Shree maddgvatgeeta mahatmay sahit - 9 in Hindi Spiritual Stories by Durgesh Tiwari books and stories PDF | श्रीमद्भगतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-९)

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श्रीमद्भगतगीता महात्त्म्य सहित (अध्याय-९)

जय श्रीकृष्ण बंधुवर!
आप सभी के सम्मुख श्रीगीताजी के नौवा अध्याय और उसके महात्त्म्य के साथ उपस्थित हूँ। श्री गीताजी की कृपामय शब्दो को पढ़कर, श्रवण कर के, अपने आप को तथा अपने इस जन्म को कृतार्थ करे। श्रीगीताजी और भगवान श्रीकृष्ण की कृपा बनी रहे आप सब पर जैसे मुझ पर बनी है।
जय श्रीकृष्ण!

🙏श्रीमद्भगतगीता अध्याय-९🙏

श्रीकृष्ण बोले- हे अर्जुन! तुममे ईर्ष्या नहीं है, इसलिए अतिगुप्त शास्त्रीय ज्ञान और अनुभव तुमसे कहता हूँ, जानकर तुम्हारा अशुभ न होगा। यह ज्ञान सब विघाओं मे श्रेष्ठ तथा सब गोपनीयों में गुप्त एवं परम पवित्र उत्तम प्रत्यक्ष फल वाला और धर्मयुक्त है साधन करने में बड़ा सुगम और नष्ट नहीं होता। हे परन्तप! इस धर्म पर जो श्रद्धा नहीं रखते वे मुझे नहीं पाते और इस मृत्यु युक्त संसार में बार-२ लौटते हैं। मैं अव्यक्त हूँ और मैंने ही यह जगत प्रकट किए हैं। सब प्राणी मुझमें स्थित हैं किंतु में उनमें नहीं हूँ। मुझमें सब भूत भी नहीं है, मेरा वह ईश्वरीय कर्म देखो, मेरी ही आत्मा सब मतों का पालन करती हुई भी नियत नहीं है। जिस प्रकार सर्वत्र बहने वाली महान वायु समस्त आकाश में व्याप्त है उसी प्रकार समस्त भूत मुझमें हैं ऐसा समझो। हे कौन्तेय! सभी जीव कल्प के अन्त में मेरी आकृति में आ मिलते हैं। और कल्प के प्रारम्भ में उनको फिर उत्पन्न करता हूँ। अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर उसके गुण व स्वभाव वाले समस्त भूतवर्ग को बारम्बार उत्पन्न करता हूँ। है धनंजय! मेरे ये कर्म मुझे नही बाँधते क्योंकि मैं उदासीन की तरह इनमें आसक्त नही हूँ वरन् स्थित हूँ। मैं अध्यक्ष होकर प्रकृति द्वारा चराचर जगत को उत्पन्न करता हूँ, है अर्जुन! इसी कारण यह जगत बनता और बिगड़ता रहता है। मूर्ख लोग मेरे स्वरूप को नहीं जानते कि मैं समस्त चराचर का स्वामी हूँ। वे मुझको मनुष्य जानकर मेरी अवहेलना करते हैं। उनकी आशा व्यर्थ, कर्म निष्फल, ज्ञान निर्थक, चित्त भ्रष्ट है। वे उस आसुरी प्रकृति के वश में है जो मोह को उत्पन्न करती है। हे पार्थ! विवेकीजन जो दैवी प्रकृति में स्थित है वे मुझे संसार का आदि अविनाशी जानकर अनन्य मन से भजते हैं दृढ़ व्रती सदा मेरा कीर्तन करते और भक्ति से उपासना करते हैं। कोई ज्ञान योग से पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, कोई एकत्व से कोई पृथकत्व से और कोई मुझे अनेक रूप वाला विश्वरूप मानकर उपासना करतें है, श्रोतयज्ञ में हूँ, स्मार्तयज्ञ में हूँ और पितृ यज्ञ मैं हूँ तथा औषधि मंत्र होम का साधन घृत, अग्नि और होम भी मैं ही हूँ। इस जगत का पिता, माता, धारण करता, पितामह, जानने योग्य पदार्थ, ॐकार, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद मैं हूँ। गति पालन कर्ता, प्रभु साक्षी, निवास स्थान, रक्षक, मित्र, उत्पन्न करने वाला, संहार कारक आधार प्रलय स्थान और अविनाशी बीज में हूँ, में सूर्य रूप में तपता हूँ, मैं वर्षा रोकता हूँ तथा है अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु भी हूँ तथा सत और असत भी हूँ तीनो वेदों के ज्ञाता सोम पिने वाले, पाप रहित यज्ञ द्वारा मेरी पूजा करके स्वर्ग चाहते हैं और इंद्र के पुण्यलोक में पहुंचकर स्वर्ग में देवताओ के योग्य दिव्य सुख भोगते है। वे उस विशाल स्वर्गलोक में सुख भोगकर पूण्य के क्षीण होने पर फिर मृत्यु लोक में आतें है। इसप्रकार तीनो वेदों के यज्ञादि धर्मों का पालन करने वाले भोग से चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं उन नित्य योगियों के योग क्षेम अर्थात स्थान भोजनाच्छदन आदि से मैं उनकी रक्षा