Urvashi - 2 in Hindi Moral Stories by Jyotsana Kapil books and stories PDF | उर्वशी - 2

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उर्वशी - 2

उर्वशी

ज्योत्स्ना ‘ कपिल ‘

2

प्रतिउत्तर में उसका हाथ आगे बढ़ा तो दीपंकर ने गर्मजोशी से उसका हाथ थाम लिया।

" अद्वितीय सुंदरता और भावप्रवण अभिनय का ऐसा सम्मिश्रण कठिनाई से ही देखने को मिलता है। आप इसका अप्रतिम उदाहरण हैं। आपको देखकर लगा वास्तव में मालव देश की राजकुमारी राह भूलकर रंगमंच पर उतर आयी है। उसपर आपका अभिनय, वाह, क्या कहने, आपका चेहरा, आपकी आँखें, बोलती हैं। "

" बहुत शुक्रिया, आप तो शर्मिंदा करने लगे। " इतनी प्रशंसा सुनकर उसका मुखड़ा आरक्त हो उठा।

" रियली, आई मीन इट, बहुत समय से ऐसे ही एक चेहरे की तलाश थी मुझे। आज देखकर लगा कि वह तलाश पूरी हुई। अगले वर्ष से अपना ड्रीम प्रोजेक्ट शुरू करने वाला हूँ। नायिका प्रधान फ़िल्म होगी, उसमें आपको मुख्य अभिनेत्री का चरित्र देना चाहता हूँ। "

सुनकर वह आश्चर्य चकित रह गई। एक पल को कुछ न कह पाई। दीपंकर ने कहा कि वह जल्दी ही स्क्रिप्ट पर काम करके उसे साइनिंग अमाउंट के साथ भिजवा देंगे। तब तक वह फ़िल्म में अभिनय के लिए अपना मन बना ले। वहाँ उसकी प्रतिभा को नए आयाम मिलेंगे, एक विशाल दर्शक वर्ग मिलेगा। वह प्रसिद्धि के शिखर पर होगी। उन्होंने बताया कि वह उसमें काम करने के दस लाख रुपये देंगे, जिसमें पचास हजार साइनिंग अमाउंट होगा। उसके बाद फ़िल्म की प्रगति के साथ उसे बचा हुआ धन दे दिया जाएगा। फ़िल्म का बजट कम है, और भी खर्चे हैं। साथ ही उन्हें नई अभिनेत्री लेने का रिस्क भी उठाना होगा। इतनी कम धनराशि की बात सुनकर वह पलभर को मायूस हुई। फिर अपने मन को यह कहकर समझा लिया कि अभी उसकी मार्केट वैल्यू शून्य है, और उसे पहला अवसर प्रदान करके दीपंकर उसपर अहसान ही कर रहे हैं।

उसे फ़िल्म का प्रस्ताव मिला है, यह सूचना आग की तरह फ़ैल गयी। कहीं ईर्ष्या हुई तो कहीं प्रसन्नता, कहीं आश्चर्य तो कहीं उपहास। ये बात और है कि मुँह के सामने केवल प्रसन्नता व्यक्त की गई। कई लोगों ने पार्टी की माँग भी की। उसके निर्देशक आशुतोष बहुत प्रसन्न थे, कि उनकी एक अभिनेत्री मुख्यधारा में पहचान बनाने वाली है। उर्वशी ने उनसे सुझाव चाहा कि वह क्या करे तो उन्होंने कहा कि इसमें असमंजस किस बात का ? इस प्रस्ताव को अस्वीकार करने की कोई तुक नहीं है। ऐसा अवसर बार बार नहीं मिलता। भाग्य केवल एक बार दरवाजे पर दस्तक देता है। उस पर दीपंकर जैसा जीनियस निर्देशक, वह भाग्यशाली है जो उनकी दृष्टि उस पर पड़ी।

