Kesaria Balam - 4 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | केसरिया बालम - 4

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केसरिया बालम - 4

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

4

इन्द्रधनुषी रंग

सगाई के बाद से शादी तक के वे दिन इतने चुलबुले, इतने बेताब करने वाले थे कि लगता युगों-युगों से जानती है वह बाली को। जाने कितना इंतज़ार और करना होगा। कभी तो समय काटे नहीं कटता, कभी ख्यालों में यूँ खोयी रहती कि कब दिन ढला, कब रात हुई, पता ही न चलता।

धानी को लगता, मन तो वैसा ही है, आकाश में बहता हुआ। उसकी देह से निकल गया है शायद। शायद बाली का मन भी ऐसे ही निकल कर आ गया हो उसके पास। एक बात निश्चित लगी उसे, प्रेम देह के लिये रुकता नहीं। दैहिक होने के बहुत पहले ही प्रेम अंकुरित होने लगता है।

शादी की तैयारियों में जुटे माँसा-बाबासा। ऐसी व्यवस्था करना चाहते थे कि लोग याद रखें कि बिटिया धानी की शादी जैसी कोई शादी नहीं हुई आज तक। एक से बढ़कर एक कई जोड़े कपड़े बने धानी के लिये। कई जोड़े कपड़े बाली के लिये भी बने।

और फिर वह दिन आया जब शादी के ढोल बजने लगे। गीतों के मधुर स्वर ढोल की थाप से ताल मिलाने लगे। शादी की हर रस्म का अपना अलग महत्व था। मन की अनुभूतियों-अभिव्यक्तियों का चरम बिन्दु था। ढोल की ढम-ढम व लोकगीतों की मिठास के साथ पहली रस्म गणेशपूजा संपन्न हुई।

“चालो गणेश आपणे मालीड़ा रे चालां तो आछा आछा फूलड़ा मोलावाँ गजानन...”

“चालो गणेश आपणे अमेरिका चालां तो आछा आछा बनड़ा मोलावाँ गजानन...”

महिलाएँ चतुराई से बनड़ा-बनड़ी के अनुकूल गीतों में फेरबदल करने में माहिर होतीं। गणेशपूजा के बाद तीन दिन तक रस्में होनी थीं। पीठी, मेंहदी, संगीत, मामेरा से लेकर, आखिरी दिन फेरे और बिदाई। राजस्थानी लोक नृत्य की टोलियाँ तीन दिन तक रोज आती रहीं। ढोल के साथ गीत और नृत्य की ऐसी रंगीली शामें होतीं कि दूर-दूर से लोग देखने के लिये आते। लोकगीत कंठानुकंठ बहते हुए जब रस्मों की अदायगी में अपनी अनिवार्य उपस्थिति दर्ज करवाते तो, वे पल “प्रेम” शब्द का सहज सौंदर्य निखार कर प्रस्तुत करते। डाली के फूल की तरह झरकर भी नये पौधे में अपनी शोभा, सुरभि अर्पित करते। सभ्यता और संस्कृति की प्रवाहक ये लोक रीतियाँ कई ऐसे स्मरणीय क्षण दे जातीं जो मन को मुग्ध कर देते थे।

गणेशपूजा की रात देर तक हँसी-ठिठौली का मजमा जमता। उस मजमे में दो लड़कियाँ नकली दूल्हा-दुल्हन बनतीं जो सारे खानदान के सदस्यों को परिहास के साथ याद करतीं। जिसका कोई बुरा न मानता। सब एक दूसरे पर दिल खोलकर हँसते। समधी-समधिनों को गालियाँ गायी जातीं जो वास्तव में गालियाँ न होकर हास-परिहास होता। ये सब बहुत पसंद किया जाता और सहजता के साथ स्वीकार भी किया जाता। मानवीय प्रवृत्तियों की सच्चाई के साथ मंगल प्राप्ति के ध्येय की तरफ अग्रसर होती ये छोटी-छोटी खुशनुमा संगीत की कड़ियाँ कानों में अमृत उंड़ेलतीं। खूब जोर से तान लेकर गाना, और बीच में अपनी ही शरारतों पर पल्लू से मुँह छुपाकर खूब हँसना, और फिर हँसते-हँसते गाने लगना। सहज और सरल जीवन की अनुभूति शीर्ष पर होती।

