Anjane lakshy ki yatra pe - 20 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग -20

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग -20

अब तक आपने पढ़ा-

किस प्रकार षड्यंत्र करके जासूस ने व्यापारी को अपने प्रेम के रास्ते से हटाने के लिये नस्लवादी विचारों के सहारे, सेना का विद्रोह खड़ा करने की कोशिश की जिसे अभियान सहायक महोदय की सूझ-बूझ से विफल कर दिया गया। और व्यापारी ने यह भी देखा कि अभियान सहायक महोदय ने उसे दंड से किस प्रकार बचाया और किस प्रकार वात्सल्य से उस जासूस की पीठ पर हाथ फेरा।

आखिर क्या अर्थ था इस सब का? आखिर क्या रहस्य था इस वात्सल्य का?...

जानें इस भाग में...

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे...

भाग-20

एक षड्यंत्र

रात आधी से अधिक बीत चुकी थी और इस लम्बी उथल-पुथल के बाद सब थकान का अनुभव कर रहे थे। हर स्तर पर प्रहरियों की अदला बदली भी प्रभावित हुई थी। जो काम बहुत देर पहले हो जाना था वह अब प्रारम्भ हुआ। पोत पर पहरे और जलपोत के चारों ओर निगरानी पर अब मेरी जगह गेरिक को तैनात कर मुझे विश्राम दिया गया था। अभियान सहायक महोदय ने मुझे उनके अपने विशेष कक्ष में ही विश्राम करने की आज्ञा दी। इस बात पर मैं समझ नहीं पाया था कि मुझे प्रसन्न होना चाहिये या भयभीत। वस्तुतः मेरे अंतरमन में दोनो ही मिलेजुले भाव उभर रहे थे। किंतु थकान और निंद्रा ने मुझे हर चिंता और हर प्रसन्नता से मुक्त कर अपने पाश में जकड़ लिया और मैं गहरी निंद्रा में लीन हो गया।

हम सागर के मध्य एक पोत पर सवार थे। पोत धीरे धीरे सागर की लहरों पर चल रहा था। सागर की लहरें एक लय और ताल में गति करती हुई एक संगीत उत्पन्न कर रही थीं। हर ओर शांति छाई हुई थी और सागर की लहरों की लोरी हमारी निंद्रा को तनावमुक्त बना रही थी। या शायद मैं किसी स्वप्नलोक में विचरण कर रहा था। और वह स्वप्न जाने कब दुःस्वप्न में बदल गया। लगा जैसे सागर का संगीत चीत्कार में बदल गया है। हमारा जलयान भयंकर रूप से डोल रहा है और भयभीत आत्मायें चीख रही हैं। उनकी बेड़ियाँ आपस में टकराकर भयंकर झंकार उत्पन्न कर रही है।

मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। मेरा शरीर पसीने से तर था। मैंने देखा कक्ष में मैं अकेला हूँ और कक्ष के बाहर से आत्माओं की चीख पुकार और धातुओं के टकराने की आवाज़ें आ रही हैं। दिखाई कुछ नहीं देता, क्योंकि दृष्टि जहाँ तक जा सकती है, बस अंधकार का ही साम्राज्य है। मैं कहाँ हूँ? क्या हम सागर के किन्ही भयानक आत्माओं के लोक में फंस गये हैं?

और सारे लोग? क्या मैं यहाँ अकेला जीवित प्राणी बचा हूँ?

मैं वहाँ से भाग जाना चाहता हूँ। मैं हाथों को आगे की ओर फैलाये चारों ओर टटोलते टटोलते आगे बढ़ने का प्रयास करता हूँ। कुछ नहीं है, भयानक आवाज़ों और अंधकार के अतिरिक्त। जाने यह कैसी दुनिया है और कौनसी दुनिया है। मैं किसी तरह बाहर निकल पाऊँ। अंधेरे को टटोलते टटोलते आगे बढ़ते मेरे हाथ अचानक किसी ठोस सतह से टकराते हैं। मैं उस सतह को टटोलता उस सतह के साथ-साथ आगे बढ़ने की कोशिश करता हूँ। और देखो तो जल्द ही वह जगह मुझे कुछ जानी पहचानी सी लगने लगती है। अरे यह तो वही कक्ष है हमारे पोत का, अभियान सहायक का कक्ष!! जहाँ मैं सोया था।

मैं अब अनुमान से बाहर निकलने के रास्ते को खोजता हूँ; दोनो हाथों से टटोलते हुये। कक्ष का दरवाज़ा खुला है। मैं उसी तरह टटोलते हुये आगे बढ़ने लगता हूँ; धीरे-धीरे। अचानक अंधेरे में मेरी आंखों के सामने प्रकाश की एक लपलपाती सी छाया नाच उठती है। यह क्या है? इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाऊँ सामने से मुझे एक मानव आकृति झपटकर मेरी ओर आती दिखाई देती है; उसकी एक हाथ में मशाल है और दूसरे हाथ में नंगी तलवार जिससे खून का टपकना मैं इस मद्धम प्रकाश में भी देख सकता हूँ। सहसा मैं घबरा जाता हूँ। मुझे काटो तो खून नहीं। यह मेरी ओर इतनी तेज़ी से क्यों बढ़ा आता है। मैं अपनी सुरक्षा किस तरह करूँ। मुझे मेरे आसपास कोई चीज़ नज़र नहीं आ रही। तब तक वह और पास आ जाता है।

“तुम ठीक तो हो? कहाँ थे?”

