एक अप्रेषित-पत्र
महेन्द्र भीष्म
कर्कशा
‘‘जवानी में दो—दो भोग चुकने के बाद अब बुढ़ापे में तीसरी करने की मंशा है क्या?‘‘ कृशकाय—कंकाल स्वरूपा पत्नी की कर्कश आवाज सुनकर प्रोफेसर साहब को काठ—सा मार गया। उनकी पत्नी की तनी भृकुटि और कोटरों से बाहर निकलने को बेचैन आँखें देख लग रहा था कि अब कुछ ही पलों में वह प्रोफेसर साहब की कमीज के कालर पर झूलते हुए उनके गाल पर चाँटा जड़ देगी।
ठगे—से खड़े, पितातुल्य प्रोफेसर साहब के दोनों हाथ में फँसी अपनी हथेलियोें को निकाल, पत्नी के सामने निरीह, दीनहीन से प्रोफेसर साहब की आँखों में भरपूर दृष्टि डालने के बाद सुमन सड़क पर खड़ी टैक्सी के अन्दर बैठ गयी।
‘‘जाओ बेटी! खुदा हाफिज।'' प्रोफेसर साहब के अनसुने शब्दों को कानों में महसूस कर सुमन ने दोनों हाथ जोड़ मानसिक प्रणाम करते उनसे विदा ली।
मुश्किल से पाँच माह भी उसे प्रोफेसर साहब के बँगले के एक हिस्से में किराये से रहते हुए अभी नहीं बीते थे कि प्रोफेसर साहब की शंकालु पत्नी के आचरण व व्यवहार के कारण सुमन को उनका बँगला छोड़कर दूसरी जगह रहने जाना पड़ रहा था। रिटायर्ड प्रोफेसर साहब अपनी कर्कशा पत्नी को जिस तरह से झेलते थे, वह बड़े धैर्य की बात है। वे कितने विद्वान और सरल हृदय के हैं, यह अनुमान लगाना भी कठिन है।
अस्पताल में दिन—रात की असमय लगने वाली ड्यूटी में खटने वाली डॉक्टर सुमन को रात—बिरात कुछ घण्टे ही प्रोफेसर साहब के बँगले में बने मेहमानों के उस फ्लैटनुमा कमरों में बिताने पड़ते थे, जिसे प्रोफेसर साहब अपनी कर्कशा पत्नी की इच्छा के विरुद्ध हमेशा किसी न किसी को किराये पर देकर अपने आस—पास चहल—पहल और आत्मीयता पाने को तरसते रहते थे।
उनकी इकलौती पुत्री रुखसार के द्वारा प्रेम विवाहकर विदेश में बस जाने के निर्णय ने प्रोफेसर साहब को मर्माहत किया था। उन्हें बेटी के द्वारा विधर्मी के साथ विवाह कर लेना इतना खराब नहीं लगा था; जितना उसका विदेश में बस जाना अखरा था। अपने किरायेदारों से वे बहुत स्नेह करते, उन्हें वह पारिवारिक सदस्य की तरह मानते और कुछ हद तक अपनी पुत्री की कमी को पूरा करते थे।
शहर के बाहरी हिस्से में स्थित प्रोफेसर साहब के शानदार बँगले के आस—पास का खुला वातावरण मनमोह लेने के लिए पर्याप्त था। इसीलिए सुमन ने अस्पताल से पर्याप्त दूरी होने पर भी यहाँ रहना पसन्द किया था। गाँव से शहर आये उसे लगभग आठ वर्ष पूरे होने जा रहे थे, किन्तु शहर की व्यस्त एवं भागम—भाग वाली जिन्दगी से वह स्वयं को एडजस्ट नहीं कर पायी थी। उसे शहरी जीवन बेहद कृत्रिम और उबाऊ लगता था।
‘‘मैडम! बसंत कुंज में ग्रीन पार्क बताया था न आपने ?''
