( चार )
जबलपुर में आकर मुझे ये भी पता चला कि हिंदी फ़िल्मों के मशहूर चरित्र अभिनेता प्रेमनाथ यहीं के हैं।
उनकी पत्नी फ़िल्म तारिका बीना राय की एक फ़िल्म "ताजमहल" ने कभी मुझे बहुत प्रभावित किया था।
उन दोनों का पुश्तैनी मकान जिसे "प्रेम बीना" बंगला कहा जाता था, यहीं था।
प्रेमनाथ ही कभी अपने बहनोई राजकपूर को फ़िल्म "जिस देश में गंगा बहती है" की शूटिंग के लिए यहां लाए थे और नर्मदा नदी के भेड़ाघाट की संगमरमरी चट्टानों पर ही मशहूर गीत "ओ बसंती पवन पागल" की शूटिंग हुई थी।
ये जानकारी मिलने के बाद उस जगह पर घूमने का आनंद और भी बढ़ गया। वैसे भी समय मिलने पर मैं वहां जाया ही करता था।
भेड़ाघाट से जुड़ी दो स्मृतियां मुझे वर्षों बाद तक उद्वेलित करती रहीं।
एक बार पानी की तेज़ और ठंडी धारा में आनंद से खड़े - खड़े अकस्मात मेरी पीठ पर कोई भारी सी वस्तु टकराई। ऐसा लगा मानो किसी हृष्ट- पुष्ट बच्चे की लात लगी हो। पलट कर देखते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। एक महिला का शव मुझसे टकरा कर तेज़ बहाव में निकल गया। महिला के बदन पर कोई लाल सा वस्त्र लपेटा हुआ था। शव इतना ताज़ा था कि गौर वर्ण पर बिंदी तक अभी मौजूद थी। मैं सिहर गया।
संकरी धारा के बाद एक जगह जल की एक पतली सी नहर थी जहां पानी का बहाव भी तेज़ नहीं था और गहराई भी कम थी। ये क्षेत्र एक चट्टान की ओट में होने से एकांत और सुनसान था। किन्तु यहां जाकर पता चला कि यहां कुछ ऐसे ही युवकों का जमावड़ा है जो एकांत की तलाश में घूमने वाले अकेलेपन से ग्रसित जिस्मों को माफ़िक आता है।
जबलपुर में सेठ गोविंददास की स्मृति में बने भव्य सभागार में आयोजित समारोहों में भाग लेने का अवसर भी कई बार मिला।
बैंक में मेरे "बॉस" के रूप में आने वाले उच्चाधिकारी ज़्यादातर दिल्ली या मुंबई से ही आया करते थे और संयोग से मैं इन दोनों ही जगह लंबे समय काम कर चुका था इसलिए आने वाले अधिकारी लोग प्रायः मेरे पूर्व परिचित ही निकलते थे।
इससे जहां अपना दैनिक कार्य करने में सुविधा होती थी, वहीं शेष कर्मचारियों के बीच महत्व भी बढ़ता था।
ऐसे ही एक बार जब परिचित क्षेत्रीय प्रबंधक आए तो उनके साथ निकटता और अपनेपन से बातचीत करने का ऐसा अवसर मिला जो मुंबई में नहीं मिला करता था।
उन्होंने ही मुझे समझाया कि मैं साहित्य और पत्रकारिता में रुचि के चलते बैंक की पदोन्नति प्रक्रिया से उदासीन रहता हूं, ये ठीक नहीं है। उनका कहना था कि इससे सब जगह ग़लत संदेश जाता है। इससे संस्थान की छवि भी ख़राब होती है कि यहां योग्य और समर्थ लोगों को आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिलता।
इस दृष्टि से उनके सोचने का मुझ पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इससे एक ओर जहां मुझे मन ही मन मेरे कार्य के लिए उनका फ़ीडबैक मिला वहीं आगामी पदोन्नति प्रक्रिया में भाग लेने के लिए मेरा मनोबल भी बढ़ा।
अन्य अधिकारियों की तरह मैंने भी इस बार परीक्षा की तैयारी में सक्रियता दिखाई और जल्दी ही इसका परिणाम भी सामने आया। मेरी पदोन्नति हो गई।
