Jo Ghar Funke Apna - 44 in Hindi Comedy stories by Arunendra Nath Verma books and stories PDF | जो घर फूंके अपना - 44 - सच्ची संगिनी वही जो जीवन भर साथ दे

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जो घर फूंके अपना - 44 - सच्ची संगिनी वही जो जीवन भर साथ दे

जो घर फूंके अपना

44

सच्ची संगिनी वही जो जीवन भर साथ दे

उन्ही दिनों पिताजी ने फोन करके बताया कि उन्होंने, और माँ ने भाई साहेब, जीजाजी आदि की सहमति से एक लडकी पसंद की थी. उसके पिता को मेरा पता और फोन नम्बर दे दिया गया था और कह दिया गया था कि सीधे मुझसे मिलने का समय तय कर लें ताकि लड़की मुझे देख सके. उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पहले लडकी के पिता मुझसे मिलेंगे, लडकी से मुलाक़ात बाद में करा देंगे. मैंने चैन की सांस ली. कम से कम मुझे इस चक्कर में भाग दौड़ नहीं करनी पड़ेगी. जिसको गरज होगी खुद ही पालम के वायुसेना अधिकारी मेस तक आने का कष्ट करेगा. फिर जिसकी मर्जी हो, जितनी मर्जी हो मुझे देखे. एक बार निर्णय कर लिया कि चुनाव मेरे घरवाले ही करेंगे तो उस लडकी या उसके घरवालों के बारे में पूछताछ क्या करनी. माँ और पिताजी दोनों मेरी इस उदासीनता से खिन्न थे. वे चाहते थे कि उनसे उनकी पसंद की लडकी और उसके घरवालों के बारे में ढेर सारे सवाल पूछूँ ताकि अपनी ओर से वे निश्चिन्त हो जायें. पर मैंने सोचा अब जो कुछ पूछना होगा वह तभी पूछूंगा जब पहले लडकी और उसके घर वालों की तरफ से हाँ कर दी जाए. मुझे अपने घरवालों की पसंद पर इतना भरोसा था कि उन्होंने जब कहा कि वे लडकी की फोटो मेरे पास भेज रहे हैं तो मैंने उसके लिए भी मना कर दिया. पहली मेरे पास आई फ़ोटोज़ का क्या हश्र हुआ था, मुझे खूब याद था. दूध का जला छाछ को भी फूंक कर ही पीता है न.

तभी एक दिन एक सज्जन का फोन आया. बताया कि वे मेरे बड़े भाई साहेब के पुराने परिचित थे. मुझसे मिलने की बात की. मैंने पूछा किस विषय में तो बोले कि आपके लिए एक बहुत अच्छा प्रोपोज़ल है मेरे पास. मुझे गुस्सा आया. भाई साहेब भी अजीब हैं. जब उन्हें अच्छी तरह पता है कि यह ज़िम्मेदारी मैंने बाकी सबों पर छोड़ दी है तो फिर मुझे इस मुसीबत में फंसाने की क्या ज़रूरत थी. अगर रेफर करना ही था तो इन सज्जन कोम पिताजी के पास भेजते. पर ये सज्जन बार बार इतने प्यार से बीए में भाई साहेब के सहपाठी होने की दुहाई दे रहे थे कि मुझे ज़्यादा रुखाई न दिखाते बनी. मैंने बड़ी नम्रता से निवेदन किया “देखिये, मैं जीवन के सारे महत्वपूर्ण फैसले अपने बड़े बुजुर्गों पर ही छोड़ना पसंद करता हूँ. मेरे लिए कौन सा प्रस्ताव अच्छा होगा और कौन नहीं होगा, उनसे बेहतर कौन समझ सकता है?

