Bich samnadar mitti hai in Hindi Moral Stories by Anagh Sharma books and stories PDF | बीच समंदर मिट्टी है!!

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बीच समंदर मिट्टी है!!

बीच समंदर मिट्टी है!!

मुल्क 1: यमन

शहर: सना

ठहाके लगाती रात, हँसती हुई रात तो इस शहर के आसमान से कब की जा चुकी थी। ऐसी रात जो शादी के जागमागते उजालों से चमकती रहती थी वह तो जाने कहाँ गुम हुई| उसके बदले जो अब चुपचाप गुज़र रहा है वो बदहवासियों में लिपटा हुआ अंधेरा भर है। पिछले कुछ महीनों से ये अंधेरा और मटमैला होता जा रहा है और शहर को मौत की भट्टी में झोंक रहा है| सड़क के मोड़ पर आ कर उसे सामने सरवत की पहाड़ियों से झांकता सूरज नज़र आया। शहर के सर पर धूप और गर्मी के बढ़ने का मतलब था कि दिन निकलने लगा है। नंगे पैरों को किसी नाली से बजबजाता, बहता हुआ पानी भिगोये जा रहा था। पानी की छुअन से उसके देर से जलते तलवों को जैसे राहत मिली हो। कैम्प में पहुंचने के महीनों बाद आज उसके पैरों ने किसी ठंडी चीज़ को महसूस किया था। थोड़ी देर के लिए मूंदी आंखें जब उसने खोलीं तो पैरों को भिगोता हुआ ख़ाली पानी ही नहीं था, ख़ून भी था जिसकी धार कहीं दूर से आती हुई इस पानी में मिल गयी थी। महीनों धूल, गुबार, मौत, धमाके, ख़ून देख के उसे अपने जिंदा बचे रहने पर तअज्जुब भी हुआ और ख़ुद पर घिन भी आई। उसने आँखें मसल कर उस ख़ून मिले पानी की धार को दुबारा देखा और उसी में बैठ गयी।

वह जानती थी कि यहाँ से भी उसे ढूंढ कर वापस कैम्प में पटक दिया जायेगा| जहाँ जीने के सारे माशरे बिखरे हुए हैं, और उन से भी ऊपर औरतों के अकेलेपन का फ़ायदा उठाते गंदे, लिजलिजे काम जो रातों-रात उनकी मिट्टी को रौंद कर उसे कीचड़ में बदल देते हैं|

जब उसकी आँख खुली तो वह एक नयी जगह थी| ये मोटी प्लास्टिक और लड़की के टुकड़ों से बनाया गया कोई ढांचा था| उसने कई बार सर इधर-उधर घुमा कर देखा तो समझ में आया कि ये हज्जाह कैम्प नहीं है जहाँ से वह रात को भाग निकली थी| हर बार ऐसा ही होता है कोई भी लड़की किसी कैम्प से भागने में कामयाब हो जाती है तो उसे ढूंढ के, पकड़ कर नयी जगह फेंक दिया जाता है, ताकि अगली कोशिश में कुछ दिन लग सकें और तब तक उनका इस्तेमाल होता रहे|

उसने छोटे से कमरे की खिड़की को देखा जिस पर एक मरगिल्ला सा पर्दा पड़ा था| कमरे में एक प्लास्टिक की बाल्टी में पानी ज़रूर था जो कि इस गर्मी में इतना गरम होगा कि उसे पिया नहीं जा सकेगा| उसके अलावा कहीं और कुछ नहीं था| वह उठी कमरे का दरवाज़ा बंद किया, बाल्टी खिसकाई और दरवाज़े से लगा दी| उसने अपने धूल, कीचड़, खून और पखाने से सने कपडे उतारे, धोये| खिड़की से पर्दा खींचा और कपड़े सूखने के लिए डाल दिए और एक कोने में जा कर बैठ गयी|

पिछली दो रातों से उसके कानों में ओमार जुमा के रोने की आवाज़ें गूँज रहीं थी| हर आवाज़ पर उसे लगता कि इस सुलगते जिबह्खाने में ज़िन्दा जिबह होने का अगला नम्बर उसी का है| बार-बार उसकी आँखों के सामने ओमार की छ: साल की दिमाग से कमज़ोर बेटी का चेहरा घूम जाता था| आधा मुल्क ही दिमाग से ख़त्म हो रहा है इन दिनों उसे ऐसा लगने लगा था| लड़की घंटों धूप में कमरे के बाहर पड़ी रहती थी, कभी कराहती तो कभी अपने एंठे हुए हाथों को ज़मीन से रगड़ के खूनमखून कर लेती| लड़की के ऊपर लगा हर ज़ख्म, घाव युशरा को ऐसे लगता था जैसे उसके अंदर ही पल रहा हो और किसी दिन फूट के उसके जिस्म पर उभर जाएगा| कैम्पों में धीरे-धीरे होती खाने की कमी और हैजे ने जीना बहुत मुश्किल कर दिया था| इसी हैजे में अम्मा-बाबा गए थे और इसी हैजे में ओमार की बेटी| उसने ओमार से कभी बात नहीं की थी पर चुप की भी तो आवाज़ें होती हैं| यही आवाज़ें बार बार उसे इन जगहों से निकल वापस घर के रास्ते पर भटकने के लिए उकसाती रहती थीं| घर है ही कहाँ अब? अब घर के नाम पर जो है वो यही टिन-लकड़ी से बने डिब्बे हैं|

