पुरानी तोप
चतुर्थ श्रेणी के रेलवे क्वार्टर नंबर छियालीस पर पहुँचते ही मैंने अपनी स्कूटी पर ब्रेक लगा ली।
‘निरंजन यहीं रहता है क्या?’ उसके सामने खड़े ठेले पर सब्जी खरीद रही स्त्री से मैंने अपना हेलमेट उतारकर पूछा।
‘हाँ। मैं निरंजन की माँ हूँ।’ हाथ का मटर सब्जी के ठेले ही में छोड़कर वह मेरी ओर मुड़ ली।
‘मैं निरंजन की एम. ए. टीचर हूँ और मुझे आप लोगों से कुछ काम है।’ मैं अपनी स्कूटी से उतर ली।
‘इस छोटी उम्र में इतनी बड़ी क्लास की टीचर?’ सब्जी वाले ने मुझे अपने साथ वार्तालाप में उलझाना चाहा।
‘मेरी उम्र छोटी नहीं। तेईस वर्ष है। और एम.ए. पढ़ाने के लिए एम. ए. में फर्स्ट क्लास फर्स्ट भी हूँ।’ मैंने निरंजन की माँ की ओर देखा।
‘कोई रेलवे रिजर्वेशन चाहिए?’ उसने पूछा।
अपने कॉलेज के दफ्तर से निरंजन का पता लेते समय मैं जान चुकी थी कि निरंजन की माँ अपने पति के आकस्मिक देहांत के परिणामस्वरूप उनके चपरासी वाले पद पर स्थानीय रेलवे स्टेशन पर तैनाती पाए हुए थीं।
‘नहीं। कॉलेज का काम है, रेलवे रिजर्वेशन का नहीं।’ मैंने कहा, ‘आप सब्जी खरीद लीजिए। मैं बाद में कहूँगी...।’
‘ठीक है।’ स्त्री ने ठेले पर अपने हाथ पुन: जा टिकाए, ‘यह मटर पाँच रुपए में दो मुट्ठी तो अहि जाएँगे?’
‘निरंजन भइया जी के लिए तो तीन मुट्ठी भी दे सकते हैं’, ठेले वाला मुस्कुराया।
‘अब पैसे जोड़ के बताओ...’
‘सतरह रुपए। दो का यह एक टमाटर, सात के ये तीन सौ ग्राम आलू, एक का धनिया, दो का खीरा और अब पाँच के ये मटर...’
‘लो, यह बीस रुपए। कल का तीन रूपया बकाया आज खत्म...’
‘हाँ, हिसाब बराबर है अब...’
‘क्या मैं आप के साथ अंदर आ सकती हूँ?’ अपनी स्कूटी मैंने उसके दरवाजे पर खड़ी कर दी।
‘ठीक है’, अपनी अनिच्छा उसने मुझसे छिपाई नहीं।
दरवाजे के पार छोटा, खाली गलियारा था जिसके छोर पर एक बाथरूम था और दूसरे पर एक रसोई।
दोनों के कपाट खुले थे।
खुले वे दोनों कपाट भी थे जो गलियारे के बीच के भाग में स्थित थे।
उन दोनों कमरों को उघाड़ते हुए जो उस परिवार की पूरी गृहस्थी समेटे थे।
‘बताइए’, स्त्री गलियारे में पहुंचकर रुक गई।
‘क्या मैं कहीं बैठ सकती हूँ?’ मैंने कमरों की दिशा में अपनी नजर घुमाई।
दोनों में अलग-अलग दुनिया बसी पड़ी थी। हाँ, सम्मिलित रूप में जो साझा था वह थी बेतरतीबी और बेढंगापन। एक कमरे की दीवार पर माला लिए निरंजन के पिता की तस्वीर टंगी थी और दूसरे कमरे की दीवार पर कैटरीना कैफ का एक उत्तेजक पोस्टर, जिसके ऐन नीचे एक छोटा फ्रिज धरा था।
‘बैठने की फुर्सत आपके पास होगी मगर मेरे पास नहीं’, उन्होंने बेरुखी दिखलाई, ‘बारह बज रहा है और मुझे अपनी ड्यूटी के लिए एक बजे घर से निकल लेना है। इस बीच मुझे निरंजन के लिए दोपहर का भोजन भी तैयार करना है...।’
उसके स्वर में लगभग वही तेजी एवं कोप था जो मुझे कॉलेज में निरंजन के स्वर में मिला करता था जब कभी भी मैं उसके अराजक हाव-भाव एवं टीका-टिप्पणी का कड़ा विरोध किया करती। क्लास के अंदर भी और क्लास के बाहर भी।
‘निरंजन की तरह मेरे पिता भी नहीं हैं’, मैंने अपनी आँखों से आँसू ढलकाए, ‘बल्कि मेरे साथ तो और भी कई मुश्किलें हैं। पाँच बहनों वाले अपने परिवार में सबसे बड़ी होने के नाते कमाने वाली मैं अकेली हाथ हूँ और...’