फूलों का सुंदर गुलदस्ता, शुभकामनाओं के साथ आ चुका था। वह पुनः सोच में पड़ गई। क्या उसे इस व्यक्ति को जाने बिना ही दिल्ली से प्रस्थान करना होगा ? क्या यह राज सदा राज ही रहेगा कि कौन है यह शिखर, जो उसे हमेशा सुंदर फूल भेजा करता है ? काश बस एक बार उससे मुलाकात हो जाती ! देर रात तक वह यही सोचती रही। भोर से कुछ पहले ही उसे नींद आयी।

* * * * *

दूसरे दिन अखबारों में उसके फिल्म के प्रस्ताव की ही चर्चा थी । जिससे अचानक ही वह चर्चित हो गई थी। लोगो के मध्य यह भी चर्चा थी कि अब वह काफी अभिमानी हो गई है। मुख्य पात्र के अतिरिक्त साधारण भूमिकाओं में उसकी कोई रुचि नहीं रही है। यह सब खबरें उसके कानों में पड़ रही थीं और वह मौन थी। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और मन ही मन मुस्कुरा रही थी।

समय यूँ ही उड़ा जा रहा था, वह अपने अध्ययन व रंगमंच में व्यस्त थी। अपने समूह के साथ कुछ चक्कर दूसरे शहरों व कस्बों में भी लग चुके थे। बस अब लग रहा था कि स्नातकोत्तर का अंतिम वर्ष भी निकल जाए तो कुछ राहत मिले। पढ़ाई के साथ रंगमंच की सक्रियता के मध्य तालमेल बैठाने में खासी दिक्कत महसूस हो रही थी। उस पर मन अब एक अलग ही दुनिया मे विचर रहा था। अब उसमें कुछ रूमानी, सुर्ख रंग घुलने लगे थे। एक ओर अनजाना नाम था ' शिखर ', दूसरी ओर एक परिचित चेहरा था राणा साहब का। जो उसे तेजी से अपनी ओर खींच रहा था। वह डोर में बंधी पतंग सी उनकी ओर खिंची जा रही थी। उस दिन उसके एक सहपाठी की बहन का विवाह था, जहाँ बहुत इसरार के बाद समय निकाल कर वह जा पाई थी।

व्यवसायी परिवार के उस विवाह में शहर की बड़ी बड़ी हस्तियाँ नज़र आ रही थीं। वह सिम्मी व दूसरे मित्रो के साथ चुहल में व्यस्त थी कि सिम्मी ने चुपके से उसका हाथ दबाया। उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से सिम्मी की ओर देखा, जो एक ओर देख रही थी। उर्वशी की दृष्टि ने उसकी नज़रों का पीछा किया तो देखकर पल भर को उसका दिल दुगुने वेग से धड़कने लगा। सामने गहरे नीले रंग के बन्द गले का सूट पहने राणा साहब कई लोगों से घिरे खड़े हुए थे। उर्वशी को महसूस हुआ कि अचानक ही सारा माहौल बहुत दिलकश हो उठा है। हवाओं ने मुहब्बत के तराने छेड़ दिये हों, और सब कुछ गुलाबी हो उठा। तभी अकस्मात राणा साहब की दृष्टि उससे मिली और वह सम्मोहित से उसे देखते रह गए। उर्वशी की नजरें संकोच से झुक गईं। तभी सिम्मी ने उसे खींचा और स्नैक्स के काउंटर की ओर चल दी। एक बार उसने पलट कर देखा, तो राणा साहब की दृष्टि उसका ही पीछा कर रही थी। कुछ ही देर वह वहाँ ठहरे, और जब तक रहे कनखियों से उसे ही निहारते रहे। उनके जाते ही उसे महसूस हुआ जैसे वातावरण में नीरवता छा गई। उसके बाद वहाँ रुके रहना उसे भारी लगने लगा।