कमरे के अंदर रात अभी भी गरम ही थी| उसने पास पड़े पर्दे के फटे टुकड़े को उठा कर बिछाया और उसके ऊपर लेट गयी| कल किताब में उसका नाम लिख दिया जाएगा| एक जोड़ी बिस्तर, कुछ रोज़मर्रा की चीज़ें उसके नाम चढ़ा कर उसके कमरे में रख दी जायेंगी| उसने करवट बदल आँखें बंद कर सोने कि कोशिश की पर नंगे गरम फ़र्श पर सोया नहीं गया तो वह उठ कर खिड़की पर जा खड़ी हुई| कैसा मौसम है जिसमें चलते रहने से पैरों में छाले पड़ रहे हैं और रुक जाने पर बदन का हर रेशा गिर के झुलसा जा रहा है| हर आँख पिछले कुछ सालों में इतना कुछ देख चुकी है कि अब थक कर पथरा गयी है| किसी के हाथ में कुछ नहीं है, सब ख़ाली हाथ हैं| जिनकी मुट्ठियों में शोले थे वो सब तो कब के इस मुल्क से बाहर जा निकले अपनी हथेलियों पर ज़िन्दगी की ज़मीन लिए| अब सिर्फ समंदर बचा है यहाँ, और इस समन्दर बीच मिट्टी है जिसकी परतों में नमक भरा हुआ है| इस खारी मिट्टी में कौन क्या रोपेगा? यही मिट्टी इस मुल्क की ज़मीन में फैली हुई है जिसमें बस एक मौत की फसल ही लहलहा रही है| उसने एक सांस छोड़ी और सोचने लगी कि जहाँ पिछले तीन साल में दस हज़ार से ज़्यादा लोग मर गए हों, जहाँ हर हफ़्ते सौ से ऊपर लोग हमलों में मर रहे हों वहाँ कब तक और कैसे ज़िन्दा बचा जा सकता है| देर तक खड़े रहने से उसके पाँव दर्द करने लगे थे| वह वापस आकर लेट गयी और आँखें बंद करके ऐसी जगह पहुँच गयी जहाँ धूप उसके माथे तक चढ़ आई थी| सड़क पर भीड़ थी, ऐसी भीड़ जो किसी भी पल आवारा हो सकती थी, किसी को भी रौंद कर निकल सकती थी| ऐसी भीड़ के रास्ते में वह बीच सड़क खड़ी हो कर क्या कर रही थी? उसे ख़ुद ही नहीं पता था| बाब-अल-यमन के इसी दरवाज़े से एक दिन जो उसका भाई निकल कर गया अब तक नहीं लौटा| निगाह में बस शक्ल रह गयी है जो धीरे-धीरे आँखों के खुलने-मुंदने से एक रोज़ धुंधली पड़ जायेगी| चीखती-चिल्लाती भीड़ उसके सामने से गुज़र गयी| उसने आँख उठा कर देखा हज़ार साल पुराना दरवाज़ा जिसने कितने ही जनाज़े अपने कंधों से नीचे रखे हैं| इस दरवाज़े को बस एक उसी के घर के जनाज़े की खबर नहीं| देख लो नूह तुम्हारे बेटे ने इस पहाड़ की वादी में जो शहर बसाया था उसकी दरारों में आग भरी जा रही है| उसने मुट्ठी में दबाया पत्थर भींचा और फिर हाथ लहरा के बाब-अल-यमन के तरफ़ उछाल दिया|

खट से जा कर पत्थर किसी से टकराया, एक कराह पर वह चौंकी| उसने देखा एक लड़का अपना कन्धा पकड़े बैठा है|

“सुनिए! ये पत्थर आपने मारा है न?” लड़के ने पूछा|

वह चुप रही, कुछ कहा नहीं| लड़के की आड़ ली झुक कर पत्थर उठाया और चुपचाप आगे बढ़ गयी|

युशरा ने खिड़की खोली और सूक़-अल-मिल्ह (नमक का बाज़ार) के आसमान की वीरानी को अपने घर में थोड़ी सी जगह दे दी| भाई जाने कहाँ किस धमाके में गुम हुआ किसे पता? अम्मा-बाबा इस साल के हैजे में पार उतरे| अब ये घर अपनी वीरानी के लाव-लश्कर सहित उसके साथ है, जो जब तक है बस तभी तक है| उसने हाथ में पकड़ा पत्थर वहीं पैरों के पास गिरा दिया|

.............................

जीस्त के वे दोनों टुकड़े जिन्हें धूप-छाँव कहा जाता है दिन में बारी बारी एक ऊंचे, क़द्दावर पहाड़ के नीचे से यूँ गुज़रते हैं कि धूप में छाँव का और छाँव में धूप का भरम होने लगता है। ये पहाड़ अक्सर बेतरह ख़ामोश शोर का बना जान पड़ता है जिसकी मिट्टी में सफ़-ब-सफ़ समंदरों को दबाया गया है। ग़ौर से देखने पर इस पहाड़ में उकेरी हुई लहरें दिखेंगी। हम सन्नाटों से गूंजते है, ख़ाली मैदानों की पैरों से रौंदी मिट्टी जैसे उड़ते हैं। हम बाजगश्त हैं जिनकी असली आवाज़ गुम पड़ी है कहीं.........हम दौड़ती सदी के थमे हुए पैर हैं| उसने पैर के पास पड़े पत्थर को उठा कर कान से लगा लिया| सरवत की पहाड़ियों का दिल उसके कानों में गूंज गया और उसका दिल वह तो इन दिनों जैसे बिना आवाज़ के चलता है। उगने से पहले और फिर दुबारा मिट्टी में रल जाने के बीच भर कि जगह ही तो प्यार है| इस जगह की हवा फूल से भी भारी और चट्टान से भी हल्की हो कर बहा करती है| एक ऐसा वन साथ-साथ बढ़ता है जो हरे होने कि कोशिश में सूख कर मर जाता है| बिलखने भर कि गुंजाईश जब आँखों में ही किसी कोने से उतर जाए तो मौसम सर्दियों के मौसम हो जाते हैं| ये सर्द मौसम जिनमें घर को जाने वाली उजली गलियां कोहरे बीच भटक जाती हैं और लोग अपने घर की बजाय जाने कैसे कैसे रेगिस्तानों में पहुँच कर आग को खोजते फिरते हैं| फूल सी हवाएं अक्सर रेत के बवंडर भीतर-भीतर दबाए चलती है| मन की ज़मीन में सब हिसाब गड्डमड्ड हो जाता है और सर्द मौसम लम्बा|

“सुनो, क्या घर की याद आ रही है तुमको?” उसने पूछा|

“घर है तो याद आएगी ही| पर तुमको छोड के थोड़े ही जाऊंगा|” वह बोला|

वह उसे देखती रही और उसका हाथ अपने हाथ में ले कर बोली|

“तुमको तो तुम्हारे यहाँ की सरकार निकाल ही लेगी एक न एक दिन| हम ही छूट जायेंगे यहाँ, इस मरती हुई जगह|”

“आहा..... तुमको छोड़ के जाने से पहले मैं यहीं इस समन्दर में डूब जाऊँगा|”

“आदमी उतने ही पानी में डूबता है जितना वो अपनी आँख में समा ले......... बाक़ी तो आबज़ू, नदिया, दरिया, समंदर बस मछलियों के लिए बनाये गए हैं, हमारे लिए नहीं| ये मुल्क अब बर्बाद हो रहा| यहाँ से जाओगे ही तुम आज नहीं तो कल|” वह बोली|