‘‘हाँ!'' टैक्सी चालक के प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर देने के बाद सुमन पुनः अपने भूतपूर्व हो चुके मकान मालिक प्रोफेसर साहब के ख्यालों में खो गयी।
प्रोफेसर साहब अपनी बालकनी मे रखे गमलों में उगे गुलाब, डहेलिया के फूलों से इस तरह से बातें करते, जैसे कोई अपने बच्चों से बातें करता है। बँगले का लॉन बागवानी में उनकी भरपूर रुचि को दर्शाता। गुलाब, डहलिया इत्यादि पता नहीं कितने देशी—विदेशी किस्म के फूलों के पौधे उन्हें हमेशा तरोताजा रखते थे। शायद इसी वजह से अपनी कर्कशा पत्नी का हर समय का रूखा व्यवहार उनके ऊपर हॉवी नहीं हो पाता था।
बँगले में काम करने वाली महरी से कुछ कहना या बात कर लेना भी उनकी शंकालु पत्नी को नागवार गुजरता था, फिर भी प्रोफेसर साहब उससे बोलते, बात करते थे। दूर परदेश में रहने वाली अपनी पुत्री रुखसार की छवि वह उस के चेहरे पर तलाशते रहते।
आज प्रातः जब वह सलवार सूट के साथ मैचिंग दुपट्टा डाले अस्पताल के लिए निकल रही थी, तब प्रोफेसर साहब ने उसे देखकर कहा था, ‘‘डॉक्टर बेटी! रुखसार के ऊपर भी काला सूट बहुत जमता था। तुम भी जब काला दुपट्टा पहनती हो, तो मुझे बहुत अच्छी लगती हो।''
इसी समय प्रोफेसर साहब की पत्नी काला बुर्का पहने कहीं जाने के लिए घर से निकली थीं। शायद प्रोफेसर साहब के द्वारा कहे गए बाद के शब्दों को उन्होंने सुन लिया था; तभी वह भड़कती आग की तरह प्रोफेसर साहब को ऐसी जली कटी सुनाने में लग गयीं कि वह बेचारे शर्म के मारे गड़ से गये। वह एक पल भी रुके बिना गेट खोलकर अस्पताल के लिए निकल गयी।
जब वह अस्पताल से देर शाम लौटी उसी समय प्रोफेसर साहब की पत्नी ने उसे कल तक फ्लैट खाली कर देने का अपना हिटलरी आदेश सुना दिया था।
एकाएक किराये पर दूसरे फ्लैट की तलाश कर पाना उसके लिए सम्भव नहीं था; फिर भी दिन भर की थकान के बाद रोज की किचकिच से वह बचना चाह रही थी। हाथ मुँह धोये बिना बंगले से लगभग चार फलार्ंग दूर स्थित पी.सी.ओ. तक पैदल गयी। उसने अपने दो चार परिचितों से किराये के किसी फ्लैट या रूम की बात की। इतनी जल्दी किराये पर फ्लैट तो उसे नहीं मिल सका, हाँ उसकी अस्पताल की सहयोगी डॉक्टर मित्र कंचन ने उसे तब तक अपने पास रहने का आफर दिया, जब तक और कहीं उसे किराये पर रहने के लिए कोई जगह नहीं मिल जाती।
कंचन से संतोषजनक बात होते ही सुमन वापस आकर अपनी नाम मात्र की गृहस्थी; जिसमें ज्यादातर किताबेें थीं, दो सूटकेसों में भरी, बिस्तर होल्डाल में बाँधा और छोटा—मोटा सामान एक बड़े थैले में रख अपनी गृहस्थी समेट ली। महरी के लड़के से टैक्सी किराये पर मँगाने के बाद वह प्रोफेसर साहब के लाख रोकने के बावजूद कंचन के बसंत कुंज स्थित निवास के लिए चल पड़ी।
सुमन के अचानक फ्लैट खालीकर चले जाने से प्रोफेसर इनायतुल्ला के चेहरे पर खामोशी सी छा गयी। उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे रुखसार की अन्तिम विदाई हो गयी हो। पिछली बार जब रुखसार भारत आयी थी, तब बोली थी, ‘‘अब्बा! डॉक्टर सुमन को फ्लैट छोड़कर कभी मत जाने देना, डॉक्टरनी किरायेदार रहते मैं बहुत निश्चिन्त हूँ।''
‘‘आय हाय ऐसी भी क्या मनहूसियत ओढ़ रखी है जी, आपने! ज्यादा रंज हो रहा हो, तो बुला क्यों नहीं लाते अपनी उस डॉक्टरनी को या खुद उसके साथ क्यों नहीं चले गये। हाय अल्ला कैसा जमाना आ गया है। अरे! कुछ तो बुढ़ापे का लिहाज करो। शर्म तक नहीं आती है। अरे! मैं पूछने आयी थी खाना खाओगे या ऐसे ही सो जाने का इरादा है।''
‘‘लगा दो'' इनायतुल्ला दो शब्द ही बोले। इससे आगे वह बेचारे बोलते भी क्या? जानते थे जितना ज्यादा बोलेंगे उससे कई गुना अधिक उन्हेंं सुनना पड़ेगा। लाइलाज नासूर की भांति कर्कशा बीबी का साथ उनकी मौत के बाद ही छूटेगा। प्रोफेसर इनायतुल्ला मन ही मन बुदबुदाये ‘‘काश! उस रात मैं अस्पताल में ही रुक गया होता....।'' कुछ देर को वह अपने अतीत में खो गये।
चाँद—सी खूबसूरत लड़की से निकाह कर इनायतुल्ला फूला नहीं समा रहा था। कालेज में मिली नयी—नयी लेक्चररशिप और नवोढ़ा बीबी दोनों का एक साथ मिलना इतना प्रफुल्लित कर गया कि साल के बारह महीने पंख लगाकर कब और कैसे उड़ गये उसे कुछ पता ही नहीं चला।
