जय श्रीकृष्ण बन्धुजन!
भगवान श्रीकृष्ण और श्रीगीताजी की कृपा से आज मैं फिर से श्रीगीताजी के दसवें अध्याय को लेकर उपस्थित हूँ। आप सभी प्रियजन श्रीगीताजी के अमृतमय शब्दो को पढ़कर अपने जीवन को कृतार्थ करे। श्रीगीताजी आप सभी बंधुजनों की सारी महात्वाकांक्षाये पूरी कर।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏श्रीमद्भगवतगीता अध्याय-१०🙏
श्री कृष्ण भगवान ने कहा- हे महाबाहो! और भी मेरे कल्याणकारक वचन सुनो। तुमपर मेरी अत्यंत प्रीति है अतएव तुम्हारे कल्याण के लिये कहता हूँ। मेरी उत्पत्ति का हाल न तो देव गण जानते हैं और न महर्षि लोग। मैं ही देवों और महर्षियों का आदि कारण हूँ। जो मुझे अजन्मा, अनादि और सब लोकों का ईश्वर जानते हैं। वे मोह रहित हो सब पांपो से छूट जाते हैं। बुद्धि, ज्ञान अर्समोह, क्षमा, सत्य, दम , शम, दुःख, जन्म, मरण, भय और अभय अहिंसा, समता, सन्ताप, दान, यश, अपयश इत्यादि जो अनेक प्रकार के भाव हैं वे सब मुझसे उत्पन्न होते हैं। सात महर्षि और उनसे पहले चार मनुष्य मेरे मन से उत्पन्न हुए। जो मनुष्य इस विभूति को भली-भाँती जानते हैं वे निश्चय योग से सिद्ध होते हैं, इसमें संदेह नहीं। यह जानकर की मैं ही सबका उत्पत्तिकारण हूँ और मुझे ही से सबकी प्रवृत्ति होती है विवेकी पुरुष मेरी उपासना करते हैं। मुझी में अपने चित्त और प्राणों को लगाकर एक दूसरे को समझते हुए भजन करके सदा संतुष्ट और सुखी रहते हैं। चित्त का समाधान करके प्रीतिपूर्वक भजन करने वालों को मैं ऐसा बुद्धि योग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर लेते हैं। उन पर अनुग्रह करके भी उनकी बुद्धि में स्थित हो देदीप्यमान ज्ञान दीपक से अज्ञान मुलक संसारी अंधकार का नाश करता हूँ। अर्जून ने कहा आप परब्रम्हा हो, परमधाम हो, सन्यासी हो।आपको सब ऋषि, देवऋषि नारद, असित देवयज्ञ और व्यास भी कह गए है और स्वयं आप भी कह रहे हो। हे केशव! जो आपने मुझमें कहा है सो सब में सत्य मानता हूं। है भगवन! देवता और दानव इन दोनों ने ही आपके रूप को नहीं जाना है। हे सब सब जीवो को उत्पन्न करने वाले भूतेश, हे देव! जगत्पते! पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने को जानतें हैं। अतएव आप अपनी उन दिव्य विभूतियों का हाल पूर्णता से वर्णन कीजिए जिनके द्वारा आप इन सब लोकों में व्यापक हो रहे हैं। हे योगिन! हे भगवन! सदैव आपका चिन्तन करता हुआ मैं आपको किस प्रकार से जान सकता हूँ? आपका ध्यान किन-२ भावों से करना योग्य है। हे जनार्दन! कृपया अपनी माया और विभूतियाँ विस्तार से कहिए। इस अमृत रूप आपकी वाणी को सुनने से मेरा मन तृप्त होता है। श्री भगवान ने कहा- मेरा विस्तार तो अनन्त है तो भी मुख्य-२ विभूतियों को मैं तुम्हें सुनाता हूँ। हे गुणकेश! समस्त भूटन के अन्तःकरण में रहने वाली आत्मा में ही हूँ, मैं ही उनका आदि, मध्य और अंत हूं। मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशकों में अनेक किरणों से विभूषित सूर्य, मरूदंग्णों में मरीचि और नक्षत्रों में चंद्र हूँ। मैं वेदों में सामवेद, और देवो में इंद्र, इंद्रोयों में मनौर भूत मात्र में चैतन्य हूँ। रुद्रों में शिवयज्ञ,राक्षसों में कुबेर, आठ, वसुओं में अग्नि, और पर्वतों में सुमेरु हूँ, हे पार्थ! पुरोहितों में वृहस्पति, सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुन्द्र मैं ही हूँ। मैं महर्षियों में भृगु, वाणीं में एक अक्षर ॐकार, यज्ञों में यज्ञ और स्थावरों में हिमाचल हूँ, मैं वृक्षो में पीपल, देवर्षियों में नारद, गंधर्वो में चित्ररथ, सिद्धो में कपिल मुनि, वेदों में अमृत से उत्पन्न उच्चैहश्रवा, गजेन्द्रों में ऐरावत और मनुष्यों में मैं राजा हूं। शस्त्रों में व्रज, गौओं में कामधेनु, प्रजा की उत्पत्ति करने वालों में कामदेव और सर्पों में वासुकि मैं ही हूँ। नागों में शेषनाग हूँ। जलचरों में वरुण, पितरो में अर्यमा और शासन करने वालों में याम मैं ही हूँ, दैत्यों में प्रह्लाद , ग्रास करने वालो में काल , मृगों में सिंह और पक्षियों में गुरुङ मैं हूँ। शुद्ध करने वालो में वायु , शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर, नदियों में गंगा मैं ही हूँ। हे अर्जुन! मैं सब