फिर एक दिन वह लौट आया उसे वहाँ छोड़ कर| सरवत की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों की तलहटी में जिन पर हर रोज़ बम बरस रहे थे| जहाँ घर आन की आन खंडहर में बदल रहे थे|

मुल्क 2: हिन्दुस्तान

शहर: आगरा

सात महीने हो गए उसे वापस लौटे और जब से लौटा है तब से उसे कोई खबर ही नहीं मिल रही उसकी| कौन जाने वह अब तक उसका रास्ता देख रही होगी या कहीं मर-खप गयी होगी|

उसका मन डूबने लगा था और बिज्जी समझ रही थीं कि वह ठीक हो रहा है| वह बिज्जी की चार बातों पर वह हूँ-हाँ कर के जवाब देता और वापस उसी चुप्पी के खोल में समा जाता| खाँसी अब कम उठती है उसे| वह सुबह-शाम महेंद्र के साथ घूमने भी जाने लगा था जिसे देख कर बिज्जी का डर कुछ कम होने लगा था| पर एक दिन उसकी हालत बिगड़ गयी|

वह कितनी देर उल्टियों में पड़ा रहा किसी को पता नहीं, बिज्जी जब उसके कमरे में पानी रखने गईं तो उसे बिस्तर से आधा लटका हुआ पाया| आनन्- फानन उसे अस्पताल में ले जाया गया| महेंद्र सीधे अस्पताल में ही पहुंचा|

“चाची कैसे हुआ ये?”

“पता नहीं| शाम से कह रहा था जी मिचला रहा है और खाँसी भी उठ रही थी रुक रुक के|”

“डॉक्टर क्या कहते?”

“कहते कुछ नहीं बस टालमटाल कर रहे तब से|”

“दिल्ली ले चलें चाची? शहादरे में मामा का घर है उनकी जान-पहचान है सरकारी अस्पताल में”

“जैसा ठीक लगे तुम्हें|” बिज्जी ने आँखें पोंछते हुए कहा|

अब वापस लौट कर अकेले ही आना होगा यहाँ, बिज्जी के मन में ये बात उसी दिन घर कर गयी थी जब वह उसे दिल्ली ले कर आई थीं|

मुल्क 2: हिन्दुस्तान

शहर : दिल्ली

बिज्जी जिस सोफ़े पर सर टिकाये खिड़की के सहारे बैठी थीं वहाँ से अस्पताल का बगीचा नज़र आता था| उतरती शाम की थकी रोशनी दिल बुझाने वाली थी| अस्पताल के बरामदे मरीज़ों और उनके तीमारदारों से खचाखच भरे हुए थे| इतनी तंगी इतनी गरीबी के बाद भी लोग अपने मरीज़ों को ऐसे अस्पतालों में क्यूँ लाते हैं जहाँ दमड़ी-चमड़ी दोनों पिघल जायें उन्होंने सोचा| हाँलाकि वह ख़ुद ही घर भर का धेला-दमड़ी खँगाल के इकठ्ठा कर उसे यहाँ लायी थीं की उसका ईलाज हो सके| जब से बीमा वालों ने उसके ईलाज का ख़र्च देने से मना किया है तब से उसके दिल के साथ-साथ बिज्जी का भी दिल डूबने लगा है, कि कहाँ से आएगा इतना पैसा? सुबह- शाम वह घंटे भर को ही उसे देख पाती हैं वरना बाक़ी वक़्त वहीं कभी सोफ़े पर या बगीचे की घास पर एक कोने में लेट कर काट देती थीं| मिलने के वक़्त भी वह उसे अक्सर एक बार ही जागा देख पाती थीं| वह कभी दिन में सोया मिलता तो कभी शाम को| अब बिज्जी के मन में ये बात घर कर गयी थी कि वह जान-बूझ कर एक वक़्त सोने का नाटक किये रहता है ताकि बिज्जी उससे ज़्यादा बात न कर पायें|

शाम के मिलने का वक़्त हुए जा रहा था| बिज्जी ने अपना दुपट्टा झटक कर सीधा किया और दुहल्लर कर कंधे पर डाल लिया| इधर पिछले कुछ दिनों से बिज्जी की जान पहचान एक नर्स से हो गयी थी| बिज्जी इस मेल-मुलाकात के बहाने चाहती थीं कि वह डॉक्टरों से उनके लड़के की तबियत की अंदरूनी जानकारी निकाल के ला सकें| जाने क्यूँ उन्हें बार-बार लगता है कि डॉक्टर सब बात खुल कर नहीं बता रहे| बिज्जी ने हाथ में पकड़ा रामायण का गुटका आँखों से लगा कर बटुए में रख लिया| पैर के अंगूठे में बंधा काला धागा घुमा कर सही किया, उठ खड़ी हुईं और सामने से आती नर्स का रास्ता लपक कर रोक लिया|

“आज तो बड़ी देर से आईं आप माया बहन जी|”

“आज तो रात की ड्यूटी है मेरी| तुम न गयीं घर अब तक| कैसे जाओगी?”

“एक बार जाने से पहले बाले को देख लूं| शहादरे की बस तो नीचे अस्पातल के सामने से ही मिल जाती है और अड्डे से कुल पाँच मिनट की दूरी पर घर|”

“अच्छा|”

“सुनो आप ड्यूटी पर रहोगी तो रात में एक बार बाले की तरफ़ झाँक कर देख लोगी क्या?” बिज्जी ने नर्स से पूछा|

“ठीक है|”

बाहर की रोशनी ज़मीन से टकरा कर हरी-हरी घास में डूबने लगी थी और शाम अब फीके रंग में ढ़लने लगी थी| एक-एक कर बरामदे की सब बत्तियां जल चुकी थीं| बिज्जी ने झाँक के देखा| वो आँखें मींचे पड़ा था| उन्होंने उसे ऐसे देखा मानो इस बात की टोह लेना चाह रही हों कि वो सच में सो रहा है या उनकी आहट पा सोने का नाटक कर रहा है| बिज्जी ने उसे झिंझोड़ कर उठाने की कोशिश की| उसके कंधे में दर्द की एक लहर उठी और बदन करवट खा बिस्तर पर दूसरी ओर घूम गया| अदबदा कर उन्होंने उसकी आँखें खोल दीं| ऊँगली कि चुभन से वह चिहुंका| बिज्जी ने देखा उसकी आँखें अजब गहरे रंग हो रखी थीं जैसे किसी ने फालसे को मसल कर आँखों में घिस दिया हो| वह देर तक उसके माथे पर हाथ फेरती रहीं| जब वह दुबारा सो गया तो उठ कर कमरे से बाहर चली गयीं|