शादी की पहली सालगिरह की पार्टी के दरम्यान ही परवीन के पेट में दर्द शुरू होने लगा। तत्काल परवीन को मेटरनिटी होम में भर्ती करा इनायत घबरा उठा। पता नहीं क्या बला आ गयी थी। साथ के मित्रों के यह समझने पर कि वह अब बाप बनने जा रहा है, इनायत खुशी से झूम उठा था।
परवीन को अस्पताल में भर्ती हुए एक सप्ताह हो चुका था; किन्तु उसके पेट में पुनः वैसा दर्द नहीं उठा। गाइनाकोलोजिस्ट ने परवीन को कम्पलीट बेड रेस्ट में रहने की सख्त हिदायत दी। फलस्वरूप परवीन चौबीसों घंटें अस्पताल के प्राइवेट कॉटेज में रहती। इनायत उसके साथ हर समय रहता।
इनायत अपनी बीबी के कष्ट को देखकर परेशान हो उठता। फूल—सी कोमल और चाँद—सी सुन्दर बीबी के फूले पेट को देखकर उसे कभी खुशी होती, तो कभी अपने आप पर गुस्सा आता। ‘ऐसी भी क्या जल्दी थी, कम से कम तीन साल तक कुछ नहीं होना चाहिए था।' अभी से बाल—बच्चों के चक्कर में पड़ना उसे अजीब—सा महसूस कराता।
उसकी ससुराल से परवीन की माँ और उसकी छोटी बहन नीलोफर परवीन की देखभाल के लिए आ चुकी थीं। इनायत कालेज की ड्यूटी के बाद अपना सारा समय परवीन के साथ बिताता। उसे अपनी बीबी की हर पल चिन्ता बनी रहती थी। डॉक्टर की सारी हिदायतें और दवायें देने का समय उसे हमेशा स्मरण रहता। मजाल है, जो परवीन अपने मन की कर जाये, जोर से नहीं, प्यार से बाँध रखा था इनायत ने उसे।
एकांत के क्षणों में, जब अस्पताल के उस प्राइवेट कॉटेज में उन दोनों के सिवाय कोई नहीं होता, तब इनायत परवीन को प्यार करते हुए देर तक उसके गर्भ में पल रही अपनी औलाद से बातें करता रहता, जो जल्दी ही संसार में आने वाला था।
एक दिन हल्की बारिश में भीग जाने से इनायत को फ्लू हो गया उसकी ऐसी हालत देख डॉक्टर ने उसे परवीन से दूर रहने के लिए कहा; क्योंकि परवीन को फ्लू या खाँसी आना बेहद हानिप्रद था। अतः यह तय हुआ कि परवीन की अम्मी रात में परवीन के पास रुकेंगी और इनायत घर में।
‘नीलोफर' इनायत की साली, जो उम्र में परवीन से यद्यपि पूरे दो वर्ष छोटी थी; किन्तु कद काठी में बराबर की लगती थी और सुन्दरता में भी वह अपनी बहन से किसी मायने में उन्नीस नहीं थी।
एकान्त की पहली रात सोने से पहले जीजा साली के बीच वैसी ही नोंक—झोंक हुई जैसे दिन में सभी के सामने होती रहती थी, जिसे इनायत ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया, परन्तु जब दूसरी रात तेज बारिश के समय बिजली एकाएक गुल हो गयी तब टार्च ढूढ़ते नीलोफर इनायत से टकराकर उसे अपने ऊपर लिए नीचे गिर पड़ी। तब सँभलते—सँभलते नीलोफर के शरीर के भार और स्पर्श से इनायत अजीब—सा महसूस कर रह गया।
मोमबत्ती की रोशनी में इनायत और नीलोफर ने बिना बिजली के खाना खाया और अपने—अपने कमरे में सोेने चले गये। नीलोफर खाना खाते हुए इनायत के चेहरे को कनखियों से अलग अन्दाज में देखती रही। देर रात तक बिजली नहीं आयी। मौसम एकाएक अपना रुख बदल कर तूफानी हो चुका था। तेज बारिश के साथ हवा भी तेज चल रही थी। इनायत को परवीन की चिन्ता हो रही थी। यद्यपि अस्पताल में जनरेटर की सुविधा थी, फिर भी वह चिन्तित हो उठा। बिजली आने की उम्मीद छोड़ कुछ देर बाद इनायत सो गया।
आधी रात के बाद अचानक इनायत को लगा जैसे कोई और उसके साथ उसके बेड पर लेटा हो वह चौंक उठा, उसने अपने हाथ से टटोला।
‘‘कौन? नीलोफर तुम! यहाँ'' इतना ही इनायत कह पाया था।
‘‘हाँ! दूल्हें मियां इस तूफानी रात के अँधेरे में मुझे अकेले डर लग रहा है। मुझे अपने साथ लेटा रहने दीजिए'' कहते—कहते नीलोफर इनायत से सटती चली गयी।
‘‘नहीं, नहीं इस तरह नहीं।'' तभी तेज बिजली कौंधी एक पल की रोशनी में नीलोफर की संगमरमरी देह्यष्टि को देख इनायत क्या, कोई भी अपने होश खो बैठता।
बस एक यही गलती उसके शेष जीवन के लिए अभिशाप बन गयी थी। ‘लम्होंं ने खता की सदियों ने सजा पायी', नीलोफर पागलों की हद तक उसे चाहने लग गयी थी। जवानी के इशारे में इनायत भी उसकी चाहत के पीछे झुकता चला गया।
इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपते, सच एक दिन दुनिया के सामने उजागर हो ही जाता है। अस्पताल से परवीन के घर आने तक बीते दिनों की सारी घटनाएँ एक—एक कर परवीन को पता चलती गयीं। अपने प्रति इनायत की इस बेवफाई को वह सहन नहींं कर पायी और सदा के लिए इनायत से नाता तोड़ अपने बेटे के साथ मायके चली गयी।