वे मेरे उत्तर से बिलकुल गदगद हो गए. बहुत भावुक होकर बोले “आप तो एक बहुत ही आदर्श नवजवान हैं. आजकल तो नौजवान अपने माँ -बाप को घास नहीं डालते. एक आप हैं जो जानते हैं कि माँ- बाप और स्वजनों से बढ़कर और कोई हितैषी नहीं हो सकता. “

मैंने सोचा अब उन्हें जो-कुछ कहना सुनना होगा भाई साहेब या पिताजी से ही कर लेंगे, पर वे बोले “आपके भाई साहेब ने मुझे पहले ही आपके विचारों से अवगत कराया था. तभी मैंने उनसे इसकी चर्चा की थी. उन्होंने कहा था कि वे आपसे फोन पर बात कर लेंगे, लेकिन यह भी बताया कि आप अपनी ड्यूटी पर अक्सर बाहर जाते रहते हैं इसलिए आपसे बात मुश्किल से ही हो पाती है. हो सकता है उन्होंने आपको फोन लगया हो पर बात न हो सकी हो. मैं खुद आपको कई बार फोन लगाने की नाकामयाब कोशिशों के बाद आज आपसे बात कर पा रहा हूँ. ”

उनकी बात में सच्चाई थी. उस ज़माने में फोन एक आवश्यकता नहीं, एक लक्ज़री था. ट्रंक काल छोडिये, दिल्ली से पालम फोन लगाना भी एक मुसीबत थी. कोई आश्चर्य नहीं कि भाई साहेब का फोन नहीं लग पाया. मैंने नरम पड़ते हुए कहा “मुझे खुशी है कि आप मेरी बात समझ पाए, वरना आप यह भी सोच सकते थे कि मैं इतना कमज़ोर हूँ कि अपने बारे में कोई निर्णय नहीं ले पाता हूँ. ”

वे बोले “नहीं, नहीं, मुझे पता हैं कि आप एयर फ़ोर्स ऑफिसर हैं. हवाई जहाज़ उड़ाते हैं, वह भी साधारण नहीं, बल्कि वी आई पी सवारियों को बिठाकर. ड्यूटी पर रहते हुए आप एक से एक महत्वपूर्ण फैसले लेते होंगे. फिर भी जो बात आपकी निजी ज़िंदगी से ताल्लुक रखे, जिसका सम्बन्ध आपके जीवन मरण से हो, जिसे आपको ताउम्र निभाना हो, जिसका चुनाव एक बार गलत हो गया तो या तो बहुत सालों तक पछतावा बना रहेगा या बेकार में नुक्सान उठाकर उससे पिंड छुडाना होगा, उसका चुनाव यदि माँ बाप की सहमति और अनुमति से किया जाए तो इससे अधिक बुद्धिमत्ता की क्या बात होगी. ’’

दूसरों के दृष्टिकोण को इतनी अच्छी तरह से समझने वाले कम मिलते हैं. मुझे बहुत अच्छा लगा उनकी बातें सुनकर. उन्होंने अपनी बात एक क्षण के अंतराल के बाद जारी रखी. ‘फिर भी, देखिये, अंतिम निर्णय भले आप अपने बड़े बुजुर्गों पर छोड़ दें, पर एक बार पसंद आई तो उसका निर्वाह तो आपको ही करना होगा. इसलिए मैं समझता हूँ कि पूरी तरह उन्ही पर छोड़ देने की बनिस्बत बेहतर होगा कि प्रोपोज़ल को आप स्वयं सोच समझकर स्वीकार करें. आप को जो कुछ भी पूछना होगा पूछ लीजिएगा. उसे अच्छी तरह से, बारीकी से देखने के लिए आपको कुछ समय तो देना ही पडेगा. ”