बिज्जी के बाहर निकलते ही उसने अपनी आँखें खोलीं और उनकी परछाईं को दूर होते देखता रहा| एक बार को उसके मन में आया कि आवाज़ लगा के माँ को रोक ले कुछ देर और पर जाने क्या सोच कर चुप रहा| बिज्जी की परछाईं धीरे-धीरे उसके सामने से गायब हो गयी| खैर यूँ भी जो परछाईं आँख में पूरी समा जाये उसी को उम्र भर खोजने के सफ़र पर निकलना पड़ता है| आँख में छुपा हुआ कोई भी क़तरा दिख कहाँ पाता है| गरम हवा के थपेड़े दुबारा आसमान की ऊँचाई को लपक जाते थे और अपने साथ हाँफती हुई धूल को भी ले उड़ते थे| उसने अपनी आँखें दुबारा मींच लीं जैसे वापस अपने मुल्क की ज़मीन पर इन्हें बंद कर के वह दूर, मीलों दूर के किसी और अंजान ज़मीन के टुकड़े पर पहुँच जाएगा| देह के भार को पहुंचना मुश्किल है पर मन जैसे हल्के मन को कहीं पहुँचते देर लगी है भला| उसकी बंद आँखों में ताज़ी-ताज़ी काले तारकोल से बनी सड़क खिंच गयी जैसे अभी-अभी उसकी आँखों के लिए ही बनी हो| ये सड़क उसकी याद में गली नम्बर तीन के नाम से दर्ज़ थी| इसी सड़क के मुहाने पर मुहल्ले भर की सबसे शानदार कोठी खड़ी थी जिसके मालिक को पूरा मुहल्ला थ्रेडा के नाम से जानता था| कहते हैं कि उसका असली नाम कुछ और था पर किसी क्लास में लगातर तीन बार फ़ेल होने पर थ्रेडा पड़ गया था| इस घर को उसने कभी अंदर से नहीं देखा था| पर आज सपने में उसका मन जाने कैसे इस कोठी की बालकनी से चढ़ कर एक बड़े कमरे में पहुँच गया| कमरा आधे उजाले में था और आधा अँधेरे में| जहाँ उजाला था वहाँ सोने वाले का चेहरा नहीं दिखा पर अँधेरे की तरफ़ अलमारी के शीशे में उसे किसी की चमकती एडियाँ दीख रहीं थीं|

“क्या अब उसकी ऐसी सफ़ेद, साफ़, चिकनी एडियाँ बची होंगीं|” उसने सोचा|

धूल वापस धीरे-धीरे ज़मीन पर उतरने लगी थी| उतरती हुई थकी धूल सबसे पहले उसकी खिड़की के शीशे पर बैठी और ज़रा बाद उसके मन पर| डॉक्टर भी तो यही कहता है कि लगातार धूल में रहने और काम करने से उसके फेफड़ों में धूल अंदर तक जम गयी है और इसीलिए उसे सांस लेने में तकलीफ़ है जो दिन-ब-दिन और बढ़ेगी ही|

उसने ऐसे करवट बदली जैसे बंद आँखों से उन एडियों साथ और भी सब देख लिया हो| अबके ये बंद आँखें ऐसी जगह खड़ी थीं जहाँ सड़क बार-बार के धमकों में टूट-टूट कर गुबार में बदल गयी थी| इस गुबार में दो एडियाँ चमक जाती थीं जो जाने कितने महीनों से फटी हुई थीं और जिनकी दरारों में धूल वैसी ही आसानी से बैठी हुई थी जैसे उसकी खिड़की के शीशों पर थी और उसके मन पर|

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बिज्जी ने कमरा खोला, बत्ती जला दी| सौ वाट के मरे-मरे अँधेरे में उन्होंने हाथ-मुँह धोये और चाय का पानी चढ़ा दिया| ये बहुत छोटा कमरा था शायद बरसाती को आधा घेर कर खड़ा किया हुआ| बिज्जी लौटते में रेहड़ी से दो परांठे और आलू की सब्ज़ी ले आयीं थीं अपने लिए| उन्होंने अखबार खोला परांठे रखे और थैली में से ही सब्ज़ी निकाल के खाने लगी| अपने घर होती तो आलू-परवल की सब्ज़ी बनाती उन्होंने बडबडाते हुए कहा| कमरे की छोटी सी खिड़की से लू के गरम थपेड़े उन्हें धकेलते हुए कमरे में दाखिल हो गए| बिज्जी ने अटैची खोली कागज़ के नीचे से रुमाल में बंधे रूपये निकाले और गिनकर वापस रख दिए| इतना रुपया इस मकान का किराया और अस्पताल के तीन महीने का खर्च तो निकाल ही लेगा उसके बाद ज़रूरत पड़ी तो वापस घर चले जायेंगे|

बिज्जी की नींद से बंद हुई जा रही आँखों में पिछले दिनों का उदास पानी तैर रहा था| उन्होंने उसे बाले शाह के उर्स में जा कर माँगा था तो उसका नाम ही बाले रख दिया| जब उन्हें ये ख़बर मिली कि वह जहाँ है वहाँ युद्ध छिड़ गया है तो उनकी सांस एक पल को रुक सी गयी और उसके बाद महीनों रास्ता देखने की ऐसी बेआस बेचैनी जिसमें साँस लेते लेते मरने की सूरत बनी रहती है| उनकी आँखों में बार-बार तीन महीने पहले की एक शाम आ कर रुक जाती है| मई के आसमान में बादल ठहरे हुए थे, उमस का भभका उठ उठ कर बैठ जाता था| बादल इतने घने थे कि अगर खुल जायें तो जाने क्या क्या न बहा ले जायें| उन्होंने दूध की डोलची नीचे रख तखत पर सर टिका आँखें बंद ही की थीं कि महेंद्र की आवाज़ ने जगा दिया|

“चाची, चाची.......”

“क्या हुआ ?”