‘तो क्या आप सोचती हो हमारे पास कमाने वाले सौ हाथ हैं?’
‘सौ हाथ न होंगे मगर निरंजन के ऐसे हाथ तो हैं जो चाहे तो अपने एक हाथ की चुटकी से दूसरे के हाथ को बे-हाथ कर दें और चाहे तो उसे अपना हाथ देकर उसके हाथ ऊँचे कर दें।’
‘कैसे?’ वह थोड़ी उत्सुक हो आई।
‘अभी आधा घंटा पहले मेरे प्रिंसिपल ने मुझे अपने दफ्तर में बुलाकर एक पत्र दिखाया है जिस में एम. ए. के साठ छात्र-छात्राओं के हस्ताक्षरों के साथ मुझे कॉलेज से हटा देने की मांग रखी गई है। पत्र में पहला हस्ताक्षर निरंजन का है और मुझे बताया गया है कि मुझे उसे अपने पक्ष में लाना होगा...।’
यूँ तो प्रिंसिपल ने मुझे यह भी बताया था कि निरंजन कॉलेज के छात्रसंघ के महामंत्री कुंदन का विशेष कृपा पात्र है, बल्कि हमारे इस एम. ए. के सेल्फ फाइनेंसिंग कोर्स की फीस का दस हजार भी कुंदन ही ने निरंजन के नाम पर लगाया है और निरंजन की इस मांग को लेकर कॉलेज भर में बखेड़ा खड़ा किया जा सकता है, मगर मैंने प्रिंसिपल का वह कथन अपने पास रोके रखा। मैं उसे नीचा नहीं दिखाना चाहती थी। इस नौकरी की मुझे सख्त जरूरत थी।
‘निरंजन को किसी भी मामले में मेरा कोई दखल नहीं रहा करता’, वह तनिक नहीं पसीजी। ‘मैं अपने काम से काम रखती हूँ और इस समय मुझे रसोई का काम निपटाने की बेहद जल्दी है। निरंजन से आप कॉलेज में मिलो...।’
‘आपका काम आज मैं बाँट सकती हूँ। आप आज्ञा दें तो आपकी सब्जी तैयार कर दूँ, चपाती सेंक दूँ, खीरा काट दूँ’, मैंने उसके सामने अपना नया प्रस्ताव रख दिया। उसके बेटे की ताक में मैं उसी के घर पर उसकी बाट जोहना चाहती थी।
हालांकि रसोईदारी के मेरे प्रयास अधिक सुखद परिणाम नहीं ला पाते। उधर मेरे घर पर भी मुझसे रसोई का काम कोई नहीं लेता। कारण शायद अपने तेरहवें वर्ष ही में पिता को मृत्यु के हाथों खो देने का रहा। जब उसी वर्ष से मैंने माँ की देखा-देखी पास-पड़ोस के बच्चों की ट्यूशन लेनी प्रारंभ कर दी थी।
‘ठीक है, चली आओ’, निरंजन की माँ ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार लिया।
बेशक रसोईदारी के दौरान उसका ध्यान मेरे हाथों पर अधिक रहा और मेरी बातों पर कम, लेकिन वह मेरे संकल्प को लाभ पहुँचाने के लिए पर्याप्त रहा।
मैं अभी दूसरी रोटी बेल रही थी कि बाहर एक मोटर साइकिल के रुकने की आवाज हम तक चली आई।
‘निरंजन आ गया लगता है’, निरंजन की माँ के हाथों में अतिरिक्त फुर्ती आन प्रकट हुई, ‘यह कुंदन की मोटर साइकिल है...’
‘भूगोल वाली मैम इधर आई हैं क्या?’ कुंदन दरवाजे ही से चिल्लाया।
अपने ठाट-बाट एवं टीम-टाम की तुरही बजाता हुआ।
‘आप कहें तो मैं इन लोग से सीधी बात कर लूँ?’
उत्तेजना से मैं लगभग कांपने लगी। कुंदन के पद और सामर्थ्य से मैं भली-भांति परिचित थी! पूरा छात्रसंघ उसकी मुट्ठी में रहा करता। लगभग सभी निर्वाचित सदस्य उसी के चुने हुए प्रत्याशियों में से होते और पूरे चुनाव की दौड़-धूप भी उसी के संचालन में हुआ करती। वह हमारे कॉलेज के एम. पी. एड. विभाग का विद्यार्थी था। उम्र में निरंजन से पाँच वर्ष और मुझसे चार वर्ष बड़ा। खूब हट्टा-कट्टा और ऊँचा-लंबा।
‘जाओ, जरूर जाओ’, निरंजन की माँ अधूरी बेली हुई रोटी बेलने लगी।
मैं गलियारे में जा खड़ी हुई।
‘मैम आप यहाँ कैसे आईं?’ सवाल कुंदन ने किया, निरंजन ने नहीं।
‘हमारे प्रिंसिपल ने मुझे एक पत्र दिखाया है जिसमें निरंजन का हस्ताक्षर भी है...’