सावन के अन्धे इनायत ने परवीन को तलाक देकर उसके परिवार वालों के विरोध के बावजूद नीलोफर से दूसरा निकाह कर अपना शेष जीवन उसके नाम गिरवी रख दिया। जवानी का यह भूत जब दो चार साल बाद उतरा तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
नीलोफर ने एक बेटी को कठिन ऑपरेशन के बाद जन्म दिया। कालांतर में वह कमजोर व चिड़चिड़े स्वभाव की होती चली गयी। इसी दौरान उसे टी. बी. भी हो गयी। लम्बे इलाज के बाद उसे टी. बी. से तो मुक्ति मिल गयी, किन्तु उसका स्वास्थ पहले जैसा कभी नहीं बन पाया। उल्टे वह बेहद चिड़चिड़ी और कर्कश स्वभाव की हो गयी।
नीलोफर की बीमारी के कारण इनायत ने अपनी बेटी रुखसार को बोर्डिंग स्कूल में रखवा दिया था। रुखसार अपने आगे की सारी पढ़ाई हॉस्टल में ही रहकर पूरी करती रही। इनायत अपनी भूल और परवीन के साथ अपनी जवानी के दिनों में की गयी बेवफाई के कारण स्वयं को उसका अपराधी मानता। नीलोफर के तानों और गालियों को वह अपने ऊपर दण्ड की तरह लेता और प्रायश्चित करता।
परवीन आज अपने बलबूते पर एक अच्छे पब्लिक स्कूल की प्रिन्सिपल थी और उसका बेटा अमेरिका में कम्प्यूटर इंजीनियर, जिसके हालचाल बहुत मुश्किल से इनायत को मिल पाते थे।
इनायत ने सुन रखा था कि उसका बेटा उससे घोर नफरत करता है। अपनी अम्मी के संघर्ष भरे जीवन और उसके द्वारा उसकी अम्मी के साथ की गयी बेवफाई उसके बेटे के मन में घृणा भरने के सिवाय और क्या दे सकती थी? उसने जो किया था उसे आगे भोगना ही है। कालेज से उसके रिटायरमेण्ट के बाद बेटी रुखसार अपने बचपन के दिनों के एक हिन्दू मित्र से प्रेम विवाह कर अपने पति के साथ इंग्लैण्ड में बस चुकी थी। उसका पति पहाड़ी पण्डित है, जो लंदन के एक बड़े अस्पताल में डॉक्टर है। साल दो साल में वह अपने पति व बच्चों के साथ आ जाती थी। बेटी थी, शायद इसीलिए रुखसार अपने बूढ़े माँ—बाप के हालचाल सप्ताह में एक या दो बार फोन से जरूर पूछ लेती थी।
ट्रिन..... ट्रिन...... ट्रिन
‘लो याद करते ही फोन आ गया' इनायत प्रसन्न हो मन ही मन बोला। उसने फोन उठाकर हैलो किया; दूसरी ओर से रुखसार का चिरपरिचित ताजगी भरा स्वर उसे अपने कानों में सुनायी दिया।
‘‘हैलो! अब्बा मैं रुखसार ...... कैसी कट रही है? अम्मी कहाँ हैं?''
एक साथ उसने दो सवाल कर इनायत को विचलित—सा कर दिया।
‘‘बोल बेटी...... बोल तू कैसी है?...... हम बुड्ढे—बुड्ढी ठीक हैं।''
‘‘ठीक हैं, अब्बा! अम्मी को भी फोन पर बुलाइए।''
‘‘अच्छा बुलाता हूँ। अरे! सुनो रुखसार की अम्मी! रुखसार का फोन है जल्दी आओ।'
हाँ! बेटी तेरी अम्मी आ रही है और सुनो डॉ. साहब ठीक हैं? ‘‘इस वक्त वह कहाँ पर है? इनायत अपने दामाद को डॉक्टर साहब कहता था।
“अभी अस्पताल गये हुए हैं .....!”
हाँ.... हाँ बेटी वहाँ पर तो अभी दिन होगा। यहाँ तो रात के दस बजने को हैं।
‘‘अब्बा! डॉक्टर सुमन के क्या हालचाल हैं उनको मेरा आदाब कहिएगा।''
‘‘वो तो... ले बेटी तेरी अम्मी आ गयीं, अम्मी से बात कर लो।''
इनायत के चेहरे पर रुखसार के फोन के आ जाने से खुशी छा गयी। वृद्धावस्था में माता—पिता, सन्तान के द्वारा आत्मीयता से हालचाल पूछ लेने मात्र से भी परम संतोष का अनुभव करते हैं।
नीलोफर की सारी खरी खोटी बातें भूल रात्रि भोजनोपरांत बेटी से बात कर लेने के सुख को साथ लिए प्रोफेसर साहब सो गये।
सुबह—सवेरे से वही रोज की जैसी जिन्दगी शुरू हुई। इनायत अपनी आदत के अनुसार प्रातः जल्दी दो किलोमीटर घूम कर वापस आ चुका था। नीलोफर मेहतरानी के ऊपर किसी बात को लेकर चिड़चिडा रही थी। उसने अंकुरित चने मुट्ठी में लेकर एक—एक कर चबाने शुरू कर दिये और लान में रखे गमलों को पाइप में आ रहे पानी से सींचने लग गया।
‘‘अरे! बद्जात! अगर तूने इस बुढ़ापे में अपनी सास का ख्याल नहीं रखा, तो तुझे अल्लाह मियां भी नहीं बख्सेंगे।'' नीलोफर का तीखा स्वर इनायत के कानों में पड़ा।
‘‘जी बीबी जी आगे से ख्याल रखूँगी।'' यह मरा—सा स्वर मेहतरानी का था।
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे'
एकाएक इनायत इस वार्तालाप को सुन उन दिनों की ओर चला गया जब उसकी अम्मीजान जीवित थी; जो अपने इकलौते बेटे इनायत के पास कभी—कभार मोहवश गाँव से शहर चली आती थीं। तब इसी नीलोफर के तेज तर्रार रूखे स्वभाव के कारण ही उनकी वृद्ध अम्मी उनके पास ज्यादा दिन ठहर नहीं पाती थीं। किसी न किसी बहाने को लेकर गाँव वापस चली जाती थीं। वह नहीं चाहती थीं कि उनके कारण उनके बेटे और बहू के बीच कोई तनाव पैदा हो।
