karm path par - 50 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | कर्म पथ पर - 50

Featured Books
Categories
Share

कर्म पथ पर - 50




कर्म पथ पर
Chapter 50



बृजकिशोर गांव के कुछ अन्य लोगों के साथ आए थे। वह सब नाराज़ लग रहे थे। भुवनदा ने उन्हें बैठाते हुए कहा,
"आप लोगों को जो कुछ भी कहना है ‌वह इत्मिनान से बैठ कर करिए। इस तरह से नाराज़ होने की क्या जरूरत है।"
सभी लोग बैठ गए। बृजकिशोर ने गुस्से में कहा,
"देखिए वासुदेव जी आप अपनी भतीजी सावित्री को समझा लीजिए। हम अपनी परंपराओं में किसी का दखल नहीं सहेंगे। आपकी भतीजी मेरी विधवा बेटी को बहका रही है। उसे अपनी पाठशाला में बुला कर पढ़ाना चाहती है। हम बस इतना कहने आए हैं कि वह हमारे लड़कों को पढ़ा रही है। उसका लिहाज कर रहे हैं। पर अगर नहीं मानी तो ठीक नहीं होगा।"
बृजकिशोर की बात का साथ आए गांव वालों ने भी समर्थन किया। सभी ने कहा कि अगर लता को बहलाने का प्रयास किया तो ठीक नहीं होगा। सब लोग जिस तरह गुस्से में आए थे वैसे ही चले गए।
भुवनदा अंदर गए तो वृंदा और मदन इसी विषय में बात कर रहे थे। भुवनदा को देखकर मदन ने कहा,
"दादा हम दोनों के अपने अपने तर्क हैं। अब आप फैसला करिए कि कौन सही है ?"
भुवनदा पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गए। वह बहुत गंभीर थे। मदन से बोले,
"कई बार सही गलत का फैसला इतना नहीं होता है। मैं वृंदा का तर्क जानता हूँ। मेरी इस बारे में बात हुई है इससे।"
उन्होंने वृंदा की तरफ देखकर कहा,
"तुम्हारा कहना सही है वृंदा। हम लोगों ने अगर देश के लिए स्वयं को समर्पित किया है तो फिर समाज की बिगड़ी व्यवस्था को सुधारना हमारा ही काम है। हम डर कर चुप रहें यह सही नहीं है। बदलाव के लिए हमारा आवाज़ उठाना ज़रूरी है।"
भुवनदा कहते हुए चुप हो गए। वो कुछ भावुक थे। वृंदा ने पूँछा,
"क्या हुआ दादा ?"
"कुछ व्यक्तिगत दर्द हैं। पर अभी उसका समय नहीं। अगर हमने कुछ ठाना ही है तो डरें क्यों ? पर जो करें अपने आप को बचाते हुए करें।"
मदन ने अपना पक्ष रखते हुए कहा,
"सही कहा दादा ने। अभी हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम उन लोगों की नज़र में ना आएं।"
यह तर्क वृंदा को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। इतने दिनों से वो लोग पहचान बदल कर यहाँ रह रहे थे। कुछ भी खुल कर नहीं कर पा रहे थे। हिंद प्रभात का काम भी उस हिसाब से नहीं हो पा रहा था। वह बोली,
"अगर इतना ही डरना था तो ये सब शुरू ही क्यों किया। कितने महीने हो गए। हैमिल्टन की रिपोर्ट के बाद हम कुछ भी ऐसा नहीं छाप सके जो अंग्रेज़ी हुकूमत की नाक में दम कर सके। बस छोटी मोटी चीजें छाप कर खुश हैं। इसलिए सोंचा था कि दूसरी तरह से देश व समाज की सेवा कर सकूँ। तुम कहते हो कि हम चुप बैठें।"
मदन ने अपनी सफाई दी।
"वृंदा मैं हाथ पर हाथ रख कर चुप बैठने को नहीं कह रहा हूँ। बस कुछ दिन सावधानी रखनी होगी। क्यों दादा ठीक है ना ?"
भुवनदा के कुछ कहने से पहले ही वृंदा बोल उठी।
"मैं यह नहीं कह रही हूँ कि तुम गलत हो। पर इतने दिनों से हम चुप बैठ कर समय ही तो बर्बाद कर रहे हैं। फिर इस बात का क्या भरोसा कि हम अगर चुप होकर बैठ जाएं तो हैमिल्टन हमें नहीं ढूंढ़ पाएगा। वह पागलों की तरह हमें ढूंढ़ रहा होगा। बिना कुछ किए उसके हत्थे चढ़ गए तो भी सब कुछ बेकार हो जाएगा। मैं नहीं चाहती हूँ कि मरते समय मेरे मन में मलाल हो कि मैं डर कर छिपती फिर रही थी।"
भुवनदा ने कई बार उसकी इस पीड़ा को महसूस किया था। वह उनसे कहती थी कि अगर वह इस तरह चुप बैठी रही तो जो लड़ाई उसके ताऊ ने उसके लिए लड़ी थी वह बेकार हो जाएगी। उसे अब उनकी लड़ाई को आगे बढ़ाना है। वह उसकी बात से सहमत थे। पर यह भी नहीं चाहते थे कि किसी तरह का खतरा हो। वह खुद दुविधा में थे। पर फिर भी वृंदा को समझाते हुए बोले,
"तुम्हारी छटपटाहट मैं समझ रहा हूँ पर कुछ कर सकने के लिए यह ज़रूरी है कि हम कुछ करने के लिए आज़ाद रहें। हम जानबूझकर तो खुद को खतरे में नहीं डाल सकते हैं। हम भावुकता से काम नहीं ले सकते हैं।"
यह सुनकर वृंदा कुछ देर के लिए चुप हो गई। भुवनदा की बात ने उसके अंदर कई विचार पैदा कर दिए थे। वह बड़े संयत तरीके से बोली,
"दादा आप उम्र और अनुभव हर तरह से मुझसे बड़े हैं। मैं आपकी बात काट नहीं रही हूँ। पर दादा भावना ही तो है जिसने मुझे और आपको एक मकसद से जोड़ रखा है। हम जो कुछ समय पहले जो एक दूसरे को जानते भी नहीं थे आज एक साथ एक परिवार की तरह रह रहे हैं। बिना देश के लिए भावना के हम कैसे एक दूसरे के साथ आते।"
मदन ने फिर अपना तर्क रखा।
"वृंदा भावना होनी ठीक है। पर उसकी सीमा होनी चाहिए। ऐसा ना हो कि वह हमें नुकसान पहुँचा दे।"
"अच्छा....क्या सीमा होनी चाहिए ? क्या देश के लिए कुछ करने से पहले फायदे नुकसान का आकलन किया जाए।"
वृंदा ने अपना सवाल करने के बाद मदन की तरफ देखा। उसे कोई जवाब नहीं सूझा। वृंदा ने आगे कहा,
"ऐसा है तो जय ने बहुत ही बेवकूफी भरा कदम उठाया। अपनी भावना में बह कर अपना नुकसान कर लिया। आज वह कितनी तकलीफ झेल रहा है। वह अपना जीवन खुशी से बिता सकता था। पर देश के लिए उसने सब छोड़ दिया।"
मदन कुछ नहीं बोला। भुवनदा जानते थे कि यह एक लंबी बहस है। दोनों में से किसी एक का पक्ष नहीं लिया जा सकता है। पर कहीं ना कहीं सामंजस्य बैठाना ज़रूरी है। उन्होंने दोनों को समझाते हुए कहा,
"हमको अपने पक्ष को सही ठहराने के लिए एक दूसरे से नहीं उलझना है। बल्कि मिलकर यह सोंचना है कि अब क्या किया जाए।"
वृंदा और मदन दोनों को अपनी गलती का एहसास हुआ। वृंदा बोली,
"क्षमा चाहती हूँ दादा। आप बताएं क्या करना चाहिए ?"
मदन ने भी वृंदा से सहमति व्यक्त करते हुए कहा,
"हाँ दादा....आप बड़े हैं आप ही रास्ता सुझाएं।"
भुवनदा ने सोंच कर कहा,
"हमें अपना काम बंद नहीं करना है। पर थोड़ा समझदारी से काम लेना होगा। हम एकदम से लोगों की सोंच को नहीं बदल सकते हैं।"
उन्होंने वृंदा की तरफ देखकर कहा,
"तुम लड़कियों की शिक्षा पर काम करना चाहती हो। इसके लिए धीरे धीरे माहौल बनाना होगा। जो भी करो पर इस बात का ध्यान रखो कि गांव वालों को किसी तरह की ठेस ना पहुँचे।"
मदन को देखकर भुवनदा बोले,
"तुम भी सही हो। अति भावुकता सही नहीं होती है। भावुकता के साथ धैर्य और विवेक का संगम होना अच्छा होता है। एकदम से फैसले नहीं लिए जाने चाहिए। जय ने जो किया वह भावुक होकर किया। पर बिना सोंचे समझे नहीं। तभी अपने फैसले पर टिक पाया है।"
मदन और वृंदा को भुवनदा की बात समझ आ गई थी।