“बाले....... बाले लौट आया है अभी अभी दिल्ली से कुछ लोग उसे ले कर आये| मैं जा रहा थाने| घंटे दो घंटे में ले कर लौटा उसे|”

वह कुछ कह पाती उससे पहले ही महेंद्र घर के बाहर निकल गया|

वह जब महेंद्र की बाँह थामे घर में घुसा तो सारा घर बारिश से भीगा हुआ था| उसने देखा बिज्जी शटर का हत्था पकड़े खड़ी थीं और बारिश हवा के साथ उनके चेहरे पर पड़ रही थी| उन्होंने उसे बिना कुछ कहे गले से लगा लिया मानो उनकी आवाज़ के छूने भर से वह बिख़र जाएगा| बिज्जी ने उसे देखा देह काठ सी रूखी हो रखी थी और हर हड्डी इतनी साफ़ उभर आई थी कि मानो अभी ही ख़ाल को चीर कर बाहर निकल आएगी|

मुल्क 1: यमन

शहर: सना

उसकी शहरग में मानो जैसे गाँठ पड़ गयी थी जो बार-बार खोलने पर भी नहीं खुलती थी| उसे ऐसे लगने लगा था जैसे उसको भी अपनी माँ की तरह गोलियों से खून पतला करने की नौबत आने वाली है| दिल हूक से बार- बार भरता और आँखों की ख़ुश्क चुप्पियों पर शिकवा कर के रह जाता| मौसम में गर्द, ग़ुबार, चीखें और भी जाने क्या क्या उतर आया था| पत्ता-पत्ता शाम का भरी दुपहरी सा ज़र्द हुआ पड़ा था| अज़ान की आवाज़ें उठती और गिर कर उस राह पर डूब जातीं जहाँ रात गए मोर्टार की बौछारों ने क़तार में सटे घरों में सिवाय टूटी दीवारों के कुछ और छोड़ा नहीं था| महीनों तक बच-बचाने के बाद वह घर पिछली रात टूट गया और उसकी लहकती शहरग में एक गाँठ डाल गया| कौन बचा? कौन मरा? किसी को किसी की कोई ख़बर ही नहीं| इस मुल्क का सबसे बड़ा सबसे सुंदर शहर खंडहर में बदलने को समय से होड़ लेता दीख रहा है| जितना नुकसान सभ्यताओं को शताब्दियाँ नहीं पहुँचाती उससे ज़्यादा आदमी के बारुद से बनाये बम-धमाके पहुंचा देते हैं| बारूद की सुलगी सी हवा धीमे-धीमे सांस लेने के सब तरीके ख़त्म कर देती है| उसके दिल में बैठे डर ने उससे पूछा कि अगले किसी हमले में अगर वह मर गयी तो क्या उस तक ये ख़बर पहुँच पाएगी या यहीं इस रेत के नए कबाड़ में खो जाएगी| युद्ध ज़मीनों से नमी सोख लेता है, जड़ों को सुखा देता है| नदियाँ सूख जाती हैं और ऐसे दिखती हैं जैसे मानो वहाँ सदियों से पानी था ही नहीं| पहाड़ों की कठोर देह चूरा-चूरा हो कर हवा में बिख़र जाती है| उसने धुंधली धूप में आँखें मिचमिचाते देखा अमानत-अल-अस्मा का खूबसूरत आसमान पहाड़ की टूटी चट्टानों के गुबार में मैला हो रखा था| अभी जाने किस कोने, किस जगह से किस के रोने की आवाज़ आयेगी? रात दिन लोगों की धडकनों में हौल पड़े जा रहे हैं, कौन जाने कब कहाँ से कोई उड़ता बम गोला आ कर लाल समंदर कि गोद में गिर पड़े या किसी के घर को दरका दे| वह जहाँ खड़ी है वहाँ से सरवत की पहाड़ियाँ ऐसे लगती हैं कि हाथ बढ़ाने से वह उन्हें छू लेगी| उन्हीं पहाड़ियों में से एक पर उसने देखा कि धमाके की चोट से एक चेहरा बन गया है| उसने देखा कि पत्थर पर आँखें, नाक और होंठ उभर आये हैं| जिसकी आँख, नाक और होठों को उसने उन पत्थरों पर देखा था उसकी अब कोई ख़बर ही नहीं थी उसको, वह जाने इस मुल्क में था भी या नहीं| अल-सालेह से अज़ान की आवाज़ हुई, उसने शाम के पहाड़ी चेहरे को ग़ुबार में डूबते हुए देखा| अब के हमलों का रुख़ रिहाईश कि तरफ़ पूरे ज़ोर से मोड़ दिया गया है| रातों-रात हिफाज़त के नाम पर बस्तियां ख़ाली कराई जा रहीं हैं| आदमी कहीं और भेजे जा रहे हैं, औरतें और बच्चे कहीं और| घर के घर पल भर में टूट कर बिख़र रहे हैं| उसे भी पता था कि किसी दिन उसे भी किसी कैम्प में भेज दिया जायेगा जहाँ से वापस आना कब हो किसे पता|

मुल्क 2: हिन्दुस्तान

शहर: आगरा

बिज्जी ने उसके माथे पर हाथ रखा, आज तो बुखार नहीं है| धीरे धीरे उन्होंने उसके बालों में हाथ फेरना शुरू कर दिया| रूखे बालों में उंगलियाँ अटक-अटक जा रहीं थीं| सरसों के गरम तेल की कटोरी उन्होंने उसके सर में उड़ेल दी और बालों को सहलाना शुरू कर दिया और उससे धीमी आवाज़ में बात करनी शुरू कर दी जैसे ख़ुद आप ही आप से बात कर रही हों|

“तुम सही हो लो तो अब के तुम्हारे साथ बाले शाह के उर्स चलेंगे| कुछ उतरवा देंगे तुम्हारे हाथों से वहाँ| वहाँ जाने वाले के सारे दुःख धूप में रंग से उतर जाते हैं| तुम्हारे पैदा होने से पहले गए थे वहाँ तुम्हारे लिए मनौती ले कर तभी तो बाले बुलाते हैं तुमको हम| बड़ी नाम-शोहरत कि जगह है वो, गली-गली में बस लोगों के चेहरे ही दीखते हैं और बाले शाह के नाम का एक अनदेखा सायादार परबत उनके पीछे साये सा खड़ा लगता है|” बिज्जी ने उसके माथे को दुबारा छू कर कहा|

उसने पलकें खोलीं और तुरंत ही झपका लीं| बाले शाह का परबत उसे सरवत की पहाड़ियों की तलहटियों में ले गया| उसके सामने साफ़-चमकती हुई धूप का एक टुकड़ा खुला हुआ पड़ा था| जबल नुक़म की गहराई में बसा ये शहर पिछले कुछ सालों से उसकी तरह लगातार हांफ रहा था| इसकी छाती में एक धूल का रेला सालों पहले जब से उठा है तब से बैठा ही नहीं| अल-सालेह की तरफ़ से ही उसका आना जान था| उसने करवट बदल के बिज्जी की तरफ़ पीठ फेर ली मानो ऐसा करने से वह अल-सालेह के सामने से गुज़रती सड़क को ठीक से देख पायेगा| हवा में जाने कितने दिन की धूल मिली हुई थी| ये हवा उसके फेंफडों में धीरे से अंदर सरक गयी| उसे खांसी का एक हल्का सा झटका उठा तो बिज्जी के हाथ फ़ौरन ही उसकी छाती सहलाने लगे| उसने धीमी आवाज़ में पूछा|

“साल कौन सा है अम्मा?”