नीलोफर के कारण ही वह कभी अपनी अम्मी से खुल कर बात नहीं कर सकता था। नीलोफर से आँख बचाकर ही वह अपनी अम्मी के पास आ पाता था। मजाल है कि वह अम्मी के पास ज्यादा देर रुक पाये। बीबी के कर्कश व्यंग्य वाणों के कारण वह सदैव ऐसा महसूस करता जैसे वह अपनी सगी माँ से नहीं मिल रहा था; बल्कि कोई बहुत बड़ा अपराध कर रहा हो।
सुबह—सवेरे नाश्ते की टेबिल पर दो पल के लिए भी अम्मी से मुखाबित हो जरा—सी बात करना भी नीलोफर को गवारा नहीं था। कालेज से वापस लौटने के बाद से सोने तक वह एक—दो बार ही अपनी अम्मी से बोल पाता था। इस पर भी साये की तरह मँडराती नीलोफर उसे उल्टा—सीधा सुना देती थी, और प्रायः..... ‘‘अम्मी से इतना लगाव था तो क्यों नहीं उन्हीं के पल्लू से बँध जाते..... जाओ उन्हीं की गोद में जाकर सो जाओ। बीबी के पास अब क्या बचा है.....'' इत्यादि, पता नहीं कितनी जली कटी बातें बड़बड़ाती रहती थी।
अम्मी को इन सब बातों का आभास न हो पाये इसका वह पूरा ख्याल रखता; किन्तु अम्मी की बूढ़ी अनुभवी आँखों से यह सब भला कैसे छिप सकता था। गाँव वापस जाते समय अपनी बूढ़ी आँखों में आँसू भर वह आशीष देते कहती, ‘‘बेटा! अल्लामियां पर भरोसा रखो। वह सब ठीक कर देंगे। खुश रहो।'' तब उसकी आँखें भर आतीं। वह दिल खोलकर रोना चाहता पर रो नहीं पाता। इनायत की आँखें भर आयीं।
‘‘ओफ्फ हो! क्या करते हो जी, दिखायी नहीं पड़ रहा क्या? गमला पानी से कब का भर चुका है..... मुआ पौधा सड़ नहीं जायेगा।'' नीलोफर की खनकती आवाज से इनायत चौंक पड़ा उसने पानी के पाइप को क्यारी में डाल दिया।
नीलोफर ने इनायत की डबडबा आयीं आँखें नहीं देखीं।
नीलोफर की शुरू से अब तक यही आदत तो रही है, जिसने कभी उसकी दशा पर गौर नहीं किया, उल्टे अपने विषैले शब्दों के बाणों से हमेशा उसे मर्माहत किया है। इनायत ने अपने आँसुओं को कुर्ते की बाँह से पोंछ लिया। उच्छ्वास लेते हुए उसके मुँह से निकल गया, ‘‘या अल्लाह! ऐसी बीबी किसी को न मिले जो सिवाय चिड़चिड़ाने के कुछ न करती हो।''
‘‘अजी मियां क्या बुढ़ापे में पूरे सठिया गये हो, जो खामखाह बुदबुदाये जा रहे हो अरे मैं पूछती हूँ कि आज जाकर सब्जी वगैरह लानी भी है कि नहीं'', अन्दर जाकर वापस लौटती नीलोफर अपना दुपट्टा ऊपर सरकाते हुए बोली। इनायत ने अपनी बीबी के चेहरे की ओर देखा, जिसके सिकुड़े माथे पर उभरी लकीरें स्पष्ट झलक रहीं थीं।
‘इस संवेदनहीन औरत ने अपनी सारी सेहत अपने इसी चिड़चिड़े और कर्कश स्वभाव के कारण ही खो दी है।' इनायत स्वयं को दिलासा देता कपड़े बदलने अन्दर चला गया।
आज साप्ताहिक बाजार का दिन था। हफ्ते भर के लिए राशन—पानी, साग—सब्जी सब उसे लेने जाना पड़ता था। जब तक वह कालेज में था कोई—न—कोई छात्र यह कार्य निपटा देता था।
इनायत ने दो थैले अपने साथ लिए, रुपये जेब में रखे और नीलोफर को बताये बिना मंडी की ओर चल दिया।
डॉक्टर सुमन को प्रोफेसर इनायतुल्ला का फ्लैट छोड़े दो माह से ज्यादा गुजर चुके थे। इन दो माह में ऐसा कोई भी दिन नहीं था, जब प्रोफेसर अंकल उसे याद न आये हों। दो एक बार फोन से हाल चाल जानना चाहा, परन्तु फोन पर नीलोफर की आवाज सुनकर वह ‘हैलो' के आगे कुछ न बोल सकी थी।
वह चाहती तो प्रोफेसर अंकल से मिलने स्वयं उनके बँगले जा सकती थी, परन्तु उनकी कर्कश स्वभाव की बीबी के कराण वह चाहते हुए भी उनसे मिलने का साहस नहीं जुटा पायी। यहाँ पर उसे स्वयं को मिलने वाले तानों से अधिक प्रोफेसर अंकल की दुर्दशा का भय था।
एक दिन जब सुमन अस्पताल से वापस अपने फ्लैट के लिए लौट रही थी तभी प्रोफेसर अंकल सूचना विभाग की लाइब्रेरी के बाहर सीढ़ियों से उतरते दिख गये। उन्हेें देखकर सुमन का मन हर्ष से भर उठा। वह रिक्शे पर बैठे—बैठे चिल्ला पड़ी; ‘‘अंकल! अंकल!'' प्रोफेसर साहब ने सुमन की आवाज सुन ली थी। उन्होंने मुड़कर दाहिनी ओर रिक्शे पर बैठी सुमन की ओर देखा, जो अपना हाथ हिला—हिला कर उन्हें ही पुकार रही थी।'
‘‘हैलो! डॉक्टर बेटी।'' प्रोफेसर साहब सड़क पार करके उसके पास आकर बोेले।
अंकल कितने दिनों से आप से मिलने को मन कर रहा था पर .....
