Nai Chetna - 22 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | नई चेतना - 22

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नई चेतना - 22



सुशिलाजी की बात सुनते ही बाबा धरनिदास ने अपना पासा फेंका ” कोई बात नहीं देवीजी ! हम तो भक्तों का बहुत भरोसा करते हैं । आप ख़ाली हाँ कह दीजिये । बाकि सारा इंतजाम हम खुद ही कर लेंगे । बस अभी आप जो भी देना चाहें जमा करा सकती हैं । बाकी की रकम हम कल ले लेंगे । अब क्या हम लालाजी को नहिं जानते ? आपके पास से पैसा कहाँ जायेगा ? बस आप तय कर लीजिये कि आपको अनुष्ठान करवाना है या नहीं । अगर आपने अनुष्ठान नहीं करवाया तो आपके बेटे की मुसीबतें बढ़ भी सकती हैं । ध्यान रखियेगा । ”
बाबा धरनिदास ने बहुत ही मजबूत जाल फेंक दिया था जिसमें सुशिलाजी बुरी तरह उलझ गयी थीं ।

बाबा ने बड़ी ही सफाई से उन्हें अनुष्ठान के लिए ऐसी वजह बता दी थी जिसे सुशिलाजी किसी भी हालत में मानने से इनकार नहीं कर सकती थी ।

चाहे जो हो कोई भी माँ अपने बेटे को तकलीफ में फँसे नहीं देख सकती और उसे उस मुसीबत से निकालने के लिए हरसंभव प्रयास करती है । और फिर सुशिलाजी की ममता अपने पुत्र के लिए किसीसे कम नहीं थी ।

रकम तो उनके पर्स में थी लेकिन असल में वह बाबा पर भरोसा नहीं कर पा रही थीं लेकिन बात उनके पुत्र की खुशियों का था सो वह सीधे सीधे नकार भी नहीं रही थी ।

मालकिन को असमंजस में देख कमली ने उन्हें उकसाते हुए कहा ” मालकिन ! क्या सोच रही हैं ? समय बितता जा रहा है । छोटे मालिक की बेहतरी का सवाल है । इतनी छोटी सी रकम का क्या सोचना ? क्या पता यह अनुष्ठान करते ही छोटे मालिक घर वापस आ जाएँ ।”

तभी बाबा का सहायक भी कमली की हाँ में हाँ मिलाने लगा । बाबा के एक से बढ़कर एक चमत्कार की कहानियां सुनाने लगा । अचानक जैसे उसे कुछ याद आया हो ” अरे हाँ ! मैं तो भूल ही गया था । आपने देखा नहीं । आपके सर पर रखकर जो निम्बू काटा गया था उसमें से खून निकला था । जानती हो उस खून का मतलब ? उस खून का मतलब यह होता है कि आप और आपका लड़का दोनों ही किसी बहुत बड़े खतरे में हैं । यह खतरा जान का भी हो सकता है । अब ये आपको सोचना है कि आपको इस छोटी सी रकम के बदले सुरक्षा चाहिए कि नहीं । बाबाजी तो यहाँ जनकल्याण के लिए बैठे हैं । अगर आप अनुष्ठान करवा लेती हैं तो आपका ही फायदा है । आगे आपकी मर्जी । ”

बोलकर वह बाबा का सहयोगी खामोश हुआ ही था की कमली ने फिर सुशिलाजी को उकसाया ” चलिए मालकिन ! अभी आप सिर्फ एक हजार रुपये दे दीजिये ताकि बाबाजी अनुष्ठान की सामग्री जूटा लें । बाकी की रकम आप कल दे दीजियेगा । ”
सुशिलाजी कुछ निर्णय नहीं कर पा रहीं थी और ऐसी ही अनिश्चितता की स्थिति में उन्होंने पर्स से एक हजार रुपये निकाल कर कमली के हाथ पर धर दिए और बाबाजी को नमन कर बाहर की तरफ चल पड़ी ।

सुशिलाजी को बाहर की तरफ जाते देख कमली ने उठकर बाबा को वह रुपये दिए और इशारे में ही कुछ बातें कर वह भी बाहर आ गयी ।

ड्राईवर रमेश ने गाडी खेत में से निकालकर पहले ही रस्ते पर लाकर खड़ी कर दिया था । सुशिलाजी के गाड़ी में बैठते ही कमली भी दौड़ते हुए आ पहुँची । कमली के बैठते ही रमेश ने गाड़ी घर की तरफ बढा दिया।

उन्हीं कच्चे रास्तों से हिचकोले खाती लालाजी की गाड़ी बीरपुर की ओर बहुत ही धीमी रफ़्तार से बढ़ रही थी । सुशीलादेवी अनमनी सी बैठी अमर के ही बारे में सोच रही थी । कहीं वाकई अमर किसी मुसीबत में तो नहीं ? क्या पता बाबा सही बोल रहा हो ? सुशिलाजी इसी उधेड़बुन में पता नहीं कब तक खोई रहतीं कि तभी कार के तेज हॉर्न की आवाज ने उनको चौंका दिया । उन्होंने खिड़की से बाहर झाँका ।

गाड़ी बीरपुर गाँव में प्रवेश कर चुकी थी । रास्ते पर से ही भैसों का पूरा झुण्ड गाँव के दुसरे छोर पर स्थित पोखर की तरफ जा रहा था । उन्हीं भैंसों को हटाने के लिए रमेश ने हॉर्न बजाया था । भैंसवाला उन भैंसों को हटाने की पुरी ईमानदारी से कोशिश कर रहा था लेकिन वो भैंस ही क्या जो रस्ते से हट जाए । एक को हटाता तो दूसरी उस जगह पर आ जाती । बड़ी मशक्कत के बाद भैंसवाले और रमेश के सम्मिलित प्रयास से रास्ता साफ हुआ और गाड़ी आगे बढ़ी ।

थोड़ी ही देर में गाड़ी लालाजी के घर के सामने आकर रुकी । सुशिलाजी ने घर में प्रवेश करते हुए बरामदे के बगल में स्थित बैठक में देखा । लालाजी फोन पर किसीसे बात कर रहे थे ।

सुशिलाजी ने अन्दर जाने के लिए कदम बढ़ाया ही था कि लालाजी ने बात जारी रखते हुए हाथ के इशारे से सुशिलाजी को रुकने को कहा ।

अन्दर जाती हुयी सुशिलाजी को लालाजी के चेहरे पर विशेष ख़ुशी की झलक पहचानते देर नहीं लगी । वह भी यह जानने को उत्सुक हो उठी कि यह फोन आखिर किसका था जिसकी वजह से लालाजी का चेहरा ख़ुशी से दमक रहा था ।

” ठीक है चौधरी साहब ! बस मैं अभी निकलता हूँ और लगभग चार घंटे में वहाँ पहुँच जाऊंगा । आपकी बड़ी मेहरबानी । राम राम चौधरीजी ! ” कहते हुए लालाजी ने फोन रख दिया ।

फोन रखते ही लालाजी तेज कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गए । सुशिलाजी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था । अपने कमरे में से अलमारी खोलकर लालाजी ने कुछ नोटों की गड्डीयाँ एक छोटे से हैंडबैग में डाली और सुशिलाजी की ओर देखते हुए बोले ” चलो ! हमें तुरंत ही निकलना होगा । ” फिर रमेश को गाड़ी बाहर निकालने को कहने लगे ।

बाहर की तरफ निकलते हुए सुशिलाजी लालाजी से अपनी व्यग्रता नहीं छिपा सकीं और पूछ ही बैठीं ” आखिर कुछ मुझे भी बताइयेगा कि हम कहाँ जा रहे हैं और किसका फोन था जिसे सुनकर आप इतनी जल्दबाजी में निकलने के लिए तैयार हो गए । ”

दोनों तब तक गाड़ी के पास पहुँच चुके थे । रमेश ने गाड़ी घुमा कर दरवाजे पर लगा दी थी । गाड़ी में बैठते हुए लालाजी ने मुस्कुरा कर सुशिलाजी की तरफ देखा और बोले ” अरी भागवान ! सब यहीं खड़े खड़े ही पूछ लोगी ? चलो गाड़ी में बैठो । सब बताता हूँ । ”

सुशिलाजी क्या करती ? आज तक उन्होंने लालाजी की कोई बात न टाली थी और न ही किसी चीज की कोई वजह पूछी थी । आज उन्हें लालाजी की मुस्कराहट भी नागवार गुजर रही थी । फिर भी बेमन से ही सही सुशिलाजी गाड़ी में बैठ गयी ।

कुछ ही मिनटों में गाड़ी राजापुर जानेवाली मुख्य सड़क पर फर्राटे भरते हुए दौड़ी जा रही थी । लालाजी ने रमेश को चेताया ” हमें विलासपुर जाना है और जल्दी ।”

रमेश गाड़ी चलाते हुए सामने नजरें जमाये बोल पड़ा ” ठीक है मालिक ।”

और इसी बीच विलासपुर का नाम सुनकर सुशीला जी चौंक पड़ीं । उनका चौंकना स्वाभाविक ही था । जिंदगी के तीस वर्ष लालाजी के साथ गुजारते हुए उन्हें विलासपुर शहर का जिक्र करते हुए उन्होंने कभी नहीं सुना था और आज अचानक इस शहर के नाम के साथ ऐसा क्या जुड़ गया कि लालाजी वहाँ जाने के लिए इतने उतावले हो उठे थे ?

क्रमशः