“साल तो अठारह शुरू हुआ अभी| तुम सही हो लो तो अगले बरस बियाह कर दें तुम्हारा और गंगा नहा लूं मैं|” बिज्जी ने उस से कहा|

“कोई है वहाँ अम्मा जो हमें पसंद है|” वह बिज्जी से बोला|

“बाले धूप भरे रास्तों के गुलमोहर छाँव के लिए तो अच्छे होते हैं पर उन पर कोई पंछी घोंसला नहीं डालता| हलकी डाल के पेड़ घर बसाने के लिए अच्छे नहीं होते| हवा कि मार घरों को तोड़ देती है| तना मजबूत और तासीर हल्की हो उसी लकड़ी की नाव पानी में उतरती है| वो यहाँ आ सकती नहीं और तुम अब कहीं वापस जाओगे नहीं| अच्छा-बुरा जो मिले अब उसे यहीं बोना, काटना है बेटा| आँसू पोंछने वाले बहुत होंगे पर जो गरम माथे का पसीना पोंछे उसी की जड़ में जा जुड़ना बाकि तो सब से उतना ही जुड़े रहना जितना कि पंखुरी शाख़ से.....| थोड़ा हिम्मत दिखाओ मजबूत बनो, ऐसा मिलना जुलना तो बना ही रहता है ज़िंदगी में सबके पर एक ठौर रुकना ही पड़ता है|” बिज्जी ने उसकी आँखें पोंछते हुए कहा|

उसने बिज्जी के हाथों के ऊपर अपने काँपते हाथ ऐसे रख दिए जैसे इन्हें छूने भर से कोई और ऐसे ही हाथ उसकी छुअन में आ जायेंगे और उसका ये दुःख पल भर ही में ख़त्म हो जायेगा|

“थोडा पानी पिलाओ अम्मा|” वह बोला|

बिज्जी पानी लेने उठीं, उसे देखा और सोचने लगीं कि कैसी बीमारी गले पड़ गई कि छाती ही बैठ गयी लड़के की| और वह आँखें बंद किये हुए सोच रहा था कि कैसा युद्ध गले पड़ गया कि वो शहर ही मिट्टी में बैठ गया| और वह जाने कहाँ होगी अब ये सोचते-सोचते पानी आने से पहले ही वह दुबारा सो गया|

मुल्क 2: हिन्दुस्तान

शहर: दिल्ली

बिज्जी जब अस्पताल पहुंची तब तक महेंद्र उसकी दवाईयाँ ले कर आ चुका था| वो जा कर उसके पास बैठ गयीं|

“डॉक्टर से बात हुई थीं चाची|”

“क्या बोले?”

“कहते हैं कि थोड़ी परेशानी की बात है| फेफड़ों में मिट्टी से इन्फेक्शन बढ़ता ही जा रहा है|”

“सही होने की क्या बात बोले?” बिज्जी ने कनपटी से पसीना पोंछते हुए पूछा|

महेंद्र उनकी बात का कोई जवाब दिए बिना ही बाहर निकल गया|

“हर हरी शाख़ पर पहला घोंसला पतझड़ ही बनाता है और उसमें बैठा दिल का परिंदा बहुत उदास होता है|” बाले ने छत को घूरते हुए सोचा| वह कितनी देर से जागा पड़ा है पर न बिज्जी और न ही महेंद्र भाई ही झांक के गए अब तक| उसने गर्दन घुमा के इधर-उधर देखा कमरे में दो मरीज़ और थे पर दोनों ही सो रहे थे| उसने हाथ बढ़ा कर पानी का ग्लास उठाया एक घूँट पिया, वापस रख दिया और आँखें बंद कर लीं| कहीं से जैसे लोबान की ख़ुशबू आई और उससे टकरा के पलट गयी और उसे एक दूसरी जगह दूसरे अस्पताल में ले गयी|

वो अस्पताल एक पुराने स्कूल की इमारत में बना हुआ था| मर्द और औरतों के अलग-अलग दस्ते इधर-उधर सर धुन रहे थे| जिन कमरों में बच्चों की हँसी गूंजनी चाहिये थी उन कमरों में खून में लथपथ, पसीने की बदबू में डूबी कराहें उठ उठ कर गिर रहीं थीं| उसने घूम के देखा डॉक्टर का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था| लोगों के चेहरों पर बजबजाती बैचनी उसे उकताने लगी थी| उसे कौन कोई बहुत बड़ी बीमारी है ज़रा खाँसी ही तो है, कल आ जएगा दिखाने, उसने सोचा| वह बाहर निकल आया, गर्मी की तेज चुभन के साथ दुपहर की हवा एक अबाये (बुर्के की एक किस्म) में से अपने साथ एक तीखी, सर चकराने वाली ख़ुशबू ले कर उससे आ टकराई| ऐसी ही ख़ुशबू, ऊद की तीखी, पैनी ख़ुशबू उसके साथ उसी रात से भटक रही है| उसने उस रात ऐसी ही ख़ुशबू वाली की एक झलक देखी भर थी, जब वह पत्थर उठाने के लिए उसके पास आ के रुकी थी| शक्ल तो उसके ज़हन से गुम हुई पर ये ख़ुशबू जैसे तभी से उसके साथ चिपक गयी है| कई-कई बार रात भर उसने जाग कर इस ख़ुशबू का सुराग ढूंढने की कोशिश की थी| वह पलटा और दौड़ते हुए उस अबाये वाली लड़की के पास जा खड़ा हुआ|

“सालेकुम”

लड़की आवाज़ से चौंक कर पलटी| लड़की को देख कर उसके चेहरे पर उजाले की चमक दौड़ गयी|

लड़की ने सर हिला कर तस्लीम पेश की पर कहा कुछ नहीं| उस पर एक सरसरी निगाह डाली और अस्पताल में घुस गयी|

