भाग 1
कान्ता बार बार दरवाजे तक आती और घूंघट से झांक कर देखती पर दूर दूर भी कही सत्तू नहीं दिखाई दे रहा था। ये इंतजार की घड़ियां बढ़ती ही जा रही थी। शाम हो गई । सुबह से राह देखते देखते शाम हो गई पर आनंद नहीं आया। सुबह का बना खाना वैसे का वैसा ही रखा रह गया। अब क्या करूं? कांता की घबराहट बढ़ती ही जा रही थी । जिसका इंतजार था वो तो ना आया पर सासू मां आ गई आते ही सवाल किया,
"क्यो दुलहिन… ? चूल्हा क्यों नहीं जलाया?" घबराई सी कान्ता पास आकर बुदबदाई "माई देवर जी नहीं आए हैं ।"
"क्या कहा...? नही आया ? ये क्या हुआ...? खेत में था तो बोला की माई भूख लगी है। खाना खाने घर जा रहा हूं, तो आया नही क्या……?"
"ना मां…! आए तो थे, मुझसे बोला की भोजन निकालो। मैंने भात निकाल कर दिया तो बोले, "चटनी ना है भाभी..!"
मैं बोली, "ना" तो उठ गए और बोले, "अभी कुछ टिकोले(कच्चे छोटे आम) लेकर आता हूं । चटनी बना दो तो खाऊंगा।"
मैं तब से ही बाट जोह रही हूं की देवर जी आ जाएं तो काम आगे बढ़ाऊं पर वो आए ही नहीं । अभी वही खाना पड़ा है इसीलिए चूल्हा नहीं जलाया।"
कांता और उसके परिवार का जीवन बेहद गरीबी में बीत रहा था। कांता का पति छोटी नौकरी करता था। कम आमदनी में छोटे छोटे चार बच्चों के साथ सास और देवर का खर्च चलाना बहुत कठिन था। थोड़े से खेत थे, उनमें ही मेहनत कर जो कुछ भी उपज होती उसी से काम चलाया जाता। कांता का पति राम देव इतना कम कमाता अपनी सिंचाई विभाग की चपरासी की नौकरी से कि..उसका अपना खर्च निकालने के बाद बस इतना ही बचता की वो वापस आते वक्त पूरे परिवार के लिए कपड़े और तेल साबुन का इंतजाम कर पाता। बूढ़ी मां के देख रेख में अपने परिवार को छोड़ वो परदेश कमाने गया था। छोटा भाई सत्य देव बड़ा ही मस्त मौला किस्म का था। वो खेत में भरपूर मेहनत करता मां के साथ छोटे छोटे भतीजों को ले कर। पर जब खाते वक्त सूखी रोटी या सूखा भात मिलता तो उसे देख कर उसका मन खिन्न हो जाता। वैसे तो कांता कोई ना कोई इंतजाम कर के चटनी साग कुछ न कुछ बना देती थी। कभी खेतों के मेड़ से बथुआ खोंट लाती, कभी सरसों कभी चना का साग। जो भी दिखता उसी का साग सब्जी बना कर इंतजाम कर देती थी।
पर आज ..! आज कुछ ऐसा संयोग था कि आज आस पास कुछ ना मिला और आम का बाग दूर था। इस कारण वो कोई व्यवस्था नहीं कर पाई थी। नही तो चटनी ही बना देती।
सत्य देव के अच्छे चटपटे खाने की इच्छा रखता था। इस रूखे सूखे खाने का एक भी निवाला उसके हलक के नीचे नही उतरता था। वो चाहता उसे बढ़िया बढ़िया स्वादिष्ट भोजन मिले। और कुछ चाहे न ही मिले। वो इस गरीबी से इस तंग हाली को झेलते झेलते ऊब गया था। वो दिन रात इससे आजाद होने के बारे में सोचता था। पर सत्य देव को कोई और रास्ता नजर नहीं आता था, इससे छुटकारा पाने का।
पढ़ाई इस गरीबी को दूर करने का एक उपाय हो सकता था, पर सत्य देव के बस का वो भी नही था। किताब की बातें उसके पल्ले नहीं पड़ती थी। अक्षर सर के ऊपर से निकल जाते थे। जो कुछ पढ़ता था उसे जल्दी ही भूल जाता था। कुछ भी याद नहीं कर पाता था। वो दिन रात इसी उधेड़ बुन में रहता की वो कैसे इस जिंदगी से छुटकारा पाएं ? वो भी अमीरों की जैसे तरह तरह के पकवान खाए। वो भी एक अच्छी जिंदगी जिए।
शाम हो गई थी। इस कारण माई चिंतित हो उठी।
थोड़ी ही देर में अंधेरा हो जायेगा फिर वो क्या कर पाएगी? इस कारण, थके होने के बावजूद तुरंत ही अपनी लाठी उठाई और टेेेेकती हुई चल दी। जो भी रास्ते में मिलता था, उससे बस यही सवाल पूछती, "भईया हमारे सत्तू को कहीं देेखा क्या?"
