Bhadukada - 50 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | भदूकड़ा - 50

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भदूकड़ा - 50

उस दिन का पेपर, छोटू ने कैसे दिया, वही जानता है। आंसरशीट पर पर थोड़ी थोड़ी देर में उसे कभी चोटी लहराती, दौड़ती आकृति दिखती तो कभी खिड़की से झाँकतीं दो आंखें...! तीन घण्टे से पहले हॉल से निकल नहीं सकते थे सो मजबूरन छोटू को अंदर ही रुकना पड़ा, वरना पेपर तो दो घण्टे में ही कम्प्लीट हो गया था उसका।
एक बजे छोटू जब बाहर निकला, तो किशोर गरम समोसे लिए गाड़ी के पास खड़ा था। दोनों ने एक एक समोसा खाया, चाय पी और वापस हो लिए। एक घण्टे बाद ही वे ठाठीपुरा के मोड़ पर थे। किशोर का तो मन था कि चुपचाप अपने गांव निकल लिया जाए लेकिन शास्त्री जी भी दिल से चाहते थे कि वे दोनों उनके घर खाना खा के ही आगे निकलें, तभी तो दो बजे दोपहर की कड़ी धूप में वे गांव के मोड़ पर, पीपल के नीचे खड़े जीप का इंतज़ार कर रहे थे। मतलब उन्हें भी अंदेशा था कि ये दोनों लड़के सीधे निकल सकते हैं।
शास्त्री जी के घर पहुंच के घर पहुंच, हाथ पैर धो के दोनों भाई भोजन करने बैठे। खाना शास्त्री जी की पत्नी ही परोस रही थीं। भारी शरीर की शास्त्राइन जी दो बार रोटी ला के ही हांफने लगीं तो शास्त्री जी ने तीसरी बार उन्हें उठने से मना कर दिया और आवाज़ लगाई-
"अरे ओ गुड्डन, बिटिया तुम खाना परोस दो बेटा।"
गुड्डन जैसे तैयार ही बैठी थी। तुरन्त तश्तरी में रोटियां ले के हाज़िर हो गयी। सिर झुकाए खाना खाते छोटू ने इंकार करने के लिए सिर उठाया तो अवाक हो देखता ही रह गया! इतना सुंदर भी होता है कोई! झुकी हुई आंखें और होंठ मुस्कुरा रहे थे जैसे। मेहनतकश परिवार की , लीपापोती करने वाली बेटी के हाथ इतने कोमल! हाथ क्या, पूरी आकृति ही कोमल दिख रही थी। छोटू जिस मक़सद से ठाठीपुरा आया था, वो पूरा हो चुका था।
पांच बजे जब दोनों भाई घर पहुंचे तो कुंती मारे चिंता के छत पर टहल रही थी। जीप से लड़के उतरें, उसके पहले ही ऊपर से ही ज़ोर से पूछा उसने-
"लाट साहब लोग इतनी देर से आ रहे हैं? कहाँ अटके रह गए? इधर हम चिंता में अधमरे हो गए।"
"अरे अम्मा अंदर आएं कि यहीं से सब बता के उतरें?"
छोटू ने भी उसी तेज़ी से जवाब दिया। कुंती केवल छोटू से ही तो घबराती है सो चुप रह गयी। अंदर आ के किशोर ने पूरा किस्सा बता दिया जबकि छोटू ने बताने से मना किया था। ऐसा पहली बार हुआ कि कुंती की आज्ञा के बिना किशोर कहीं गया, और पूरी बात जान लेने पर भी कुंती ने चीख पुकार नहीं मचाई। मामला छोटू का था, शायद इसलिए....!
छोटू के चेहरे पर भी सहज भाव देख कुंती ने ताड़ लिया था कि लड़की उसे पसन्द आ गयी है। तब भी किशोर से पूछा-
"और बाबू साहब ने लड़की देख ली? पसन्द आई?"
"हमने तो पूछा नहीं अम्मा। तुम पूछ लो।"
बेहद संकोची किशोर ने सचमुच ही छोटू से कुछ नहीं पूछा था। अभी भी बाहर जाते छोटू ने ही जवाब पूरा किया।
"ठीक है अम्मा। अब जब तुम ज़बान दे ही आई हो तो करो अपने मन की।"
"मन मन भावे, मुड़ी हिलाबे...." मन ही मन मुस्कुराते हुए कुंती होठों में मुस्कुराई।
जल्दी ही कुंती ओली डाल आई और अगले महीने की ही शादी की तारीख़ भी निकलवा ली। तिवारी जी और सुमित्रा को फिर ऐन मौक़े पर ही इस रिश्ते की जानकारी हो पाई।