घर के तीनों सदस्यों के हर दिन के लिये अलग जेवर और अलग पोशाकें थीं। मेहमान भी उसी तैयारी से आते। दुल्हन दिन में तीन बार कपड़े बदलती हर बार नए रूप के साथ। संगीत की रात कस्बे की लड़कियों का फिल्मी गीतों से भरा कार्यक्रम था, जिसमें दूल्हे बाली को भी खूब नचाया था। परम्परा और आधुनिकता का ऐसा समावेश था कि युवा दिलों की धड़कनें बढ़ने लगतीं। आमतौर पर यही होता था एक जोड़े की शादी में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कई जोड़े बनने लगते थे। वर और वधू पक्ष के युवा लड़के-लड़कियाँ अपनी चुहलबाजियों के कई नये अनुभव लेते और देते। रस्मों से दूर कई अनकही-अनदेखी चीजें होतीं जो शादी की धमाल का ही एक हिस्सा होती। बाद में सब अपने-अपने घर जाकर भुला देते वे क्षणिक रिश्ते।

मामेरा की रस्म मामा के बहन के प्यार और भांजी के दुलार का प्रतीक थी। मामा ने धानी और माँसा के लिये बहुत ही अच्छे जेवर दिए थे। प्यार और स्नेह का प्रतीक शब्द मामा! दो बार माँ की आवृति के साथ। मामेरा की रस्म के समय माँसा ने अपना सबसे महंगा जोड़ा पहना था। इतनी अच्छी लग रही थीं वे कि एकबारगी तो बाबासा भी देखते रह गए थे। धानी की कई सहेलियाँ फोटो और वीडियो बनाने में लगी थीं। नथ पहनकर पहली बार माँसा को “पल्लो लटके, म्हारो पल्लो लटके” गाने पर थिरकते देखा तो धानी रो पड़ी थी।

यूँ खाते-पीते-गाते-बजाते तीन दिन चलने वाला शादी का उत्सव अपने चरम पर था।

फेरे हो रहे थे। अग्नि साक्षी थी, उस रिश्ते को सुरक्षित करती जो कपड़े की गाँठ से जुड़कर अपने विश्वास और प्रेम की गाँठ को मजबूती प्रदान करे। लोकगीतों में रिश्ते के अनुकूल बदलाव करती महिलाएँ परंपरा और वर्तमान को जोड़कर गातीं तो रस्म अदायगी की निजता के साथ आत्मीयता बढ़ जाती। एक के बाद एक खुशी-खुशी रस्में निबाहते वह रस्म भी आयी जो फेरों के बाद संपन्न होनी थी, बिदाई। गाँव भर के लोगों के सामने खूब ठाठ-बाट से उसे बिदा किया। बिदाई के वे पल बोझिल तो थे पर संतुष्टि से भरपूर थे। मारवाड़ी लोकगीत के बोल कानों में पड़ने लगे जो हर लड़की की शादी की बिदाई में गाए जाते थे। महिलाएँ ऊँचे स्वर में गातीं -

“घड़ी दोए घुड़ला थोब जो सायर बनड़ा,

बाबासा सूँ मलवा दो नी हठीला बनड़ा”

आँसू पोंछती-बिलखती घर छोड़ने का दु:ख तो मनाती पर बनड़े के वे अनकहे शब्द भी मन को सम्भालते जो गीत का अधूरा हिस्सा पूरा करते।

“बाबासा सूँ मिल कर, कांई करो सायर बनड़ी,

दो नी पालकड़ी ए पाँव, घरे चालो आपणा।”

“घरे चालो आपणा...” अंतिम पंक्ति कहते हुए महिलाएँ नाक सुड़कतीं, आँखें मलतीं सचमुच रो देतीं। गीत के मीठे बोल शायद उन्हें अपनी बिदाई की याद दिला देते कि एक दिन वे भी इसी तरह अपना घर छोड़ कर किसी और के घर आ गयी थीं। उस बीते कल की यादें जैसे आँखों से पानी के रूप में बहकर रूबरू करातीं उन पलों से, मन को और भी भिगो जातीं। और तब हर किसी के लिये वह बिदाई अपनी शादी की बिदाई हो जाती। सालों पहले के वे बिदाई के पल आँखों के सामने से गुजरने लगते, सबको अपने-अपने बाबासा के घर की याद दिला जाते।

धानी अपने जीवन के अगले अध्याय की तैयारी के साथ अपने बनड़े के आग्रह को सिर- आँखों पर बैठाकर अपने घर आ गयी। अपने बालम के बहुत करीब, इतने करीब कि कभी एक पल भी छोड़ने का मन नहीं करता। ऐसा प्यार जहाँ प्रतिफल की अपेक्षा नहीं थी, बस देना ही देना था उसे, नि:स्वार्थ प्रेम। वह चरम सीमा जहाँ अति है, जो अनंत भी है, उसके बाद कुछ नहीं।