इस पदोन्नति के बाद मेरा स्थान परिवर्तन तो नहीं हुआ किन्तु मेरे पास और अधिक नए दायित्व आ गए जिनके कारण क्षेत्र में मेरा निरीक्षणों के लिए आना- जाना और भी बढ़ गया।
अब मैं बैंक शाखाओं की सुरक्षा व्यवस्था, नकदी की स्थिति, राजभाषा नीति संबंधी कामकाज तथा आयोजना विभाग से संबंधित कामकाज भी देखने लगा।
मुझसे आत्मीयता रखने वाले कुछ साथियों को ऐसा लगा कि अब शायद मेरी कार्यालयीन व्यस्तता बढ़ेगी और मेरा रुझान साहित्य व पत्रकारिता की ओर कम होगा।
किन्तु मुझे तो उल्टा ऐसा लगा कि मेरे नक्षत्र कामकाज की ओर से मेरा ध्यान हटा रहे हैं।
लेखन के क्षेत्र में मेरा जो नाम और सम्मान बन गया था उसके सामने दफ़्तर की उपलब्धियां रसहीन लगती थीं।
जल्दी ही मुझे गाजियाबाद के एक प्रकाशन ने मेरे उपन्यास "आखेट महल" पर पांच हज़ार रुपए का अखिल भारतीय पुरस्कार दिया।
जबलपुर की एक संस्था ने भी एक भव्य आयोजन में मुझे इसी उपन्यास पर पांच हज़ार रुपए का अखिल भारतीय पुरस्कार प्रदान किया।
स्थानीय प्रेस ने दोनों उपलब्धियों को व्यापक कवरेज़ दिया। छोटा शहर होने के कारण शोर - शराबे की स्थिति रही।
इन्हीं दिनों विश्व हिंदी सम्मेलन, त्रिनिदाद एंड टोबैगो की चर्चा आरंभ हुई और मैंने इसमें उपस्थित होकर पर्चे के रूप में पढ़ने के लिए अपना एक आलेख प्रतियोगिता स्वरूप सम्मिलित किया।
मैं अक्सर सुनता रहा था कि हिंदी को रोज़गार की प्रतियोगिता परीक्षाओं का माध्यम न बनाने के पीछे सबसे बड़ा कारण इसमें एक - एक शब्द के लिए कई पर्यायवाची शब्दों का होना है।
गैर हिंदी भाषी लोग ये कहते थे कि हम आख़िर कितने शब्द याद रखें? यही तर्क परीक्षकों का भी होता था।
मेरा आलेख इस समस्या और इसके समाधान पर ही प्रकाश डालता था।
सुदूर ग्रामीण इलाकों और उनसे जुड़े प्राकृतिक स्थलों में घूमने के कारण मेरा प्रकृति से लगाव भी बढ़ता जा रहा था। मैं स्वयं इस बात से हैरान रह जाता था कि प्रकृति के निकट आते ही मुझे क्या हो जाता है, मैं सामाजिक जीवन के तौर - तरीकों और बंधनों को भी भूल जाता था। मसलन, किसी भी अजनबी के साथ अंतरंग होकर उस पर विश्वास कर लेना, नदी- तालाबों पर निर्वस्त्र होकर नहा लेना, ये सब मेरे लिए सहज वृत्तियां होने लगी थीं।
किसी के जाति,धर्म, संप्रदाय, खानपान से मैं बिल्कुल अप्रभावित रहने लगा। इन प्रवृत्तियों से समाज में मेरी छवि कैसी बन रही होगी, इस तथ्य से भी मैं सर्वथा अनभिज्ञ रहने लगा।
मेरे अपने व्यक्तित्व की सभी सीमाएं जैसे चटक कर टूटने लगी थीं। मैं वो सब खा- पी सकता था जो दूसरा कोई भी और व्यक्ति खा रहा हो, मैं वो पहन सकता था, जो दूसरा कोई भी पहन रहा हो। मेरी अपनी पसंद - नापसंद जैसे कहीं विलीन होने लगी हो।
मैं जब कभी छुट्टियों में अपने परिवार के साथ रहने घर आता, तो मेरा विशेष ख़्याल रखा जाता।
पत्नी, मां, घर के अन्य परिजन मुझसे पूछते कि मुझे खाने में क्या पसंद है, तो इस सवाल पर मैं उदासीन ही नहीं, बल्कि कभी- कभी तो आक्रामक हो जाता और अपनी कोई पसंद - नापसंद जाहिर नहीं करता। अवश्य ही इससे मेरे परिजनों को असुविधा होती होगी किंतु मेरा फ़लसफ़ा तो "जो मिले खा लो" वाला बनता जा रहा था।
