे बीच बड़ी दूरियाँ बना चुकी थी। मेरे जीवन में कोई ऐसा था जिसका और मेरा और उसका जन्म दिन एक दिन आया करता था। मुझे वह कहा करता था :-
"जुड़वाँ डटा है अभी अपने जज्बे की पहचान पर ।
नहीं जीत सकती कोई नारी रूप और मुस्कान पर।।"
पर शायद मैं उसे जीत नहीं पाई मुझे उसकी पल पल यादें आती रही और मैं उतनी ही दूर जाती रही। ना खुद को समझा मैंने, ना उसे समझ नहीं दिया। उससे इसलिए लगाव था वह मेरे ओफिस में कागजी काम मेरे बिना कहे कर देता था। उसके होते मैं वास्तव में बेपरवाह थी। ये बात वो जानते हुए भी मेरी किसी बात को बुरा नहीं मानता था। हर बात शायराना अंदाज में कहते हुए टाल देता। मुझे उसकी वह पंक्ति आज भी याद है, वह कहा करता था:-
" तुम भले ही भुला देना, जुड़वाँ दिल तो याद करेगा।
तेरे जहां मैं तुझे खुश रखने की फरियाद करेगा।।
मैनें अपने आंसू पौंछे तो मुझे मेरे मित्र साथी मेरे बच्चे कहने लगे। आंसू क्यों आ गए, लगता है खुशी ज्यादा हो गई। वह प्रेम ही कुछ ऐसा था जिसमें आज मेरी पीड़ा भर गई है। मैं अपने मन में पश्चाताप कर रही हूं, और सोचती हूं कि दुनिया में कभी किसी की ना तो बुरी बात पर ध्यान देना चाहिए और ना ही अच्छी बात पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि जिंदगी में सिर्फ अपना मनोबल ही काम आता है। जन्मदिन बहुत धूमधाम से मनाया गया। सारे साथी, बच्चे उपस्थित थे चले गए.।मैंने अपनी पुरानी किताबों को उठाकर देखा ।उनमें लिखे कुछ शायर आज ही मेरे सामने उसी वक्त के साथ जिंदा थे। एक बार फिर आंसू की धारा फूट पड़ी यह पढ़कर :-
"कोई मलहम नहीं दुनिया में, मेरे जख्म के लिए
मैं मांग लूंगा खुदा से तुझे, अगले जन्म के लिए"
बहुत समय बीत गया मैंने उसकी सुध बुध ही नहीं ली। आज मैंने उन्हें ढूंढने का निश्चय किया कि वह कहां पर सेवाएं दे रहे हैं। मुझे पता चला किसी विश्वविद्यालय में आजकल है। मैंने बड़ा साहस जुटाकर एक दिन उनसे मिलने का निर्णय किया। मुझे वो एक एक शब्द याद आ रहा थे उसने एक बार कहा था :-
"बढ़ती उम्र का इश्क और ढलती उम्र की ख्वाहिशें कहां है।
जिस्म नहीं जुड़वाँ ढूंढ रहा खूबसूरती का साथ रहा है जहां है।।"
मुझे आज भी याद है "तेरी यादें काफी है" उसकी कविता मुझे दी हुई आखिरी कविता थी। उसकी अंतिम पंक्तियों में लिखा था :-
" बहुत निकल गया मैं आगे अब तू मुझको जाने दे
तेरा तुझ पर छोड़ दिया है मेरा मुझे ले जाने दे
कितनी बार मेरे प्रिय तुझ से मांगी मैंने माफी है
अब तू मुझको छोड़ अकेला बस तेरी यादें काफी है"