पर सब का उत्तर होता "ना।"
धीरे धीरे करके गांव के एक छोर से दूसरे छोर तक सभी से पूछ लिया। अब तो पूरे गांव में कोई नहीं बचा जिससे पूछे। तभी दूूर से कुछ बच्चे गांव के बाहर स्थित भिठे (पूरे गांव से ऊंचा बंजर मैदान ) से खेल के लौटते दिखे। वो रूक गई। मन में आशा की एक किरण ने जन्म लिया की हो सकता है, शायद .. इन बच्चो ने मेरे सत्तू को देखा हो!
जब बच्चे पास आए तो माई ने उनसे पूछा,
"क्या बच्चों तुमने सत्तू चाचा का देखा क्या? वो टिकोले तोड़ने बाग की तरफ गया था तब से लौटा नही।"
माई का सवाल सुन सब बच्चों ने मना कर दिया।
"ना.. दादी... हमने तो ना देखा चाचा को।"
तभी पीछे से चुन्नू आया और बोला,
"हा….! दादी …! हम देखे सत्तू चाचा को। हमको खेलते खेलते सुसू आ गई थी, हम दूर टीले के ओरी चला गया था वहां चाचा को देखा।"
निराश माई के दिल में आशा की नन्ही रौशनी चमक उठी। जल्दी से माई चुन्नू के पास लाठी टेकती हुई आई और पूछने लगी
"क्या देखा बेटा चुन्नू…? सत्तू वहां क्या कर रहा था..? वहां से किधर गया…?"
चुन्नू ने देखा दादी उसको तव्वजो दे रही है तो वो दुगने उत्साह से बताने लगा।
"दादी…! हम देखे.. चाचा तीन साधुओं से बातें कर रहे थे। उनकी लंबी लंबी दाड़ी थी। बाकी हम तो डर के भाग आए।"
मैं ने फिर चुन्नू से पूछा,"क्या कह रहे थे वो ? तूने कुछ सुना बेटा?"
अब माई की सारी उम्मीद इस चुन्नू पर ही टिकी थी।
चुन्नू ने कुछ देर सर खुजाते हुए सोचा फिर बताना शुरू किया,
"दादी ..वो कह रहे थे मेरे साथ चलो मैं तुम्हें भगवान के दर्शन करवाऊंगा। तुम्हे कभी किसी चीज का कमी नही होगा। पहले तो चाचा नहीं जा रहे थे। पर जब वो साधु लोग ने चाचा के कान में कुछ कहा तो फिर चाचा उनके पीछे-पीछे चल दिए।"
ये सुनते ही माई की अशक्त काया और भी अशक्त हो गई। किसी तरह शरीर को घसीटते हुए घर आई और खटिया पर गिर पड़ी।
माई की जर्जर काया जरूर अशक्त थी पर उसके अंदर जवान हो रहे बेटे का बल था। वो अपनी बुद्धि और सत्तू के बल से घर गृहस्ती की गाड़ी खींच रही थी। वो बैठी बैठी बताती थी। फिर उसी के बताए अनुसार सत्तू सारा खेती का काम चुटकियों में निपटा देता। उसका बलिष्ठ शरीर उसे अपनी उम्र से बड़ा दिखाती थी। कांता घर संभालती माई सत्तू के साथ खेती का काम देखती। खेती से किसी तरह खाने भर का राशन मिल जाता था। पर बाजार की चीज के लिए पैसे की जरूरत थी। उस कमी को पूरा करने के लिए रामू दूर दूसरे शहर में नौकरी करता था। जिससे कुछ पैसे कमा सके।
माई के आने की आहट सुन कान्ता दौड़ी, तेज कदमों से बाहर आई।
बाहर माई को चारपाई पर गिरा देख घबरा गई और पूछा, "क्या हुआ माई ? क्या हुआ ? क्या देवर जी.. नहीं मिले….? उनका कुछ पता चला?"
रोते हुए माई ने टूटे स्वर में कहा,
"कांता…! सत्तू साधुओं के संग गया है। पता नहीं कब लौटेगा ? चुन्नू ने उसे साधुओं के संग जाते हुए देखा है। मेरा जी बहुत घबरा रहा है मुझे एक गिलास पानी पिला दे ।"
कांता दौड़ी-दौड़ी गई और बाल्टी से एक गिलास पानी निकाल कर लेकर आई। और बोली,
"उठो माई लो पानी पी लो।"
माई को कांता ने सहारा देकर उठाया और पानी का गिलास मुंह के पास लगा दिया। माई उठी पानी पिया और फिर लेट गई आंखें बंद करके। आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी किसी से कुछ कहने का मन नहीं कर रहा था बस आंखे बही जा रही थीं। बहती ही जा रही थी।
पढ़े अगले भाग में क्या सत्तू का कुछ पता चला? क्या माई इस विछोह को सह पाई?