मेरा मन कहता था कि जब मुझे किसी भी तरह के भोजन से असुविधा नहीं होती तो अकारण किसी को विशेष कुछ बनाने के लिए क्यों विवश करूं! हालांकि मैं ये भी जानता था कि मेरे लिए कुछ करना मेरे परिजनों के लिए असुविधा नहीं, बल्कि ख़ुशी की बात ही होती होगी।
हां, ज़्यादा खाने की आदत मुझे कभी नहीं रही। मैं थाली से उसी समय उठ जाना पसंद करता था जब तक पेट में कुछ और खा सकने की हल्की क्षमता बची रहे। जबरन परोसने वाले अथवा ज़्यादा मनुहार करने वाले मुझे आक्रामक लगते थे। इस प्रवृत्ति के लिए मुझे "इमोशनल अत्याचार" जैसे शब्द परफेक्ट लगते थे और मैं इन पर हंसता था।
मुझे कभी - कभी लगता था कि हम सभी अपनी मर्ज़ी के बिना अकस्मात संयोग से तो दुनिया में आ गए हैं, और यहां रहने, बने रहने की व्यर्थ जद्दोजहद कर रहे हैं। इस बात को लेकर मुझे दुनिया के हर व्यक्ति पर दया आती रहती थी और मैं किसी को भी, किसी भी बात के लिए मन से क्षमा कर दिया करता था।
न जाने ये सोच मेरे मन में कहां से घर कर गई थी। मैं मन ही मन अपने को समझा लेता था कि शायद लेखकों के मानस ऐसी ही उथल- पुथल से बनते- बिगड़ते रहते होंगे।
जिस भवन में मैं रहता था उसी में मेरे बराबर वाले फ़्लैट में एक और परिवार रहता था जिसमें पति- पत्नी और उनका एक छोटा पुत्र थे।
एक दिन मैं कहीं से लौट कर घर वापस आ रहा था तो सीढ़ियों से चढ़ते हुए मुझे पड़ोस की उस महिला की आवाज़ आई जो शायद किसी बात पर नाराज़ होकर अपने बेटे को डांट रही थी। स्वर साफ़ सुनाई देता था, वो कह रही थी- "कमबख्त, नालायक, हरामखोर, मैं तेरी चमड़ी उधेड़ दूंगी अगर मेरा कहना नहीं मानेगा"... मुझे उनसे अपने घर की चाबी लेनी थी, जो मैं उन्हें मेरी कुक से खाना बनवा कर रखने के लिए कभी- कभी दे जाया करता था।
जैसे ही उन्होंने मुझे दरवाज़े पर देखा तुरंत अपने बेटे का हाथ छोड़ते हुए उससे बोलीं- "चलो बेटा, टेबल से अंकल की चाबी लाओ, गुड बॉय!"
उनके स्वर और तेवर में आए बदलाव से उनका बेटा और मैं, दोनों ही हैरान थे।
मुझे लगता कि शायद यही सामाजिकता है। अकेले में हम सब निष्ठुर और उजड्ड हैं। समाज और परिवार ही हमारी ज़िन्दगी को सुसंस्कृत बनाता है।
ऐसे में मुझे भी अकेले में, या अपरिचितों के बीच अपना व्यवहार समझ में आने लगता।
जबलपुर में भी कुछ युवा मेरे बहुत अच्छे मित्र बने। ये जब भी मेरे पास आते, हम बिल्कुल परिजनों की सी आत्मीयता से साथ - साथ रहते।
मेरे पास काम करने के लिए भेजा गया विद्यार्थी लड़का गांव जाने के बाद फ़िर वापस नहीं आया। बताया गया कि परिवार में किसी की स्वास्थ्य समस्या के कारण उसे गांव में ही रहना पड़ता है।
इन दिनों जब भी घर जाना हो पाता तो वहां अपनी पंजीकृत संस्था की गतिविधियां कुछ और बढ़ाने का मन करता। राजस्थान में अपने इस एनजीओ से धीरे - धीरे कुछ स्कूलों को जोड़ने की कोशिश भी हमने शुरू कर दी। मुझे अपने मित्र वीरेंद्र की बात अक़्सर याद आती कि एक दिन मैं अपनी नौकरी और घुमक्कड़ी छोड़ कर वापस आऊंगा। लेकिन कब और कैसे, ये कोई नहीं जानता था।