‘तो?’ इस बार भी प्रतिक्रिया कुंदन ही ने दी, निरंजन ने नहीं।
‘मैं चाहती हूँ निरंजन अपना हस्ताक्षर वापिस ले ले ताकि मेरी नौकरी सुरक्षित रहे...।’
‘ले सकता है मगर हमारी कुछ शर्तें हैं’, कुंदन ने निरंजन की पीठ घेर ली।
‘क्या क्या?’ मेरा दिल डूबने लगा।
‘आपको अपने क्लास रजिस्टर में निरंजन को हमेशा हाजिर दिखाना होगा, यह ध्यान दिए बिना कि वह क्लास में हाजिर है या नहीं...’
‘और?’ मेरा गला घुटने लगा।
‘आप उसके शोध-निबंध, डिजर्टेशन वाले पेपर में उसका पूरा काम स्वयं करेंगी, लिखने से लेकर छपवाने तक...।’
‘और अगर मैं ये शर्तें न मानूं तो?’ मैंने थूक निगली।
‘तो हम आपकी जगह अपना बंदा ले आएँगे...।’
‘क्या कोई तैयार बैठा है? मुझसे ज्यादा दरिद्र और लाचार?’ दिखावटी अविश्वास प्रकट करने के पीछे मेरी चुनौती छिपी थी।
‘है तो’, निष्ठुर लापरवाही से उसने ठीं-ठीं छोड़ी और निरंजन की पीठ से अपने हाथ अलग कर उन्हें हवा में लहरा दिया।
‘और प्रिंसिपल साहब भी उसे मेरी जगह देने के लिए तैयार हैं?’ मेरा दिल उलट लिया।
‘हाँ। अपने उस चेले को हम उनसे मिलवा चुके हैं। और उनकी ओर से ओ. के. पूरी है...’
‘मैं समझ रही हूँ’, स्पष्ट था मेरे विरुद्ध प्रिंसिपल के नाम लिखे गए उस पत्र का मसौदा कुंदन ही ने तैयार किया था, निरंजन और उसके सहपाठियों ने नहीं।
‘हम जानते हैं, मैम, आप बहुत समझदार हैं और अभी ही से अपने लिए नई जगह खोजनी शुरू कर देंगी...’
‘अभी से क्यों?’ मैं चमक ली, ‘अभी तो मुझे अपने इन प्रिंसिपल साहब से मिलना बाकी है। उन्हें कह देना बाकी है कि उन्हीं के कॉलेज के इंटरव्यू बोर्ड द्वारा मेरा चुनाव किया गया था और वे आपकी विवादास्पद आपत्तियों के आधार पर उसे रद्द नहीं कर सकते...।’
‘वह आपको आपके नियुक्ति पत्र की कॉपी दिखला देंगे जिसमें यह साफ लिखा है कि आपकी नियुक्ति बिना कारण बताए कभी भी रद्द की जा सकती है...।’
‘मेरे पास उनकी ‘हाँ’ समेटने का भी उतना ही साहस है जितनी उनकी ‘न’...।’
अपनी हतबुद्धि से मैं अब बाहर निकल चुकी थी और अपनी मान-मर्यादा के प्रति पूर्णत: सचेत हो ली थी।
‘हम जानते हैं, मैम’, ‘कुंदन ने नाटकीय अंदाज में अपने दोनों हाथ मेरे सम्मुख ला जोड़े’, और इसीलिए आपको पूज्य मानते हैं... और निवेदन करते हैं कि आप हम दोनों का प्रणाम स्वीकारें...।’
प्रतिक्रिया स्वरुप उसकी दिशा में अपने हाथ जोड़ देने की बजाए मैं उन्हें अपने बटुए में ले गई।
मैंने पहले उसमें रखी अपनी स्कूटी की चाभी निकाली और फिर वह अभियोगात्मक पत्र जिसकी एक कॉपी प्रिंसिपल ने मेरे हाथ में थमा दी थी।
‘आपकी श्रद्धा का यह प्रमाण पत्र मैं अपने पास रखे हूँ...।’
दोनों ने लज्जित हीं-हीं छोड़ी।
अब आप जान ही गए होंगे कि आगामी संभाव्य घटना उस कॉलेज के प्रिंसिपल द्वारा मेरे लिए जारी किये गए प्रयाण आदेश थे।
कुंदन के नाम नहीं।
निरंजन के नाम नहीं।
मेरे नाम।
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