Seeta - Ek naari - 6 in Hindi Poems by Pratap Narayan Singh books and stories PDF | सीता: एक नारी - 6

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सीता: एक नारी - 6

सीता: एक नारी

॥ षष्टम सर्ग॥

कितने युगों से अनवरत है सृष्टि-क्रम चलता रहा
इस काल के अठखेल में जीवन सतत पलता रहा

गतिमान प्रतिक्षण समय-रथ, पल भर कभी रुकता नहीं
सुख और दुःख भी मनुज-जीवन-राह में टिकता नहीं

उल्लास के दिन बीतते, कटती दुःखों की यामिनी
होता अमावस तो कभी, भू पर बिखरती चाँदनी

घनघोर काली रात का अब कलुष है कम हो गया
संलग्न जीवन-ग्रन्थ में मेरे हुआ पन्ना नया

आश्रम बनी तपभूमि मेरी, पुत्र पालन साधना
दो पुत्र ओजस्वी बहुत, पूरी हुई हर कामना

यह काल सीता के लिए मातृत्व का उत्कर्ष है
विच्छोह-दुःख के साथ ही सुत प्राप्ति का अब हर्ष है

गर्वित हृदय, भावी अवध सम्राट की माता बनी
है विरल अब तो हो गई, पीड़ा कभी जो थी घनी

दात्री बनी हूँ पार कर दुःख दग्ध पारावार को
उपकृत करुँगी पुत्र देकर राम के परिवार को

निज पुत्र की भी सुधि नहीं ली राम ने अचरज बड़ा
सुत प्राप्ति का तप, यज्ञ जो उनको नहीं करना पड़ा

रघुवंश को वंशज मिले यह जतन बस मैंने किया
अपमान का प्रतिदान वारिस जन्म कर मैंने दिया

इतने बरस के बाद भी मन में प्रतीक्षा है कहीं
श्रीराम को तो किन्तु कोई मोह सुत का है नहीं

मुझको भुलाया, कष्ट यह अब गौण है मेरे लिए
उनका हृदय क्यों किन्तु फटता है नहीं सुत के लिए

निज तात के होते हुए लव कुश अनाथों से रहें
सिय-कोख से बस जन्मने का दण्ड वे कब तक सहें

पितु कर्म से तो पुत्र का बनता बिगड़ता भाग्य है
क्यों गर्भ सीता का बना इनके लिए दुर्भाग्य है

मैं देखती नित दिवस, ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती जा रही
लव और कुश की राम जैसी छवि निकल कर आ रही

उन्नत वही मस्तक, नयन में सिंधु की गम्भीरता
मुस्कान अधरों पर, टपकती चेहरे से वीरता

अति सघन कुंतल बीच दर्शित दीप्तिमय मुख यूँ लगे
तारक रहित आकाश में घन बीच चन्दा ज्यों उगे

जाती स्वयं को भूल मैं, लगती उन्हें जब निरखने
बन मूर्त ज्यों सौंदर्य खुद होता खड़ा आ सामने

जूड़ा बँधा सिर पश्च, भुज रुद्राक्ष, धनु काँधे लिए
अवलोक उनका रूप शस्त्राभ्यास को जाते हुए

मानस पटल पर उभर आतीं त्वरित रेखाएँ कई
छवि राम की पहली यही, जो थी हृदय में बस गई

वे व्रह्मचारी वेश बिल्कुल थे यही धारण किए
शिक्षा ग्रहण के बाद ही थे जनकपुर आए हुए

सौंदर्य उनका देख मन में प्रेम ने अंकुर लिया
हो मुग्ध मेरे हृदय ने तत्क्षण समर्पण कर दिया

बीते भले वे पल मगर अनुभूति मिट पाई नहीं
वह प्रेम जीवित आज भी है हृदय अंतर में कहीं

हैं दूर मुझसे आज वे, सम्बन्ध पीड़ा का सही
मैं जानती किंचित नहीं अपने हृदय के भाव ही

उपकार ऋषिवर ने निरन्तर ही बहुत हम पर किया
मुझ सी अभागिन को यहाँ सम्मान औ’ आश्रय दिया

अवधेश नंदन पल रहे हैं यज्ञ पर, दुर्भाग्य है
पर गुरु मिले वल्मीकि उनको यह बड़ा सौभाग्य है

ऋषि मुनि जनों का मनन बनता धर्म का आधार है
उस धर्म के आधार पर चलता जगत व्यवहार है

उद्धार करना मनुज का रहता सदा है मूल में
होती मनुजता ही प्रथम अनुकूल औ’ प्रतिकूल में

बनता नियम भी राज्य का आधार पर ही धर्म के
निर्देश रहते हैं नियम में नृप, प्रजा के कर्म के

हो राज्य पालन व्यवस्थित अभिप्राय बस रहता यही
रक्षित रहे अधिकार सबका, हनन हो पाए नहीं

है धर्म थिर पर नियम बनता राज्य के अनुसार है
पुनरावलोकन नियम का, सुप्रबंध का आधार है

विधि राज्य की करती ग्रहण है धर्म के बस स्थूल को
ऋषि मुनि करें चिंतन, समझते हैं सदा वे मूल को

लंबी अवधि तक व्यवस्था कोई यथावत यदि चले
तो नित्य खर-पतवार दोषों के कई उसमें पलें

इस हेतु ही करना निरीक्षण समय पर अनिवार्य है
मानव धरम रक्षार्थ चिंतन ऋषिगणों का कार्य है

हैं नित रमे बाल्मीकि सीताराम-गाथा-सृजन में

हो शुद्धता मेरी प्रमाणित चतुर्दिक इस भुवन में

पुनरावलोकन कर रहे वे सृष्टि के व्यवहार का
नव नियम प्रतिपादित करेंगे धर्म के आधार का

शिक्षित करेंगे आमजन को, ऋषि भरेंगे चेतना
है ज्ञात उनको मनुज की अति सूक्ष्मतर संवेदना

अवगत कराएँगे सभी को सत-असत के ज्ञान से
स्वाधीन होंगे अवध-जन तब रूढ़ि औ’ अज्ञान से

है अवध में अधिकार मत का आज सबके ही लिए
कर्तव्य का भी इसलिए तो बोध होना चाहिए

शिक्षा कराती बोध है दायित्व का, निज कर्म का
करना विवेचन काल के अनुरूप धर्माधर्म का

हैं गौण राजा और रानी राम के साम्राज्य में
मत आमजन का मान्य होता अवध के नव-राज्य में

किस राज्य में वनवास करती है भला नरपति प्रिया
नृप कौन जिसने मान जनमत, कष्ट है खुद को दिया

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