वृंदा अपना अगला लेख लिखने के लिए बैठी थी। मदन वहाँ आकर बैठ गया। उसने वृंदा से कहा,
"अगर उस समय बहस करते हुए मैंने कुछ गलत कहा हो तो माफ कर देना।"
वृंदा ने कागज़ कलम रखते हुए कहा,
"कैसी बातें कर रहे हो मदन ? हमारे बीच क्या पहली बार बहस हुई है। हर बार तुमने अपनी बात रखी है और तुमने अपनी। फिर ये औपचारिकता क्यों ?"
मदन मुस्कुरा दिया। वह वृंदा की तरफ देखकर बोला,
"वैसे आज तुम मेरी एक बात से सहमत हो गई।"
"कौन सी बात ?"
"तुम भी मानती हो कि जय बदल गया है। उस बिगड़े रईसज़ादे ने देश के लिए अपना सुख छोड़ दिया।"
वृंदा शांत हो गई। उसके मन में जय की जो बिगड़े रईसज़ादे की छवि थी वह पहले ही बदल गई थी। उसमें आए बदलाव के लिए वह उसकी प्रशंसा करती थी। आज उसने अपने मन की बात कह भी दी थी। उसने मदन से कहा,
"सही कहा तुमने। उसकी पुरानी छवि तो कब की मिट गई। मैं उसके बारे में पहले जो सोंचती थी उसके लिए शर्मिंदा हूँ। वह बदल गया है। उसके बदलाव ने मेरे विश्वास को मजबूत कर दिया है कि बदलाव संभव है।"
अपनी बात कह कर वह फिर से लिखने लगी।