प्राणियों का आदि मध्य अन्त, विघाओं में अध्यात्म विघा और वाद विवाद मैं ही हूँ। अक्षरों में अकार, समासों में द्वन्द, अक्षयकाल और चार मुख वाला ब्रम्हा में ही हूँ। सबकी होने वाली मृत्यु भविष्य में पदार्थों की उत्पत्ति, स्त्रियों में कीर्ति, लक्ष्मी, वाणी, स्मृति मेधा, धृति, और क्षमा मैं हूँ। सामवेद में वृहत्साम, छंदों में गायत्री, मास में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं ही हूँ। छलियों में जुआ और तेजस्वियों में तेज, जय, उघोग, और सात्विकों से सत्य मैं ही हूँ। यादवों में वासुदेव, पांडवो में रजं, मुनियों में व्यास और कवियों में शुक्र मैं हूँ। दमन करने वालो में दण्ड, जय चाहने वालों में नीति गुह्रा पदार्थों में मीन और ज्ञानियों में ज्ञान मैं ही हूँ। है अर्जून! भूत भाव का जो बीज है वह मैं ही हूँ। मेरे अतिरिक्त चराचर भूत कुछ भी नहीं है। हे परन्तप! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है। यह विभूतियों का विस्तार मैंने संक्षेप में कहा है। जो-जो वस्तु ऐश्वर्यवान और यशवान है उन्हें मेरे तेज ही के अंश से उत्पन्न हुआ जानो। अथवा हे अर्जुन! यही जान कि मैं अपने ही एक अंश से इस सम्पूर्ण जगत में व्यापक हूँ।
अथ श्रीमद्भगतगीता का दसवां अध्याय समाप्त
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🙏अथ दसवें अध्याय का महात्त्म्य🙏
श्री नारायण जी बोले- है लक्ष्मी! अब दसवें अध्याय का महात्त्म्य कहता हूँ तो श्रवण कर। बनारास नगर में धीरज नामक ब्राम्हण रहता था, वह धर्मात्मा हरिभक्त गण ने ब्राम्हण को देखा कि वह मेरा पड़ा है। फिर जाकर कहा , है स्वामिन्! यख चरित्र मैन देखा है जिसने कौन पूण्य किया है जिससे भली जगह मृत्यु पाई है चारि बातें इसकी भली आ बनी है, एक बनारास क्षेत्र श्रीकाशीजी और गंगा जी स्नान संतो का और विश्वेश्वर जी का दर्शन अन्न का छोड़ना एकादशी का दिन यह बात कह सुनाओ इसने कौन पूण्य किया था। यह ब्राम्हण एक दिन विश्वेश्वर महादेवजीके दर्शन को जाता था। गर्मी की ऋतु थी उसको धूप लगो तो घबड़ाया, उसका दिल घुटने लगा अयाली खाकर मंदिर के निकट गिर पड़ा। इतने में भृंगीनामक गैन आया देखा तो ब्राम्हण मूर्छित पड़ा है। उसने जाकर शिवजी से कहा महादेवजी एक ब्राम्हण आपके दर्शन को आया था, वह मूर्छा में पड़ा है। महादेवजी सुनकर चुप हो रहे। महादेवजी ने कहा- भृंगी इसके पिछले जन्म की खबर मैं कहता हूँ। एक समय कैलाश पे गौरा पार्वती और हैम बैठे थे। एक हंस मेरे दर्शन को आया वह हंस ब्रम्हा का वाहन था ब्रम्हालोक से मानसरोवर को जाता था, उस सरोवर में सूंदर कमल के फूल थे एक कमल को लांघने लगा उसकी परछाई पड़ी तो हंस अचेतन काला हो गया आकाश से गिरा तब उसी समय उसी मार्ग में एक गण आया। हंस को गिरा देखकर गण ने कहा हे स्वामिन्! वह हंस आपके दर्शन को आया तहास श्याम होकर गिर पड़ा है। गण मेरी आज्ञा से हंस को ले आये हमने पूछा- हे हंस तू श्याम वर्ण क्यों हुआ? हंस ने कहा हे प्रभुजी, में उनको लाँघकर आया इससे मेरी देह श्याम हो गई आकाश से गिर पड़ा, कारण जकान्ता नही कौन हुआ है। यह सुनकर शिवजी हंसे, आकाशवाणी हुई कि हे शम्भुजी! कमलिनी से पूछो वो कहेगी। कमलिनी ने कहा- पिछले जन्म में मैं एक अप्सरा थीं नाम पद्मावती था।। पिछले समय श्री गंगा जी के किनारे एक ब्राम्हण स्नान करके गीताजी के दसवें अध्याय का पाठ किया करता था। एकदिन राजा इंद्र का आसान हिला, तब इंद्र ने आज्ञा करी तू जाकर उस पंडित की तपस्या भंगकर। आज्ञा पाकर में उस विप्र के पास गयी उस विप्र ने मुझे श्राप दिया कहा हे पापिनी। तू कमलनी हो, उसी समय कमलनी हुई। अब मैं गीता के दसवें अध्याय का पाठ करती हूँ, उसी से मेरा तेज है। मुझको लांघने वाला काल होकर अचेत हो जाता हैं। तब हंस ने कहा कि कैसे मेरा श्याम वर्ण श्वेत होतो इस कमलनी की देह छोटी देव देह पाये। तब कमलनी ने कहा- कोई गीताके दसवें अध्याय का पाठ सुनावे तब उद्धार होगा। तब एक ब्राम्हण ने उस सरोवर में स्नान कर शालिग्राम का पूजन कर दसवें अध्याय का पाठ किया। उसे हंस और कमलनी ने सुना तब उनका उद्धार तत्काल हुआ, हंस श्वेत हुआ कमलनी देव कन्या हुई।
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💝~Durgesh Tiwari~