वह पल भर को ऊद की तुर्श महक में बेहोश सा खड़ा रहा और हवास आने पर उसके पीछे-पीछे अंदर घुस गया| अंदर की जिस भीड़ से घबरा के वह बाहर निकल आया था अब उसी भीड़ में उसे ढूंढ रहा था| सैकड़ों एक जैसे अबायों के बीच वह जब उसे ढूंढ नहीं पाया तो थक-हार के बाहर निकला और ख़जूर के एक पेड़ के नीचे बैठ गया| पत्तियों की नोक से टकरा के धूप सीधे उसके माथे पर पड़ रही थी और उसके चेहरे को चितकबरा बना रही थी| उसे खाँसी उठी और ऊद की तेज़ गंध में लिपटे हाथ ने उसकी तरफ़ पानी की बोतल बढ़ा दी| काँपते हुए उसकी आँखें खुल गयीं| कुछ ही तो नहीं था उसके सामने सिवाय बिज्जी के जो उठ कर जग में से उसके ग्लास में पानी भर रहीं थीं| बिज्जी ने उसे पानी पिलाया, हाथ की सूजन को छू कर देखा | डॉक्टर ने सूजन की वजह से कैन्युला की जगह बदल दी थी| देर तक उसका माथा सहलाती रहीं और जब वह सो गया तो खड़ी हो कर उसके सीने के उतार-चढ़ाव को देखती रहीं| जब से उसकी बीमारी का पता चला है वह ऐसे ही उसकी साँस लेने की गति से उसके ठीक होने का अनुमान लगाती रहती हैं| उसे सोता छोड़ वह निकल आईं| महेंद्र वहीं बरामदे में खड़ा था, उन्हें देख बीड़ी फेंक उनकी तरफ़ बढ़ गया|

“क्या कर रहा है?”

“सुला कर आई हूँ|”

“कुछ बात की?”

“एक शब्द नहीं बोला| ज़रा देर को जगा था| पानी पिया और दुबारा सो गया|”

“अच्छा है जितना आराम करे|”

“उल्टे हाथ में सूजन आ गयी है डॉक्टर मिले तो पूछना लेना महेंद्र|” उन्होंने कहा|

“अच्छा चाची एक बात सुनो|” महेंद्र ज़रा देर चुप रह कर बोला|

“हम्म्म्म”

“स्वरुप मामी के पिता जी याद हैं आपको?”

“बी.टी.सी. मास्साब?”

“हाँ, मामी बता रहीं थीं कि उन्हें भी ठीक ऐसी ही बीमारी ने पकड़ लिया था| कहीं फ़ायदा नहीं हुआ तो काठगोदाम के किसी वैद्य के पास ले गए उनके भैया| तीन महीने में टकाटक ठीक हो गए थे मास्साब| बाद में तो बिना बेंत के भी चलते रहे कितने साल तक|”

“अरे! सरूपा की भली चलाई| वो मठ्ठे से चाय और दूध से लस्सी बनाने जैसे करतब ही दिखा सकती है| उसके कहे का क्या भरोसा| याद है अपने बेटे को दमे के बाद कैसे हैदराबाद ले गयी थी कि गले में मछली डलवाऊँगी और दमा ठीक| कुछ हुआ? लड़का आज तक परेशान है| ढंग से डॉक्टर को दिखाया होता तो लड़का कब का सही हो जाता|” बिज्जी ने कहा|

“पर एक बार ले चलने में कोई हर्ज़ तो नहीं|”

“जैसा ठीक समझो, पर अभी नहीं कुछ रुक कर|” बिज्जी ने कहा|

“पैसा कितना पड़ा है पास में?” महेंद्र ने पूछा|

“अभी तो है तीन, साढ़े-तीन महीने लायक”

“उसके बाद?”

“उसके बाद तेरे वैद्य जी के पास|” अच्छा अब तू जा शाम को आना| मैं ज़रा पाठ कर लूँ| बिज्जी ने बटुए में से रामायण गुटका निकाल माथे से लगाते हुए कहा|

मुल्क 1: यमन

शहर: सना

“सालेकुम”

आवाज़ सुन कर वह पलटा| उसे अस्पताल आते हुए हफ़्ते से ऊपर हुआ पर उस दिन के बाद वह उसे आज देख रहा था| अबकी बार खुश्बू मिले-जुले फूलों जैसी थी|

“वालेकुम सलाम|” उसने जवाब दिया|

“शबाब हिन्द?” (हिन्दुस्तानी हो)

“आइवा” (हाँ)

“माय शोइया|” (पानी लोगे थोडा)

“तुमने उस रात पत्थर क्यूँ मारा था मुझे?” उसने लड़की के हाथ से पानी की बोतल लेते हुए पूछा|

“बस यूँ ही फेंका था पत्थर| तुमको मारने के लिए नहीं था|”

“तुम किस चीज़ के लिए आ रहे हो हॉस्पिटल, रोज़ यहाँ आ कर बैठे रहते हो?” उसने पूछा|

“खाँसी दिखाने के लिए|” वह बोला|

“क्या सच में?” उसने हँस कर पूछा|

“पहले खाँसी दिखाने आता था पर उस दिन के बाद तुम्हें ढूंढने|

“तुम क्यों आती हो यहाँ?”

“भाई ग़ायब है मेरा| घर से निकला था एक रोज़ अब तक पलटा नहीं| उसी को ढूंढती रहती हूँ आजकल| कभी यहाँ तो कभी कहीं और| उसने कहा|

“यहाँ कहाँ रहते हो तुम?”

“धामर में था पर काम बंद होने के बाद हमें यहाँ कैम्प में भेज दिया| पिछले कई महीनों से यहीं हैं अब सब| जाने कब घर जा पायेंगे?”

“अच्छा|”

“तुम कहाँ रहती हो?”