करता हूँ। हे कौन्तेय! जो दूसरे देवताओ के भक्त हैं और श्रद्धा से उन्हें पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं परंतु यह पूजन विधि पूर्वक नहीं है। सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी में ही हूँ , जो मेरे इस तत्व को नहीं जानते हैं वे आवागमन से नहीं छूटते हैं। देवताओं के पुजारी देव लोक को, पितरों के पूजक पितृलोक को, यज्ञादिकों के पुजारी यक्षलोक को और मेरा पूजन करने वाले मुझे पाते हैं। भक्ति से पत्र, पुष्प, फल, या जल जो मुझको अर्पण करता है, उस सुद्ध अन्तःकरण वाले व्यक्ति के दिये हुवे पदार्थ को में बड़ी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ। हे कौन्तेय! जो तुम करते हो, खाते हो वह सब मेरे अर्पण करो। ऐसा करने से कर्म बंधन रूप अशुभ फलों से मुक्त हो जाओगे औए सन्यास योग से मुक्त होकर मुक्ति या मुझको अवश्य पाओगे। में समस्त भूतों में समान हूँ, न कोई मुझे अप्रिय है न प्रिय। जो कोई मुझको भक्ति से भजता है वह मुझमें है और मैं उसमें हूँ। यदि कोई दुराचारी भी भक्ति से और अनन्य भाव से मेरा भजन करे, उसको में साधु ही मानता हूँ क्योंकि उसने उत्तम मार्ग ग्रहण किया है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा होता है और चिरस्थायी शांति को पाता हैं। हे कौन्तेय! यह निश्चित जानो कि मेरा भक्त कभी भी नाश को प्राप्त नहीं होता। हे पार्थ! मेरा आश्रय पाकर नीच कुल में उतपन्न स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र भी उत्तम गति को पातें हैं। फिर जो पुण्यवान, भक्त राजर्षि और ब्राम्हण हैं उनकी तो बात ही क्या है। अतः इस नाशवान और दुःख भरे संसार मे जन्म पाकर तुम मेरा ही भजन करो। मुझमें मन लगा मेरा भक्त बन मेरी पूजक और मुझे नमस्कार कर मुझमें लौ लगाए रहकर मुझ में लय हो जाओगे।
अथ श्रीमद्भगवतगीता का नौवां अध्याय समाप्त
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🙏अथ नावें अध्याय का महात्त्म्य🙏
श्री नारायण जी बोले- है लक्ष्मी ! दक्षिण देश में एक भाव सुशर्मा नामक शूद्र रहता था, बड़ा पापी मांस मदिरा आहारी था। जूआ खेले , चोरी कर, परस्त्री रमैं, एकदिन मदिरा पान से जिसकी देह छूटी वह मर कर प्रेत हुआ एक बड़े वृक्ष पर रहे एक ब्राम्हण भी उसी नगर में रहता था दिन को भिक्षा मांग कर स्त्री को लाकर देवे उसकी स्त्री बड़ी कलिहिनी थी समय पाकर उन दोनों ने प्राण त्यागे वह दोनों मर कर प्रेत हुए वह भी उसी वृक्ष के तले आ रहे जहां प्रेत रहता था वहां रहतें-२ कुछ काल व्यतीत हुआ। एकदिन उसकी स्त्री पिशाचिनी ने कहा- है पुरुष पिशाच! तुमको कुछ पिछले जन्म की खबर है? तब पिशाच ने कहा- खबर है, मैं पिछले जन्म में ब्राम्हण था। तब पिशाचिनी ने कहा- तूने पिछले जन्म में क्या साधना करी थी जिससे तुझको पिछले जन्म की खबर है? तब उसने कहा- मैंने पिछले जन्म में एक ब्राम्हण से अध्यात्म कर्म सुना था। तब फिर पिशाचिनी ने कहा- तूने और कौन सी साधना करी थी, वह ब्राम्हण कौन था और वह अध्यात्म कर्म कौन है जिसके सुनने से तुझे पिछले जन्म की खबर रहीं? पिशाच ने कहा- मैने कोई पूण्य नहीं किया। गीताजी का श्लोक श्रवण किया है उसका प्रयोजन यह है एक समय अर्जुन ने श्रीकृष्ण से तीन बातें पूछीं जो गीताजी के नवम् अध्याय में लिखी हैं वही तीन बात पिशाचिनी ने पिशाच से श्रवण करीं इन बातों को सुनते ही एक प्रेत और वृक्ष से निकला उसने कहा- री पिशाचिनी! यह तीन बात फिर कहो जो अब कह रही थी पिशाचिनी ने कहा- तू कौन है में रुझे नहीं सुनातीं में अपने भर्ता से पूछती हूँ? वह कर्म कौन था जिससे पिछले जन्म की खबर रहीं? इन बातों को सुनते ही औरत देह तीनो की छूटी, तत्काल देव देह पाई स्वर्ग से विमान आये उन पर चढ़कर बैकुण्ठ को प्राप्त हुए। श्रीनारायण जी ने कहा- है लक्ष्मी यह नवम् अध्याय कक महात्त्म्य है।
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💝~Durgesh Tiwari~