* * * * * *

उसके कुछ दिनों पश्चात एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष के स्वागत में शूद्रक रचित ' मृच्छकटिकम ' का मंचन किया गया। जिसे राजदूत द्वारा बहुत सराहा गया और उन्होंने निर्देशक आदित्य और वसन्तसेना का किरदार निभाने वाली उर्वशी की बहुत प्रशंसा की । अगले दिन सभी समाचारपत्र उसकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ रहे थे। तत्पश्चात एक दिन ' मृच्छकटिकम ' के निर्देशक व मुख्य पात्रों को राणा साहब की ओर से सन्देश मिला, कि उनकी टीम ने विदेशी मेहमान के सामने भारत का सिर गर्व से ऊँचा उठा दिया । इस खुशी में उन सबके लिए पाँच सितारा होटल में रात्रिभोज का आयोजन किया गया है। वे सभी को बहुत सम्मान के साथ आमंत्रित कर रहे हैं। यह जानकर आमंत्रित सभी लोग खुशी से उछल पड़े।

उर्वशी को महसूस हुआ जैसे यह सारा आयोजन सिर्फ उसके लिए ही किया गया है। सिम्मी ने यह सुनकर बहुत अर्थपूर्ण दृष्टि से उसे देखा और मुस्कुरा दी।

" ओहो, तो बात यहाँ तक आ पहुँची ?"

" कहाँ तक ?" वह अनजान बनते हुए बोली।

" आपकी मासूमियत का तो जवाब ही नहीं " सिम्मी ने उसके कपोल पर चुटकी ली।

" तेरा दिमाग भी बस आसमान में कुलाँचे भरता रहता है। " उसने बुरा मानने का बहाना किया।

" पर ज़रा सम्हल कर, आग से खेलने में हाथ जल जाने का खतरा रहता है। इन अमीरों से दूर रहने में ही भलाई है। "

" ऐसा कुछ भी नहीं है। "

" यही बेहतर है। " सिम्मी ने कहा।

वह सोच में पड़ गई, सिम्मी तो बेकार ही दिन में सपने देख रही है। हमारा कोई तालमेल नही। हाँ वो मुझे पसन्द हैं, उनका व्यक्तित्व है ही इतना प्रभावी कि मैं उस आकर्षण से दूर नहीं रह पाती, पर उससे क्या। कहाँ वो और कहाँ मैं ! अब उसे बेसब्री से इंतजार था उस समय का जब वह उसके सामने होंगे।

सिम्मी के साथ वह पार्टी में गई तो अधिकतर लोग आ चुके थे । वह ही ट्रैफिक में फँसकर विलम्ब से पहुँची थी। जब उसने हॉल में प्रवेश किया तो सबकी दृष्टि उसकी ओर ही केंद्रित हो गई। सिल्क के ऑरेंज कलर के सूट में वह बिल्कुल शोला ही लग रही थी। राणा साहब ने उसे देखा तो पलभर देखते रह गए। फिर वह और उसके निर्देशक आदित्य, दोनो ही ऊर्वशी की ओर बढ़े। आदित्य ने बहुत स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखकर अगवानी की और फिर राणा साहब से उसका परिचय करवाया। उन्होंने उसकी ओर हाथ बढ़ाया और उसके हाथ को थामे रह गए। उनके स्पर्श से उसने अपने शरीर में एक सिहरन सी महसूस की। उनकी तीखी दृष्टि उसके हृदय को बींध रही थी। उन्होंने उसकी प्रशंसा की,तो लगा जैसे चारो ओर रजनीगंधा महमहा उठा हो। फिर अपने परिवार के कुछ सदस्यों व अन्य कई लोगों से उसका परिचय करवाकर उसकी प्रशंसा में ज़मीन आसमान एक कर दिया। वह उस वक़्त खुमार में थी। उन्होंने क्या कहा, लोगों ने क्या प्रतिक्रिया दी, उसे कुछ न पता था। उसे तो लग रहा था कि वक़्त वहीं थम जाए और वह उनमें खोई रहे। वह उसके अभिनय को बहुत सराह रहे थे और कह रहे थे कि उसने देश का मस्तक विदेशी मेहमान के समक्ष ऊँचा कर दिया। वह उनके बात करने के अंदाज़, उनकी शालीनता, और चुम्बकीय व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई। उसने पहली बार महसूस किया कि वह अचानक उसके हृदय पर अधिकार कर बैठे हैं। उसका जी चाह रहा था कि बातचीत का यह क्रम कभी न टूटे, और वह सदा उनके सम्मुख बैठी रहे, उन्हें निहारती रहे, उन्हें सुनती रहे। उस दिन वह दिल हार चुकी थी। यद्यपि उसकी और उनकी सामाजिक स्थिति में जमीन आसमान का अंतर था, परन्तु हृदय इन सब बातों को समझता ही कहाँ था। वह तो आसमान के चाँद की माँग कर रहा था। बहुत समय तक वह उनके सम्मोहन के बंधन में बंधी रही।