इन्हीं दिनों एक हादसा हुआ। वीरेंद्र का छोटा भाई जो हमारी संस्था के कार्य से गहराई से जुड़ा था और हमारे साथ मिल कर ग्रामीण इलाकों में काम करना चाहता था, न रहा।
उसने स्वयं को ख़त्म कर लिया।
वो आत्महत्या करने से पूर्व कुछ विचलित सा दिखाई देता था। वो मुझे लंबे- लंबे पत्र लिखा करता था जिनमें वो ज़िक्र करता था कि समाज में भ्रष्टाचार बहुत तेज़ी से फैलता जा रहा है। वह अपने परिचित, परिजनों और मित्रों की छोटी- छोटी बेईमानी के बारे में प्रामाणिक और आंखों देखी बातें लिखता और परेशान होता। और फ़िर एक दिन वो दुनिया से ही चला गया।
उसकी याद में हमने अपनी पंजीकृत संस्था की एक पत्रिका निकाली जिसमें उसे श्रद्धांजलि दी।
किन्तु इस हादसे के बाद हम सब खिन्न होकर अपने काम से उदासीन हो गए और कुछ दिन तक किंकर्तव्यविमूढ़ से रहे।
मैं भी जबलपुर वापस आकर अपने कार्य में व्यस्त हो गया।
कुछ दिन बाद राष्ट्रीय स्तर पर एक और हलचल शुरू हुई। सरकार ने देश के तीन राज्यों के विभाजन का फैसला ले लिया, जिनमें मध्यप्रदेश भी था।
ये घोषणा हुई कि राज्य को दो टुकड़ों में तोड़ कर एक अलग राज्य छत्तीसगढ़ बनाया जाएगा। संभावित छत्तीसगढ़ में आने वाली हमारे बैंक की सभी शाखाएं अब तक जबलपुर क्षेत्र में थीं। अब छत्तीसगढ़ की नई राजधानी के रूप में रायपुर शहर की घोषणा हुई।
रायपुर में हमारा एक नया क्षेत्रीय कार्यालय बनाकर छत्तीसगढ़ में आने वाली शाखाओं को उससे जोड़ने की तैयारी शुरू हो गई।
इस हलचल में मेरा भी कई बार रायपुर जाना और कई कई दिन तक वहां रहना और ग्रामीण शाखाओं में घूमना फिरना हुआ।
इन्हीं दिनों मुझे अपने जीवन का एक विलक्षण, अविश्वसनीय तथा आंतरिक सुख देने वाला अनुभव और हुआ। मुझे इससे ये यकीन होने लगा कि समय और ग्रह नक्षत्र हमारी ज़िन्दगी में बड़ी भूमिका रखते हैं।
मुझे राजस्थान के एक अत्यंत प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान से एक पत्र मिला कि वो अपने जनसंपर्क अधिकारी के रूप में मुझे नियुक्त करना चाहते हैं। पत्र में ही मुझे सलाह दी गई कि मैं अपनी बैंक सेवा से एक वर्ष की अवैतनिक छुट्टी ले लूं और एक वर्ष के बाद सेवा से परस्पर संतुष्ट होने के बाद ही त्यागपत्र देने की कार्यवाही करूं।
मुझे पत्र में दिए गए प्रस्ताव के लिए सहमति देने हेतु छः महीने का समय भी दिया गया।
मैं लगातार घर- परिवार से दूर रहने के कारण राजस्थान में लौटने की संभावना तो तलाशता ही रहता था। ताकि अपने परिवार के साथ रह सकूं।
मेरे बच्चे राजस्थान में ही जयपुर के पास यहीं पढ़ रहे थे और मेरी पत्नी भी यहां एक प्रतिष्ठित पद पर कार्यरत थीं।
मैंने मन ही मन इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेने का फ़ैसला तो तुरंत कर ही लिया और मैं मुझे मिले इस छः महीने के समय में अपने अधूरे - बिखरे कामों को समेटने में लग गया।
कहते हैं कि समय बड़ा बलवान! सचमुच ये प्रस्ताव बहुत सही समय पर आया क्योंकि घर से दूर अकेले रहता हुआ मैं तन - मन से वीतरागी होता जा रहा था।
दुनिया और समाज से जुड़ने के मेरे अदृश्य तंतुओं का प्रवाह कुछ और प्रखर हो गया।
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