‘‘पर क्या? अपनी आण्टी के कारण हिम्मत नहीं जुटा पायी''। प्रोफेसर साहब हँस पड़े।
सुमन अपना सिर हिलाकर रह गयी।
‘‘अंकल आप यहाँ लाइब्रेरी में?
‘‘हाँ बेटी मैं डॉक्टर जगदीश चन्द्र बसु की लिखी किसी पुस्तक की तलाश में आया था। सोच रहा हूँ, मैं भी पेड़—पौधों की भाषा सीख जाऊँ।'' प्रोफेसर अंकल को खुल कर हँसते देख सुमन भी मुस्करा दी। इतनी उन्मुक्त हँसी आण्टी के सामने उन्हें भला कहाँ सुलभ थी।
‘‘हाँ तो बेटी! मुझे आपके वाहन में लिफ्ट मिलेगी।''
‘‘हाँ.....हाँ सॉरी, आइये, आइये न।'' सुमन को अपनी गलती का एहसास हुआ। प्रोफेसर अंकल के एकाएक मिल जाने से हो रही खुशी के कारण उसे यह भी याद नहीं रहा कि वह शिष्टाचारवश रिक्शे से उतरकर उनसे बातें करे।
रिक्शा उन दोनों को बैठाये आगे बढ़ चला। कुछ पल बाद प्रोफेसर साहब बोले, ‘‘अस्पताल से लौटी हो न! कहाँ रह रही हो?''
‘‘यहीं पार्क रोड के पास एक बुजुर्ग डॉक्टर दंपति के बँगले में एक फ्लैट ले रखा है। चलिए आप को अपना फ्लैट दिखा दूँ।''
‘‘चलते हैं; किन्तु एक शर्त है।'' प्रोफेसर साहब गम्भीर मुद्रा में बोले।
‘‘वह क्या?'' सुमन शर्त की बात से अटक—सी गयी।
‘‘तुम को एक प्याला गरमा गरम कॉफी मुझे पिलानी होगी।'' एक बार फिर प्रोफेसर साहब खुलकर हँस पड़े। सुमन भी अपनी हँसी रोक न सकी।
जब दोनों की हँसी थमी तब सुमन बोली, ‘‘अंकल! रुखसार का फोन आया क्या? कैसी है वह?''
‘‘वह ठीक है। उसका फोन बिना नागा चार छः दिन में आता है। उसे तुम्हारा चला आना बहुत अखरा था। पूछ रही थी, ‘क्यों चली गयी? मैं क्या कहता! मैंने कहा अपनी अम्मी से पूछो, पता नहीं उसने पूछा भी या नहीं।'' प्रोफेसर साहब कुछ देर के लिए अपनी बेटी की याद में खो गये। फिर बोले, ‘वह अपने बच्चों और पति के साथ लंदन में खुश है। सुनों डॉक्टर! वह पहाड़ी पण्डित, क्या कठिन—सा सरनेम है उसका बड़थ्वाल वह रुखसार को बहुत चाहता है। शुरू में तो मुझे अंदेशा था कि पता नहीं रुखसार का यह प्रेम विवाह आगे चल भी पायेगा या नहीं; परन्तु मेरा अंदेशा गलत निकला। रुखसार का हसबैंड सोमेश बड़थ्वाल बहुत अच्छा निकला...... हाँ, सुनों डॉक्टर। रुखसार अबकी बार पूरे एक माह के लिए सपरिवार हिन्दुस्तान आ रही है।'' प्रोफेसर साहब प्रफुल्लित हो उठे थे।
‘‘अच्छा तब तो उनसे मिलकर बड़ी खुशी होगी।'' सुमन का निवास स्थान आ चुका था। सुमन के मना करने के बावजूद प्रोफेसर साहब ने रिक्शे का किराया चुका दिया।
सुमन व उसके वृद्ध मकान मालिक डॉक्टर दम्पत्ति के साथ कॉफी पीने व कुछ बातचीत करने के बाद प्रोफेसर इनायतुल्ला अपने बँगले के लिए रवाना हो गये।
सुमन प्रोफेसर अंकल को विदा करने के बाद सोचने लगी; ‘प्रोफेसर अंकल कितने अच्छे हैं, उनकी बीबी ठीक उनके स्वभाव के विपरीत, पता नहीं कैसे बेचारे इतने लम्बे अर्से से अपनी कर्कश स्वभाव की बीबी से निभाते चले आ रहे हैं।' उसे प्रोफेसर अंकल पर तरस आ रहा था।
इनायत को सुबह घूम कर लौटे दो घंटे से ऊपर हो चुके थे। अंकुरित चने का नाश्ता, बागवानी और स्नान कर लेने के बाद वह ड्राइंगरूम में आकर कुछ देर आराम करने की गरज से दीवान पर लेट गया। इस दरम्यान उसे अपनी बीबी का कर्कश स्वर सुनायी नहीं दिया था। वह आज हो रहे इस अचम्भे से अचंभित था। सच भी था, इतनी देर में तो कम से कम दो या तीन राउण्ड नीलोफर के चल चुके होते।