* * * * *

परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं और वह कुछ दिनों के लिए आजाद थी । नुक्कड़ नाटक की टोली दूसरे शहरों में गई हुई थी। जिसमें हिस्सा लेने से उसने मना कर दिया था। घर वालों की बहुत शिकायतें आ रही थीं। लम्बे समय से वह आगरा नहीं गई थी । उसने इस अवसर का लाभ उठाया, और अपना बैग पैक करके आगरा आ गई। उसके आने के विषय मे जानकर उमंग भी कुछ दिन की छुट्टी लेकर आ गया। घर मे खूब रौनक हो गई थी। दोनो भाई बहन खूब गप्पें मार रहे थे। दुनिया भर की बातें सुना रहे थे। उमंग यह जानने को बहुत व्याकुल था कि दीपंकर घोष कैसे उससे प्रभावित हुआ और अपने ड्रीम प्रोजेक्ट में काम करने का उसे प्रस्ताव दिया। स्नातकोत्तर के अंतिम वर्ष की परीक्षाएं समाप्त हो जाने के कारण माँ को उसके विवाह की बहुत चिंता हो गई थी। वे बार बार पापा को याद दिला रही थीं कि अब उसकी फिक्र की जाए, जिसका उसने तुरन्त विरोध किया। यह कहकर की अभी तो पँख उगने शुरू हुए हैं, उसे आसमान में ऊँची उड़ान भरनी है। पापा उसके निर्णय से आश्वस्त दिख रहे थे, उमंग ने जमकर उसका समर्थन किया। वह चाहता था कि उसकी अनुजा खूब यश कमाए। कहीं से कोई समर्थन न पाकर माँ चुप रह गईं। पर उनके मन से यह दुश्चिंता न निकल सकी की इतनी दूर मुम्बई जाकर लड़की हाथ से निकल जाएगी।

उस दिन दोनो भाई बहन ने मिलकर पूरे घर की सफाई करके उसे नए सिरे से व्यवस्थित किया। सारा फालतू सामान कबाड़ में डाला और नए सिरे से घर को चमका कर दम लिया। स्नान व नाश्ता करके उमंग तो अपने दोस्तों से मिलने निकल गया और उर्वशी आराम से अगाथा क्रिस्टी का एक उपन्यास लेकर बैठ गई। वह सस्पेंस में पूरी तरह डूबी हुई थी कि पापा ने आकर उससे सवाल किया

" उर्वशी बेटा, तुम किसी शिखर को जानती हो ? " इस प्रश्न को सुनते ही वह बुरी तरह चौंक उठी। उसका पीछा करते हुए यह नाम आगरा तक कैसे आ गया ? उसने पिता की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि उठाई

" आपने यह नाम कहाँ सुना पापा ?"

" तुम जानती हो या नहीं ?" जवाब में उन्होंने उससे पूछा।

" जानती भी हूँ, और नहीं भी। "

" मतलब ?"

" सिर्फ नाम से परिचित हूँ, चेहरे से नहीं, कभी मुलाकात नहीं हुई। पर आपने यह नाम कहाँ सुना ? किसी ने कुछ कहा क्या ?"

" हाँ कोई व्यक्ति आया है, और तुमसे मिलना चाह रहा है । कह रहा है कि तुम उसे जानती हो। "

क्रमशः