अरे ये तो मेरा मित्र गेरिक है।

“क्या हुआ है? ये हड़कम्प कैसा?” मैं उसके प्रश्न की परवाह किये बिना अपना प्रश्न दागता हूँ।

“समुद्री लुटेरों का आक्रमण.... तुम्हे नहीं पता?!! मेरे साथ चलो।” मैं उसके साथ चलने लगा। एक कक्ष के सामने पहुंचकर उसने मशाल मेरे हाथ में पकड़ाई और कक्ष का दरवाज़ा खोलकर अंदर चला गया। मैं भी मशाल हाथ में थामें उसके पीछे अंदर गया। अंदर वही सेनापति का गुप्तचर बेड़ियों में जकड़ा पड़ा था।

गेरिक को देखते ही वह बोला, “अभी तक कहाँ थे मूर्ख। यहाँ पोत पर हमला हुआ है और मैं यहाँ पड़ा हुआ हूँ।”

“शीससस!! शोर मत करो,” दबे स्वर में गेरिक ने कहा, “चलो यहाँ से शीघ्र...”

गेरिक शीघ्रता से उसे उस कक्ष से बाहर ले आया।

“मैं इस हाल में कैसे युद्ध करूंगा? पहले मुझे मुक्त करो मूर्ख?” उसने गेरिक से कहा।

“मैं तुम्हें मुक्त करने ही आया हूँ।” गेरिक ने कहा और पलक झपकते ही तलवार के एक ही वार से उसके सिर को उसके धड़ से मुक्त कर दिया।

“यह क्या किया?” मैं गेरिक पर चिल्लाया।

“चुप रहो। उसने धीरे से कहा, “किसी को पता न चले।”

और उसने गुप्तचर के छटपटाते शरीर से बेड़ियाँ उतारी और शरीर को उठा कर एक ही बार में बाहर सागर में फेंक दिया। फिर उसके सिर को भी सागर में फेंक दिया।

“यह क्या किया?” मैं स्तब्ध था।

“कुछ नहीं।” वह बोला, “यह इसी योग्य था।”

“लेकिन तुमने एक निहत्थे व्यक्ति को... तुम्हें पता है, यह पाप है।” मैंने उससे कहा।

“तुम शायद भूल रहे हो मित्र मैं एक सिपाही रह चुका हूँ और अधिक सोंचता नहीं। सिर्फ सौंपे गये कार्य के बारे में सोंचता हूँ। यदि हम सिपाही भी तुम्हारी तरह सोंचने लगे तो दुनिया से युद्ध का नामो निशान मिट जायेगा।” वह बोला।

“तो तुम्हे सोंचना चाहिये। आखिर युद्ध तो मानवता के नाम पर एक धब्बा ही है।”

“यह क्या कहते हो मित्र, यह तो हम सिपाहियों की रोज़ी रोटी है। और सत्ताओं की जीवन रेखा।”

“मानव के रक्त में डूबी रोटी खाने से भूखे मरना अच्छा है।”

“यह सैनिकों का अपमान है मित्र, मत भूलो कि सैनिक अपना खून भी तो बहाता है।”

“प्रश्न तो मानव रक्त के बहने का है न मित्र। फिर क्या फर्क पड़ता है वह अपना है अथवा दूसरे का।”

“मैं इतना सब नहीं जानता मेरे मित्र। लेकिन मुझे जो करना था मैंने वही किया।”

“मित्र मुझे तुमसे यह आशा नहीं थी। तुम तो मेरे लिये एक दूरदर्शी, गम्भीर, समझदार और आदर्श व्यक्ति थे। तुमने सिर्फ भावनाओं में आकर, मेरी मित्रता के लिये, एक निहत्थे प्रणी का वध कर दिया। मैं अपने आप को कैसे क्षमा करूंगा?” मैं घोर निराशा में डूब गया।

“इस समय यहाँ से चलो,” उसने मेरी बांह पकड़कर खींचते हुये कहा, “तुम अपने आप को दोष न दो। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।”

“क्यों दोष न दूँ?” मैंने कहा, “आखिर तुमने मेरे कारण तो यह किया है। तुमने यह भी नहीं सोंचा कि यह इन लोगों के प्रति विश्वासघात है, जिन्होने हमें शरण दी है और हमारे लिये इतनी जोखिम भरी यात्रा का बोझ उठाया।”

“मित्र, पहले तो मन से इस बात को निकाल दो कि ये बोझ वे निःस्वार्थ उठा रहे हैं। वे अपने द्वीप से आगे अपने सम्बंधों को बढ़ाने के लिये हमारा उपयोग कर रहे हैं। उनके क्षेत्र से बाहर उनके सम्बंध विकसित होंगे तो उन्हे भी व्यापार और विकास का लाभ मिलेगा और उनके अस्तित्व को भी बल मिलेगा। और फिर यह कार्य मैंने उनके ही कहने पर किया है।”

“किसके कहने पर? सेनापति के?” मैंने आश्चर्य और अनुमान से पूछा।

“नहीं, अभियान सहायक महोदय के कहने पर।”

“अभियान सहायक महोदय के कहने...” मैं आश्चर्य से लगभग चीख ही उठा था कि उसने अपने एक हाथ से मेरा मुंह बंद कर दिया।

“शीईईई!! चीखो मत। यह सिर्फ हम तीनों के बीच का रहस्य है।”

मैं हत्प्रभ रह गया। मुझे याद आ रहा था, किस प्रकार अभियान सहायक महोदय ने उसकी पीठ पर वात्सल्य पूर्वक हाथ फेरा था।

**

जारी...

गेरिक ने ऐसा क्यों किया? आखिर कौन था इस षड्यंत्र के पीछे? जाने

भाग-21

षड्यंत्र पर स्पष्टिकरण के बहाने

में.

मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति