Nai aadat in Hindi Fiction Stories by Monika kakodia books and stories PDF | नई आदत

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नई आदत

ज़रा धीरे हाथ चला बेटा.. चोट लग जाएगी, तुझे कहाँ की ट्रेन पकड़नी है, देखो हर बात में यूँ जल्दबाजी ठीक नहीं, बहुत वक़्त है अभी लंच में"
माँओं के पास अक्सर सवाल होते हैं, और जवाब भी उन्हीं कि साड़ी के पल्लू से बंधे होते हैं, जिन्हें वो कसकर गाँठ लगाया करती हैं कि उनकी बिना चाह कोई उनके जवाब चोरी ना कर पाए।मैंने कई दफ़ा कोशिश की ,माँ की साड़ी की गाँठ को खोल सारे जवाब कहीं लिख लूँ लेकिन माँ उस खजाने को कहीं छिपा दिया करती। शायद वो मेरे इरादों को भाँप जाती थी, उनकी मुस्कान मुझे जीत की पताका सी लगती मानों वो कह रही हो "मैं माँ हूँ"।


माँ के इन सवालों के बहुत से जवाब थे मेरे पास, बड़ी बडी दलीलें जैसे कि माँ वक़्त ही तो नहीं होता है हमारे पास, थकने और रुकने के लिए, बहुत वक़्त कभी नहीं होता आने वाले कल में, वो तो पहले ही निकल चुका है बीते हुए कल के पास।सर्दियों की मीठी धूप के पीछे खिसक खिसक कर भागा जा सकता है लेकिन मजाल वो रहम खाकर रुक जाए, बहुत वक़्त नहीं होता है उसके पास भी। उसे पहाड़ के उस ओर तक जाना होता है खिसक खिसक कर । ये दलीलें देती भी तो मुझे माँ के और बहुत से सवालों से साथ उनकी आँखो की परीक्षा भी पास करनी होती।जिसमे मैं हमेशा बहुत बुरी तरह फेल होती आई हूँ, जाने कैसे हर उत्तर को जान लेती है। मैं परीक्षा से डरती नहीं, ना फेल होने से लेकिन ये वक़्त तय था ,किसी जरूरी काम के लिए।

कुछ काम बहुत जरुरी होते हैं, उन्हें टाला नहीं जा सकता। जैसे कि सामने वाले मंन्दिर में घण्टियाँ बजा भोलेनाथ को जगाने की कोशिश करती महिलाएँ। वो इस काम को कभी नहीं टालती । हालांकि मुझे समझ नहीं आता वो क्यों जगाना चाहती हैं भोलेनाथ को,ऐसा क्या जरूरी काम है या कोई जरूरी बात है जो वो उन्हें बता देना चाहती हैं।

दौड़ते हुए मेरे कदमों की आवाज़ के साथ घड़ी ने भी 7 बजने का इशारा किया। दिन में दो बार मेरे दौड़ते कदम घड़ी को सुबह के 7 बजने और शाम के 5 बजने का इशारा करते हैं। ये वो वक़्त होता है जब सुमित उसी मंदिर वाले पार्क में सैर करने आता है। सुमित मेरा पड़ोसी ,मेरे बचपन का सबसे पक्के वाला दोस्त , टीनएज का पहला क्रश , और फिर कभी ना भुलाए जाना वाला पहला प्यार, ये वो ही बहुत वक़्त था,जो अब बिता हुआ कल है। 90's की तरह हमारा प्यार भी घने पेड़ों के नीचे पला बढ़ा । पत्तियों से छनकर धूप हमारे मिट्टी के उन घरों पर आती जो हमने खेल में बनाते ।आँगन में उगी घास हमारे बचपन में हरियाली का होना तय करती। पार्क में सबके लिए ये बच्चों के आम खेल थे ,लेकिन हमारे लिए ना ये आम थे ना ही खेल।हम जीवित थे ।

हमारे खेल,मिट्टी के घर और घास की तरह । बाकी सब हमें मरे हुए से लगते । उनके होने ना होने से हमें फर्क नहीं।