बाली ने उसे शक्तिशाली चुंबक की भाँति अपनी ओर खींच लिया। उसे लगा ही नहीं कि अभी-अभी शादी होकर आयी है वह। न जाने क्यों ऐसा लगता - जैसे वह सदियों से उसे जानती है। अनायास ही खुद हँस देती अपनी इस सोच पर। वाकई प्यार अंधा होता है। बाली के प्रति उसकी दीवानगी सगाई से शादी तक इस कदर, इतनी तेजी से बढ़ती गयी कि लगता इस प्यार का प्रस्फुटन जन्मों पुराना हो। उसके मन को, उसके तन को, पूरा हक है कि उससे इतना प्यार करे, जितना किसी ने किसी को न किया हो।

वह चाहती रही लगातार, धरती-सा बन खुद भीगते रहना और बाली का अनंत आकाश के बीच अनंत बादल-सा निरंतर बरसते रहना।

एक सप्ताह के साथ के बाद बाली उसे छोड़कर चला गया अमेरिका। शादी की बिदाई से अधिक कष्टप्रद थी यह बिदाई। अभी-अभी तो मिले थे और अब तो बाली के बगैर एक पल भी रहना गवारा नहीं करता मन। लेकिन मजबूरियों का क्या किया जाए? यहाँ उन दो युवा प्रेमियों के रास्ते में एक नहीं, कई मजबूरियाँ थीं, रास्ते के कंकड़-पत्थर की भाँति चुभती हुईं, दूर तक बिछी हुईं। अब जो काम शेष थे वे उनके हाथों में नहीं, सरकारी हाथों में थे। उस शिकंजे से जल्दी मुक्ति मिल गयी तो अपनी किस्मत समझो, देर लगी तो भी किस्मत अपनी। सबसे पहले जन्म का प्रमाणपत्र बने तब कहीं पासपोर्ट और उसके बाद वीज़ा। जुदाई लंबी थी लेकिन कितनी लंबी होगी इसका कोई अंदाज नहीं लगा सकता था। कागजात बनने के पहले वह जा नहीं सकती थी और बाली इतने दिन यहाँ रुक नहीं सकता था।

मिलन और फिर बिछोह ने प्रेम की पराकाष्ठा को छू लिया। यूँ महसूस होता कि प्रेम एक नदी की तरह होता है जिसे दिशा और अंश का भी ढलान मिलता है तो वह बह उठती है पूरे वेग से। बिना यह सोचे कि वह जिस दिशा में जा रही है वह उसे समंदर में ले जाएगी। इस कल्पना से वह सिहरती नहीं। उसे लगता है नदी समंदर से मिलने के लिये ही बहती है। किसी पहाड़ की चोटी से बूँद-बूँद रिसते हुए उसने खुद को धारा बनते महसूस किया था। पर आज वह नदी हो जाना महसूस कर रही है। कल वह समंदर हो जाएगी और परसों वह सृष्टि। उसे लगता है दार्शनिक भी कुछ ऐसे ही सोचते होंगे। कुछ नया पा लेते होंगे। यह प्रेम है जो अपनी हर लहर के साथ पुनर्नवा हो उठता है।

वे दिन ऐसे निकले मानो दिन के हर पहर को धक्के मार-मार कर सरकाया जा रहा हो। समय तो तब इतना अड़ियल हो जाता था कि काटे नहीं कटता। उस व्यथा को दूर करना किसी के वश में नहीं था। जितना समय लगना था लगा। रोज़ घंटों बातें करते दोनों। बराबर की आग थी इस ओर से उस ओर तक। इस छोर से उस छोर तक।

समय अपनी गति से चलता रहा। धीमी गति से ही सही पर चलना तो नियति थी समय की। आखिर वह दिन आ ही गया जब सब कुछ पीछे छोड़ कर धानी अपने बालम के साथ निकल पड़ी। अनगिनत यादें भरकर, अपनी, अपने कस्बे की और उन सारे पेड़-पौधों की जो बहुत बतियाते थे उससे। खूब जी भर कर बातें करते थे। आश्वासन भी लेते थे कि जल्दी ही आएगी उनके पास, अपने बचपन को जीने, उनसे अपने वियोग को सुनाने, अपने प्यार को जताने।

बचपन से जवानी तक का वह समय एक अमूल्य तोहफे के रूप में साथ लिए जा रही थी। अपनी स्मृतियों के घेरे में जहाँ बहुत कुछ कैद था। जीवन का ऐसा पाठ जिसने उसे अच्छाइयों से भर दिया था। वह अच्छी बेटी तो थी पर उससे कहीं अधिक अच्छी पत्नी होना चाहती थी। बाली के हर कदम पर उसका साथ देने के लिये तन-मन से समर्पित धानी। वह उसकी दोस्त, पत्नी, माँ सब कुछ बनना चाहेगी। जब जिस रिश्ते की दरकार हो, वही उसके पास ही मिल जाए बाली को। कहीं और जाने की कभी जरूरत ही महसूस न हो।

मन के रिश्ते थे, मन ही समझ सकता था।

क्रमश...