“यहीं अल-सालेह के पास|”

“बड़ी मस्ज़िद वो तो बहुत दूर हुई यहाँ से|” वो बोला|

दिन डूबते रहे, शामें उगतीं रहीं पर हवा में घुली बारूदी उदासी कम नहीं हुई| लोग धमाकों से कम मर रहे थे कि बीमारियाँ भी आ गई थीं लोगों को निगलने| अम्मा-बाबा पहले ही हैज़े में पार उतरे और अब ये नया साथी भी छूटने कि कगार पर है| उसने उसका चेहरा देखा, खाँस-खाँस के खून उसके पूरे चेहरे पर उभर आया था जैसे| कुछ ही हफ़्ते में शक्ल-ओ-सूरत पटक के सूख गयी थी| दवाईयां काम नहीं आ रहीं थीं उसके| युशरा ने उसके चेहरे को देखा, उसकी सूखी आँखों में बैचैनी का बीज अटका पड़ा था| उसने सोचा कि सूखी मिट्टी में भला बीज अँखुआते है कहीं। बीज में हरियाली बनाये रखने के लिए नमी बहुत ज़रूरी होती है। पहाड़ों के पैरों से लिपटी वादियाँ में धूल उड़ रही है, पानी की बूँद भी नहीं है कहीं| जिन मौसमों में हवा भी सर झुका के चलती हो, उन मौसमों में मन को छुपा के रखना चाहिए। ये सरनिगूं हवा मन में बवंडर उठा जाती है, और ऐसे मौसम में वह मन में जाने कैसे मंसूबे बाँध रही थी वो भी एक लौट कर जाने वाले के लिए|

दिन डूबने पर असमान की रोशनी कई रंगों में बिख़र के उसके सर के ऊपर फैलने लगी थी| ऐसी शाम युशरा ने महीनों बाद देखी थी जब आसमान में धूल का ग़ुबार नहीं थ|

“जानते हो यहाँ अरब में एक बात बोली जाती है|” उसने बाले से कहा|

“क्या?”

“दूर है दिलगीर है/ नज़दीक तुपंग-ए-तीर है|”

“मतलब|”

“यानी..... जो दूर है वह दिल के करीब है/ नज़दीक होने पर वही तीर की तरह चुभता है|”

“क्या बात है?” बाले ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर उससे कहा|

“हम सब को यहाँ से निकाल कर कैम्प में भेज रहे| लोगों के भेजना भी शुरू कर दिया है|” वह बोली|

“किस जगह भेजेंगे?”

“पता नहीं जिसको जहाँ जगह मिल सके|” अब अपने दूर होने का वक़्त आ रहा है|”

“प्यार?” बाले के मुँह से इतना ही निकला|

प्यार.................... जैसे रंगों में बैंगनी, मिट्टी में रेत, रगों में शहरग, वक़्त में देर और पानी में भँवर जितने ऊंचे होते हैं उतना ऊंचा, नम और चमकदार प्यार कौन निभा पाता है। किसी किसी के ही दिल की ढ़ालू पहाड़ी में ऐसा कोना बन पाता है जहां रौशनी जा कर बैंगनी रंग में टूट जाती है, जिसकी दरारें सोने के रंग वाली रेत को लिए हँसती रहती हैं। जिसके कोने से कहीं एक रग ज़रा सा गिरदाब लिए ऊपर की ओर थोड़ी थोड़ी देर में नमक मिले पानी को पहुंचाती रहती हैं। हमारे दिल तो सपाट धड़कने वाले ज़मीन के टुकड़े हैं ये कब कहाँ हरे हो सकते हैं|”

“अब क्या होगा?”

“अब क्या होगा, किसे पता? यूँ भी बाले मिट्टी जब-जब समंदर बीच अपनी ऐड़ी रगड़ती है तब तब पहाड़ करवट बदलते हैं और फिर उन्हीं पहाड़ों से पानी कभी कभी नीचे उतरते हुए समंदर बीच अगले पहाड़ के लिए मिट्टी ले आता है। क्या मालूम कभी मिलना भी हो पाये|” युशरा बोली|

मुल्क 2: हिन्दुस्तान

शहर: दिल्ली

वह जागा हुआ था या झूठे ही आँखें मींच कर पड़ा था महेंद्र को समझ नहीं आ रहा था| रात से रह रह कर उसकी हालत बिगड़ने लगी थी| बिज्जी बीच बीच में झाँक जातीं और वापस जा कर रामायण पढ़ने लगतीं कि दवा नहीं तो पूजा-पाठ ही काम आ जाये| डॉक्टर्स ने महेंद्र से पिछले हफ़्ते ही कह दिया था कि महीनों किसी बारूदी हवा और धूल भरी जगह में लगातार काम करने से उसके फेंफडों में जो ब्लॉकेज आ गया है, उसे सही करना मुश्किल है| महेंद्र ने उसके सीने पर हाथ रख कर देखा उसका दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था कि महेंद्र को उसकी धड़कन उसके गले में उभरती नज़र आईं| उसकी खुली बाँह पर सुई का निशान भर भी नहीं था पर बाँह पर हल्की सी लाल छाँव उभर आई थी। इंजेक्शन लगाने वाले ने महेंद्र से कहा।

'अब आराम पड़ जाएगा थोड़ा। इतनी तबियत बिगड़ने पर लाये हो इन्हें यहाँ। कुछ और पहले लाते तो अब तक कंट्रोल कर सकते थे न हम।'

'लाते कैसे? ये जहाँ थे वहाँ हाल अच्छा नहीं इन दिनों, लड़ाई छिड़ी हुई है और वैसे भी अब तक बहुत बंधन में थे ये। अब आ गए ये ही क्या कम गनीमत है।'

बंधन उसके कानों ने जाने कैसे इस बात को सुन लिया।

'क्या होता है बंधन? कहीं किसी ऐसी जगह फंस जाना जहां युद्ध आपके सरहाने सो रहा हो। इन देह के बंधनों से बड़े मन के बंधन होते हैं। उसमें भी जब आपका मन पैदा ही बढ़ने, भटकने के लिए हुआ है, आप सारा जीवन किसी एक घर में किसी के साथ काट दें या फिर आप चाहें कि किसी एक जगह किसी एक छाँव के नीचे जीवन लहर की तरह उठता और गिरता तो रहे पर किसी समंदर की ज़ानिब न बढ़े| ऐसे में इस लहरदार पौधे को कोई बारीक़ी से काट काट कर क़लम बना कर जगह जगह रोप दे और फिर कहे कि अब खिल के दिखा। ऐसे बंधन कहाँ ढीले कर पाता है कोई बिना मरे। उसके मन की एक कलम किसी ने काट कर सरवत की पहाड़ियों में रोप दी है| किसे पता उसमें से कोई पौध निकल कर लहलहा रही हो या सूख के झर चुकी हो| उसकी बाँह हल्की सी कांपी और जहाँ लाल छाँव थी चुपचाप दम उस खिड़की से कूद उसे हर बंधन से आज़ाद कर गया। सरहाने खड़े दोनों लोग अभी भी उसकी फ़िक्र में दुनिया जहान की बातें बना रहे थे। दूर सरवत की पहाड़ियों में धूल भरी हवा उठी और युशरा के पैरों के पास आ कर बैठ गयी।

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