इनायत विचारमग्न था ही कि किचन से किसी बर्तन के गिरने की आवाज आयी, फिर पहले जैसी शांति छा गयी। बर्तन के गिरने के बाद भी नीलोफर शान्त बनी हुई है। वह उठा और किचन में आ गया। फर्श पर दूध बिखरा पड़ा था। ‘अब बिल्ले के पुरखे याद किये जायेंगे।' इनायत ने फर्श पर औंधे पड़े दूध के बर्तन को उठाकर सिंक पर रख दिया और वापस ड्राइगरूम में आ गया।
कालबेल बजी। दरवाजे पर महरी थी। इनायत ने उसे किचन में दूध बिखरे होने की सूचना दी। महरी अन्दर गयी और इनायत पुनः दीवान पर लेट गया। तभी अन्दर से महरी की चीख उसे सुनायी दी। ‘‘अरे! देखिए हुजूर! बीबी जी कैसे कर रही हैं?'' इनायत अन्दर की ओर भागा, ‘‘क्या.... हुआ?'' बेडरूम में बेड पर पड़ी नीलोफर शान्त चित्त लेटी हुई थी। उसकी बड़ी; किन्तु धँसी—सी आँखें ऊपर छत को ताक रहीं थीं।
‘‘नीलोफर क्या हुआ? ठीक तो हो न?'' इनायत ने घबड़ाकर नीलोफर को झकझोरा। नीलोफर की आँखें इनायत की आँखों में झाँकने लगीं।
नीलोफर की आँखों से आँसू लुढ़क कर कपोलों के पास बह निकले। वह अपने गले को अपने दाहिने हाथ से मालिश—सी करती हुई अपना सिर ऊपर नीचे कर बोलने का असफल प्रयत्न कर रही थी; किन्तु उससे कुछ भी बोलते नहीं बन रहा था।
इनायत ने सहारा देकर उसे बैठाना चाहा; परन्तु वह बैठ भी न सकी और पुनः लेट गयी। इनायत की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह परेशान हो उठा उसने तुरन्त डॉक्टर सुमन से फोन पर बात की और उसे शीघ्र पहुँचने के लिए कहा। ‘काश! डॉक्टर सुमन यहाँ पर इस वक्त होती, तो कितना अच्छा होता।' इनायत ने अपनी बीबी की ओर देखा, ‘इसी की जिद और दुर्व्यवहार से वह यहाँ से चली गयी।' ‘‘जाओ तुम दूध के दो पैकेट और खरीद लाओ;'' इनायत ने बीस रुपये महरी को देते हुए कहा। महरी के चले जाने के बाद वह नीलोफर का बायांँ हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी मालिश करने लगा। इनायत ने रूमाल से नीलोफर के आँसुओं को पाेंछ दिया। लम्बे अर्से के बाद उसे नीलोफर की आँखों में अपने प्रति सहानुभूति की विनीत चमक दिखायी दी थी। उसने नीलोफर के माथे पर हाथ रखते हुए उसकी दोनों पलकों को चूम लिया फिर भावुक हो बोला, ‘‘नीलोफर! तुम जरा भी मत घबड़ाना...... मैं हूँ न...... तुम्हारे पास...... अभी डॉक्टर सुमन आ रही है, सब ठीक हो जायेगा।''
नीलोफर ने अपना दुबला—सा सिर हिला दिया। चेहरे पर अन्दर को धँसी उसकी बड़ी आँखों से अविरल अश्रुधारा पुनः बह निकली।
‘‘नीलोफर! मैंने कहा न घबड़ाते नहीं हैं। सब ठीक हो जायेगा।'' इनायत ने अपनी गोद में नीलोफर का सिर रख लिया। उसका माथा दबाते वह उसे दिलासा देने लगा। एक अर्से के बाद वह नीलोफर के इतने नजदीक आया था। कितनी हल्की और कमजोर हो गयी है नीलोफर, जो कभी अपने गोरे भरे पूरे बदन और सुन्दर चेहरे पर बड़ी—बड़ी आँखों के कारण अच्छे स्वास्थ्य और सुन्दरता का पर्याय मानी जाती थी। वही नीलोफर आज सिर्फ गोरी चमड़ी में लिपटी कंकाल शरीर बन चुकी थी; जैसे उसके शरीर का सारा मांस सूख चुका हो। कितनी दुबली हो चुकी थी, वह।
इनायत ने नीलोफर के दोनों हाथ दबाये, उसकी पीठ सहलायी। उसके बालों में अपनी उँगलियों को फँसाकर कंघी—सी करते हुए उसे आराम पहुँचाने के साथ वह अपना प्यार उडे़लने की कोशिश करने लगा।
नीलोफर बीते दिनों में अपने शौहर के प्रति की गयी ज्यादतियों को सोच—सोच कर आँसू बहाए जा रही थी। वह यह मान चुकी थी कि उसके हर दम चीखते चिल्लाते रहने के कारण ही अल्लामियां ने उससे उसकी आवाज छीन ली है।
महरी के आने की आहट पाकर इनायत ने उसे दूध गरम कर लेने को कहा, फिर नीलोफर के आँसू पाेंछते हुए उसे प्यार करने लग गया।