मैं उन पल पल को याद कर रही थी और विश्वविद्यालय पहुंचने पर मिलने के लिए वेट कर रही थी। असमंजस में थी सोचते हुए कि जैसे जैसे वक्त बदलता है साथी मित्र बदलते जातें हैं। जो कुछ बचपन में साथ थे, कुछ जवानी में साथ रहे और इस जिन्दगी के पथ आगे पीछे चलते हुए कब कौन छोड़ जाता है और कब कौन कोई ओर अपना हो जाता है पता ही नहीं चलता। थोड़ी देर में जब मुझे उनसे मिलने का समय दिया गया। कहा कि आपको अंदर बुलाया है। मैंने जैसे ही दरवाजे से प्रवेश किया एक महापुरुष अपनी कुर्सी की ओर पीठ किये खड़ा था। जिसने मुझे लिखा लेकिन मैंने उसे समझा नहीं, वह वही था जिसने मेरे मन में अपने प्रेम को ढूंढना चाहा पर मैं उसे समझ ही नहीं पाई।मेरे कदम उसकी ओर बढ़ते बढ़ते उसी के शायर को साक्षात्कार करवा रहे थे :-
"विश्वास तेरा कह नहीं सकता, धर्म मैंने कहा हारा है।
जहां नाम तुम्हारा लिखा है, वहाँ हस्ताक्षर हमारा है।।"
मैं उसके लिए, हमेशा उसकी थी और वह मेरे लिए मेरा होकर हमेशा पराया था। कोई रिश्ता नहीं था, एक छोटी सी मुलाकात थी। लेकिन मेरे अनछुए पलों को उसने अपनी जिंदगी की किताब बना दी। मैं स्तब्ध खड़ी थी, सामने मुझे पीठ दिए खड़ा था। कुछ क्षणों हम खड़े रहे। मेरे सूख रहे होठों पर एक पूकार थी। कुछ नहीं कह पा रही थी। बहुत साहस करके मैंने उसी नाम से पुकारा जिस नाम से मैं उसे कभी पुकारा करती थी। उसने मेरी तरफ मुंह किया तो देखा कि अपनी आंखों को रुमाल से पहुंचते हुए मेरी तरफ पैर बढ़ाते हुए ठोखर खा गये। मैं भी एक दम पकड़ते हुए आगे बढी। नजरें मिलाकर, करुणा की मुस्कान में शायराना अंदाज में कह बैठे :-
"ठुकराया नहीं हूं मैं, यह तेरे कदमों में झुकने के इशारे हैं।
मेरे जन्मों जन्मों के सच्चे साथी, आज भी हम वही तुम्हारे हैं।।
मैं रोने लग गई। जिंदगी में बहुत प्यार मिला मुझे परन्तु इतना प्यार से समझने वाला इसके शिवा कोई नहीं मिला । उसके टेबल पर खुली हुई डायरी में अब भी मैं कल्पना में लिखी जा कविता थी। अनायास पुछा क्या लिख रहे हो, आंखें झुका कर कहा, 'तुम्हें', मैं अवाक हो गई। कोई शब्द नहीं थे क्या कहूँ? हिम्मत कर पूछा ' अब प्यार करते हो मुझसे' उसने कहा " नहीं" ! सुनते ही मेरा गला सूख गया। जिद्द तो मेरे खून था। मैं उठ खड़ी हुई, डांटकर पूछा फिर क्यों मेरे नाम की कविता लिखते हो? हमेशा की तरह शांत रहकर मेरे सवालों का उत्तर देने वाला, भावुक हो कर इतना ही कह पाया, ऐ पागल, प्यार नहीं "पूजा" करता हूँ तेरी। सुनकर मुझे धक्का सा लगा। आंखों में आंसू आ गए और खांसने लगी, हमेशा की तरह अपने हाथों से पानी पीलाया।
कहने लगे,
"तेरे नाम का दीप जलाया, राहें मेरी हुई रोशन हैं ।
तुम मेरे हो पता नहीं, सदा से हम तो तेरे हम हैं।।"
हम बातें करते रहे। कुछ समय बाद, जाते समय उसके स्वाभिमान में खड़ी होकर 'क्षमा' बोलते हुए जाने की अनुमति ली। रास्ते में सोचरही थी कि जिससे नफरत की, जिसे कुछ नहीं समझा, जिससे मैं अपना सिर्फ काम निकलवाने के लिए उसी अपना समझती रही। वो सब जानते हुए अनजान रहा। जो कोई नहीं था मेरा, वो मेरा सब कुछ था।
................................
हेतराम भार्गव "हिन्दी जुड़वाँ"