मुझे उनकी बातों में सीमा से अधिक खुलापन लगा. ठीक है, लडकी दिखाना चाहते हैं तो दिखाएँ. आखिर वह भी मुझे देखना चाहेगी, पर उसे ‘बारीकी से’ देखने वाली बात मुझे ठीक नहीं लगी. पता नहीं यह इंसान उस बेचारी लडकी का सगा बाप था या सौतेला. फिर भी मैंने कहा “ ठीक है, अगर भाई साहेब से आपने बात कर ली है और उन्होंने अपनी सहमति दे दी है तो मैं हाज़िर हूँ. अगर आपको साथ लेकर आने में असुविधा हो तो आप जहाँ चाहेंगे, समय तय कर के मैं आ जाउंगा. ”

उनकी प्रसनता मैं फोन पर भी उनके स्वर में महसूस कर पा रहा था. बेचारे बहुत खुश होकर बोले “नहीं, नहीं, साथ लाने में मुझे क्या असुविधा. ऐसी भारी भरकम चीज़ तो है नहीं. ”

इस बार मैं खुश हो गया. एक सुकुमार तन्वंगी की आकृति मेरी आँखों के सामने अठखेलियाँ करने लगी. उसे बड़ी मुश्किल से परे सरका कर मैंने कहा “ठीक है, आज शाम को सात बजे आप पालम के एयर फ़ोर्स ऑफिसर्स मेस में आ जाइए. ”

पर लगा वे और बतियाने के मूड में थे. ”ठीक है” वे बोले “पर आने से पहले एक बात मैं समझना चाहूँगा कि आप जीवन भर वाला प्रस्ताव पसंद करेंगे, या दस बीस वर्षों वाला”

मेरे आश्चर्य का ठिकाना न था. यह आदमी शायद अमेरिका से सीधे चला आ रहा था. मैंने कहा “ मैं आपकी बात समझा नहीं, हमारे यहाँ तो जीवन भर साथ निभाने की ही परमपरा है. ये दस बीस वर्षों में समाप्त हो जाने वाली बात हमारे यहाँ सस्ती समझी जाती है. ”

“बिलकुल ठीक कहा आपने. सस्ती या महंगी होना इसी पर तो निर्भर करेगा कि आप कुछ समय के लिए चाहते हैं या जीवन भर साथ निभायेंगे. ”

मेरे दिमाग का पारा अचानक बहुत ऊंचा चढ़ गया. लगा वह एक दल्ले की जैसी बातें कर रहा था. पहले माँ -बाप के आदर सम्मान की बातें करके सांस्कृतिक परम्पराओं की दुहाई दे रहा था. किस कदर गए बीते किस्म के इंसान से पाला पड़ गया मेरा. मैंने चिढ़कर कहा “ आप कैसी वाहियात बातें कर रहे हैं? क्या समझ रखा है आपने मुझे?”

फोन पर अचानक चुप्पी छा गयी पर फोन काटने की आवाज़ नहीं आई. मैंने भी फोन नीचे नहीं रखा. सोचा देखता हूँ अब क्या कहता है यह दुष्ट. एकाध क्षणों की चुप्पी के बाद वह थोड़ा हकलाता हुआ सा बोला “ मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा है किस बात पर इतना नाराज़ हो रहे हैं आप. मैं तो सिर्फ इतना जानना चाहता था कि आप एंडोमेंट पॉलिसी लेना चाहेंगे या लाइफ पॉलिसी. दोनों के प्रीमियम फरक फरक होते हैं. मैंने तो बात ही इसी से शुरू की थी कि आपके लिए सही प्रोपोज़ल लेकर आउंगा और आप इसके लिए राजी भी थे. अब कौनसी गलती हो गयी मुझसे?”

सुई पटक सन्नाटा इस बार मेरी ओर से था. मेरी आँखों के सामने आई सुकोमल तन्वंगी आकृति एकदम से गायब हो गयी और उसकी जगह एक इंश्योरेंस एजेंट की छवि आ गयी. पर अब मैं उसे क्या बताता कि मैं क्या समझ बैठा था. चुपचाप फोन काटकर दुम दबा कर खिसक लेना ही उचित लगा.

क्रमशः --------