नीलोफर अपने सीधे—सादे शौहर के प्यार के वशीभूत हो अपनी जवानी के दिनों की याद में खो गयी। कितना सहज और रोमांटिक आलिंगन होता था; उन दिनों इनायत का, फिर उसे टी.बी. हो जाने के कारण डॉक्टर की राय से इनायत ने उसके साथ सोना बन्द कर दिया था, तभी से वह भी पहले से कुछ अधिक कर्कश स्वभाव की हो गयी थी। इनायत पर वह खामखाह शक करती रहती थी। इनायत के साथ लम्बा जीवन तय कर चुकने के बाद भी वह उसे ठीक से समझ नहीं सकी थी।
कालबेल के बजने से नीलोफर के विचारों का क्रम टूटा। ‘‘शायद डॉक्टर सुमन आ गयी। मैं देखता हूँ।'' इनायत एकाएक चहक उठा, फिर उसे स्वयं पर खीज हुई, उसने कनखियों से नीलोफर की ओर देखा, वह मन्द—मन्द मुस्कराने का प्रयास करते हुए अपना सिर हिलाते हुए इशारे से दरवाजा खोल आने को कह रही थी।
इनायत ने डॉक्टर सुमन का बैग लेना चाहा; परन्तु उसने उसे अपना बैग पकड़ने नहीं दिया, ‘‘नमस्ते अंकल! आण्टी जी कहाँ हैं?''
‘‘नमस्ते बेटी, आओ अन्दर आण्टी बेडरूम में हैं। एकाएक कुछ बोल नहीं पा रही हैं।''
‘‘अच्छा! चलिए देखते हैं।''
दोनों अन्दर बेडरूम में आ गये। बेड पर पड़ी नीलोफर की आँखें सुमन को घूर रहीं थीं। एकपल के लिए डॉक्टर सुमन अस्थिर—सी हो गयी। उसे लगा जैसे अभी वह कोई तीखा व्यंग्य भरा बाण चलाकर उसके हृदय को विदीर्ण कर देगी; परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। डॉक्टर सुमन ने ब्लड प्रेशर चेक किया, फिर आला लगाकर हृदय की धड़कनें गिनी, आँखें और जीभ देखी, हाथ पैर हिलाए, फिर वह इनायत से बोली, ‘‘अंकल, आण्टी जी को तुरन्त मेडिकल कॉलेज ले जाना होगा, शायद इन्हें फालिज मार गया है।
‘फालिज' सुनकर इनायत ने मायूसी के साथ पहले डॉक्टर सुमन की ओर फिर नीलोफर की ओर देखा।
मेडिकल कालेज में डॉक्टर सुमन की मदद से नीलोफर की सारी जाँचें आसानी से हो गयीं। समय पर समुचित इलाज मिल जाने से नीलोफर की हालत में सुधार होने लगा।
दो दिन बाद ही सारी रिपोटेर्ं आ चुकी थीं। नीलोफर को फालिज का अटैक हुआ था। तमाम कोशिशों के बावजूद नीलोफर की आवाज पुनः वापस नहीं लौटायी जा सकी।
पूरे एक माह अस्पताल में भर्ती रहने के बाद इनायत नीलोफर को घर ले आया था। इस बीच वह अपनी बेटी रुखसार से उसकी अम्मी के अस्वस्थ होने की बात चतुराई से छुपा ले जाता था।
बीते माह में जिस तरह प्रोफेसर साहब ने अपने आप को अपनी बीबी की सेवा—सुश्रूषा में लगाये रखा था, जिसे देख डॉक्टर सुमन आश्चर्य चकित थी। कितनी मानसिक प्रताड़ना मिलती थी प्रोफेसर अंकल को अपनी बीबी से, जिसके कर्कश स्वभाव के कारण वह अपने घर किसी को चाहते हुए भी नहीं बुला पाते थे और न ही किसी के घर जा ही पाते थे।
अपनी तमाम खुशियों और रुचियों का गला उन्होंने अपनी बीबी के कर्कश स्वभाव के कारण घोंट रखा था। उसी बीबी की आवाज वापस लौटाने में वे जमीन आसमान एक कर रहे है।
जिस तरह से प्रोफेसर इनायतुल्ला अपने लॉन में लगे मूक पेड़ पौधों से बातचीत किया करते थे। वैसे ही अब वह अपनी बीबी से बातचीत करते हुए उसकी सारी बातें समझ लेते हैं।
डॉक्टर सुमन नियमित प्रोफेसर साहब के बँगले नीलोफर का चेकअप करने जाया करती। प्रत्येक बार वह आण्टीजी की आँखों में अपने प्रोफेसर पति के साथ की गयी ज्यादतियों के लिए पश्चाताप के आँसू पाती। प्रोफेसर साहब को उनकी जी—जान से सेवा में लगे देख वह आण्टीजी के भाग्य की मन ही मन सराहना किए बिना न रहती।
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